शिवशम्भु के चिट्ठे/५-आशाका अन्त!

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शिवशम्भु के चिट्ठे  (1985) 
द्वारा बालमुकुंद गुप्त

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आशाका अन्त!

माइ लार्ड! अबके आपके भाषणने नशा किरकिरा कर दिया। संसारके सब दुःखों और समस्त चिन्ताओंको जो शिवशम्भु शर्मा दो चुल्लू बूटी [ ३५ ]
पीकर भूला देता था, आज उसका उस प्यारी विजयापर भी मन नहीं है। आशासे बँधा हुआ यह संसार चलता है। रोगीको रोगसे, कैदीको कैदसे, ऋणीको ऋणसे, कंगालको दरिद्रतासे, इसी प्रकार हरेक क्लेशित पुरुषको एक दिन अपने क्लेशसे मुक्त होने की आशा होती है। चाहे उसे इस जीवनमें क्लेशसे मुक्ति न मिले, पर आशाके सहारे इतना होता है कि वह धीरे-धीरे अपने क्लेशोंको झेलता हुआ एक दिन इस क्लेशमय जीवनसे तो मुक्त हो जाता है। पर हाय! जब उसकी यह आशा भी भंग हो जाय, उस समय उसके कष्टका क्या ठिकाना!

"किस्मत पे उस मुसाफिरे खस्ताके रोइये।
जो थक गया हो बैठके मंजिलके सामने।"

बड़े लाट होकर आपके भारतमें पदार्पण करनेके समय इस देशके लोग श्रीमान् से जो-जो आशाएं करते और सुख-स्वप्न देखते थे, वह सब उड़न् छू हो गये। इस कलकत्ता महानगरीके समाचारपत्र कुछ दिन चौंक-चौंक पड़ते थे कि आज बड़ेलाट अमुक मोड़पर वेश बदले एक गरीब काले आदमीसे बातें कर रहे थे, परसों अमुक आफिसमें जाकर कामकी चक्कीमें पिसते हुए क्लर्कोंकी दशा देख रहे थे और उनसे कितनी ही बातें पूछते जाते थे। इससे हिन्दू समझने लगे कि फिरसे विक्रमादित्यका आविर्भाव हुआ या अकबरका अमल हो गया। मुसलमान खयाल करने लगे कि खलीफा हारूं रशीदका जमाना आ गया। पारसियोंने आपको नौशीरवां समझनेकी मोहलत पाई थी या नहीं, ठीक नहीं कहा जा सकता। क्योंकि श्रीमान् ने जल्द अपने कामोंसे ऐसे जल्दबाज लोगोंके कष्ट कल्पना करनेके कष्टसे मुक्त कर दिया था। वह लोग थोड़े ही दिनोंमें इस बातके समझनेके योग्य हो गये थे कि हमारा प्रधान शासक न विक्रमके रंगढंग का है, न हारूं या अकबरके, उसका रंगही निराला है! किसीसे नहीं मिलता!

माइ लार्ड! इस देशकी दो चीजोंमें अजब तासीर है। एक यहांके जलवायुकी और दूसरे यहांके नमककी, जो उसी जलवायुसे उत्पन्न होता है। नीरससे नीरस शरीरमें यहांका जलवायु नमकीनी ला देता है। मजा यह कि उसे नमकीनीकी खबर तक नहीं होती। एक फारिसका कवि कहता है कि [ ३६ ]
हिन्दुस्थानमें एक हरी पत्ती तक बेनमक नहीं है, मानो यह देश नमकसे सींचा गया है। किन्तु शिवशम्भु शर्माका विचार इस कविसे भी कुछ आगे है। वह समझता है कि यह देश नमककी एक महाखानि है, इसमें जो पड़ गया, वही नमक बन गया। श्रीमान् कभी चाहें तो सांभर झीलके तटपर खड़े होकर देख सकते हैं। जो कुछ उसमें गिर जाता, वही नमक बन जाता है। यहां के जलवायुसे अलग खड़े होकर कितनोंहीने बड़ी-बड़ी अटकलें और लम्बे-चौड़े मनसूबे बांधे, पर यहांके जलवायुका असर होते ही वह सब काफूर हो गये।

