कहानी खत्म हो गई/कहानी खत्म हो गई

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कहानी खत्म हो गई

एक असहाय विधवा के पतन की दर्दनाक कथा, जिसे नीचे धकेलने की समाज ने चेष्टा की परन्तु पाप और अपराध की गठरी उसीके सिर बंधी।

चाय पाने में देर हो रही थी। और मेरा मिज़ाज गर्म होता जा रहा था! आप तो जानते ही हैं, मैं इन्तज़ार का आदी नहीं। फिर, चाय का इन्तजार।

मेजर वर्मा ने यह बात भांप ली, उन्होंने एक हिट दिया। बोले-चौधरी, उस औरत का फिर क्या हुआ?

क्षण-भर के लिए चाय पर से मेरा ध्यान हट गया, एक सिहरन-सी सारे शरीर में दौड़ गई, जैसे बिजली का तार छू गया हो। मैंने चौंककर मेजर की ओर देखा। पर जवाब देते न बना, बात मुँह से न फूटी। एक अजीब-सी बेचैनी में महसूस करने लगा।

लेकिन मेजर वर्मा जैसे अपने प्रश्न का उत्तर लेने पर तुले हुए थे। वे एकटक मेरी ओर देख रहे थे। प्रश्न का मेरे ऊपर जो असर हुआ था, उसे मित्र-मण्डली ने भी भांप लिया। वे लोग अपनी गपशप में लगे थे, पर विंग कमांडर भारद्वाज ने हंसकर कहा-कौन औरत भई, उसमें हमारा भी शेअर है।

भारद्वाज की हंसी में न मैंने साथ दिया न मेजर वर्मा ने। वर्मा की उत्सुकता उनकी आंखों से प्रकट हो रही थी। मैं उनकी आंखों से आंख न मिला सका। आप ही मेरी आँखें नीचे को झुक गईं। मैंने धीरे से कहा-मर गई।

मेजर की छाती में जैसे किसीने घूसा मारा। उन्होंने एकदम कुर्सी से उछलकर कहा-अरे, कब?

'कल सुबह-मैंने धीरे से कहा।

मित्र-मण्डली की गपशप एकदम बन्द हो गई। वे सब मेरी ओर देखने लगे। वातावरण एकदम गम्भीर हो गया। मेरे चेहरे पर जो वेदना की रेखाएं उभर आई थीं, उन्होंने सभी को अभिभूत कर दिया। सबसे अधिक फील किया मिसेज़ शर्मा [  ] ने। उन्होंने मेरी ओर खिसककर अपने नंगे कंधे मेरे कंधों से छुपा दिए, फिर धीरे से पूछा-कौन थी?

'थी एक', एक गहरी सांस लेकर मैंने कहा।

'क्या बीमार थी?'

'बीमार कोई और था, लेकिन मर गई वह।' मेरा जवाब असाधारण था, और मैं एकाएक उत्तेजित और असंयत हो उठा था। मेजर भी जैसे मेरे जवाब से जड़ बन गए थे। इसीसे इस औरत के सम्बन्ध में सभी की जिज्ञासा जाग गई। वेटर कब चाय रख गया, इसका ज्ञान भी हममें से किसी को नहीं हुआ। भारद्वाज ने कहा-यह तो कोई बहुत ही सीरियस केस मालूम पड़ता है।

मेजर वर्मा ने बीच ही में बात पकड़ ली। उन्होंने कहा--सीरियस होने में क्या शक है। लेकिन हुआ क्या?

'क्या पूरा ही किस्सा सुना दूं?' मैंने कुछ दर्द-भरे स्वर में कहा। मेरे कहने का ढंग शायद कुछ प्रभावशाली था। सभी मेरे मुंह की ओर देखने लगे। भारद्वाज ने कहा--ज़रूर, ज़रूर। पूरा ही किस्सा सुनाइए।

मिसेज़ शर्मा ने चाय का प्याला तैयार किया, मेरी ओर बढ़ाया, कहा-लीजिए, एक सिप लीजिए।

मैंने दो सिप लिए और प्याला एक ओर टेबुल पर रख दिया। फिर मैंने कहाआप लोग समझते होंगे, ज्यादातर ट्रेजेडी शहरों में होती है, क्योंकि वहां संघर्ष है, दिमाग है, कानून है, रुपया है, शान है।

सब चुपचाप सुनते रहे। मैं आगे क्या कहना चाहता हूं इसीपर सबका ध्यान केन्द्रित था। मैंने कहा-लेकिन हमारे देहातों में भी कभी ऐसी ट्रेजेडी हो जाती है जो मनुष्यता और सभ्यता को एक करारा चैलेंज देती है। वहां रुपया नहीं है, दिमाग नहीं है, कानून नहीं है, शान नहीं है, केवल दिल है।

कमांडर भारद्वाज उछल पड़े। ज़ोर-ज़ोर से बोले-अरे यार, तो यह कोई दिलवाला मामला है। तब मैं ज़रूर सुनूंगा। उन्होंने सिगरेट का एक गहरा कश जलया। भारद्वाज का यह गुंडा जैसा टोन मुझे पसन्द न आया। वास्तव में मेरा मूड कुछ दूसरा ही था। मैंने एक व्यंग्यबाण छोड़ा, कहा-क्यों नहीं, माप दिलफेंक जो ठहरे। पर यह कहानी दिलवालों की है। [  ] दिलवाले भी बैठे हैं।

और एक सिप चा' का लिया। फिर मेजर वर्मा की ओर मुखातिब होकर कहा-आपने तो उसे पुलिस की हिरासत में ही देखा था न?

मेजर ने कहा-जी हां, ओह, उस दिल हिला देनेवाले वाकये को तो मैं ज़िन्दगी-भर नहीं भूल सकता। खासकर वह घटना जब पुलिस के अफसर ने तरबूज़ की मिसाल देकर वह झोला मेरे सामने उलट दिया था। तोबा-तोबा!!

मिसेज़ शर्मा एकदम बौखला उठीं, बोलीं-अजी, पहेली न बुझाइए, किस्सा सुनाइए। हुआ क्या?

मेजर की आंखें भय से फटी-फटी हो रही थीं। जैसे अभी भी वे उस झोले से बाहर निकली हुई चीज़ को देख रहे थे। मैंने उन्हींको लक्ष्य कर कहा- उस वक्त तक भी पूरा किस्सा मुझे मालूम न था, सारी बातें तो पीछे मुझे मालूम हुई। पर तब तो वह मर ही चुकी थी। अपने पर शर्मिन्दा होने और अफसोस करने के अलावा हम कर ही क्या सकते थे?

