आनन्द मठ/4.7

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सातवां परिच्छेद

आज पूनो है। वह भीषण रणक्षेत्र इस समय सुनसान हो रहा है। वह घोड़ोंकी उछल-कूद, बन्दूकों की कड़कड़ाहट, तोपोंकी गड़गड़ाहट न रही। जो नीचेसे ऊपरतक धुआं-ही-धुआं नजर आता था, वह कैफियत जारी रही। इस समय न तो कोई 'हुर्रे' कहता है, न हरिध्वनि कर रहा है। केवल स्यार कुत्त और गीध शोर मचाए हुए हैं। इससे भी भीषण वह घायलोंका रह रहकर कराहना है। किसीका हाथ कट गया है, किसीका सिर कट गया है; किसीका पैर ही टूट गया है। कोई बाप-बाप चिल्ला रहा है, कोई पानी मांग रहा है, कोई मौतकी घड़ियां गिन रहा है। बङ्गाली, हिन्दुस्थानी, अंगरेज, मुसलमान-सब साथ ही पड़े हुए हैं। जिन्दों और मुर्दो की, आदमियों और घोड़ोंकी आपस में खूब रेलापेली मची हुई है। उस माघकी पूर्णिमाकी उजियाली रातमें वह रणभूमि बड़ी भयङ्कर मालूम पड़ रही थी। किसीकी उधर जानेको हिम्मत नहीं पड़ती थी।

औरों की भले ही हिम्मत न पड़ती हो; पर आधी रातके समय एक स्त्री उस आगम्य रणक्षत्रमें आकर इधर-उधर घूम रही थी। हाथमें एक मशाल लिये वह उन मुर्दोके ढेर में न जाने किसे ढूंढ रही थी। वह प्रत्येक शवके पास पहुंचकर मशालकी [ १७५ ] रोशनीसे चेहरा देख कर आगे बढ़ जाती थी। वह जहां कहीं किली लाशको घोड़े के नीचे पड़ी पाती, वहीं मशालको नीचे रखकर घोड़ेकी लाशको दोनों हाथोंसे हटाती और उस लाशको देखने लगती। देखनेपर जब उसे यह मालूम हो जाता कि यह लाश तो उसकी नहीं है, जिसे मैं ढूंढ रही हूं, तब वह वहाँसे चल देती थी। इस तरह घूमती-फिरती हुई वह सारा मैदान ढूंढ़ आयी पर जिसे वह खोजती थी, उसे उसने कहीं नहीं पाया। तब लाचार हो, मशाल फेक, उस मुर्दोके ढेरसे भरे और खूनसे रंगे हुए युद्ध क्षेत्रमें लोट लोटकर रोने लगी। वह थी शांति। वह जीवानन्दकी लाश ढूढ़ रही थी।

शान्ति जमीनमें पड़ी लोट लोटकर रोने लगी। इसी समय एक अत्यन्त मधुर और करुणा भरी ध्वनि उसके कानमें पड़ी। उसने सुना, मानों कोई कह रहा है -"बेटी, रोओ मत।" शान्तिने आँखें उठाकर चन्द्रमाके प्रकाशमें देखा कि सामने ही एक अपूर्व दर्शनीय जटाजूटधारी महापुरुष खड़े हैं। उनका डीलडोल बड़ा लम्बा-चौड़ा है।

शान्ति उठकर खड़ी हो गयी। आनेवाले महात्माने कहा “देखो बेटी! रोओ मत। तुम मेरे साथ साथ आओ। मैं जीवानन्दकी लाश ढूढ़ लाता हूं।"

यह कह, वे महापुरुष शान्तिको रणक्षेत्रके बीचोंबीच ले गये। वहीं एक-पर-एक असंख्य लाशोंके ढरे लगे हुए थे। शान्ति उन्हें हटा नहीं सकती थी। उन्हीं महा बलवान पुरुषने एक एक करके उन लाशोंको हटाते हुए एक लाश बाहर निकाली। शान्ति झट पहचान गयी कि यह लाश जीवानन्दकी है। उनके सारे शरीरमें घाव लगे हुए थे, जिनसे सर्वाङ्ग लहू में लथपथ हो रहा था। शान्ति साधारण स्त्रियोंकी तरह फूट-फटकर रोने लगी।