अफसोस माइ लार्ड! यहांके जलवायुकी तासीरने आपमें अपनी पिछली दशा के स्मरण रखनेकी शक्ति नहीं रहने दी। नहीं तो अपनी छ: साल पहलेकी दशासे अबकी दशाका मिलान करके चकित होते। घबराके कहते कि ऐं मैं क्या हो गया? क्या मैं वही हूं, जो विलायत से भारत की ओर चलने से पहले था? बम्बईमें जहाजसे उतरकर भूमि पर पांव रखते ही यहांके जलवायु का प्रभाव आपपर आरम्भ हो गया था। उसके प्रथम फलस्वरूप कलकत्ते में पदार्पण करते ही आपने यहां के म्यूनिसिपल कार्पोरेशन की स्वाधीनता की समाप्ति की। जब वह प्रभाव कुछ और बढ़ा, तो अकालपीड़ितों की सहायता करते समय आपकी समझ में आने लगा कि इस देश के कितने ही अभागे सचमुच अभागे नहीं, वरञ्च अच्छी मजदूरीके लालच से जबरदस्ती अकालपीड़ितोंमें मिलकर दयालु सरकार को हैरान करते हैं! इससे मजदूरी कड़ी की गई।

इसी प्रकार जब प्रभाव तेज हुआ, तो आपने अकाल की तरफ से आंखों पर पट्टी बांधकर दिल्ली-दरबार किया। अन्त को गत वर्ष आपने यह भी साफ कह दिया कि बहुतसे पद ऐसे हैं, जिनके पैदाइशी तौरसे अंगरेज ही पाने के योग्य हैं। भारतवासियों को सरकार जो देती है, वह भी उनकी हैसियत से बढ़कर है। तब इस देशके लोगों ने समझ लिया था कि अब श्रीमान् पर यहां के जलवायु का पूरा सिक्का जम गया। उसी समय आपको स्वदेश-दर्शन की लालसा हुई। लोग समझे, चलो, अच्छा हुआ, जो हो चुका, वह हो चुका, आगेको तासीरकी अधिक उन्नति से पीछा छूटा। किन्तु आप कुछ न समझे। कोरियामें जब श्रीमान् की आयु अचानक सात [ ३७ ]
साल बढ़कर चालीस हो गयी, उस समय भी श्रीमान् की समझमें आ गया था कि वहांकी सुन्दर आबहवा के प्रताप से आप चालीस सालके होने पर भी बत्तीस-तैंतीसके दिखाई देते हैं। पर इस देशकी आबहवा की तासीर आपके कुछ समझ में न आई। वह विलायतमें भी श्रीमान् के साथ लगी गई और जब तक वहां रहे, अपना जोर दिखाती रही। यहां तक कि फिर आपको एक बार इस देशमें उठा लाई, किसी विध्न-बाधा की परवा न की।

माइ लार्ड! इसका नमक यहांके जलवायुका साथ देता है; क्योंकि उसी जलवायु से उसका जन्म है। उसकी तासीर भी साथ-साथ होती रही। वह पहले विचार-बुद्धि खोता है। पीछे दया और सहृदयाताको भगाता है और उदारताको हजम कर जाता है। अन्तको आंखों पर पट्टी बांधकर, कानोंमें ठीठे ठोककर, नाकमें नकेल डालकर आदमीको जिधर-तिधर घसीटे फिरता है और उसके मुंहसे खुल्लमखुल्ला इस देशकी निन्दा कराता है। आदमीके मनमें वह यही जमा देता है कि जहांका खाना, वहाँ की खूब निन्दा करना और अपनी शेखी मारते जाना। हम लोग भी उस नमककी तासीरसे बेअसर नहीं हैं। पर हमारी हड्डियां उसीसे बनी हैं, इस कारण हमें इतना ज्ञान रहता है कि हमारे देशके नामककी क्या तासीर है। हम लोग खूब जानते थे कि यदि श्रीमान् कहीं दूसरी बार भारतमें आ गये, तो एकदम नमककी खानमें जाकर नमक हो जावेंगे। इसीसे चाहते थे कि दोबारा आप न आवें। पर हमारी पेश न गई। आप आये और आते ही उस नमककी तासीरका फल अपने कौंसिल और कानवोकेशनमें प्रकट कर डाला!

इतने दिन आप सरकारी भेदोंके जाननेसे, अच्छे पद पानेसे, उन्नतिकी बातें सोचनेसे, सुगमताके शिक्षा लाभ करनेसे, अपने स्वत्वोंके लिये पार्लामेण्ट आदिमें पुकारनेसे इस देशके लोगोंको रोकते रहे। आपकी शक्तिमें जो-कुछ था, वह करते रहे। पर उसपर भी सन्तोष न हुआ, भगवान की शक्तिपर भी हाथ चलाने लगे! जो सत्यप्रियता इस देशको सृष्टिके आदिसे मिली है, जिस देशका ईश्वर "सत्यंज्ञान-मनन्तंब्रह्म" है, वहांके लोगोंको सभामें बुलाके ज्ञानी और विद्वानका चोला पहनकर उनके मुंहपर झूठा और [ ३८ ]
मक्कार कहने लगे। विचारिये तो यह कैसे अधःपतन की बात है? जिस स्वदेशको श्रीमान् ने आदर्श सत्यका देश और वहांके लोगोंको सत्यवादी कहा है, उसका आला नमूना क्या श्रीमान् ही हैं? यदि सचमुच विलायत वैसा ही देश हो, जैसा आप फरमाते हैं और भारत भी आपके कथनानुसार मिथ्यावादी और धूर्त देश हो, तो भी तो क्या कोई इस प्रकार कहता है? गिरेको ठोकर मारना क्या सज्जन और सत्यवादीका काम है? अपनी सत्यवादिता प्रकाश करनेके लिये दूसरेको मिथ्यावादी कहना ही क्या सत्यवादिताका सबूत है?