बहुत देर तक मेरे मुंह से बात न फूटी। कितनी ही बातें-कल्पना और सत्य की-मेरे मानस-नेत्रों में नाच उठीं, सच पूछिए तो मैं अभी तक उस घटना से मर्माहत न था, अभी-एक दिन पहले ही की तो वह घटना थी। घाव ताज़ा था। इस क्षण उसकी वे आंखें, आंखों की वह वेदना, निराशा और सारी ही मानवसभ्यता को धिक्कार का संदेश, जो मृत्यु के समय उसके निस्पन्द होंठ दे रहे थे, मेरे नेत्रों में भी खड़े हुए। मेरा कण्ठ रुक गया।

मिसेज़ शर्मा बहुत विचलित हो गईं। उन्होंने कहा-जाने दीजिए, यदि आपको वह किस्सा सुनाने में तकलीफ हो रही है तो मत कहिए। आप चा' लीजिए। उन्होंने एक ताज़ा प्याला तैयार कर मेरे आगे बढ़ाया। उनकी उंगलियां कांप रही थीं और उद्वेग तथा भावावेश से उनका हृदय आन्दोलित हो रहा है, यह स्पष्ट दीख पड़ता था।

प्याले की ओर मैंने आँख उठाकर भी न देखा और मैंने किस्सा कहना शुरू किया:

वह हमारे ही गांव की लड़की थी। उसका बाप हमारी जमींदारी में सर्व राहकार था। बूढ़ा और भला आदमी था। हमारा ग्रामीण जीवन, शहर के जीवन से [ १० ] सर्वथा भिन्न होता है। आप कदाचित् उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। गांव में हम सब छोटे-बड़े, ऊंच-नीच एक पारिवारिक भावना से रहते हैं। न जाने कब से, सम्भवतः आदियुग की यह परिवार-भावना हमारे गांवों में अब तक चली आ रही है। सुनते हैं कि प्राचीन काल में, जब नगर नहीं थे, सभ्यता नहीं थी, जीवन अपने ही में केन्द्रित था और मनुष्य जीवन-संघर्ष को सबसे बड़ा मानता था। प्रादर्शो की, समाज की, सभ्यता की, धर्म-मर्यादा की तब तक उत्पत्ति भी न हुई थी तभी से मनुष्य ने ग्राम-संस्था स्थापित की। सामाजिक जीवन का वह प्रथम अध्याय था। उसीसे मनुष्य ने सामूहिक हितों का सर्जन करके समाज-संस्था की नींव डाली। 'ग्राम' का अर्थ था-समूह। कुछ लोग एकत्र होकर जहां बसते वह ग्राम कहाता था। आवश्यक नहीं था कि यह ग्रामवास स्थायी हो। वह तो चलग्राम था। ग्राम का अर्थ स्थानसूचक न था, समूहसूचक था; अतः उस काल मनुष्यों के ये ग्राम जीवन-यापन के संघर्ष से प्रताड़ित घूमा करते थे-यहां से वहां, वहां से यहां। परिस्थितियों ने उनमें सामूहिक हितों की सृष्टि कर दी। सुख-दुःख, लाभ-हानि सभी में उनके स्वार्थ एकत्र हो गए और एक ग्राम-समूह एक परिवार की भांति रहने लगा। इस परिवार में जाति-भेद को स्थान न था। सब वृद्ध पितृतुल्य थे, सब वृद्धाएं माता, और सब "युवक-युवतियां परस्पर भाई-बहिन। उनका सबका एक ग्राम था, एक गोत्र था। गोत्र का अर्थ था चरागाह, जहां उनके पशु चरते थे। एक ग्राम का परिचय दूसरे ग्राम के मनुष्यों से इसी ग्राम-गोत्र के द्वारा होता था। प्रत्येक ग्राम और गोत्र का। एक कुलपति होता था। उसीके नाम से वह ग्राम-गोत्र प्रसिद्ध होता था।

शताब्दियां बीती, सहस्राब्दियां बीतीं। नगर बसे, सभ्यता का विकास हुना। जीवन के आदर्श बदले, क्रम बदला, समाज बदला, बदलता चला गया।

गांवों में भी यह परिवर्तन पहुंचा। सहस्राब्दियों के प्रभाव से गांव भला अछूते कैसे रह सकते थे! अब 'गांव' स्थान के अर्थ में था-समूह के अर्थ में नहीं। अब लोगों की बस्ती को गांव कहते थे। समाज में अनेक जातियां हो गई थीं। गंगो गांव में भी अनेक जातियां बसती थीं; हिन्दू थे, मुसलमान थे। हिन्दुओं में भी ब्राह्मण थे, क्षत्रिय थे, जाट थे, अहीर थे, लुहार थे, भंगी थे, चमार थे, धोबी थे, नाई थे। समाज की व्यवस्था के अनुसार वे अपना-अपना काम करते थे। गांवों में किसानों की ही बस्ती अधिक होती है। जो लोग किसान और किसानों के उपजीवी नहीं होते वे शहरों में, कस्बों में बसते हैं। जो लोग वहां बसते हैं उनकी वहां [ ११ ] सम्पत्ति भी है। ज़मींदार हैं, किसान हैं, उनके खेत हैं, घरबार हैं। किसी के कम, किसीके अधिक। कोई रईस है, कोई अमीर। इस प्रकार समाज के संगठन का, व्यवस्था का, राजसत्ता का, कानून का, धर्म का-सभी का युगवर्ती प्रभाव गांवों पर पड़ा है। उनसे उनमें परिवर्तन भी पाया है, पर एक प्राचीनतम बात अभी तक गांवों में चली आ रही है। वह है परिवार-भावना। गांव की बूढ़ी भंगन को भी गांव के ब्राह्मण की पतोहू सास कहकर पांव पड़ती है। गांव की प्रत्येक लड़की गांव के प्रत्येक लड़के की बहिन और प्रत्येक प्रौढ़ की लड़की है। गांव में सब छोटे-बड़ों का सम्बन्ध-चाचा, ताऊ, भाई, भतीजा, देवर, भाभी, काकी, ताई आदि पारिवारिक सम्बन्ध हैं। यहां तक कि गांव की लड़की जिस दूसरे गांव में ब्याही जाती है, उस गांव का पानी भी न पीनेवाले वृद्ध पुरुष अब भी गांवों में जीवित हैं। यह है हमारे गांवों की परिवार-परम्परा-शताब्दियों, सहस्राब्दियों से चली आती हुई।

हां, तो मैं उस लड़की की बात कह रहा था। वह हमारे गांव की लड़की थी, और हमारी ज़मींदारी की सर्वराहदार की बेटी थी। हमारा घर ज़मींदार का घर था। गांव के सारे ही स्त्री-पुरुष हमारी रैयत थे। वे हमारे घर आते-जाते रहते थे, स्त्रियां भी, पुरुष भी। काम से भी और बेकाम से भी। बाहर पिताजी का दीवानखाना और भीतर जनाने में माताजी का कमरा आने-जाने वाले स्त्रीपुरुषों से भरा ही रहता था। हवेली हमारी बहुत भारी थी। सत्तावन के गदर में अंग्रेज सरकार ने हमारे दादा को इक्कीस गांव इनाम दिए थे और तभी हमारे दादा ने अपनी हवेली के लिए इतनी जगह घेर ली थी कि उसमें आधा गांव समा जाता था। सस्ते का ज़माना था। राज, बढ़ई उन दिनों दो-ढाई आना रोज़ मज़दूरी लेते, मजदूर एक आना। बड़े-बड़े महराव, मोटी-मोटी दीवारें, लम्बे-लम्बे दालान भी आज भला बन सकते हैं? अब तो हम उनकी मरम्मत भी नहीं कर सकते। हवेली वीरान होती जा रही है। अब तो न हाथी, न घोड़े, न रथ, न बहली। इनके सब थान वीरान पड़े हैं। अब तो सिर्फ यह मोटर है और हम हैं।

