आदर्श महिला

विकिस्रोत से
आदर्श महिला  (1925) 
द्वारा नयनचंद्र मुखोपाध्याय, अनुवादक जनार्दन झा

[ प्रकाशक ]Published by
K, Mittra,
at The Indian Press, Ltd.,
Allahabad.









Printed by

Bishweshwar Prasad,

at The Indian Press, Ltd.,

Benares-Branch.

[ निवेदन ]
निवेदन

——:○:——

भारतवर्ष में इस समय स्त्री-शिक्षा की बड़ी आवश्यकता है। स्त्री-शिक्षा के प्रभाव से देश की जो हानि हो रही है, इस पर लोग पहले ध्यान नहीं देते थे। अब कुछ दिन से लोगों का ध्यान स्त्री-शिक्षा की ओर आकृष्ट हुआ है, और स्त्री-शिक्षा के प्रचार से जो लाभ होगा उसे कुछ-कुछ समझने लगे हैं। ऐसे अवसर में विज्ञवर श्रीनयनचन्द्र मुखोपाध्याय ने यह 'आदर्श महिला' ग्रन्थ वङ्गभाषा में लिखकर, देश का बड़ा उपकार किया है। इसके साथ ही इण्डियन प्रेस के स्वामी श्रीयुक्त बाबू चिन्तामणि घोष इसे हिन्दी-पाठकों के मनोविनोदार्थ, हिन्दी में, प्रकाशित करके विशेष धन्यवाद के भागी हुए हैं। स्त्री-पाठ्य पुस्तकों में यह पुस्तक आदर्श-स्वरूप है। इस पुस्तक के पढ़ने से स्त्रियाँ तो लाभ उठावेंगी ही, किन्तु पुरुष भी विशेष लाभ उठावेंगे। हम प्रतिज्ञापूर्वक कहते हैं कि कैसे ही बुरे मिज़ाज की स्त्री क्यों न हो, जो इस पुस्तक में वर्णित आदर्श स्त्री-रत्नों के जीवनचरितों को एक बार पढ़ेगी या सुनेगी वह अपने निन्दित चरित्र को सुधारने का प्रयत्न अवश्य करेगी। पुरुष के लिए भी ऐसा ही समझिए। हम आशा करते हैं, पढ़े-लिखे स्त्री-पुरुष इस पुस्तक का अवश्य आदर करेंगे और घर-घर में इसके प्रचार का पूरा प्रयत्न करेंगे।

जनार्दन झा

[ प्रस्तावना ]
प्रस्तावना

यह प्रसिद्ध धर्म-प्रधान भारतवर्ष विधाता की अपरिमित दया से चिरपवित्र है। भारत का ज्ञान-विज्ञान, भारत का काव्य-कलाप, भारत की पुराण-संहिता अब तक सारे संसार को धर्म की शिक्षा दे रहीं है। भारत की प्रधानता का विचार करते हुए एक बार उसकी भौगोलिक अवस्था की ओर दृष्टि दीजिए; देखिए, उत्तर दिशा में तुषार-रूपी स्वच्छ किरीटधारी हिमालय पहाड़ समस्त भूमण्डल से ऊपर सिर उठाकर भारत की प्रधानता की घोषणा कर रहा है। मानव-प्रीति की निदर्शन-स्वरूप सिन्धु, ब्रह्मपुत्र, गङ्गा और यमुना आदि पवित्र नद-नदियाँ हिमालय से प्रवाहित होकर भारतवर्ष की भूमि को उपजाऊ और शस्य-श्यामल कर रही हैं। दक्षिण-तुङ्ग-तरङ्ग-निनादित रत्नराजिराजित महासागर कुमारिका* देवी के मन्दिर की सीढ़ियों को निरन्तर पवित्र जल से धो रहा है। पूर्व और पश्चिम भाग में भी समुद्र की विस्तृत शाखाएँ और ऊँचे-ऊँचे पहाड़ हैं। इस कारण भारतवर्ष पहाड़ और खाई से घिरा हुआ, प्रकृति का, एक मज़बूत किला है। इसी से भारतवासियों ने चिरकाल तक शान्ति-सुख का बेखटके उपभोग किया है; निःशङ्कभाव से धर्म की आलोचना की है और संकोचरहित हो पृथिवी में ज्ञानोपदेशक गुरुदेव का आसन ग्रहण करके प्राच्य सामाजिक जीवन की नीव डाली है। कोई जाति क्यों न हो, जब उन्नत हुई है तब धर्म की उन्नति से ही उन्नत हुई है। भारतवर्ष भी धर्म के पथ में विचरण करके जातीय उन्नति के सिद्धक्षेत्र में


