आँधी/३-दासी

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दासी


यह खेल किसको दिखा रहे हो बलराज ?-कहते हुए फीरोजा ने युवक की कलाई पकड़ ली। युवक की मुट्ठी मे एक भयानक छुरा चमक रहा था। उसने झझला कर फीरोजा की तरफ देखा । वह खिलखिला कर हँस पड़ी। फिरोजा युवती से अधिक बालिका थी। अल्लडपन चंचलता और हँसी से बनी हुई वह तुर्फ बाला सब ह यों के स्नेह के समीप थी। नीली नसा से जकड़ी हुई बलराज की पुष्ट कलाई उन कोमल उगलियों के बीच मे शिथिल हो गई। उसने कहा-फीरोजा तुम मेरे सुख मे बाधा दे रही हो।

सुख जीने मे है बलराज ! ऐसी हरी भरी दुनिया फूल वेलों से सजे हुए नदियों के सुन्दर किनारे सुनहरा सवेरा चाँँदी की रातें । इन सबो से मुँह मोड़ कर आँँख बन्द कर लेना ! कभी नहीं | सबसे बढ कर तो इसमे हम लोगों की उछल कूद का तमाशा है। मैं तुम्हें मरने न दूगी।

क्यों?

यों ही बेकार मर जाना! वाह ऐसा कभी नहीं हो सकता । जिहून के किनारे तुर्कों से लड़ते हुए मर जाना दूसरी बात थी। तब तो मैं तुम्हारी कब्र बनवाती उस पर फूल चढाती पर इस गजनी नदी के किनारे अपना छुरा अपने कलेजे मे भोक कर मर जाना बचपन भी तो नहीं है।

बलराज ने देखा सुल्तान मसऊद के शिल्पकला प्रेम की गम्भीर प्रतिमा गजनी नदी पर एक कमानीवाला पुल अपनी उदास छाया जलधारा पर डाल रहा है। उस ने कहा - वही तो न जाने क्यों मैं [ ४५ ]दासी ४५ उसी दिन नहीं मरा जिस दिन मेरे इतने वीर साथी कटार से लिपट कर इसी गजनी की गोद में सोने चले गये। फीरोजा | उन वीर आत्माओं का वह शोचनीय अत ! तुम उस अपमान को नहीं समझ सकती हो।

सुतान ने सिल्जूको से हारे हुए तुर्क और हिन्दू दोनों को ही नौकरी से अलग कर दिया। पर तुर्कों ने तो मरने की बात नहीं सोची ?

कुछ भी हो तुर्फ सुल्तान के अपने लोगों में हैं और हिदू बेगाने ही हैं। फीरोजा ! यह अपमान मरने से बढ़ कर है।

और आज किस लिए मरने जा रहे थे? वह सुन कर क्या करोगी १-कह कर बलराज छुरा फक कर एक लम्बी सास ले कर चुप हो रहा । फीरोजा ने उस का कन्धा पकड़ कर हिलाते हुए कहा-

सुनूँगी क्यों नहीं । अपनी हा उसी के लिए ! कौन है वह ! कैसी है ? बलराज गोरी सी है मेरी तरह पतली दुबली न? कानों में कुछ पहनती है ? और गले म

कुछ नहीं फीरोजा मेरी ही तरह वह भी कंगाल है । मैंने उस से कहा था कि लड़ाई पर जाऊँगा और सुल्तान की लूट म मुझे भी चादी सोने की ढेरी मिलेगी जब अमीर हो जाऊँगा तब श्राकर तुमसे ब्याह करूँगा।

तब भी मरने जा रहे थे । खाली ही लौट कर उससे भेंट करने की उसे एक बार देख लेने की तुम्हारी इच्छा न हुई | तुम बड़े पाजी हो । जाओ मरो या जियो मैं तुम से न बोलूँगी।

सचमुच फीरोजा ने मँह फेर लिया । वह जैसे रूठ गई थी। बल राज को उसके इस भोलेपन पर हँसी ना सकी । वह सोचने लगा फीरोजा के हृदय में कितना स्नेह है! कितना उल्लास है ? उसने पूछा-फीरोजा तुम भी तो लड़ाई में पकड़ी हुई गुलामी भुगत रही हो। [ ४६ ]क्या तुमने कभी अपने जीवन पर विचार किया है ? किस बात का उल्लास है तुम्हें ?

मैं अब गुलामी मे नहीं रह सकूँगी। अहमद जब हिदुस्तान जाने लगा था तभी उसने राजा साहब से कहा था कि मैं एक हजार सोने के सिक्के भेजेगा । भाई तिलक ! तुम उसे लेकर फीरोजा को छोड़ देना और वह हिदुस्तान आना चाहे तो उसे भेज देना | अब वह थैली आती ही होगी। मैं छुटकारा पा जाऊगी और गुलाम ही रहने पर रोने की कौन सी बात है। मर जाने की इतनी जल्दी क्यों ? तुम देख नहीं रहे हो कि तुर्को मे एक नयी लहर आई है । दुनिया ने उनके लिए जैसे छाती खोल दी है । जो आज गुलाम है वही कल सुल्तान हो सकता है । फिर रोना किस बात का जितनी देर हँस सकती हूँ उस समय को रोने में क्यों बिताऊ?

तुम्हारा सुखमय जीवन और भी लम्बा हो फीरोषा कि तु श्राज तुमने जो मुझे मरने से रोक दिया यह अच्छा नहीं किया ।

कहती तो हूँ वेकार न मरो । क्या तुम्हारे मरने के लिए कोई ।

कुछ भी नहीं फीरोला । हमारी धार्मिक भावनाएँ बँटी हुई हैं सामा जिक जीवन दम्भ से और राजनीतिक क्षेत्र कलह और स्वार्थ से जकड़ा हुआ है । शक्तिया हैं पर उनका कोई केन्द्र नहीं । किस पर अभिमान हो किसके लिए प्राण दें?