मैं असल बात से दूर होकर बहकता जा रहा था। भीतर मेरे रक्त में एक गर्मी-सी आ रही थी और जोश में ये सब बातें मैं कहे जा रहा था-एकाएक मुझे ध्यान आया। असल मुद्दे की बात तो पीछे ही रह गई। [ १२ ] परन्तु सब सन्नाटा बांधे सुन रहे थे। सब जैसे किसी अतीत उदारचित्त वातावरण में पहुंच चुके थे। मैंने ज़रा रुककर कहना शुरू किया:

उन दिनों मैं कालेज में लॉ का फाइनल दे रहा था। दशहरे की छुट्टियों में जब में घर पाया तो पहली बार उसे देखा-देखा' कहना ठीक न होगा। मुझे कहना चाहिए: पहली बार मेरा ध्यान उसकी ओर गया। इससे पहले बहुत बार देख चुका था-रूखे-बिखरे बाल, मैला मोटा प्रोढ़ना, पुराना घाघरा, नंगे धूलभरे पैर, पर रंग गोरा। लेकिन गांव में ऐसी बहुत लड़कियां थीं, राह-वाह में, खेत में बहुधा मिल जाती थीं। मैं तो ज़मींदार का लड़का था। शहर में पढ़ता था। सूट-बूट पहनकर ठसक से गांव में निकलता था। सो किसी लड़की-लड़के की क्या मजाल जो मुझसे बात करे। मुझे देखते ही वे सहमकर पीछे हट जाते थे। जो समझदार होते थे वे सलाम करते थे। सयानी लड़कियां ओट में छिप जाती थीं, छोटी कौतुक से मुझे देखती थीं। इसीसे इस लड़की पर भी पहले कभी मेरा ध्यान नहीं गया।

पर इस बार की बात जुदा थी। मैं घर कोई डेढ़ साल में आया था। पिछली गर्मी की छुट्टियों में यूनिवर्सिटी की टीम कश्मीर चली गई थी। मैं भी उसमें चला गया था, अतः छुट्टियों में घर नहीं आया था। घर में दशहरे की सफाई-सजावट की धूम-धाम थी। भाभियां घर सजाने में व्यस्त थीं और वह उनकी सहायता कर रही थी। अब उसके बाल बिखरे न थे। ठीक-ठीक वालों की मांग निकली थी, कपड़े सलीके के शहरी ढंग के वारीक और बढ़िया थे। स्वस्थ तारुण्य उसकी एड़ियों में झांक रहा था। जीवन की ताज़गी से वह लहलहा रही थी। जीवन में पहली ही बार किसी लड़की को मैंने ऐसी रुचि से देखा था। उसका चेहरा गुलाब के समान रंगीन और आंखें तारों के समान चमकीली थीं। वह हंसती नहीं थी, फूल बखेरती थी, चलती न थी, धरती को डगमग करती थी। मैं क्या कहं? मुझे एक ही क्षण में ऐसा प्रतीत हुआ कि जैसे दस-पांच अंगीठियां मेरे अंग में धधक रही हैं और मैं तपकर लाल हो रहा हूं। आग की लपटें मेरी आँखों से निकलने लगीं और मैं वहां से लड़खड़ाता हुआ ऊपर कमरे में आकर औंधे मुंह पलंग पर पड़ रहा। मैंने समझा मुझे बुखार चढ़ गया है।

इतना कहकर मैं ज़रा चुप हुआ। बीते हुए दिन एक-एक करके मेरे नेत्रों में आने लगे। [ १३ ] लेकिन कमांडर भार्गव बेचैन हो रहे थे। उन्होंने इतमीनान से कुर्सी पर आसन जमाते हुए कहा-कहे जानो, कहे जाओ दोस्त; मामला ठण्डा मत होने दो। उन्होंने नई सिगरेट सुलगाई।

मैंने आगे कहना प्रारम्भ किया:

वह मुझे देखकर लजाई थी, मुस्कराई थी, भाभी की ओट में छिप गई थी, छिपकर उसने फिर मुझे देखा था। वह सब-देखना, मुस्कराना, छिपना, लजाना अब सिनेमा की तस्वीर की भांति अनेक वार, सौ बार, हज़ार बार तेजी से मेरी आंखों में घूम रहे थे। मेरा सिर घूम रहा था। धरती-आसमान भी सब शायद घूम रहे थे।

बहुत देर तक मेरी यही हालत रही। पर फिर मुझे ज़रा-सी नींद आ गई। जगने पर मेरा मन कुछ शान्त था। मुझमें समझ आ गई थी। अभी हृदय मेरा कोरा था, तारुण्य मेरा निर्दोष था। इस प्रथम विकार पर मुझे लज्जा आई। मुझे लगा, यह खराब बात है। गांव की सभी बहू-बेटियां मेरी बहनें हैं। पिताजी ने कई बार यह कहा है: हम ज़मींदार हैं, इससे और भी हमारा गौरव बढ़ जाता है। मुझे ऐसा न सोचना चाहिए। यह मेरी प्रतिष्ठा-मर्यादा के सर्वथा विपरीत है। मैं मन ही मन अपने को धिक्कारने लगा और एकबारगी ही उसे मन से निकाल फेंका।

लेकिन कहां? पलंग से उठते ही मैं खिड़की में आ खड़ा हुआ, और नीचे प्रांगन में चारों ओर देखने लगा, जैसे कुछ खो गया हो। किसे भला? यह मैंने अपने मन से पूछा। और जब मन ने कहा-'उसीको' तो मैं अपने पर बहुत झुंझलाया। वैसे ही कमीज़ पहने मैं नीचे उतरा और सीधा बाग की तरफ चल दिया। देर तक बाग में और नहर की पटरी पर फिरता रहा। माली से बातें कीं। मुझे प्रसन्नता हुई कि वह तूफान खत्म हो गया। अब उसकी कभी याद न करूंगा। वाहियात बात पर रात को बहुत देर तक नींद न आई। उसका वह मुस्कराना, लजाकर भाभी की ओट में छिपकर देखना! वाहियात! वाहियात! ये सब खुराफात, गंदी बातें हैं। भला इनसे मुझे क्या सरोकार!

लेकिन नींद नहीं आ रही थी। मैंने एक मोटी-सी कानून की किताब उठा ली, और एक कठिन कानूनी नुक्ते पर कुछ रूलिंग्स पढ़ने लगा। लेकिन वहां तो प्रत्येक अक्षर की ओट से वह झांक रही थी, मुस्करा रही थी। धुत्! [ १४ ] भारद्वाज ज़ोर से हंस पड़े।

मैंने कहा-ठीक है, आप हंस सकते हैं। मेरे दुश्चरित्र और दुराचार का यह प्रमाण जो आपको मिल गया!!