महात्माने फिर कहा-" रोओ मत! जीवानन्द मरा नहीं [ १७६ ] है। तुम चित्त स्थिर कर जरा इस लाश की परीक्षा करके देखो। पहले नाड़ी देखो।"

शान्तिने उस लाशकी नाड़ी पकड़कर देखी। नाडीमें एकदम गति नहीं थी। उन्हीं महापुरुषने कहा-"छातीपर हाथ रखकर देखो।"

शान्तिने कलेजेपर हाथ रखकर देखा कि धड़कन एकदम नहीं है। सारी देह ठण्डी हो रही है।

उस पुरुषने फिर कहा-"नाकके पास हाथ ले जाकर देखो, सांस चलती है या नहीं?"

शान्तिने देखा, सांस बिलकुल बन्द है।

उस पुरुषने कहा-“अच्छा, अबकी बार मुहमें उंगली डालकर देखो, कुछ गरमी मालूम होती है या नहीं?"

शान्तिने उंगली मुंहमें डालकर देखा और कहा--"मेरी समझ में तो कुछ भी नहीं आता।" शान्तिके मनमें आशा पैदा हो रही थी।

महापुरुषने बायें हाथसे जीवानन्दकी लाश छुई। बोले-- "तुम बहुत डर गयी हो, हिम्मत हार गयी हो, इसीले तुम्हें नहीं मालूम पड़ता। एक बार फिर देखो। मुझे तो अबतक शरीरमें कुछ गरमी मालूम पड़ती है।"

शान्तिने अबकी फिर नाड़ी देखी, कुछ-कुछ चलती जान पड़ी। अचरजमें आकर उसने कलेजेपर भी हाथ रखकर देखावह भी कुछ-कुछ धड़कता हुआ मालूम पड़ा। नाकके पास उंगली ले जाते ही सांस चलनेकी आहट मिली। मुखके भीतर भी गरमी मालूम पड़ी।

शान्तिने पूछा- क्या अबतक इस शरीरमें प्राण थे? अथवा आपने नयी जान डाल दी है?"

वे बोले-“बेटी! कहीं ऐसा भी होता है! क्या तुम उसे ढोकर तालाबके पास ले चल सकती हो? मैं चिकित्सक हूं। वहीं उसकी चिकित्सा करूंगा।" [ १७७ ]शान्तिने झटपट जीवानन्दको गोदमें उठा लिया और तालाब की ओर ले चलो। महापुरुषने कहा-"तुम उसे तालाबके पास ले जाकर जहां जहां खून लगा है सब अच्छी तरहसे धो डालो।"

शान्तिने जीवानन्दको तालाबके पास ले जाकर खनके सब दाग धोये। तबतक वे महापुरुष जङ्गली लता-पत्रों का प्रलेप बनाये हुए आ पहुंच। उन्होंने तमाम जनोंके ऊपर वही लेप लगा दिया और बारबार जीवानन्दके शरीरपर हाथ फैरना शुरू किया। थोड़ी ही देरमें जीवानन्द चटपट उठ बैठे। उठते ही उन्होंने शान्ति की ओर देखते हुए कहा-“युद्ध में किसकी जय हुई!”

शान्तिने कहा-“तुम्हारी। इन महात्माको प्रणाम करो।"

उसी क्षण सबने देखा, वहां तो किसीका पता भी नहीं है। अब वे प्रणाम किसको करें?