  • कुमारिका देवी के नाम से ही कुमारी-अन्तरीप प्रसिद्ध है। [ प्रस्तावना ]
    प्राप्त हुआ था। इसी से कितने ही साधु, महात्मा और तपस्वी निर्जन गिरि-गुफाओं में और घोर जंगलों में तपस्या करके ब्रह्मज्ञान के उच्च प्रासन पर जा विराजे थे। छाया-शीतल सहस्रों तपोवनों से निकल कर यज्ञों के धुएँ ने देवता और मनुष्य के सम्बन्ध को अत्यन्त निकट कर दिया था।

भारतवासियों का लक्ष्य बहुत काल से उच्च था, और उनका आदर्श भी उन्नत था। इसी से वे लोग मनोराज्य के अनेक अज्ञात सिद्धान्तों के आविष्कार करने में समर्थ हुए थे। कर्तव्यों और सुव्यवस्था ने उनके सामाजिक जीवन को सुखमय और शान्ति-पूर्ण कर दिया था। इस प्रकार, मानव-सभ्यता का पहला सिद्ध-स्थान भारत जगत् का चिरवन्दनीय हो रहा था। इच्छाशक्ति की सजीवता ने ही कर्तव्य-पथ में आगे बढ़ा कर उसे सफल-प्रयत्न और धन्य किया था। जगत् के इतिहास की आलोचना करने से ज्ञात होता है कि, जब जिस जाति की वासना पूर्ण हुई है तब वह जाति शुरू-शुरू में दुर्बल और निरीह अवस्था में ही रही है। किन्तु जहाँ अभिलाष उच्च है और जहाँ आदर्श बड़ा है, वहाँ उन्नति अवश्य होती है। इसी कारण,प्राचीन भारत क्रमशः उन्नति के ऊँचे शिखर पर चढ़ने में समर्थ हुआ था। जब-जब भारत का गगन-चुम्बी गौरव-किरीट निश्चेष्टता के कुहरे अथवा लुटेरों और विद्रोहियों के विचित्र नरताण्डव की धूलि-राशि से ढका है, तब-तब युग-युग में यह कर्मवीर और ज्ञानवीर के अभ्युदय से एक नई आशा की किरणों से देदीप्यमान हो उठा है; तब-तब का गुरूपदिष्ट भारत तुङ्ग-तरङ्ग-भीषण कर्म-समुद्र को लाँघकर साधन के किनारे लगने में समर्थ हुआ है। किन्तु उसकी इस समुद्र-यात्रा में कर्णधार कौन है? कर्म-संग्राम में उसको अग्रसर कर किसने उसका साथ दिया? किसने उसको उत्साहित किया?---उसकी दुर्निवार ऊँची आकांक्षा ने। [ प्रस्तावना ]इस संसार में ऐकान्तिक शुभाभिलाष की उत्तेजना से कर्तव्य के मार्ग में जो घूमते हैं, उनके पुरोवर्ती आदर्श-पुरुषों की पंक्ति क्रमशः दूर खिसक कर कर्मक्षेत्र की विपुलता और प्रकृति की विविध विचित्रता दिखाकर उन्हें अपनी ओर खींचती है; तब उनकी गति अबाध और बे-रोक होती है। ऊँची आकांक्षा ही जातीय जीवन का मूलसूत्र है और सामाजिक उत्साह ही दौर्बल्य-रोग का महौषध है। जिस जाति में प्रबल आकांक्षा नहीं वह जड़ और मृतकतुल्य है। जातीय जीवन की जड़, यह उन्नति की आकांक्षा, क्रमशः धर्म की उन्नति में परिणत होकर जातीय जीवन को उन्नत और मङ्गलमय बनाती है। इस लिए जहाँ आकांक्षा ऊँची है, जहाँ सत्य से अनुप्रेरित प्रवृत्ति अनुकूल है---आदर्श सामने मौजूद है, इच्छा-शक्ति जहाँ दुर्निवार्य है---वहाँ सिद्धि अवश्यम्भावी है। किन्तु सिद्धि का द्वार साधना ही है। उद्देश्य महान् और लक्ष्य उच्च होने से मनुष्य साधन-क्षेत्र में सिद्धि पाता है। यह जो सत्य की प्रेरणा है; यह जो वासना की अदम्य तीव्रता है, यही सामाजिक शक्ति के प्राण हैं; यही पूर्व-पुरुषों की चिता-भस्म से शक्ति का नया अंकुर उत्पन्न करती है। इस प्रकार, भारत पुरानी अभिज्ञता से भविष्यत् जीवन के उपयुक्त शान्ति और नियम की निष्पत्ति के लिए उद्देश्य की सृष्टि करता है।