मैं चुप हो गया, और मैंने आंखें बन्द कर लीं। लेकिन वही तरबूज! एक प्रकार से मैं चीख उठा।

मेजर वर्मा ने कहा-रहने दीजिए। बाकी कहानी फिर कभी सुन ली जाएगी। अभी आपकी तबियत दुरुस्त नहीं है। लेकिन मैंने कहना प्रारम्भ कर दिया:

दूसरे दिन मैंने उसे नहीं देखा। यह नहीं कह सकता कि देखना नहीं चाहा। पर मैंने अपने मन को रोकने में कोई कोर-कसर नहीं रखी। पर बेकार। उसकी छिपी हुई नजरें झांकती ही रहीं। उसके होंठ मुस्कराते ही रहे। मैंने सुना: उसकी सगाई हो गई है, और इसी साहलग में उसका ब्याह होगा।

दशहरे के दिन मेरा तिलक चढ़ा। बहुत धूमधाम हुई। गाजे-बाजे, जशनदावत, कहां तक कहूं। पिता का सबसे छोटा बेटा था। वे सबसे अधिक मुझको प्यार करते थे। भीड़-भाड़ में एक होकर मैंने देखा, हर बार मुझे प्रतीत हुआ, वह मुझको देख रही है।

छुट्टियां समाप्त होने पर मैं होस्टल में लौट आया। धीरे-धीरे वह उन्माद बीत गया। स्मृति अवश्य बनी रही, वह भी धुंधली होते-होते छिप गई। अगले वर्ष मेरी शादी हुई। सुषमा ने आकर मेरे जीवन को एक नया मोड़ दिया। सुषमा जैसी पत्नी पाकर मैं कृतार्थ हो गया। वह जैसी सुशिक्षिता है, वैसी ही शीलवती, परिश्रमी और हंसमुख स्वभाव की है। उसके प्रेम, सेवा और विनय से मैं उसमें लीन हो गया। उस लड़की की याद करके और अपनी हिमाकत का विचार करके कभी-कभी मुझे हंसी आ जाती थी, पर कभी मैंने किसी से अपने मन का यह कलुष कहा नहीं। परीक्षा पास करके मैं घर पर रहकर जमींदारी की देखभाल करने लगा। खेती और बागबानी का मुझे शौक था। उसमें मैंने मन लगाया। बड़े भाई डिप्टी-कलक्टर होकर बिहार चले गए थे। पिताजी का स्वर्गवास हो गया। मंझले भाई भी केन्द्र के शिक्षा विभाग में अंडर सेक्रेटरी हो गए। घर पर केवल मैं अकेला रह गया। दिन बीतते चले गए। तीन बरस बीत गए और ईश्वर की कृपा से सुषमा की कोख भरी। मेरै आनन्द का ठिकाना न रहा। [ १५ ] एक दिन बूढ़े सर्वराहकार रोते हुए मेरे पास आए। चौवारे आंसू बहाते हुए उन्होंने कहा-बर्बाद हो गया, छोटे सरकार! लुट गया! लड़की मेरी विधवा हो गई, उसकी तकदीर फूट गई। मेरी इकलौती बेटी थी सरकार, उसे बेटा बनाकर पाला था। उसपर यह गाज गिरी।

बूढ़ा बहुत देर तक रोता रहा। यद्यपि वे सब बातें मैं भूल चुका था, पर स्मृति के चिह्न तो बाकी ही थे। सुनकर मुझे दुःख हुआ। बूढ़े को तसल्ली दी। और जब वह चला गया, एक बूंद प्रांसू मेरी आंख से भी टपक पड़ा। वाहियात बात थी। लेकिन मन का सच्चा तो सदा से हूं। मेरा मन द्रवित हो गया। बूढ़े ने कहा था कि वह उसे यहां ले आया है, तब एक बार उसे देखने की भी लालसा हो गई। पर वह सब बात मन की थी, मन में रही। महीनों बीत गए। कभी-कभी उसका ध्यान आता, दया आती, पर कुछ विशेष आकर्षण न था। सुषमा धीरे-धीरे कमज़ोर और पीली पड़ती जा रही थी। मुझे उसकी चिन्ता थी। ज्यों-ज्यों डिलीवरी का समय निकट आ रहा था, मेरी उद्विग्नता बढ़ती जाती थी-इन सब कारणों से मैं उस बिचारी विधवा को भूल ही गया। सुषमा के प्यार ने मुझे अभिभूत कर लिया था। सुषमा मेरे जीवन का आधार थी। और अब मैं इस प्रकार के विचारों को भी मन में रखना पाप समझता था। मुझे पाकर सुषमा भी खुश थी। वह देवता की भांति मेरी पूजा करती थी।

मिसेज़ शर्मा एकदम द्रवित हो उठीं। उन्होंने कहा-भई बंद करो। आप सचमुच देवता हैं। आप जैसा पति पाने के कारण मैं तो सुषमा बहिन से ईर्ष्या करती हैं।

मैं जैसे चीख पड़ा। मेरे गले की नसें तन गईं और मुट्ठियां भिंच गईं। मैंने कहा-श्रीमतीजी, जल्दी अपनी राय कायम न कीजिए, पूरी कहानी सुन लीजिए।

मेरी बहशत और भावभंगी देख मिसेज़ शर्मा डर गईं। वे फटी-फटी आंखों से मेरी ओर टुकुर-टुकुर देखने लगीं। मैं इस योग्य न था कि इस समय उनसे अपने अशिष्ट व्यवहार के लिए क्षमा मांगूं। मैंने कहानी आगे बढ़ाई:

एक दिन देखता क्या हूं कि वह सुषमा के पास बैठी है। इस समय वह यौवन से भरपूर थी। उस समय यदि वह खिलती कली थी तो आज पूर्ण विकसित पुष्प। परिधान उसका साधारण था। पर स्वच्छता और सलीका, जो बहुधा देहात में नहीं देखा जाता, उसकी हर अदा से प्रकट होता था। उसका रंग अब ज़रा और [ १६ ] निखर गया था, अंग भर गए थे और रूप की दुपहरी उसपर चढ़ी थी। अथवा एक ही शब्द में कहूं तो वह इस समय वसन्त की फुलवारी हो रही थी। एकाएक मैंने उसे पहचाना नहीं, पर दूसरे ही क्षण जब उसने उठकर हाथ जोड़कर मुस्कराकर मुझे प्रणाम किया, मैंने उसे पहचान लिया। हाय री तकदीर! वही मुस्कराहट, वही चितवन! क्षण-भर को मेरे शरीर में रक्त की गति रुक गई और मेरे पैर कांपने लगे। साहस करके मैंने पूछा, 'अच्छी हो तो उसने लाज से सिर झुकाकर सिर्फ 'जी' कह दिया।