दुत चले जाओं हिदुस्तान में मरने के लिए कुछ खोजो। मिल ही जायगा जाओ न कही वह तुम्हारी मिल जायें तो किसी झोपड़ी ही में काट लेना । न सही अमीरी किसी तरह तो कटेगी। जितने दिन जीने के हों उन पर भरोसा रखना ।

बलराज । न-जाने क्यों मैं तुम्हें मरने देना नहीं चाहती। वह तुम्हारी राह देखती हुई कहीं जी रही हो तब ! आह ! कभी उसे देख पाती [ ४७ ]दासी तो उसका मुहँ चूम लेती। कितना प्यार होगा उसके छोटे-से हृदय मालो ये पाच दिरम मुझे कल राजा साहब ने इनाम फ दिए हैं। इहें लेते जाओ । देखो उससे जाकर भेंट करना। फीरोजा की आखों मे आसू भरे थे तब भी वह जैसे हँस रही थी। सहसा वह पाच धातु के टुकड़ों को बलराज के हाथ पर रख कर झाड़ियों में घुस गई । बलराज चुपचाप अपने हाथ पर के उन चमकीले टुकड़ों को देख रहा था। हाथ कुछ झुक रहा था । धीरे धीरे टुकड़े उसके हाथ से खिसक पडे ।- वह बेठ गया—सामने एक पुरुष खड़ा हुआ मुस्करा रहा था।

बलराज राजा साहब 1-जैसे श्राख खोलते हुए बलराज ने कहा और उठ कर खड़ा हो गया। में सब सुन रहा था । तुम हि दुस्तान चले जाओ भी तुमको यही सलाह दूंगा । कि तु एक बात है। वह क्या राजा साहब १ मैं तुम्हारे दुख का अनुभव कर रहा हूँ। जो ब ते तुमने अभी फीरोजा से कही हैं उह सुनकर मेरा हुत्य विचलित हो उठा है । किंंतु क्या करू । मने श्राकांक्षा का नशा पी लिया है । वही मुझे वेबस किये है| जिस दुःख से मनुष्य छाती फाड़कर चिल्लाने लगता हो सिर पीटने लगता हो वसी प्रतिकूल परिस्थितियों म भी मैं केवल सिर नीचा कर चुप रहना अच्छा समझता हूँ। क्या ही अच्छा होता कि जिस सुख मे पान दातिरेक से मनुष्य उमत्त हो जाता है उसे भी मुस्करा कर टाल दिया करूँ । सो नहीं होता। एक साधारण स्थिति से मैं सुल्तान के सलाहकारों के पद तक तो पहुँच गया हूँ। मैं भी हिदुस्तान का ही [ ४८ ] एक कंगाल था । प्रतिदिन की मर्यादा वृद्धि राजकीय विश्वास और उसम सुख की अनुभूति ने मेरे जीवन को पहेली बनाकर जाने दो । मैंने सुतान के दरबार से जितना सीखा है वही मेरे लिए बहुत है। एक बनावटी गम्भीरता! छल पूर्ण विनय ! श्रोह कितना भीषण है यह विचार !मैं धीरे धीर इतना बन गया हूँ कि मेरी सहृदयता घूघट उलटने नहीं पाती लोगों को मेरी छाती में हृदय होने का स देह हो चला है। फिर मैं तुमसे अपनी सहृदयता क्यों प्रकट करू १ तब भी आज तुमने मेरे स्वभाव की धारा का बाँध तोड़ दिया है । आज मैं ।

बस राजा साहब और कुछ न कहिए । मैं जाता हूँ। मैं समझ गया कि ठहरो मुझे अधिक अवकाश नहीं है। कल यहा से कुछ विद्रोही गुलाम अहमद निया तगीन के पास लाहौर जानेवाले हैं उन्हीं के साथ तुम चले जाओ । यह लो-कहते हुए सु तान के विश्वासी राजा तिलक ने बलराज के हाथों में थैली रख दी। अलराज वहाँ से चुपचाप चल पड़ा।

तिलक सु तान महमूद का अय त विश्वासपान हि कर्मचारी या। अपने बुद्धि बल से कहर यवनों के बीच म अपनी प्रतिष्ठा दृढ रखने के कारण सुल्तान मसऊद के शासन काल म भी वह उपेक्षा का पात्र नहीं था। फिर भी वह अपने को हिन्दू ही समझता था चाहे अन्य लोग उसे कुछ समझते रहे हों। बलराज की बातें वह सुन चुका था। आज उसकी मनोवृत्तियों म भयानक हलचल थी । सहसा उसने पुकारा-फीरोजा।

झाड़ियों से निकल कर फीरोजा ने उसके सामने सिर झुका दिया तिलक ने उसके सिर पर हाथ रखते हुए कोमल स्वर में पूछा-फीरोजा, तुम अहमद के पास हिदुस्तान जाना चाहती हो । [ ४९ ] दासी फीरोजाबाद के हृदय में कम्पन होने लगा । वह कुछ न बोली । तिलक ने कहा - डरो मत साफ साफ कहो ।

क्या अहमद ने आपके पास दीनारें भेज दीं-कहकर पीरोजा ने अपनी उत्कएठा भरी आंख उठाई । तिलक ने हँसकर कहा-सो तो उसने नहीं भेजी तब भी तुम जाना चाहती हो तो मुझसे कहो।

मैं क्या कह सकती हूँ। जैसी मेरी । कहते कहते उसकी आँखों में आंसू छलछला उठे । तिलक ने कहा-पीरोजा तुम जा सकती हो । कुछ सोने के टुकड़ों के लिए मैं तुम्हारा हृदय नहीं कुछ लेना चाहता।

सच आश्चर्य भरी कृतज्ञता उसकी वाणी में थी।

सच फीरोजा ! अहमद मेरा मित्र है । और भी एक काम के लिए तुमको भेज रहा हूँ। उसे जाकर समझायो कि वह अपनी सेना लेकर पंजाब के बाहर इधर उधर हिंदुस्तान में लूट-मार न किया कर। मैं कुछ ही दिनों में सुतान से कह कर खजाने और मालगुजारी का अधिकार भी उसी को दिला दूंगा | थोड़ा समझ कर धीरे-धीरे काम करने से सब हो जायेगा । समझा न दरबार में इस पर बड़ी गर्मागर्मी है कि अहमद, की नियत खराब है। कहीं ऐसा न हो कि मुझी को सुल्तान इस काम के लिए भजे।