माइ लार्ड! जब आपने शासक होनेके विचारको भूलकर इस देशकी प्रजाके हृदय में चोट पहुंचाई है, तो दो-एक बातें पूछ लेनेमें शायद कुछ गुस्ताखी न होगी। सुनिये, विजित और विजेता में बड़ा अन्तर है। जो भारतवर्ष हजार सालसे विदेशीय विजेताओंके पावोंमें लोट रहा है, क्या उसकी प्रजाकी सत्यप्रियता विजेता इंग्लैण्डके लोगोंकी सत्यप्रियताका मुकाबिला कर सकती है? यह देश भी यदि विलायतकी भांति स्वाधीन होता और यहांके लोग ही यहांके राजा होते, तब यदि अपने देशके लोगोंको यहांके लोगों से अधिक सच्चा साबित कर सकते, तो आपकी अवश्य कुछ बहादुरी होती। स्मरण करिये उन दिनोंको कि जब अंगरेजोंके देशपर विदेशियोंका अधिकार था। उस समय आपके स्वदेशियों की नैतिक दशा कैसी थी, उसका विचार तो कीजिये। यह वह देश है कि हजार साल पराये पांवके नीचे रहकर भी एकदम सत्यतासे च्युत नहीं हुआ है। यदि आपका यूरोप या इंग्लैण्ड दस साल भी पराधीन हो जावे, तो आपको मालूम पड़े कि श्रीमान् के स्वदेशीय कैसे सत्यवादी और नीतिपरायण हैं। जो देश कर्म्मवादी है, वह क्या कभी असत्यवादी हो सकता है? आपके स्वदेशीय यहां बड़ी-बड़ी इमारतोंमें रहते हैं। जैसी रुचि हो, वैसे पदार्थ भोग सकते हैं। भारत आपके लिये भोग्यभूमि है। किन्तु इस देश के लाखों आदमी इसी देशमें पैदा होकर आवारा कुत्तोंकी भांति भटक-भटककर मरते हैं। उनको दो हाथ भूमि बैठनेको नहीं, पेट भरकर खानेको नहीं, मैले चिथड़े पहनकर उमरें बिता देते हैं और एक दिन कहीं पड़कर चुपचाप प्राण दे देते हैं। हालकी इस सर्दी में कितनों ही के प्राण जहां-तहां निकल गये। इस प्रकार [ ३९ ]क्लेश पाकर मरनेपर भी क्या कभी वह लोग यह कहते हैं कि पापी राजा है, इससे हमारी यह दुर्गति है? माइ लार्ड! वह कर्म्मवादी हैं। वह यही समझते हैं कि किसीका कुछ दोष नहीं है, सब हमारे पूर्व कर्म्मेंका दोष है! हाय! हाय! ऐसी प्रजाको आप धूर्त कहते हैं!

कभी इस देशमें आकर आपने गरीबोंकी ओर ध्यान न दिया। कभी यहांकी दीन भूखी प्रजाकी दशाका विचार न किया। कभी दस मीठे शब्द सुनाकर यहांके लोगोंको उत्साहित नहीं किया—फिर विचारिये तो गालियां यहांके लोगोंको आपने किस कृपाके बदलेमें दीं? पराधीनताकी सबके जी में बड़ी भारी चोट होती है। पर महारानी विक्टोरियाके सदय बर्तावने यहांके लोगोंके जी से वह दुःख भुला दिया था। इस देश के लोग सदा उनको माता-तुल्य समझते रहे। अब उनके पुत्र महाराजा एडवर्डपर भी इस देशके लोगोंकी वैसी ही भक्ति है। किन्तु आप उन्हीं सम्राट एडवर्डके प्रतिनिधि होकर इस देशकी प्रजाके अत्यन्त अप्रिय बने हैं, यह इस देशके बड़े ही दुर्भाग्यकी बात है! माइ लार्ड! इस देशकी प्रजाको आप नहीं चाहते और अब प्रजा आपको नहीं चाहती, फिर भी आप इस देशके शासक हैं और एक बार नहीं, दूसरी बार शासक हुए हैं। यही विचारकर इस अधबूढ़े भंगड़ ब्राह्मणका नशा किरकिरा हो जाता है!

('भारतमित्र', २५ फरवरी सन् १९०५)