आनन्द मठ/3.12

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बारहवां परिच्छेद

लड़ाई जीतने के बाद सारे विजयी वीर, अजय नदीके किनारे चारों ओरसे सत्यानन्दको घेरे हुए, तरह तरहको खुशियां मनाने लगे। केवल सत्यानन्दको ही सुख नहीं था। वे भवानन्दके लिये दुःखी हो रहे थे।

अबतक तो वैष्णवोंके पास लड़ाईके अधिक बाजे नहीं थे, पर इस समय न जाने कहांसे हजारों ढोल, दमामे, शहनाई, भेरी, तुरही, सिंघे आदि बाजे आ पहुंचे। जय-सूचक वाद्योंकी ध्वनिसे सभी जङ्गल, नदियां और पहाड़गूज उठे। इस प्रकार बड़ी देरतक सन्तानोंने तरह तरहसे खुशियां मनायीं। इसके बाद सत्यानन्दने कहा-"आज जगदीश्वरने बड़ी कृपा की जो सनातनधर्मकी जय हुई; परन्तु अभी एक काम बाकी रह गया है। जो हमारे साथ खुशियाँ न मना सके और हमें यह खुशीका दिन दिखलानेके लिये जानोंपर खेल गये, उन्हें भूल जानेसे काम नहीं चलेगा। जिन्होंने रणक्षेत्रमें प्राण गंवाये हैं, चलो, हम उन लोगोंका शव-संस्कार कर। विशेषकर, जिस महात्माने हमें इस लड़ाई में जिताकर अपने प्राण दे दिये हैं, उस भवानंदका संस्कार खूब धूमधामसे करें।"

यह सुनते ही सन्तानोंका दल 'वन्देमातरम्' कहता हुआ मरे हुए वीरोंका संस्कार करने चला। सब लोग हरिनाम लेते हुए बहुत सी चन्दनकी लकड़ियाँ बटोर लाये और भवानन्दकी चिता रच उसीपर उन्हें सुला, आग लगाकर चारों ओरसे चिताको घेरे हुए 'हरे मुरारे' गाने लगे। ये लोग विष्णु-भक्त थे-वैष्णव- सम्प्रदाय-भक्त न थे, इसीलिये इनमें दाह कम होता था।

उसके बाद जंगलमें केवल सत्यानन्द, जीवानन्द, महेन्द्र, नवीनानन्द और धीरानन्द ही रह गये। पांचों व्यक्ति एकांतमें बैठे सलाह करने लगे। [ १४९ ]सत्यानन्दने कहा- "इतने दिनोंतक हम-लोग जिस व्रतके लिये अपना सब कर्म-धर्म और सुख-आराम छोड़ बैठे थे, वह पूरा हो गया। अब यहाँ यवन-सेनाका नाम-निशान भी न रहा, जो बाकी बचे हैं वे एक क्षण भी हमारे सामने न ठहर सकेंगे अब तुम लोगोंकी क्या राय है?"

जीवानन्दने कहा-"अब यहाँसे चलकर हमें राजधानीपर अधिकार जमाना चाहिये।"

सत्या०-"मेरी भी यही राय है।"

धीरा-"पर आपके सिपाही कहां हैं?"

जीवा०-"क्यों? यहीं तो हैं।"

धीरा०—“कहां हैं? कोई नज़र भी आता है?"

जीवा०-"सब लोग जहां-तहां विश्राम कर रहे हैं। डङ्का बजाते ही सब इकट्ठे हो जायंगे।"

धीरा०-“एकका भी पता नहीं लगेगा।"

सत्या०-"क्यों?"

धीरा०-"सब लूटपाट करने चले गये हैं। इस समय गांवोंकी रक्षाका कोई प्रबन्ध नहीं है। मुसलमानोंके गांवों और रेशमकी कोठियोंको लूटपाटकर सबके सब घर चले जायंगे। इस समय आप किसीको नहीं पायेंगे। मैं खोज ढूढ़ कर बैठा हूँ।"

सत्यानन्द उदास होकर बोले-“जो हो, अब तो यह सारा प्रदेश हमारी मुट्ठीमें आ गया। अब यहां और कोई ऐसा नहीं जो हमारे विरुद्ध उठ खड़ा हो इसलिये तुम लोग वीरभूमिमें सन्तानराज्यका झण्डा खड़ा करो, प्रजासे कर वसूल करो और नगरपर अधिकार करनेके लिये सेनाका संग्रह करते रहो। हिंदुओंका राज्य हुआ है, यह सुनते ही बहुतसे सैनिक हमारे झंडेके नीचे चले आयंगे।

