आनन्द मठ/2.3

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(आनन्दमठ/2.3 से अनुप्रेषित)

[ ८३ ]

तीसरा परिच्छेद

दूसरे दिन आनन्दमठके भीतरवाले एक सुनसान मकानमें सन्तानोंके तीनों नायक भग्नोत्साह हो, बैठे बातें कर रहे थे। जीवानन्दने सत्यानन्दसे पूछा-"महाराज! देवता हम [ ८४ ] लोगोंपर ऐसे अप्रसन्न क्यों हैं? किस अपराधसे हम लोग मुसलमानोंद्वारा हराये गये?"

सत्यानन्दने कहा-"देवता अप्रसन्न नहीं हैं, लड़ाई में तो हार जीत हुआ ही करती है। उस दिन हम जीते थे। आज हार गये हैं, अन्तमें फिर जीत सकते हैं। मुझे पूरा भरोसा है कि जो इतने दिनोंसे हमारी रक्षा करते आये हैं, वे ही शङ्कचक्र-गदा-पद्मधारी बनवारी फिर हमपर दया दिखलायेंगे। उनके चरण छूकर हमलोगोंने जिस व्रतको ग्रहण किया है, उसका पालन तो हमें करना ही होगा। विमुख होनेसे हमें अनन्त नरक भोगना होगा। मुझे तो आगे मङ्गल ही मङ्गल दिखाई देता है। परन्तु जैसे देवानुग्रह हुए बिना कोई कार्य नहीं सिद्ध होता वैसे ही पुरुषार्थ बिना भो कोई काम नहीं सरता। हमारे हारनेका कारण यही हुआ कि हम निहत्थे थे। गोले-गोलियोंके सामने लाठी, बछे और भालेकी क्या हकीकत है! इसलिये यह कहना ही पड़ता है कि हममें पुरुषार्थ नहीं था, इसीसे हम हार गये। अब हमारा कर्तव्य है कि हम अपने यहाँ भी हथियारों और बन्दूकोंका ढेर लगा दें।"

जीवा०-"यह काम तो बड़ा ही कठिन है।"

सत्या०-"जीवानन्द! क्या सचमुच बड़ा ही कठिन है? सन्तान होनेपर भी तुम्हारे मुंहसे ऐसी बात क्योंकर निकली? क्या सन्तानोंके लिये भी इस दुनियां में कोई काम बड़ा ही कठिन है?"

जीवा०-"आज्ञा दीजिये, कहांसे अस्त्र संग्रह कर लाऊं?"

सत्या०-"इसके लिये मैं आज हो रातको तीर्थयात्रा करने निकालूंगा। जबतक मैं न लौटू, तबतक तुम लोग किसी बड़े भारी काममें हाथ न डालना हां, आपसमें एकता बनाये रखना, सन्तानोंकी प्राण रक्षाके लिये खाने-पहननेकी चीजें संग्रह करते रहना और माताको युद्ध जयके लिये अर्थसंग्रह करते जाना। यह भार तुम दो जनोंपर रहेगा।" [ ८५ ] भवानन्दने कहा,-"आप तीर्थयात्राके समय यह सब सामान क्योंकर इकट्ठा कर सकेगे? गोली गोले ओर तोप बन्दूके खरीदकर भेजनेसे तो बड़ी गड़बड़ मच जायगी। और इतना सामान मिलेगा कहाँ? कौन इतना सब बेचनेको तैयार होगा, और कौन ला सकेगा?"

सत्या०-खरीदकर लानेसे हमारा काम नहीं चलेगा। मैं कारीगर भेज दूंगा; उनसे यहीं बनवा लेना होगा।"

जीवा०-"यह क्या? इसी आनन्दमठ में?"

सत्या०-कहीं ऐसा भी हो सकता है? मैं बहुत दिनोंसे इसकी फिक्रमें था, आज भवानन्दकी दयासे मौका हाथ लग गया है। तुम लोग कह रहे थे कि विधाता हमारे प्रतिकूल है, पर मैं तो देख रहा हूं कि वह एकदम अनुकूल है।"

भवारे-“कारखाना कहां खुलेगा?”

सत्या०-“पदचिह्र-ग्राममें।"

भवा०-"वहां क्यों खुलेगा?"