फीरोजाबाद मैं हिंदुस्तान नहीं जाना चाहता । मेरी एक छोटी बहन थी वह कहा है ? क्या दुख उसने पाया ? मेरी लिए जीती है इन कई बरसों से मैंने इसे जानने की चेष्टा भी नहीं की और भी मैं हिदू हूँ फीरोजा ! आज तक अपनी आकांक्षा में भूला हुआ अपने आराम में मस्त अपनी उन्नति में विस्मृत, गजनी में बैठा हुआ हिंदुस्तान को अपनी जन्मभूमि को और उसके दुख दर्द को भूल गया हूँ। सुल्तान महमूद के लूटों की गिनती करना उस रक्त रंजित धन की तालिका बनाना हिंदुस्तान के ही शोषण के लिए सुस्ताने को नयी नयी तरकीबें [ ५० ] बताना यही तो मेरा काम था जिससे आज मेरी इतनी प्रतिष्ठा है । दूर रह कर मैं सब कुछ कर सकता था पर हिंदुस्तान कहीं मुझे जाना पड़ा। उसकी गोद में फिर रहना पड़ा तो मैं क्या करूंगा! फीरोजाबाद मैं वहाँ जाकर पागल हो जाऊंगा । मैं चिर निर्वासित विस्मृत अपराधी । इरावती मेरी बहन । आह मैं उसे क्या मुंह दिखलाऊँगा। वह कितने कष्टों में जीती होगी ! और मर गई हो तो फीरोजा । अहमद से कहना मेरी मित्रता के नाते मुझे इस दुख से बचा ले।

मैं जाऊँगी और इरावती को खोज निकालूंगी -राजा साहय । आपके हृदय में इतनी टीस है आज तक मैं न जानती थी। मुझे यही मालूम था कि अनेक अ य तुर्क सरदारों के समान आप भी रंग रलियों में समय बिता रहे हैं किन्तु बर्फ से ढकी हुई चोटियों के नीचे भी पालामुखी होती है।

तो जालो फीरोजा ! मुझे बचाने के लिए | उस भयानक आग से जिस से मेरा हृदय जल उठता है मेरी रक्षा करो। कहते हुए राजा तिलक उसी जगह बैठ गये । पीरोजा खड़ी थी। धीरे-धीरे राजा के मुख पर एक स्निग्धता चली। यह अंधकार हो चला । गजनी की लहरों पर शीतल पवन उन झाड़ियों में भरने लगा था। सामने ही राजा साहब का महल था। उसका शुभ्र गुम्बद उस अंधकार में अभी अपनी उज्ज्वलता से सिर ऊँचा किये था। तिलक ने कहा-फीरोजा जाने के पहले अपना वह गाना सुनाती जाओ। फीरोजा गाने लगी। उसके गीत की ध्वनि थी--मैं जलती हुई दीप शीखा हूँ और तुम हृदय रञ्जन प्रर्याप्त हो । जब तक देखती नहीं जला करती हूँ और तुम्हें जब देख लेती हूँ तभी मेरे अस्तित्व का अंत हो जाता है मेरे प्रियतम [ संध्या की अँधेरी झाड़ियों में गीत की गुजार घूमने लगी। xx [ ५१ ] दासी ५१ यदि एक बार उसे फिर देख पाता पर यह होने का नहीं। निष्ठुर नियमित ! उसकी पवित्रता कपिल हो गई होगी। उसकी उज्ज्वलता परम संसार के काले हाथों ने अपनी छाप लगा दी होगी। तब उससे भेंट करके क्या करूँगा ? क्या करूँगा । अपने कल्पना के स्वर्ण मंदिर का खंडहर देख कर ! कहते-कहते बलराज ने अपने बलिष्ठ पंजों को पथरों से जकड़े हुए मंदिर के प्रांतीय पर दे मारा। वह शब्द एक क्षण में विलीन हो गया। युवक ने भारत आँखों से उस विशाल मंदिर को देखा और वह पागल सा उठ खड़ा हुआ । परिक्रमा के ऊँचे ऊँचे खंभों से धक्के खाता हुआ धूमने लगा।

गर्भ-ग्रह के द्वारपालों पर उसकी दृष्टि पड़ी। वे तेल से चुपड़े हुए काले काले दूत अपने भीषण त्रिशुल से जैसे युवक की ओर संकेत कर रहे थे। वह ठिठका गया । सामने देवास के समीप घृत का अखण्ड दीप जल रहा था । केवल कस्तूरी और अगर से मिश्रित फूलों की दिव्य सुगंध की झकझोर रह रह कर भीतर से आ रही थी। विद्रोही हृदय प्रणत होना नहीं चाहता था परंतु सिर सम्मान से झुक ही गया ।

देव । मैंने अपने जीवन में जान बूझ कर कोई पाप नहीं किया है। मैं किसके लिए क्षमा मांगू । गजनी के सुल्तान की नौकरी यह मेरे वंश की नहीं किन्तु मैं मांगता हूँ एक बार उस अपनी प्रेम प्रतिमा का दर्शन ! कृपा करो। मुझे बचा लो।

प्रार्थना करके युवक ने सिर उठाया ही था कि उसे किसी को अपने पास से खिसकने का सन्देह हुआ । वह घूम कर देखने लगा। एक स्त्री कौशेय वस्त्र पहने हाथ में फूलों से सजी डाली लिए चली जा रही थी। युवक पीछे पीछे चला । परिक्रमा में एक स्थान पर पहुँच कर उसने संदिग्ध स्वर से पुकारा-इरावती । वह स्त्री घूम कर खड़ी हो गई । बलराज अपने दोनों हाथ पसार कर उसे आलिंगन करने के लिए दौड़ा । इरावती ने कहा-ठहरो । बलराज ठिठक कर उसकी गम्भीरता [ ५२ ] मुखाकृति को देखने लगा। उसने पूछा-क्यों इरा ! क्या तुम मेरी वाग्दत्ता पनी नहीं हो ? क्या हम लोगों का वह्नि वदी के सामने परिणय नहीं होने वाला था? क्या ।