छी, छी! फिर वह भूली हुई बातें न जाने कहां से जीवित हो उठीं। वही मुस्कराना, छिपना और आंखें मैं तेज़ी से वहां से भाग पाया। सीधा ऊपर जा दरवाज़ा बन्दकर अपने शयनागार में आ पड़ा। एक आहत हिरन की भांति, जिसे अभी-अभी शिकारी ने तीर मारा हो।

उस दिन मैंने खाना नहीं खाया। सिरदर्द का बहाना करके पड़ा रहा। सुषमा की परेशानी ने मुझे और भी पागल बना दिया। कभी यूडीकोलोन सिर पर डालती, कभी नर्म-गर्म हथेलियों से सिर दबाती, कभी बाल सहलाती, कभी डाक्टर बुलाने का आग्रह करती। मुझ बेईमान, पाखण्डी, मक्कार के लिए वह उस एक ही दिन में आधी रह गई।

मैंने जलती हुई आंखों से मिसेज़ शर्मा की ओर देखा और कहा-कहिए, कहिए, अब भी आपको सुषमा पर ईर्ष्या होती है, परन्तु अभी ज़रा और ठहर जाइए!

एकाएक मेरी आवाज़ मुर्दे की जैसी मरी हुई हो गई। खूब ज़ोर लगाकर मैं कहने लगा:

दूसरे दिन सुबह होते ही मैं ज़मींदारी के जरूरी काम का बहाना करके इलाके पर चला गया। छ:-सात दिन तक मैं घर नहीं लौटा। आप दाद दीजिए मेरे जानवरपन की, जबकि सुषमा की यह हालत थी, इस कदर नाजुक; कोई उसे देखनेवाला न था। पहली ही डिलीवरी थी उसे, और मैं नफ्स का गुलाम कहां, किस हालत में फिर रहा था। मैं आपसे नहीं छिपाना चाहता कि मुझे न खाना भाता था, न नींद आती थी; न दिन में चैन पड़ता था, न रात को कल पड़ती थी। वही शैतान आंखें, वही मुंह छिपाकर मुस्कराना, वही गहरे गुलाबी गाल, कम्बख्त न जाने कहां से उभरे चले आते थे, मेरी बदनसीब नज़रों में? जैसे मेरे रक्त की [ १७ ] प्रत्येक बूंद में उन आंखों का खेत उग आया था। उस चितवन की, उस मुस्कान की रिमझिम बरसात हो रही थी। जी हां, एक क्षण को भी मैं उसे न भूल सका, एक क्षण को भी मैंने सुषमा को याद नहीं किया, एक क्षण को भी मैंने उसकी असहायावस्था पर गौर न किया। अन्त में मैंने अपने-आपको धिक्कारा, मन में पक्का इरादा किया, उस शैतान को मैं गांव से निकाल दूंगा, एक क्षण भी न रहने दूंगा।

सातवें दिन मैं घर लौटा। अभी दहलीज़ पार करके मैं सुषमा के कमरे में जा ही रहा था कि देखता क्या हूं, सामने से वह आ रही है। मुझे देखकर वह ठिठक रही। निकट आने पर उसने मुस्कराकर और हाथ जोड़कर मुझे नमस्कार किया। फिर वह मुस्कराती हुई ही चली गई। अजी, मुस्कराती हुई नहीं, मेरे मन में छिपी समूची वासना का सांगोपांग विवरण पढ़ती हुई। वह गहरे लाल रंग का लहंगा और उसपर चिलकेदार दुपट्टा लिए हुई थी।

भाड़ में जाए यह! गुस्से से होंठ चबाता हुआ मैं सुषमा के कमरे में पहुंचा। कल ही से उसे ज्वर था। मुझे देख वह मुस्कराई और मैं उसकी जलती हुई हथेलियों को मुट्ठी में दबाए देर तक चुपचाप बैठा रहा। कुछ बोलने की ताव ही न रही। सुषमा ही बोली। उसने कहा:

'गुमसुम क्यों हो?'

'कुछ नहीं। बहुत थक गया हूं, बहुत दौड़-धूप की है।'

सुषमा एकदम व्यस्त हो उठी। वह लेटी न रह सकी। उसने अधीर स्वर में कहा-मुंह कैसा सूख गया है! बिस्तर लगवाती हूं, ज़रा सो रहो।--उसने आवाज़ दी–अरी और वह आ खड़ी हुई। मैंने उसकी ओर नहीं देखा। सुषमा ने कहा-ज़रा झटपट यहीं बिस्तर लगा दे। बाबू की तबियत ठीक नहीं है।

मैंने बहुत ना-नूं की। वहां सुषमा के सामने मैं अपनी दुर्बलता प्रकट नहीं करना चाहता था। मैंने कहा-नहीं, नहीं, ऐसा ही है तो मैं ऊपर अपने कमरे में जा सोऊंगा। मगर तुम आराम करो। तुम्हें ज्वर है।

पर उस साध्वी पतिप्राणा को अपने ज्वर की क्या चिन्ता थी! या उसे उस पाखण्डी के मन का ही हाल मालूम था? उसने कहा-तो जा बहिन, ऊपर ही जाकर बिस्तर लगा दे।

मेरा निषेधसुषमा ने माना नहीं। उसे भेज दिया..मैं जड़ बना वहीं बैठा रहा। वह लौटकर आई। उसी तरह मुस्कराकर उसने कहा-भैयाजी का बिछौना [ १८ ] बिछा है।

'भैयाजी', यह शब्द जैसे बन्दूक की गोली की भांति मेरे मस्तिष्क में घुस गया। लेकिन मुझे तो गांव की सभी लड़कियां भैयाजी ही कहती हैं। वही गांव का प्राचीन पारिवारिक सम्बन्ध। परन्तु इस समय तो यह शब्द मेरे मुंह पर एक तमाचा था। मैं वहां न ठहर सका। तेज़ी से उठकर ऊपर अपने कमरे में बिस्तर पर आ पड़ा। कमरे की चटखनी भीतर से चढ़ा ली। क्यों? मैं कह नहीं सकता।

बहुत देर तक मैं सोता रहा। जब उठा तो शाम हो चुकी थी। उठकर मैं सीधा सुषमा के पास जा बैठा। क्षण-भर बाद ही वह चा' लेकर आई। चा' टेबुल पर रखकर चली गई। सुषमा जानती थी कि मैं इन्तज़ार नहीं कर सकता, खासकर चाय का। पर यह बात क्या वह भी जानती है?

उसके जाने के बाद मैंने सुषमा से कहा-क्या इसे तुमने नौकर रख लिया है?