सत्या०-“इसीलिये तो मैंने महेन्द्रसे यह व्रत ग्रहण करवाना चाहा था और उसके लिये इतना तरद्द द उठाया है।"

जीवा०-"क्या महेन्द्रने व्रत ले लिया?"

सत्या०-"लिया नहीं है, लेगा। आज ही रातको उसकी दीक्षा होगी।"

जीवा०-"महेन्द्र के लिये क्या क्या तरद्द द उठाने पड़े, वह तो हमको मालूम ही नहीं। उसकी स्त्री-कन्या क्या हुई? वे कहां रखी गयी हैं? मैंने आज नदीके तीरपर एक कन्या पड़ी पायी थी। उसे मैं अपनी बहनको दे आया हूं। उसीके पास एक सुन्दरी स्त्री भी मरी पड़ी थी। कहीं वही महेन्द्रकी स्त्री तो नहीं थी? मुझे तो ऐसा ही शक हो रहा था।"

सत्या०-"हां, वे ही महेन्द्रकी स्त्री कन्या थीं।" भवानन्द चौंक उठे। अब वे समझ गये, कि मैंने जिस [ ८६ ] स्त्रीको औषधके बलसे पुनर्जीवित किया है, वह महेन्द्रकी ही स्त्री कल्याणी है, किन्तु इस समय उन्होंने कोई बात कहनी आवश्यक नहीं समझी।

जीवानन्दने कहा-“महेन्द्रकी स्त्री कैसे मरी?"

सत्या०—“जहर खाकर।"

जीवा०-"उसने जहर क्यों खाया?"

सत्या०–“भगवानने उसे प्राण-त्याग करनेके लिये सपने में आज्ञा दी थी।"

जीवा०—“वह स्वप्नादेश क्या सन्तानोंके कार्योद्धारके ही निमित्त हुआ था?

सत्या०-“महेन्द्रसे तो मैंने ऐसा ही कुछ सुना था। अच्छा, अब सायङ्काल हो चला है। मैं सन्ध्या-पूजा करने जाता हूं। उसके बाद नूतन सन्तानोंको दीक्षित किया जायगा।"

भवा०-“क्या बहुतसे नये सन्तान दीक्षा लेनेवाले हैं? क्या महेन्द्र के सिवा और कोई आदमी शिष्य होना चाहता है?"

"हाँ, एक और नया आदमी है। पहले तो मैंने उसे कभी नहीं देखा था। आज ही वह मेरे पास आया है। वह बड़ा ही नवजवान और सुन्दर पुरुष है। मैं उसकी चालढाल और बात चीतसे बड़ाही प्रसन्न हुआ। वह एकदम खरा सोना मालूम पड़ता है। उसे संतानोंका कर्त्तव्य सिखलानेका भार जीवानन्दको दिया जाता है। इसका कारण यह है कि जीवानंद लोगोंका मन मोह लेने में बड़ा चतुर है। मैं चलता हूं, तुम लोगोंसे सिर्फ एक बात और कहनेको रह गयी है। दत्तचित्त होकर उसेमी सुन लो।"

दोनोंने हाथ जोड़े हुए कहा-"जो आज्ञा।"

सत्यानन्दने कहा-"यदि तुम दोनोंमसे कोई अपराध बन आया हो अथवा मेरे लौट आनेके पहले कोई नया अपराध बन पड़े, तो उसके लिये मेरे आये बिना प्रायश्चित्त न करना। मेरे आनेपर प्रायश्चित्त करना ही पड़ेगा।" [ ८७ ] यह कह, सत्यानन्द अपने स्थानको चले गये। भवानन्द और जीवानन्द परस्पर एक दूसरेका मुंह देखने लगे।

भवानन्दने कहा-"यह बात कहीं तुम्हारे ही ऊपर डालकर तो नहीं कही गयी है?"

जीवा०-"हो सकता है, क्योंकि मैं महेंद्र की कन्याको रख आनेके लिये बहनके घर चला गया था।"

भवा०-"इसमें भला कौनसा अपराध हुआ? वह तो कोई निषिद्ध कार्य नहीं है। कहीं अपनी स्त्रीसे भी तो नहीं मिल आये हो?"

जीवा०-"शायद गुरुजीको यही संदेह हुआ है।"