इस साधन के लिए भारत में कितने ही आदर्श-चरित्र स्त्री-पुरुषों ने जन्म ले करके उसे धन्य और चिर-पवित्र किया है। पूर्वकाल में भारतवासी लोग मनसा, वाचा, कर्मणा उन सब आदर्श-चरित्रों का अनुसरण करते थे। सच तो यह है कि कर्म-जीवन में आदर्श का प्रभाव असीम है। आदर्श उच्च होने से चेष्टा भी उत्कृष्ट होती है। आदर्श-चरित्र का पूरी रीति से अनुकरण न होने पर भी उसका स्मरण मनुष्य को धन्य और सार्थक करता है, हृदय को बलिष्ठ करता है। आदर्श
[ प्रस्तावना ]
कर्म के रणक्षेत्र में उत्साहित करके मनुष्य को विजय के गौरव-किरीट से विभूषित करता है। आदर्श मनुष्य-जीवन में विचित्र सृष्टि का सम्पादक है; आदर्श पाकर राक्षस भी मनुष्य हो जा सकता है। जिस समाज में आदर्श नहीं, वह समाज समाज ही नहीं। आदर्श के अभाव से मनुष्य की जीवन-नौका नाना प्रकार की कुरीतियों के भंवर में पड़कर चक्कर खाती रहती है।

अच्छा, यह आदर्श चरित्र क्या है? जिस चरित्र में बुद्धि-वृत्ति के साथ कार्यक्षमता और कर्तव्यपरायणता सम्पूर्ण रूप से पाई जाय वही आदर्श चरित्र है। पार्थिव जीवन में मनुष्य को अनेक प्रकार की विघ्न-बाधाओं के घात-प्रतिघात से निरन्तर दु:खित होना पड़ता है। इस घोर द्वन्द्व में जगदीश्वर की सृष्टि का रहस्य समझकर जो कर्तव्यपथ में अग्रसर हो सकते हैं वही धन्य हैं; उन्हीं के चरणों में उत्तर-कालीन स्त्री-पुरुष भक्तिभाव से अर्घ डालते हैं। ऐसा जीवन ही आदर्श जीवन है। आदर्श जीवन का सहज अनुभव होने पर भी उसका अनुकरण करना बड़ा कठिन है। घोर विपत्ति में पड़कर मनुष्य जब चञ्चल हो जाता है, तब आदर्श अपनी स्नेह से भरी मधुर अभय वाणी सुनाकर उसको सच्चे शुभ कार्य के मार्ग में अग्रसर कर देता है। पैंट्समैन जैसे लाल झण्डी दिखाकर रेलगाड़ा की गति को रोक देता है, वैसे ही आदर्श अपने जीवन के विविध दुःखों और विडम्बनाओं का चित्र दिखाकर मनुष्य को सावधान कर देता है। सांसारिक मोह से जब हमारी दृष्टि धुँधली हो जाती है तब आदर्श का कल्याण-अञ्जन उसे स्वच्छ कर देता है। इस तरह आदर्श, मनुष्य-जीवन में देवता की भाँति वास्तविक कल्याण को विकसित करने के लिए सतत प्रयत्नशील बना रहता है। संसार के विषम मार्ग में हमें इस बात को अच्छी तरह समझ-बूझकर चलना चाहिए। [ प्रस्तावना ]कालचक्र के परिवर्तन से हम लोग बहुत दूर नीचे जा गिरे हैं। सच्चरित्र श्रीरामचन्द्रजी, प्रेम-रूपी सत्यवान्, पुण्यश्लोक नल, दानवीर हरिचन्द्र, कर्तव्यपरायण श्रीवत्स जिस देश में पुरुष जाति के आदर्श-स्थल हैं; और जिस देश में पवित्रता-मयी सीता देवी, सती-शिरोमणि सावित्री, पतिभक्तिपरायणा प्रेम-कुशला दमयन्ती, करुणा-रूपिणी शैव्या, तत्त्वज्ञानवती चिन्ता आदि रमणी-रत्नों ने जन्म ग्रहण किया उस देश के स्त्री-पुरुष आदर्श के अभाव से भिन्न पथ का अवलम्बन करें---इसका स्मरण होने से भी कष्ट होता है।