हा होनेवाला था किंतु हुआ नहीं और बलराज ! तुम मेरी रक्षा नहीं कर सक | में श्राततायी के हाथ से कलंकित की गयी। फिर तुम मुझे पक्षी-रूप से कैसे ग्रहण करोगे ? तुम वीर हो । पुरुष हो । तुम्हारे पुरुषार्थ के लिए बहुत सी मह वाकांक्षाएँ हैं। उहें खोज लो मुझे भगवान् की शरण में छोड़ दो। मेरा जीवन अनुताप की वाला से मुलसा हुआ मेरा मन अब स्नेह के योग्य नहीं ।

प्रेम की पवित्रता की परिभाषा अलग है इय! मैं तुमको प्यार करता हूँ। तुम्हारी पविनता से मेरे मन का अधिक सम्ब ध न भी हो सकता है। चलो हम और कुछ भी हो मेरे प्रेम की वहि तुम्हारी पवित्रता को अधिक उज्ज्वल कर देगी।

भाग चलूँ क्यों ? सो नहीं हो सकता। मैं क्रीत दासी हूँ। म्लेच्छों ने मुझे मुलतान की लूट म पकड़ लिया । मैं उनकी कठोरता म जीवित रह कर बराबर उनका विरोध ही करती रही । नित्य कोड़े लगते । बाँध कर मैं लटकाई जाती । फिर भी मैं अपने हठ से न डिगी। एक दिन कन्नौज के चतुष्पद पर घोड़ों के साथ ही बेचने के लिए उन आततायिया ने मुझे भी खड़ा किया। मैं विकी पाँच सौ दिरम पर काशी के ही एक महाजन ने मुझे दासी बना लिया। बक्षराज ! तुमने न सुना होगा कि मैं किन नियमों के साथ बिकी हूँ मैंने लिखकर स्वीकार किया है इस घर का कुसित से भी कुत्सित कर्म फलंगी और कभी विद्रोह न करूगी। न कभी भागने की चेष्टा कलगी न किसी के कहने से अपने स्वामी का अहित सोचूंगी । यदि मैं आमहत्या भी कर बाखू, तो मेरे स्वामी या उनके कुटुम्ब पर कोई दोष न लगा सकेगा। वे गंगा-स्नान किये से पवित्र हैं। मेरे सम्बध में वे सदा ही शुद्ध और निष्पाप हैं। [ ५३ ] मेरे शरीर पर उनका आजीवन अधिकार रहेगा । वे मेरे नियम विरुद्ध आचरण पर जब चाहें राजपथ पर मेरे बालों को पकड़ कर मुझे घसीट सकते हैं । मुझे दण्ड दे सकते हैं । मैं तो मर चुकी हूँ। मेरा शरीर पाँच सौ दिरम पर जी कर जब तक सहेगा खटेगा । व चाहें तो मुझे कौड़ी के मोल भी किसी दूसरे के हाथ बेंच सकते हैं । समझा ! सिर पर तृण रख कर मैंने स्वयं अपने को बेचने में स्वीकृति दी है। उस सत्य को कैसे तोड़ दूं।

बलराज ने लाल होकर कहा-इरावती यह असत्य है सत्य नहीं। पशुओं के समान मनुष्य भी बिक सकते हैं ? मैं यह सोच भी नहीं रह सकता । यह पाखण्ड तुर्की घोड़ों के मैं पागल व्यापारीयों ने फैलाया है । तुमने अनजाने में जो प्रतिज्ञा कर ली है वह ऐसा सत्य नहीं कि पालन किया जाये । तुम नहीं जानती हो कि तुमको खोजने के लिए ही मैंने यवनों की सवा की।

क्षमा करो बलराज मैं तुम्हारा तर्क नहीं समझ सकी । मेरी स्वामिनी का रथ दूर चला गया होगा तो मुझे बातें सुननी पड़ेगी। क्योंकि आज कल मेरे स्वामी नगर से दूर स्वास्थ्य के लिए उपवन में रहते हैं । स्वामिनी देव दर्शन के लिए आई थीं।

तब मेरा इतना परिश्रम व्यर्थ ही हुआ । फीरोजा ने व्यर्थ ही आशा दी थी । मैं इतने दिनों भटकता फिरा । इरावती ! मुझ पर दया करो।

फीरोजा कौन !-फिर सन्सा रुक कर इरावती ने कहा-क्या करूँ । यदि मैं वैसा करती तो मुझे इस जीवन की सबसे बड़ी प्रसन्नता मिलती कि तु मेरे भाग्य में है कि नहीं इसे भगवान ही जानते होंगे ? मुझे अब जाने दो। बलराज इस उत्तर से खिन्न और चकराया हुआ काठ के किवाड़ की तरह ह्रावती के सामने अलग होकर मंदिर के प्रचार से लग गया । इरावती चली गई। बलराज कुछ [ ५४ ] आँँधी समय तक स्तष और शन्य सा वहीं खड़ा रहा । फिर सहसा जिस ओर इरावती गई थी उसी ओर चल पड़ा।