उसने हंसकर कहा-नहीं, नहीं! बहुत अच्छी लड़की है। मुझे अकेली और बीमार देखा तो आप ही मेरे पास आ गई। तभी से घर के काम-काज में जुटी है। तुम्हारे जाने के बाद से रोज़ ही दिन-भर यहीं रहती रही है। कितना सहारा मिला मुझे इससे! तुम्हारे ऊपर जाने के बाद ही मैंने इससे कह दिया था कि तुम चा' का इन्तजार नहीं कर सकते। चा' तैयार कर देना। सब बातें मुझसे पूछकर यह न जाने कब से बैठी इन्तज़ार कर रही थी।--सुषमा हंस दी। और मैंने मन का उद्वेग छिपाने को एक बिस्कुट समूचा ही मुंह में ठूस लिया।

अब मेरे जीवन का नया अध्याय प्रारम्भ होने में देर न थी। मुझे सुषमा शीघ्र ही कुसुम-कोमल पुत्र देगी, जो हम दोनों के प्रेम का जीता-जागता प्रमाण होगा। अब मुझे इस शैतानी विचार को मन में नहीं लाना चाहिए। फिर मेरा अपना चरित्र है, प्रतिष्ठा है, उसका भी तो खयाल रखना चाहिए। जैसे मेरे भीतर एक नये बल का संचार हा, मेरे ओठों पर हंसी खेल गई, मैंने बड़े आनन्द से चाय का एक प्याला अपने हाथ से बनाकर सुषमा को दिया। सुषमा आनन्द से विभोर हो गई। कुछ तो अपनी अस्वस्थता के कारण, और कुछ मुझे अस्त-व्यस्त देखकर वह बहुत परेशान हो गई थी। अब मेरे हाथ से प्याला लेकर वह खुश हो गई। उसने कहा-अब तो कुछ ही दिनों की बात है।--उसकी आंखें हंस रही थीं। और मैं आनन्द-सागर में गोते लगा रहा था। अपनी मूर्खता पर मैं मन ही मन हंसने लगा। [ १९ ] 'चुडैल कहीं की। धुत्! धुत्!

सुषमा ने कहा-जाओ, ज़रा घूम आयो, तबियत ठीक हो जाएगी। खाओगे क्या, मिसरानी से कह दो।

मैंने कहा-सुषमा, आज तो मैं तुम्हारे साथ ही खाऊंगा! जो चाहे बनवा लो। लेकिन, उठना नहीं, तुम्हें ज्वर है। जरा शरीर का ध्यान रखो।

स्त्रियां कितनी भावुक और कोमल होती हैं। मेरी इतनी ही सी बात पर सुषमा गद्गद हो गई। और मैं अपने को तीसमारखां समझने लगा था। अपनी समझ में तो मैंने मन का सारा ही मैल धो डाला था। अब तो दिल में कहीं किसी कोने में भी न वह हंसी थी, न चितवन। इसे कहते हैं मार पर विजय। मदनदहन शिव ने इसी भांति किया था। बुद्ध ने भी मार पर इसी भांति विजय पाई थी।

मैं कपड़े बदलकर ज्योंही सीढ़ियों से उतरा, देखता क्या हूं, वह सुषमा के 'लिए एक कटोरा दूध लेकर उसके कमरे में जा रही है। मैंने मन में कहा, इसकी ओर देखना ही न चाहिए।--मैं आंखें नीची किए दस कदम बढ़ गया। वह भी उसी 'भांति आंखें नीची किए आगे बढ़ गई। लेकिन न जाने क्यों मैंने ठिठकर मुंह फेरकर उसकी ओर देखा! छी, छी, वह भी मुंह फेरकर मेरी ओर देख रही थी। मुझे उचटकर देखते देख वह चल दी। गुस्से से मेरा शरीर कांपने लगा, और मैं तीर की भांति वहां से बाहर निकल गया।

कमांडर भारद्वाज ज़ब्त न कर सके। ठठाकर हंस पड़े। बोले--यह गुस्सा किसपर था, उसपर या अपने पर?

क्षण-भर को सभी के चेहरों पर मुस्कान दौड़ गई। पर मिसेज़ शर्मा बहुत गम्भीर थीं। मेरे ऊपर घड़ों पानी गिर गया। मेरी वाणी रुक गई। बहुत देर तक कोई न बोला।

मेजर वर्मा एकाएक बहुत उत्तेजित हो उठे। वे कुर्सी से उछलकर खड़े हो गए। हाथ की सिगरेट उन्होंने फेंक दी और तेज़ नज़र से मेरी ओर ताकने लगे। मैं समझ गया, मेजर वर्मा कहानी के दूसरे छोर तक पहुंच चुके हैं। और अक उनके मस्तिष्क में वह तरबूज़

मेरे होंठ नीले पड़ गए। और आंखें पथरा गई। मैंने एक असहाय मूक पशु की भांति, जिसकी गर्दन पर छूरी चलनेवाली हो, करुण-कातर दृष्टि से मेजर वर्मा [ २० ] की ओर देखा। मिसेज़ शर्मा घबरा गईं। उन्होंने कहा-आपकी तबियत तो एकदम बहुत खराब हो गई है, चौधरी साहब।

'नहीं, मैं ठीक हूं।' कुन्छ 'प्रकृतिस्थ होते हुए मैंने कहा। मेजर वर्मा चुपचाप कुर्सी पर बैठकर मेरी ओर ताकते रहे। मरे हुए स्वर में मैंने कहा--मेजर, सारी बातें मैं न बता सकूँगा। आप और ये सब सज्जन मुझे क्षमा करें।

डिलीवरी की खटपट में मैं फंस गया। सुषमा बहुत बीमार हो गई थी। उसे मसूरी ले जाना पड़ा। पुत्र-जन्म का उत्सव धूम-धाम, शोर-गुल, बाजे-गाजे से हुआ, ये सब बातें क्या कहूं। चार-पांच महीने इन सब बातों को बीत गए।

एक दिन शाम को जब मैं घूमकर लौट रहा था, गांव की जनशून्य राह पर मैंने देखा: चादर में लिपटा हा कोई खड़ा है। वही थी। और मेरी ही प्रतीक्षा में खड़ी थी। निकट पहुंचने पर उसने कहा-बड़ी देर से खड़ी हूं जरा उधर चलिए, मुझे आपसे कुछ कहना है।

सच पूछिए तो मैं अब उससे सचमुच ही कतराने लगा था। वह नशा तो काफूर हो चुका था। और इधर महीनों से उससे मुलाकात ही नहीं हुई थी। मेरी बिलकुल इच्छा नहीं थी कि मुझे एकान्त में उससे बात करते कोई देख ले। पर मैं उसका अनुरोध न टाल सका। मैंने कहा-क्या बहुत जरूरी बात है?

