कवि-रहस्य/कवि-रहस्य

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कवि-रहस्य  (1950) 
द्वारा गंगानाथ झा

[ उपोद्‍घात ]
गत वर्ष किसी विषय पर तीन व्याख्यान देने की आज्ञा मुझे 'हिन्दु-स्तानी एकेडेमी' से मिली ।

जब कभी मुझे हिन्दी में व्याख्यान देने की आज्ञा होती है तो मुझे बड़ा संकोच होता है । क्योंकि असल में हिन्दी मेरी मातृ-भाषा नहीं है । मेरी मातृ-भाषा वह मैथिली भाषा है जिसका दस-बारह बरस पहले तक घृणा की दृष्टि से नाम रक्खा गया था 'छिकाछिकी'। पर जब से लोगों का कृपाकटाक्ष विद्यापति ठाकुर के काव्यों पर पड़ा है तब से मैथिली भी हिन्दी परिवार के अन्तर्गत समझी जाती है । इतना होने पर भी यह बात नहीं भूलती कि चिरकाल से हिन्दी के अनभिज्ञों में सबसे ऊँचा स्थान बंगालियों का था, उसके बाद विहारियों का, और फिर विहारियों में भी मैथिल तो सबसे गये बीते थे । किन्तु भाग्यवश मेरे जीवन का अधिकांश काशी की ही छाया में बीता । इससे कभी-कभी हिन्दी लिखने या बोलने का साहस हो भी जाता है । इसी कारण अभी कुछ दिन हुए पटना में मेरे व्याख्यान हिन्दी में हुए । तब से साहस और बढ़ा और अब हम वह हो चले हैं जिसे ठेठ मैथिली में थेथर' कहते हैं । अर्थात् 'एकां लज्जां परि-त्यज्य त्रैलोक्यविजयी भवेत्'।

भाषा के विषय में मैं अपराधी अवश्य हूंगा । क्योंकि जिस काशी के प्रसाद से मुझे हिन्दी से कुछ परिचय हुआ है उसी के प्रसाद से मेरी हिन्दी संस्कृत-प्रचुरा हुई है । यद्यपि बहुत दिनों तक सरकारी 'खिचड़ी भाषा'के प्रादुर्भावचक्र में भी मैं पड़ा था पर उसका फल विपरीत ही हुआ । मेरा संस्कार दृढ़ हो गया कि साहित्य-क्षेत्र में दोनों भाषायें,हिन्दी तथा उर्दू,एक कभी नहीं हो सकतीं । एकभाषावादी मुझे क्षमा करें ।

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[ उपोद्‍घात ]व्याख्यान का विषय मैंने 'कवि-रहस्य' रक्खा है। क्योंकि कविकृत्य, काव्य, एक ऐसा विषय है जिसके संबंध में जो कुछ चाहे आदमी कह सकता है। वेदान्तियों के 'ब्रह्म' की तरह 'अवाङ्मनसगोचर' होते हुए यह 'सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा' भी है। पर काव्य के प्रसंग में इतना लिखा गया है कि मैंने कुछ नवीन विषय संग्रह करने का विचार किया। दो ग्रन्थ मुझे ऐसे मिल गये जिनके आधार पर मैं कुछ लिखने का साहस कर सका। एक राजशेखरकृत काव्यमीमांसा (जो समस्त रूप में एक विश्वकोष कहा जा सकता है, पर जिसका अभी एक अंश-मात्र उपलब्ध हुआ है) और दूसरा क्षेमेन्द्र-कृत कविकण्ठाभरण। दोनों ग्रन्थ हजार बरस से अधिक पुराने हैं। विषय तो मेरा होगा 'कवियों की शिक्षाप्रणाली', पर इसके संबंध में राजशेखर ने कई नई बातों का उल्लेख किया है, इनका विवरण भी कुछ करना ही होगा। कवियों के प्रसंग में यह कहा जाता है कि 'दि पोएट इज बार्न नाट मेड'। यदि ऐसा है तो यह प्रश्न उठेगा कि यदि जन्मना कवि होते हैं तो फिर कवि की शिक्षा कैसी? पर हमारे देश का सिद्धांत यह रहा है कि यद्यपि कविता का मूल कारण है प्रतिभा, और प्रतिभा पूर्व-जन्म-संस्कार-मूलक ही होती है, तथापि बिना कठिन शिक्षा के, केवल प्रतिभा के सहारे कवि सुकवि क्या कुकवि भी नहीं हो सकता। इसलिए कवित्व-सम्पादन के लिए शिक्षा आवश्यक है। और आगे चलकर यह स्पष्ट होगा कि कवि को वैसा ही 'जैक अव् आल ट्रेड्स' होना पड़ेगा जैसा कि आई॰ सी॰ एस॰ वालों को होना पड़ता है। भेद इतना ही है कि आई॰ सी॰ एस॰ में 'आप्शन' अनेक हैं पर कवि के लिए सभी 'सब्जेक्ट कम्पल्सरी' हैं।