आनन्द मठ/2.2

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दूसरा परिच्छेद।

जीवानन्दके चले जानेपर शान्ति निमाईके घरके बरामदेमें जा बैठी। निमाई भी गोदमें उस लड़कीको लिये हुये वहीं आ बैठी। इस समय शान्तिकी आंखोंमें आँसू नहीं थे। वह आंखें पोंछ, बनावटी हंसीसे मुस्कुरा रही थी। हाँ, कुछ कुछ गम्भीर चिन्तायुक्त और अनमनी अवश्य हो रही थी। निमाई समझ गयी, बोली,-"खैर, किसी तरह मिलना तो हुआ।"

शान्ति कुछ न बोली, चुपचाप रही। निमाईने देखा कि शांति अपने दिलकी बात न कहेगी। उसे यह भी मालूम था, कि शांतिको मनकी बात कहना पसन्द नहीं, इसलिये उसने जान-बूझकर दूसरी चर्चा छेड़ दी, बोली,–“बहू! यह लड़की कैसी है?"

शान्तिने कहा,-"यह छोकरी तुम्हें कहांसे मिली? तुम्हें लड़की कब हुई?”

निमाई-"क्या मुसीबत है! तुमको यमराज उठा क्यों नहीं ले जाते! भाभी! यह लड़की तो भैयाकी है।"

निमाईने शांतिका जी दुखानेके लिये यह बात नहीं कहीं [ ८१ ] थी। उसका मतलब यही था कि इस लड़कीको भैया ले आये हैं। शांति यह न समझी-उसने सोचा, कि निमाईने मेरे कलेजेमें नस्तर चुभानेके लिये यह बात कही है, इसीसे बोल उठी,-"मैंने लड़कीके बापके बारेमें नहीं पूछा था,-मांकी बात पूछी थी।"

उचित दण्ड पाकर निमाई झुझला उठी। बोली,-"भाई! मैं क्या जानूं कि यह लड़की किसकी है भैया इसे न जाने कहांसे उठा लाये हैं मुझे सब हाल पूछने का अवसर भी न मिला। आजकल देख रही हो कि घोर अकाल पड़ा हुआ है कितने लोग अपने बाल बच्चोंको रास्तेपर फेंककर भागे जा रहे हैं। कितने ही आदमी तो हमारे ही घर अपने बच्चोंको बेचनेके लिये आये, पर हमने यही सोचकर किसीको नहीं खरीदा कि पराये बेटी-बेटेका बोझा कौन अपने सिर लेने जाय?" यह कहते कहते निमीकी आँखोंमें फिर आंसू भर आये। उन्हें पोंछकर वह फिर कहने लगी,-"लड़की बड़ी सुन्दर है, बड़ा बढ़िया चांदसा मुखड़ा है। इसीसे मैंने इसे भैयासे मांग लिया।"

इसके बाद शांतिने बड़ी देरतक निमाईके साथ बात की और निमाईके स्वामी जब घर आये तब वहांसे उठकर अपनी कुटियामें चली गयी। वहां पहुंच दरवाजा बन्द कर उसने चल्हेके भीतरसे थोड़ीसी राख निकाली और बाकी राखपर अपने लिये पकाया हुआ भात फेंक दिया। इसके बाद वह बड़ी देरतक खड़ी खड़ी कुछ सोचती रही। फिर आप ही आप बोल उठी,- "इतने दिनसे जो सोच रखा था, उसे आज पूरा करूंगी। जिस आशापर मैंने माजतक वह काम नहीं किया था वह पूरी हो गयी, पर उसे पूरा हुई कहना चाहिये या नष्ट हुई? नष्ट। यह जीवन ही सारा व्यर्थ हुआ। जिस बातका मैं सङ्कल्प कर चुकी हूं, उसे तो पूरा करूंगी ही, जो प्रायश्चित्त एक बार किया वही सौ बार भी सही।" [ ८२ ] यही सब सोच-विचारकर उसने चूल्हेमें भात फेंक दिया और जंगलसे फल तोड़ लायी। अन्नके बदले उसने वही फल खाये। इसके बाद जिस ढाकेकी साड़ीपर निमाई इतनी लट्ट थी, उसे बाहर निकालकर उसने उसकी किनारी फाड़ डाली और उसे पक्के गेरुए रंगमें रंग डाला। यह सब करते करते संध्या हो गयी। संध्या हो जानेपर घरके किवाड़ बन्द कर शांति एक अद्भुत व्यापारमें प्रवृत्त हुई। उसने कैंची लेकर अपने घुटनेतक लटकनेवाले रूखे बाल डाले। जो कुछ बचे, उन्हें लपेटकर उसने जटा बना ली। रूखे बाल अजीब तरहसे जटासे बना लिये गये। इसके बाद उस गेरुए वस्त्रके दो टुकड़े कर उसने एक टुकड़ेका लंगोटा बनाकर पहना और दूसरेकी गांती बनाकर ओढ़ ली जिससे उसका शरीर ढक गया। घरमें एक छोटासा आईना रखा था। उसे आज बहुत दिनों बाद उसने बाहर निकाला और उसमें अपना रूप देखने लगी। देखते देखते बोली-“हाय! क्या करनेको थी और मैंने क्या कर डाला?" तब आईनेको अलग फेककर उसने कटे हुए बालोंकी दाढ़ी-मूछे बनायीं: पर उन्हें लगा न सकी। उसने कहा-"छिः! छिः! क्या कहीं ऐसा भी होता है? अब वह समय कहां? पर हां, उस बूढ़ेको छकानेके लिये इन्हें रख छोड़ना ठीक है।" यही सोचकर उसने उन नकली दाढ़ी मूंछोंको कपड़ेमें छिपाकर रख लिया। इसके बाद उसने घरके अन्दरसे एक बड़ीसी मृगछाला निकाल, कण्ठमें बांध, कण्ठसे जानु पर्यन्त शरीर ढक लिया। इस प्रकार नूतन संन्यासीका रूप बना लेनेपर उसने एक बार घरके चारों तरफ स्थिर भावसे देखा। दोपहर रात बीतनेपर उसने उसी संन्यासी वेशमें किवाड़ खोल घरसे बाहर निकल उसी जङ्गलमें प्रवेश किया। वनकी देवियोंने उस आधी रातके समय जङ्गल में एक अपूर्व संगीत होता हुआ सुना। [ ८३ ]

गीत

नहीं मनोरथ घर रहनेका,
कहलाके अवला नारी।
रण जय गावो सब जुड़ि आओ,
करो युद्धकी तैयारी
कौन तुम्हारा? कहांसे आये?
किसके हो? क्या कहलाओ?
चढ़ घोड़ेपर बांध अस्त्र मैं,
लड़न चली मत लौटाओ॥
हरि हरि कह तज मोह प्राणका,
समर करूंगी अति भारी।
नहीं मनोरथ घर रहनेका॥
कहां चला प्रिय प्राण हमारा,
मुझे छोड़के मत जाना।
महानादसे विजय दु'दुभी,
बजता है यह मनमाना॥
घोड़े उड़े देख जी उमड़ा,
युद्ध कामना है भारी।
नहीं मनोरथ घर रहनेका,
कहलाके अबला नारी॥