उसकी आंखें भर आई। उसने धीरे से कहा--जी हां।

और जब हम रास्ते से हटकर उस बड़े बरगद की छांह में गए तब चारों ओर अंधेरा फैल चुका था। उसने एक ही वाक्य में वह बात कह दी। सुनकर मैं ठण्डा पड़ गया। मेरे मुंह से बात न निकली।

बहुत देर वह मेरे उत्तर की प्रतीक्षा करती रही। फिर उसने धीरे से कहा आपको मैं न किसी झंझट में डालना चाहती हूं, न आप पर मैं कोई बोझ लादना चाहती हूं। सब कुछ मैं स्वयं भुगत लूंगी। परन्तु पिताजी का देहांत हो चुका। मेरा अब पृथ्वी पर कोई नहीं है। आप गांव के राजा हैं; रियाया के माई-बाप हैं। मैं और किसी अधिकार की बात नहीं कहती, किसी बदनामी के भय से आप डरें नहीं। मर जाऊंगी, पर आपका नाम न लूंगी। परन्तु, मैं औरत हूं, असहाय हूं। मेरा कोई हमदर्द नहीं, आप ही अब मुझे राह बताइए।

मैं शर्म से गड़ा जा रहा था। समझ रहा था कि यह औरत मुझे कितना कायर [ २१ ] समझ रही है। यह कुछ झूठ भी न था। मैंने अन्त में कहा-मुझसे तुम क्या चाहती हो? मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूं? आखिर मैं एक इज्जतदार आदमी हूं। तुम्हें यह सोचना चाहिए।..

'सोचकर ही तो कह रही हूं।' 'क्या तुम कुछ रुपया-पैसा चाहती हो?'

'नहीं।'

'तब क्या चाहती हो?'

"अपनी इज़्ज़त बचाना। आप राजा-रईस हैं, मैं गरीब, अनाथ, विधवा, रांड स्त्री हूं। जिस परिस्थिति में मैं फंस गई हूं उसके लिए मैं अकेले' आपको ज़िम्मेवार नहीं ठहरा सकती। दुर्बलता मेरी भी थी। फिर, मैं तुच्छ स्त्री हूं। सभी भोग मैं भोग लूंगी पर इज़्ज़त-आबरू मेरी भी है। मेरे पिता आपके एक ईमानदार सेवक थे। मैं आपके गांव की बेटी हूं, मेरी बदनामी गांव की बदनामी है। वह मैं न होने दूंगी, इसमें आप मेरी मदद कीजिए।'

'लेकिन कैसी मदद? रुपया-पैसा तो तुम चाहती ही नहीं।'

'जी नहीं।'

'तब मैं क्या करूं?'

'गांव के किसी इज्ज़तदार गरीब ठाकुर से मेरा ब्याह करा दीजिए।'

'इज्ज़तदार ठाकुर क्यों ब्याह करने को राजी होगा?'

'आप कहेंगे तो होगा। मेरा सहारा हो जाएगा। मेरा कलंक ढका रह जाएगा। और मैं अपनी सेवा से उसे प्रसन्न कर लूंगी।'

अब आप मेरे दिल की बात भी सुन लीजिए। मेरे आँखों में अब मेरे पुत्र का निर्मल हास्य खेल रहा था। सुषमा प्रसव के बाद मसूरी से लौटने पर अधिक आकर्षक हो गई थी। मैं अपनी लम्पट वृत्ति पर खीझ रहा था। न जाने मुझे क्या हो गया था उस समय। यही मैं सोचता रहता था। और अब वह आग तो सर्वथा बुझ चुकी थी। पर उससे जलकर जो फफोला पड़ गया था, वह इतना भारी जंजाल हो उठेगा, यह मैंने कभी न सोचा था। और अब मुझे इस औरत में कोई दिलचस्पी भी न थी। इससे सब भांति पीछा छुड़ाने और भविष्य में अपने दाम्पत्य का पूरा आनन्द लेने को मैं बेचैन था। कुछ रुपये-पैसे की बात होती तो मैं उसे दे देता। पर उसका ब्याह रचाना, यह तो एक नया सिरदर्द था। अब भला मैं किसको कहूँ? [ २२ ] कैसे कहूं? सुनकर कोई क्या समझेगा, क्या कहेगा? इन्हीं सब बातों पर मैं देर तक विचार करता रहा। कुछ देर बाद मैंने धीमे स्वर में कहा--क्या तुमने किसी आदमी को पसन्द किया है?

'नहीं, पसन्द-नापसन्द की बात ही नहीं है, मुझे आप काना, अन्धा, बहरा, कोढ़ी, अपाहिज, बूढ़ा, किसीके पल्ले बांध दीजिए। उज्र न होगा। बस, मेरी लाज ढकी रह जाए। मेरे पिता का कुल न कलंकित हो।'

उस समय मैं उस एकान्त में उससे अधिक बात करने को सर्वथा अनिच्छुक था। मैंने केवल टालने की दृष्टि से कह दिया-अच्छा देखूँगा।

मैं चलने लगा। उसने कहा-जरा रुकिए। एक बात और है।

'क्या?'

'वह कल गढ़ी में आकर सबके सामने कहूंगी।

यहां कहना ठीक नहीं है।'

'अच्छा' कहकर मैं चल दिया।

दूसरे दिन पहर दिन चढ़े वह गढ़ी में आई। पाकर सीधी कचहरी में जाकर दीवानजी के पास जा खड़ी हुई। उसने कहा, छोटे सरकार से अर्ज करने आई हूं। दीवानजी उसे मेरे पास ले आए। धड़कते हृदय से मैं सोच रहा था, अब यह यहां किसलिए आई है। परन्तु, उसने एक साधारण रैयत की भांति अधीनता दिखाकर कहा--सरकार, मैं असहाय विधवा स्त्री हं, मेरे पिता ने मरते दम तक रियासत की ईमानदारी से सेवा की है, अब न मेरे मां-बाप हैं, न कोई हित-सम्बन्धी। आप गांव के राजा है, इसीसे मैं आपकी शरण आई हूं।

मेरा दम घुट रहा था। पर मैंने मन पर काबू रखकर पूछा-क्या चाहिए तुम्हें!

'सरकार, एक भैंस यदि मुझे खरीद दें तो उसका दूध-घी बेचकर अपना भी पेट पाल लूंगी, सरकार का भी कर्जा चुका दूंगी।'

मैंने बिना किसी आपत्ति के उसे भैंस खरीदवा दी। वह कहती तो मैं उसे दोचार हजार रुपये भी दे सकता था। मैं जानता था कि यह उसका अधिकार था। पर उसने तो मुझसे केवल वही मांगा जो कोई एक साधारण रैयत जमींदार से मांगती है। अब यह कैसे कहूं कि उसकी यह मांग मेरी प्रतिष्ठा के लिए ही थी या उसकी प्रतिष्ठा के लिए। [ २३ ] उसके बाद वह और दो-चार बार मुझसे एकान्त से मिली। और ब्याह की बात पर उसने जोर दिया। मैंने टालटूल की और अन्त में मैंने साफ इन्कार कर दिया।

उस दिन अकस्मात् पुलिस दलबल-सहित उसे लेकर गढ़ी में आ गई। मामला क्या है, इसे जानने के लिए उसके साथ बहुत लोगों की भीड़ थी। सब भांति-भांति की बातें कर रहे थे। पुलिसवालों ने उसे मारा-पीटा भी था। चोट के निशान उसके मुंह और शरीर पर थे। उसके वस्त्र जगह-जगह फट गए थे। बाल उसके बिखरे थे और चेहरे पर मुर्दनी छाई थी। आंखें उसकी फटी-फटी-सी हो रही थीं। शरीर में जगह-जगह खून लगा था। ओठों से भी खून बह रहा था।