युवक बलराज कई दिन तक पागलों सा धनदत्त के उपवन से नगर तक चक्कर लगाता रहा । भूख प्यास भूल कर वह इरावती को एक बार फिर देखने के लिए विकल्प था कि वह सफल न हो सका । आज उसने निश्चय किया था कि वह काशी छोड़ कर चला जायगा । वह जीवन से हताश होकर काशी से प्रतिष्ठान जानेवाले पथ पर चलने लगा। उसकी पहाड़ के टोके-सी काया जिसमें असुर सा बल होने का लोग अनुमान करते निर्जीव-सी हो रही थी । अनाहार से उसका मुख विवरण था। यह सोच रहा था उस दिन विश्वनाथ के मन्दिर में न जाकर मैंने आमहत्या क्यों न कर ली! वह अपनी उधेड़बुन में चल रहा था। न जाने कब तक चलता रहा । वह चौंक उठा जब किसी के डांटने का शब्द सुनाई पड़ा देख कर नहीं चलता | बलराज ने चौक कर देखा अश्वारोहियों की एक लम्बी पंक्ति जिसमें अधिकतर अपने घोड़ों को पकड़े हुए पैदल ही चल रहे थे। ये सब तुर्फ थे । घोड़ों के व्यापारी से जान पड़ते थे । गजनी के प्रसिद्ध महमूद के आक्रमणों का अंत हो चुका था। मसऊद सिंहासन पर था। पंजाब तो गजनी के सेनापति नियाल्तगीन के शासन में था । मध्य प्रदेश में भी तुर्क व्यापारी अधिकतर व्यापारिक प्रभुत्व स्थापन करने के लिए प्रयत्न कर रहे थे। वह राह छोड़ कर हट गया । श्रश्वारोही ने पूछा- बनारस कितनी दूर होगा ! बलराज ने कहा मुझे नहीं मालूम ।

तुम अभी उधर ही से चले आ रहे हो और कहते हो नहीं मालूम । ठीक ठीक बताओ नहीं तो ।

नहीं तो क्या ? मैं तुम्हारा नौकर हूँ। कहकर वह आगे बढ़ने लगा । अकस्मात् पहले अश्वारोही ने कहा-पकड़ लो इसको! [ ५५ ] कौन ! नियाल्तगीन !- सहसा बलराज चिला उठा।

अच्छा यह तुम्ही हो बलराज | यह तुम्हारा क्या हाल है क्या सुतान की सरकार में अब तुम काम नहीं करते हो?

नहीं सुतान मसऊद का मुझ पर विश्वास नहीं है। मैं ऐसा काम नहीं करता जिसमें सदेह मेरी परीक्षा लेता रहे किन्तु इधर तुम लोग क्यों ?

सुना है बनारस एक सुन्दर और धनी नगर है। और और क्या ?

कुछ नहीं देखने चला आया हूँ। काजी नहीं चाहता कि कन्नौज के पूरब भी कुछ हाथ पाच बढाया जाय । तुम चलो न मेरे साथ । मैं तुम्हारी तलवार की कीमत जानता हूँ। बहादुर लोग इस तरह नहीं रह सकते । तुम अभी तक हिंदू बने हो। पुरानी लकीर पीटनेयाले जगह-जगह झुकनेवाले सब से दबते हुए बचते हुए कतराकर चलने वाले हिन्दू । क्यों ? तुम्हारे पास बहुत सा कूड़ा कचड़ा इकट्ठा हो गया है उनका पुरानेपन का लोम तुमको फेंकने नहीं देता ? मन में नयापन तथा दुनिया का उल्लास नहीं आने पाता | इतने दिन हम लोगों के साथ रहे फिर भी ।

बलराज सोच रहा था इरावती का वह सूखा “यवहार! सीधा सीधा उत्तर । क्रोध से वह अपना श्रोठ चबाने लगा। नियाल्तगीन बलराज को परख रहा था। उसने कहा-तुम कहाँ हो १ बात क्या है ?ऐसा बुझा हुश्रा मन क्यों?

बलराज ने प्रकृतिस्थ होकर कहा -कहीं तो नहीं। अप मुझे छुट्टी दो मैं जाऊँ। तुम्हारा बनारस देखने का मन है-इस पर तो मुझे विश्वास नहीं होता तो भी मुझे इससे क्या ? जो चाहे करो। संसार [ ५६ ]आँधी - भर म किसी पर दया करने की आवश्यकता नहीं । लूटो काटो मारो जानो नियाल्तगीन !

नियाल्तगीन ने हँस कर कहा-पागल तो नहीं हो। इन थोड़े से आदमियों से भला क्या हो सकता है । मैं तो एक बहाने से इधर पाया हूँ। फीरोजा का बनारसी जरी के कपड़ों का

क्या फीरोजा भी तुम्हारे साथ है ?

चलो पड़ाव पर सब आप ही मालूम हो जायेगा !- कहकर नियाल्तगीन ने सकेत किया । बलराज क मन म न जाने कैसी प्रसन्नता उमड़ी।वह एक तुर्की घोड़े पर सवार हो गया।

 ×      ×      ×

उमड़ी। वह एक तुर्की घोड़े पर सवार हो गया। दोना ओर जवाहरात जरी के कपड़ा बतन तथा सुगन्धित द्रव्यों की सजी हुई दूकानों से देश विदेश के व्यापारियों की भीड़ और बीच बीच मे एक घोड़े के रथों से बनारस की पथर से बनी हुई चौड़ी गलिया अपने ढंग की निराखी दिखती थीं। प्राचीरों से घिरा हुआ नगर का प्रधान भाग त्रिलोचन से लेकर राजघाट तक विस्तृत था। तोरणों पर गागेय देव के सैनिकों का जमाव था । कन्नौज के प्रतिहार सम्राट् स काशी छीन ली गई थी। त्रिपुरी उस पर शासन करती थी। ध्यान से देखने पर यह तो प्रकट हो जाता था कि नागरिको म अव्यवस्था थी। फिर भी ऊपरी काम-काज क्रय विक्रय यात्रियों का आवागमन चल रहा था।

फीरोजा कमख्वाब देख रही थी और नियाल्तगीन मणि मुक्ताओं की देरी से अपने लिए अच्छे अच्छे नग चुन रहा था। पास ही दोनों दूकानें थीं। बलराज बीच में खड़ा था। अयमनस्क फीरोजा ने कई थान, छाट लिये थे । उसने कहा बुलराज ! देखो तो इहे तुम कैसा समझते हो। हैं न अच्छे । उधर से निया तगीन ने पूछा कपड़े देख चुकी हो तो इधर श्राश्री । इहें भी देख न लो। फीरोजा उधर [ ५७ ]दासी जाने लगी थी कि दूकानदार ने कहा लेना न देना झूठमूठ तग करना । कभी देखा तो नहीं । कंगालों की तरह जैसे श्राखों से देख कर ही खा जायगी । फीरोजा घूम कर खड़ी हो गई। उसने पूछा-क्या बकते हो ?--जा जा तुर्कीस्तान के जगलों में भेड़ चरा । इन कपड़ों का लेना तेरा काम नही सटी हुई दूकान से जौहरी अभी कुछ बोलना ही चाहता था कि बलराज ने कहा- चुप रह न तो जीभ खींच लूँगा ।