इधर पास ही जीतकी खुशीमें फूली हुई सन्तान-सेना बड़ा ऊधम उत्पात मचाये हुए थी। पर शान्ति और जीवानन्द वहांसे हिलेतक नहीं, चुपचाप उस पूर्णिमाकी चांदनीमें चमकती हुई पुष्करिणीके घाटपर बैठे रहे। औषधके प्रभावसे जीवानन्दका शरीर तुरत भला-चङ्गा हो गया। उन्होंने कहा-“शान्ति! उस वैद्यकी औषधिका कैसा विचित्र चमत्कार है। मेरे शरीर में इस समय न तो कहीं कुछ पीड़ा है, न किसी तरहकी थकावट मालूम होती है। अब चलो, कहां चलोगी? वह देखो सन्तान-सेनाके जय जयकारका शब्द सुनाई दे रहा है।"

शान्ति ने कहा-- "अब वहां नहीं माताका कर्योधार हो चुका। देश सन्तानोंका हो गया। हम लोग कुछ राज्य हिस्सा बंटाना नहीं चाहते अब वहां किस लिये चले?"

जीवा-"जो राज्य औरोंसे छीना है, उसकी अपने बाहुबलसे रक्षा करेंगे।" [ १७८ ]शान्ति-रक्षा करनेके लिये महेन्द्र काफी हैं। स्वयं महाप्रभु सत्यानन्द मौजूद हैं। तुमने सन्तान-धर्मके लिहाजसे अपने पापका प्रायश्चित्त करनेके लिये देह-त्याग कर दिया था। अब फिरसे पाये हुए इस शरीरपर सन्तानोंका कोई दावा नहीं है। सन्तानोंके लेखे तो हम मर चुके। अब हमें देखनेपर सन्तातगण कह सकते हैं कि तुम युद्धके समय प्रायश्चित्त करनेके डरसे छिप गये थे और अब जीत होनेको खबर पाकर राज्यमें हिस्सा बांटने आये हो।"

जीवा-“यह क्या शान्ति? लोग बुराई करेंगे, इसी डर से क्या मैं अपना काम छोड़ दूंगा? मेरा काम माताकी सेवा करना है। कोई कुछ भी क्यों न कहे, पर मैं मातृसेवा न छोडूंगा।"

शान्ति-"अब तुम ऐसा करनेके अधिकारी नहीं रहे क्योंकि तुमने मातृसेवाके लिये अपनी जान दे दी थी। यदि फिर माताकी सेवा करने पाये, तो प्रायश्चित्त ही कौन-सा हुआ। मातृसेवासे वञ्चित होना ही इस प्रायश्चित्तका मुख्य अङ्ग है। नहीं तो केवल जान दे डालना ही क्या कोई बड़ा भारी काम है?"

जीवा०-“शान्ति! असली तत्वतक तुम्हीं पहुंचती हो। मैं अपने प्रायश्चित्तको अधूरा न रखूंगा। मेरा सुख सन्तानधर्म का पालन करना ही है, उसी सुखसे मैं अपनेको वञ्चित करूंगा। पर कहां जाऊ! मातृसेवा त्यागकर घर जा सुख भोगना तो अपनेसे नहीं बन पड़ेगा।"

शान्ति-“मैं भी तो घर जानेकी बात नहीं कह रही हूँ। हम लोग अब गृहस्थ नहीं रहे। दोनों जने इसी तरह संन्यासी रहेंगे। सदा ब्रह्मचर्यका पालन करते रहेंगे। चलो हमलोग इधर-उधर तीर्थों में घूम-फिरकर दिन बितायें।”

जीवा०-“उसके बाद?" [ १७९ ]शान्ति-"उसके बाद हिमालयपर कुटी बना दोनों जने देवताकी आराधना करेंगे और यही वर मागेंगे कि हमारी माताका मङ्गल हो।”

इसके बाद दोनों जने हाथमें हाथ मिलाये उस आधीरातके समय, उस निखरी हुई चांदनीमें न जाने किधर गायब हो गये।

हाय, मां! क्या वे फिर न आयेंगे! क्या तू जीवानन्द सा पुत्र और शांति-सी कन्या फिर नहीं उत्पन्न करेगी!