स्त्री-जाति ही समाज-शक्ति का प्राण है; और रमणी का पवित्र जीवन ही प्रेम है। उसका यह प्रेम माँ-बाप के प्रति भक्तिरूप में स्वामी के प्रति निष्ठारूप में, सन्तान के प्रति स्नेहरूप में, दुखियों के प्रति करुणा-रूप में और वैरी के प्रति क्षमा-रूप में तथा संसार के प्रति जगद्धात्रीरूप में नित्य प्रकाशित है। जो प्रेम-मयी रमणी संसार के कार्य में आत्म-समर्पण करके कर्त्तव्य और स्नेह के भीतर अपने को विलीन कर दे सकती हैं वे ही आदर्श रमणी हैं। उनका पवित्र वृत्तान्त चिर-व्यापी काल के ललाट में स्वर्णाक्षर से सदा अङ्कित रहता है और संसार उन शक्तिमयी जगद्धात्रियों के चरणों में प्रणत होता है। उन सती पतिव्रताओं के चरणों से निकली हुई अक्षय्य अमृतधारा देशवासियों को अनन्त काल तक शक्ति और स्वास्थ्य प्रदान करती है। इन सब महोदारचरिता महिलाओं के पवित्र जीवन की पुण्य कथा भारत की रमणियों को धर्म में, कर्तव्य और पातिव्रत में सदा उत्साहित करे---यही हमारी जगदीश्वर से प्रार्थना है।

ग्रन्थकर्ता

[ भूमिका ]
दूसरे संस्करण की भूमिका

इस अनुवाद के प्रथम संस्करण के सम्बन्ध में कई पाठकों ने हमें यह सूचना दी थी कि इसकी भाषा कुछ कठिन है। अतएव इस संस्करण में हमने पुस्तक की भाषा बहुत ही सरल करा दी है। इसके साथ ही सीता-जन्म की कथा, जो अद्भुत रामायण के आधार पर लिखी गई थी, कई लोगों की सम्मति से इस संस्करण में से निकाल दी गई है, क्योंकि वे लोग अद्भुत रामायण को प्रामाणिक नहीं मानते। अतएव यह संशोधित संस्करण है।

प्रकाशक

[ सूची ]

सूची

पृष्ठांक
पहला आख्यान—सीता
दूसरा {{{1}}}सावित्री ५५
तीसरा {{{1}}}दमयन्ती ११३
चौथा {{{1}}}शैव्या १६९
पाँचवाँ {{{1}}}चिन्ता २१९

चित्र-सूची

पृष्ठ
१—अशोक वृक्ष के नीचे सीता देवी (रङ्गीन) मुखपत्र
२—पञ्चवटी में सीता, राम और लक्ष्मण और पास ही माया-मृग (रङ्गीन) १९
३—सीता और सरमा (रङ्गीन) ३२
४—सीता देवी की अग्निपरीक्षा ४३
५—माता-पिता के पास सावित्री ६७
६—झरना के पास सावित्री और सत्यवान ९३
७—सावित्री और यम १०६
८—दमयन्ती और हंस ११८
९—दमयन्ती और पाँच नल १३४
१०—दमयन्ती, सारथिवेषी नल और केशिनी १६७
११—मन्दिर-मार्ग में महारानी शैव्या (रङ्गीन) १७६
१२—श्मशान में मृत पुत्र को गोद में लिये हुए शैव्या और चाण्डालवेषी हरिश्चन्द्र (रङ्गीन) २१७
१३—माया नदी के किनारे चिन्ता और श्रीवत्स २४६
 

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।