ओहो । तुर्की गुलाम का दास तू भी । अभी इतना ही कपड़े वाले के मुँह से निकला था कि नियास्तगीन की तलवार उसके गले तक पहुंच गई। बाजार म हलचल मची। नियाल्तगीन के साथी इधर-उधर बिखरे ही थे। कुछ तो वहीं आ गये। औरों को समाचार मिल गया । झगड़ा पढने लगा निया तगीन को कुछ लोगों ने घेर लिया था कि तु तुका ने उसे छीन लेना चाहा। राजकीय सनिक पहुँच गये। निया तगीन को यह मालूम हो गया कि पड़ाव पर समाचार पहुच गया है। उसने निर्भीकता से अपनी तलवार घुमाते हुए कहा-अच्छा होता कि झगड़ा यहीं तक रहता नहीं तो हम लोग तुर्फ हैं।

तुर्कों का आतंक उत्तरीय भारत म फैल चुका था। क्षण भर के लिए सनाटा तो हुश्रा पर तु वणिक के प्रतिशोध के लिए नागरिका का रोष उगल रहा था। राजकीय सैनिकों का सहयोग मिलते ही युद्ध आरम्भ हो गया अब और भी तुर्क श्रा पहुंचे थे। नियाल्तगीन हँसने लगा। उसने तुर्की म संकेत किया । यनारस का राजपथ तुर्कों की तलवार से पहली बार आलोकित हो उठा।

निया तगीन के साथी सघटित हो गये थे। व केवल युद्ध और आम रक्षा ही नहीं कर रहे थे बहुमूल्य पदार्थों की लूट भी करने लगे। बलराज स्तध था। वह जैसे एक स्वप्न देख रहा था। अकस्मात् उसके कानों म एक परिचित स्वर सुनाई पड़ा। उसने घूम कर देखा[ ५८ ]जौहरी के गले पर तलवार पड़ा ही चाहती है और इरावती इसे छोड़ दो न मारो कहती हुई तलवार के सामने आ गई थी । बलराज ने कहा-ठहरो निया तगीन । दूसरे ही क्षण नियाल्तगीन की कलाई बलराज की मुठ्ठी में थी। निया तगीन ने कहा-धोखेबाज काफिर यह क्या कई तुर्क पास आ गये थे। फीरोजा का भी मुख तमतमा गया था बलराज ने संबल होने पर भी बड़ी दीनता से कहा-फीरोजा यही इरावती है ।फीरोजा हँसने लगी। इरावती को पकड़ कर उसने कहा नियाल्तगीन । बलराज को इसके साथ लेकर मैं चलती हूँ तुम आना। और इस जौहरी से तुम्हारा नुकसान न हो तो न मारो। देखो बहुत से धुड़सयार ना रहे हैं । हम सबों का चलना ही अच्छा है।

नियाल्तगीन ने परिस्थिति एक क्षण में ही समझ ली। उसने जौहरी से पूछा तम्हारे घर में दूसरी ओर से बाहर जाया जा सकता है।

हाँ!- कँपे करठ से उत्तर मिला।

अच्छा चलो तुम्हारी जान बच रही है। मैं इरावती को ले जाता हूँ।कह कर निया तगीन ने एक तुर्क के कान में कुछ कहा और बलराज को आगे चलने का संकेत कर के इरावती और फीरोजा के पीछे धनदत्त के घर में घुसा । इधर तुर्क एकत्र होकर प्रत्यावर्तन कर रहे थे। नगर की राजकीय सेना पास आ रही थी।

चंद्रभागा के तट पर शिविरों की एक श्रेणी थी। उसके समीप ही घने वृक्षों की झुरमुट में इरावती और फीरोजा बैठी हुई सायंकालीन गंभीरता की छाया में एक दूसरे का मुंह देख रही हैं। फीरोजा ने कहा- बलराज को तुम प्यार करती हो। [ ५९ ] मैं नहीं जानती।-एक श्राकस्मिक उत्तर मिला। और वह तो तुम्हारे ही लिए गजनी से हिन्दुस्तान चला आया। तो क्यों जाने दिया वहीं रोक रखतीं । तुमको क्या हो गया है।

मैं-मैं नहीं रही मैं हूँ दासी कुछ धातु के टुकड़ों पर बिकी हुई गड़ मांस का समूह जिसके भीतर एक सूखा हृदय पिण्ड है। इरा । वह मर जायेगा । पागल हो जायेगा। और मैं क्या हो जाऊँ फीरोजा ? अच्छा होता तुम भी मर जाती !-तीखेपन से फीरोजा ने कहा ।

इरावती चौंक उठी। उसने कहा-बलराज ने वह भी न होने दिया। उस दिन निया तगीन की तलवार ने यही कर दिया होता किन्तु मनुष्य बड़ा स्वार्थी है। अपने सुख की प्राशा में वह कितनों को दुखी बनाया करता है। अपनी साध पूरी करने में दूसरों की आवश्यकता ठुकरा दी जाती है। तुम ठीक कह रही हो फीरोजा मुझे ।

ठहरी इरा ! तुमने मन को कावा बना कर मेरी बात सुनी है। उतनी ही तेजी से उसे बाहर कर देना चाहती हो।