तब जीवानन्द आदि सब लोगोंने सत्यानन्दको प्रणाम कर [ १५० ] कहा--"हम सब आपको प्रणाम करते हैं। महाराजाधिराज! यदि आपकी आज्ञा हो, तो कहिये, हमलोग इसी जङ्गल में आपका सिंहासन स्थापित करें।"

सत्यानन्दने जीवनमें आज पहली ही बार क्रोध प्रकाश किया था। बोले-“क्या तुमलोग मुझे भी ढोंगी साधु समझते हो? हमलोग राजा नहीं संन्याली हैं। इस समय इस देशके राजा स्वयं भगवान् वैकुण्ठनाथ हैं। नगरपर अधिकार हो जानेपर तुम लोग जिसे चाहना उसे राजमुकुट पहना देना, पर यह निश्चय समझ रखो, कि मैं इस ब्रह्मचर्याश्रमको छोड़कर और किसी आश्रमको नहीं स्वीकार कर सकता। जाओ, अपना-अपना काम देखो।"

यह सुन, वे चारों आदमी ब्रह्मचारीको प्रणामकर उठ खड़े हुए। तब औरोंकी नजर बवाकर सत्यानन्दने महेन्द्रको ठहरनेका इशारा किया। अन्य तीनों व्यक्ति तो चले गये, महेन्द्र रह गये। तब सत्यानन्दने महेन्द्रसे कहा-"तुम सबने विष्णु-मण्डपमें शपथ करके सन्तान वर्म ग्रहण किया था। भवानन्द और जीवानन्द, दोनोंने ही अपनी प्रतिज्ञा भङ्ग कर डाली। भवानन्दने तो अपने कहे मुताबिक अपने पापका प्रायश्चित्त कर डाला, अब मुझे डर है, कि कहीं जीवानन्द भो प्रायश्चित्त करनेके लिये अपने प्राण न दे डाले, पर मुझे एक ही बातका भरोसा है, जिससे वह अभी नहीं मर सकता। वह बात एकदम गुप्त है। अकेले तुमने ही अपनी प्रतिज्ञा पूरी तरह निवाही है। सब तो संतानोंका काम हो गया। प्रतिज्ञा तो उसी दिनतकके लिये थी, जबतक सन्तानोंका काम न हो जाता। अब कार्योद्धार हो गया। है, इसलिये मैं चाहता हूं कि तुम फिरसे गृहस्थ बन जाओ।"

महेन्द्रकी आंखोंसे लगातार आंसू चलने लगे। वे बोले-"महाराज! अब मैं किसको लेकर फिरसे गृहस्थ बनूँ? स्त्रीने प्राण दे ही दिये, कन्याका कुछ पता ही नहीं, कि किधर गयी। [ १५१ ] अब मैं उसे कहांसे ढूंढ़ लाऊं? आपने कहा था, कि वह जीती है, इसीसे इतना भी जानता हूं। और कुछ मुझे नहीं मालूम।"

तब सत्यानन्दने नवीनानन्दको बुलाकर महेन्द्रसे कहा- “देखो, इनका नाम नवीनानन्द गोस्वामी है। ये बड़े ही पवित्रात्मा है और मेरे प्रिय शिष्य हैं। ये ही तुम्हें तुम्हारी कन्याका पता बता देंगे।" यह कह सत्यानन्दने शान्तिको इशारेसे कुछ कहा। उस इशारेको समझकर शांति वहांसे जाने लगी। यह देख, महेन्द्रने कहा-"अब तुमसे कहां देखादेखी होगी?"

शांतिने कहा-“मेरे आश्रममें चलिये।" यह कह, शान्ति आगे-आगे चली। महेन्द्र भी ब्रह्मचारीके पैर छू, बिदा मांग शान्तिके पीछे-पीछे चलकर उसके आश्रममें पहुंचे। उस समय रात बहुत बीत गयी थी, तोभी शान्ति सोने न जाकर नगरकी ओर चल पड़ी।

सबके चले जानेपर ब्रह्मचारी भूमिमें माथा टेके हुए मन-ही-मन जगदीश्वरका ध्यान करने लगे। क्रमसे सवेरा होनेको आ गया। इसी समय न जाने किसने आकर उनका सिर छूकर कहा-“मैं आ गया!"

ब्रह्मचारी उठ खड़े हुए और चकपकाये हुए बड़ी घबराहटके साथ बोले-"आप आ गये? क्यों? किस लिये?"

आनेवालेने कहा,-"दिन पूरे हो गये।"

ब्रह्मचारीने कहा,-"प्रभो, आज तो क्षमा कीजिये। आगामी माघी पूर्णिमाके दिन मैं आपकी आज्ञाका पालन करूंगा।"