पुलिस का अफसर सुशिक्षित तरुण था। वह मुझे जानता था। कहना चाहिए, मेरा मित्र था। पुलिस ने एक औरत के साथ मारपीट की है मेरे गांव में आकर?-- यह बात जानकर गुस्से से मैं लाल हो गया। मेजर वर्मा उस दिन वहीं थे। गुस्सा इन्हें भी बहुत हुआ। हम लोगों ने पुलिस को खूब खोटी-खरी सुनाई। मैंने कहा उसने क्या जुर्म किया है, क्या नहीं, इसकी बात मैं नहीं कहता। पर आपको इसे मारने-पीटने का कोई अधिकार न था।

पुलिस-अफसर ने शांतिपूर्वक हमारा--मेरा और मेजर साहब का-गुस्सा सहन किया। फिर उसने कहा-चौधरी साहब, मुझे आपसे एकान्त में कुछ कहना है। यदि गांव आपका न होता तो मैं यहां आता भी नहीं। इसे थाने में ले जाता। पर आपका मुझे बहुत लिहाज़ था--इसीसे।

मैंने कहा-आखिर मामला क्या है?

'पाप जरा दूसरे कमरे में चलिए।'

मैं, मेजर वर्मा, वह और पुलिस-अफसर दूसरे कमरे में चले आए। अफसर के कहने से मैंने भीतर से चटखनी चढ़ा दी। किसी अज्ञात भय से मेरी अन्तरात्मा कांप उठी। मैं एकाएक पुलिस अफसर के मुंह की ओर देखने लगा। और तब उसने तरबूज़ की मिसाल दी। और मैं अब बयान नहीं कर सकता। मेजर वर्मा कहेंगे, इन्होंने वह सब देखा है।

'बेशक मैंने देखा था। ऐसा खौफनाक, दिल हिला देनेवाला वाकया जिंदगीभर मैंने नहीं देखा था।' कुछ ठहरकर मेजर वर्मा बोले-अफसर ने मेरी तरफ [ २४ ]

देखकर, क्योंकि मैं ही ज्यादा गर्म हो रहा था, व्यंग्यपूर्ण भाषा में कहा-जनाब, आप एक तरबूज़ लेकर उसे सिर से ऊपर उठाकर पटक दें तो कह सकते हैं कि उसका क्या परिणाम होगा?

उस नौजवान पुलिस अफसर की यह दिल्लगी मुझे न भाई। मैंने ज़रा गर्म लहजे में कहा-तरबूज़ फट जाएगा। लेकिन आपका मतलब क्या है? इस औरत ने तरबूज़ की चोरी की है?

'जी नहीं! क्या किया है देखिए।' उसने कान्स्टेबिल को संकेत किया। और उसने हाथ में लटकते हुए झोले को ज़मीन पर उलट दिया। एक वज़नी-सी चीज़ धमाके के साथ ज़मीन पर आ गिरी। वह एक ताज़ा बच्चे की लाश थी।

मिसेज़ शर्मा के मुंह से चीख निकल गई। भारद्वाज हाथ की सिगरेट फेंककर खड़े हो गए, दूसरे लोग भी अवाक रह गए। भारद्वाज ने कहा-क्या ताज़ा बच्चे की लाश? हौरेबल-माई गॉड!

लेकिन मेजर वर्मा ने आगे कहना जारी रखा-बच्चे को शायद पत्थर पर या किसी सख्त चीज़ पर पटका गया था, जिससे उसका सिर उसी तरह फट गया था जैसे ऊंचे से फेंक देने से तरबूज़ फट जाता है। और उसके भीतर से लाल-लाल लोहू-तोबा-तोबा! मेजर वर्मा वाक्य पूरा किए बिना ही सिर पकड़कर बैठ गए।

फिर उन्होंने कहा-पुलिस-अफसर ने बताया कि यह औरत तस्लीम करती है कि पहले हमल गिराया गया, लेकिन बच्चा ज़िन्दा पैदा हुआ। उसका गला घोंटकर मार डालने की चेष्टा की गई, पर बच्चा मरा नहीं। तब उसे चक्की के पत्थर पर सिर के बल पटक दिया गया। उससे उसका सिर फट गया। पुलिस वालों ने बताया कि मार खाने पर ही इन सब बातों का पता इसने बताया है। पर बच्चा किसका है यह किसी हालत में बताती नहीं है। इसीसे हम निरुपाय इसे यहां लाए हैं। उसने चौधरी साहब से आग्रह किया था कि वह इस औरत से उस आदमी का पता पूछे और कानून की मदद करें। चौधरी तब बहुत परेशान हो उठे थे, इसका कारण मैं तब नहीं समझा था-अब समझा कि"

अब फिर मैं कहने लगा-कचहरी में मैं पागल की भांति चीख उठा कि उस बालक का पिता मैं था। जी हां, उस बालक का पिता मैं था। वह मेरा बच्चा था,

क- १

[ २५ ]

वैसा ही जैसा सुषमा की गोद में हंस-खेल रहा है। लेकिन......

मिसेज़ शर्मा भी एकदम उठ खड़ी हुईं। उन्होंने कहा-बस-बस, चौधरी, अब खत्म कीजिए। और वे बिना कुछ कहे चल खड़ी हुईं। परन्तु मैंने कहा:

'अब तो थोड़ी ही सी बात रह गई है। मेजर तो तुरन्त वहां से चल दिए थे। मेरे लिए मामला रफा-दफा करना लाजिमी हो गया। पुलिस को विदा कर, और अपराध का खोज-पता मिटाकर उसे मैंने उसके घर भिजवा दिया। थोड़ी ही देर बाद एक पड़ोसी के हाथ उसने भैस मेरे पास भिजवा दी और इसके कुछ ही देर बाद मुझे सूचना मिली कि वह मर गई।'

कहानी खत्म हो गई और सन्नाटा छा गया। चाय प्यालों में भरी हई ठण्डी हो गई थी पर किसीने उसे छुआ भी नहीं! एक-एक करके चुपचाप सब लोग उठकर चल दिए: मुझे प्रतीत हुआ जैसे एक लानत की नज़र मेरे ऊपर फेंककर। मैं खामोश बैठा था। मेरा सिर घूम रहा था। आंखों में उस झोले में से निकली हुई चीज़ और सुषमा की गोद में खेलता-हंसता हुआ मेरा पुत्र! होंठों से खून बहाती फटे कपड़ों में लांछिता वह नारी और गहिणी-गौरव-मण्डिता सुषमा, सब। मूर्तियां जैसे घुल-मिलकर मेरे चारों ओर तेज़ी से चक्कर काट रही थीं। भय और आवेश से मैं चिल्ला उठा। मुझे इतना ही होश है, मेजर वर्मा ने किस तरह मुझे घसीटकर अपनी मोटर में डाला था। इसके बाद तो मैं बेहोश हो गया।