मेरे दुखी होने पर जो मेरे साथ रोने आता है उसे मैं अपना मित्र नहीं जान सकती फीरोजा । मैं तो देखेगी कि वह मेरे दुख को कितना कम कर सका है । मुझे दुख सहने के लिए जो छोड़ जाता है केवल अपने अभिमान और आकाक्षा की दृष्टि के लिए मेरे दुःख में हाथ बढाने का जिस का साहस नहीं जो मेरी परिस्थिति में साथी नहीं बन सकता जो पहले अमीर बनना चाहता है फिर अपने प्रेम का दान करना चाहता है वह मुझ से हृदय मागे इस से बढ़ कर धृष्टता और क्या होगी? [ ६० ] मैं तुम्हारी बहुत सी बातें नहीं समझ सकी लेकिन मैं इतना तो कहूँगी कि दुखों ने तुम्हारे जीवन की कोमलता छीन ली है ।

फीरोजा मैं तुम से बहस नहीं करना चाहती। तुम ने मेरा प्राण बचाया है सही कित हृदय नहीं बचा सकती। उसे अपनी खोज खबर आप ही लेनी पड़ेगी। तुम चाहे जो मुझे कह लो । मैं तो समझती हूँ कि मनुष्य दूसरों की दृष्टि में कभी पूर्ण नहीं हो सकता! पर उसे अपनी आंखों से तो नहीं गिरना चाहिए।

फीरोजा ने संदेह से पीछे की ओर देखा । बलराज वृक्ष की आड़ से निकल आया । उसने कहा-फीरोजा मैं जब गजनी के किनारे मरना चाहता था तो क्या भला कर रहा था । अच्छा जाता हूँ। इरावती सोच रही थी अब भी कुछ बोलूं-

फीरोजा सोच रही थी दोनों को मरने से बचा कर क्या सचमुच मैंने कोई बुरा काम किया। बलराज की ओर किसी ने न देखा । वह चला गया ।

रावी के किनारे एक सुन्दर महल में अहमद नया रंगीन पंजाब के सेनानी का आवास है । उस महल के चारों ओर वृक्षों की दूर तक फैली हुई हरियाली है जिसमें शिविरा की श्रेणी में तुर्क सैनिकों का निवास है।

वसंत की चांदनी रात अपनी मतवाली उज्ज्वलता में महल के मीनारों और गुम्बदों तथा वृक्षों की छाया में लड़खरा रही है अब जैसे सोना चाहती हो । चन्द्रमा पश्चिम में धीरे-धीरे झुक रहा था। रावी की ओर एक संगमरमर की दालान में खाली सेज बिछी थी। ज़री के पर्दे ऊपर की ओर बँध थे। दालान की सीढ़ी पर बैठी हुई इरावती रावी का प्रवाह देखते देखते सोने लगी थी-उस महल की सजावट जैसे गुलाबी पत्थर की अचल प्रतिमा हो। [ ६१ ] शयन कक्ष की सेवा का भार आज उसी पर था । वह अहमद के.आगमन की प्रतीक्षा करते करते सो गई थी। अहमद इन दिनों गजनी से मिने हुए समाचार के कारण अधिक व्यस्त था। सुल्तान के रोष का समाचार उसे मिल चुका था। वह फीरोजा से छिपा कर अपने अतरंग साथियों से जिन पर उहें विश्वास था निस्तध रात्रि म मंत्रणा किया करते । पजाब का स्वतन शासक बनने की अभिलाषा उसके मन मे जग गई थी फीरोजा ने उसे मना किया था कि एक साधारण तुर्क दासी के विचार राजकीय कामो मे कितने मूय के हैं इसे वह अपनी महत्वकांक्षा की दृष्टि से परखता था । पीरोजा कुछ तो रूठी थी और कुछ उसकी तबीयत भी अच्छी न थी । वह बाद कमरे में जाकर सो रही। अनेक दासियों के रहते भी आज इरावती को ही वहां ठहरने के लिए उसने कह दिया था। अहमट सीढियों से चढ कर दालान के पास आया । उसने देखा एक वे नाविमण्डित सुप्त सौदर्य! वह और भी समीप आया । गुम्बद के गल च द्रमा की किरणें ठीक इरावती के मुख पर पड़ रही थीं। अहमद ने वारुणी विलसित नेनों से देखा उस रूप माधुरी को जिसम स्वाभाविकता थी बनावट नहीं । तरावट थी प्रमाद की गर्मी नहीं । एक बार सशक दृष्टि से उसने चारों ओर देखा फिर इरावती का हाथ पकड़ कर हिलाया । वह चौंक उठी। उसने देखा सामने अहमद | इरावती खड़ी हो कर अपने वस्त्र सँभालने लगी। अहमद ने सकोच भरी दिठाई से कहा-

तुम यहाँ क्यों सो रही हो इरा ? थक गई थी। कहिए क्या ले आऊँ ?

थोड़ी शीराजी-कहते हुए वह पलंग पर जा कर बैठ गया और इरावती का स्फटिक पात्र में शीराजी उँडेलना देखने लगा। इरा ने जब पात्र भर कर अहमद को दिया तो अहमद ने सतृष्ण नेत्रों से उसकी ओर देख कर पूछा-फीरोजा कहाँ है । [ ६२ ]आँँधी सिर में दर्द है भीतर सो रही है । अहमद की श्राखों में पशुता नाच उठी। शरीर में एक सनसनी का अनुभव करते हुए उसने इरावती का हाथ पकड़ कर कहा-बैठो न इरा ! तुम थक गई हो।

आप शर्बत पी लीजिए । मैं जाकर फीरोजा को जगा हूँ। श्रीरोज़ा! फीरोजा के हाथ मैं बिक गया हूँ क्या इरावती! तुम-आह !

इरावती हाथ छुड़ाकर हटनेवाली ही थी कि सामने फीरोजा खड़ी थी। उसकी श्राखों में तीन वाला थी। उसने कहा-मैं बिकी हूँ अहमद । तुम भला मेरे हाथ क्यों बिकने लगे। लेकिन तुमको मालूम है कि तुमने अभी राज तिलक को मेरा दाम नहीं चुकाया इसलिए मैं जाती हूँ।

अहमद हत-बुद्धि | निष्पम ! और फीरोजा चली । इरावती ने गिड़गिड़ा कर कहा-बहन मुझे भी न लेती चलोगी ?

फीरोना ने घूमकर एक बार स्थिर दृष्टि से इरावती की ओर देखा और कहा-तो फिर चलो। दोनों हाथ पकड़े सीढी से उतर गई।

बहुत दिनों तक विदेश म इधर-उधर भटकने पर बलराज जब से लौट आया है तब से च द्रभागा तट क जाटों म एक नयी लहर था गई है। बलराज ने अपने सजातीय लोगों को पराधीनता से मुक्त होने का संवेश सुना कर उहे सुतान सरकार का अबाध्य बना दिया है । उद्दंड जाटों को अपने वश म रखना उन पर सदा फौजी शासन करना सुतान के कर्मचारियों के लिए भी बड़ा कठिन हो रहा था।

इधर फीरोजा के जाते ही गृहमद अपनी कोमल वृत्तियों को भी [ ६३ ] खो बैठा । एक ओर उसके पास मसऊद के रोष के समाचार पाते थे दूसरी ओर वह जाटों की हलचल से खजाना भी नहीं भेज सकता था। वह झुझला गया। दिखावे में तो अहमद ने जाटों को एक बार ही नष्ट करने का निश्चय कर लिया और अपनी दृढ़ सेना के साथ वह जाटों को घेरे में डालते हुए बढ़ने लगा कि तु उसके हृदय में एक दूसरी ही बात थी। उसे मालूम हो गया था कि गजनी की सेना तिलक के साथ आ रही है। उसकी कल्पना का साम्राज्य यह छिन भिन्न कर देने के लिए। उसने अंतिम प्रयत्न करने का निश्चय किया | अंतरंग साथियों की स्मृति हुई कि यदि विद्रोही जाटों को इस समय मिला लिया जाय तो गजनी से पंजाब आज ही अलग हो सकता है। इस चढ़ाई में दोनों मतलब थे।

घने जंगल का प्रारम्भ था । वृक्षों के हरे अंचल की छाया में थकी हुई दो युवतियां उनकी जड़ों पर सिर धरे हुए लेटी थीं। पथरीले टीलों पर पड़ती हुई घोड़ों की टापा के ने उन्हें चौंका दिया । वे अभी उठ कर बैठ भी नहीं पाई थीं कि उनके सामने अश्वारोहियों का एक मुण्ड आ गया । भयानक भालों की नोक सीधे किये हुए स्वास्थ्य के तरुण तेज से उद्दीप्त जाट-युवकों का वह वीर दल था । स्त्रियां को देखते ही उनके सरदार ने कहा-मां तुम लोगों को कहाँ जाओगी ?

अब फीरोजा और इरावती सामने खड़ी हो गई। सरदार ने घोड़े पर से उतरते हुए पूछा-फीरोजा यह तुम हो बहन !

हां भाई वलराज ! मैं हूँ और यह है इरावती | पूरी बात जैसे न सुनते हुए बलराज ने कहा-फीरोजा अहमद से युद्ध होगा। इस जंगल को पार कर लेने पर तुर्क सेना जाटों का नाश कर देगी इसलिए यहीं उन्हें रोकना होगा । तुम लोग इस समय कहां जाओगी? जहां कहो बलराज । अहमद की छाया से तो मुझे भी बचना है।- फीरोजा ने अधीर होकर कहा ।

डरो मत फीरोजा यह हिन्दोस्तान है और यह हम हिंंदुओं का [ ६४ ]धर्म युद्ध है। गुलाम बनने का भय नहीं।-बलराज अभी यह कही रहा था कि वह चौंक कर पीछे देखता हुआ बोल उठा-अच्छा वे लोग आ ही गये । समय नहीं है !-- बलराज दूसरे ही क्षण में अपने घोड़े की पीठ पर था मादक अहमद की सेना सामने आ गई। बलराज को देखते ही उसने चिल्ला कर कहा- बलराज ! यह तुम्ही हो अहमद!

तो हम लोग दोस्त भी बन सकते हैं । अभी समय है-कहते कहते सहसा उसकी दृष्टि फीरोजा और इरावती पर पड़ी। उसने समय व्यवस्था भूलकर तुरन्त ललकारा-पकड़ लो इन औरतों को?-उसी समय बलराज का भाला हिल उठा । युद्ध का प्रारम्भ था।

जाटों के विजय क साथ युद्ध का अंत होने ही वाला था कि एक नया परिवर्तन हुआ । दूसरी ओर से तुर्क सेना जाटों की पीठ पर थी घायल बलराज का भीषण भाला अहमद की छाती में पार हो रहा था। निराश जाटों की रण प्रतिज्ञा अपनी पूर्ति करा रही थी। मरते हुए अहमद ने देखा कि गजनी की सेना के साथ तिलक सामने खड़े थे। सब के अस्त्र तो रुक गये परंतु अहमद के प्राण न रुके । फीरोजा उसके शव पर झुकी हुई रो रही थी और इरावती मूर्छित हो रहे बलराज का सिर अपने गोद में लिये थी। तिलक ने विस्मित होकर यह दृश्य देखा।

बलराज ने जल का संकेत किया । इरावती के हाथों में तिलक ने जल का पात्र दिया । जल पीते ही बलराज ने आखें खोलकर कहा- इरावती अब मैं न मरूंगा?

तिलक ने आश्चर्य से पूछा-इरावती!

फीरोजा ने रोते हुए कहा-हा राजा साहब इरावती ।

मेरी दुखिया इरावती ? मुझे क्षमा कर मैं तुमे भूल गया था।- तिलक ने विनीत शब्दों में कहा। [ ६५ ]भाई!-इरावती आगे कुछ न क सकी उसका गला भर आया था। उसने तिलक क पैर पकड़ लिये।

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बलराज जाटों का सर्दार है इरावती रानी। चनाव का वह प्रात इरावती की करुणा से हरा भरा हो रहा है कि तु फीरोजा की प्रसन्नता की वहीं समाधि बन गई-और वहीं वह झाड़ देती फूल चढाती और दीप जलाती रही। उस समाधि की वह आजीवन दासी बनी रही।