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काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध/नाटकों का आरम्भ

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काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध
जयशंकर प्रसाद
५—नाटकों का आरम्भ

इलाहाबाद: भारती-भण्डार, पृष्ठ ८७ से – ९६ तक

 
 
नाटकों का आरम्भ
कहा जाता है कि 'साहित्यिक इतिहास के अनुक्रम में पहले गद्य तब गीति-काव्य और इस के पीछे महाकाव्य आते हैं'; किन्तु प्राचीनतम संचित साहित्य ऋग्वेद छन्दात्मक है। यह ठीक है कि नित्य के व्यवहार में गद्य की ही प्रधानता है; किन्तु आरम्भिक साहित्य सृष्टि सहज में कण्ठस्थ करने के योग्य होनी चाहिए; और पद्य इस में अधिक सहायक होते हैं। भारतीय वाङ्‌मय में सूत्रों की कल्पना भी इसी लिए हुई कि वे गद्य खण्ड सहज ही स्मृति गम्य रहें। वैदिक साहित्य के बाद लौकिक साहित्य में भी रामायण तथा महाभारत आदि काव्य माने जाते हैं। इन ग्रन्थों को काव्य मानने पर, लौकिक साहित्य में भी पहले-पहल पद्य ही आये; क्योंकि वैदिक साहित्य में भी ऋचायें आरम्भ में थीं। फिर तो इस उदाहरण से यह नहीं माना जा सकता कि पहले गद्य, तब गीति काव्य, फिर महाकाव्य होते हैं।

संस्कृत के आदि काव्य रामायण में भी नाटकों का उल्लेख है। बधुनाटक संघैश्चसंयुक्ताम् सर्वतः पुरीम्―१४-५ अध्याय बालकाण्ड। ये नाटक केवल पद्यात्मक ही रहे हों, ऐसा अनुमान नहीं किया जा सकता। संभवतः रामायण काल के नाटकसंघ बहुत प्राचीन काल से प्रचलित भारतीय वस्तु थे। महाभारत में भी रंभाभिसार के अभिनय का विशद वर्णन मिलता है। तब इन पाठ्य काव्यों से नाट्य काव्य प्राचीन थे, ऐसा मानने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती। भरत के नाट्य शास्त्र में अमृतमंथन और त्रिपुरदाह नाम के नाटकों का उल्लेख मिलता है। भाष्यकार पतञ्जलि ने कंस-बध और वलि-बंध नामक नाटकों का उल्लेख किया है। इन प्राचीन नाटकों की कोई प्रतिलिपि नहीं मिलती। सम्भव है कि अन्य प्राचीन साहित्य की तरह ये सब नाटक नटों को कण्ठस्थ रहे होंगे। कालिदास ने भी जिन भास, सौमिल्ल और कविपुत्र आदि नाटककारों का उल्लेख किया है, उन में से अभी केवल भास के ही नाटक मिले हैं, जिन्हें कुछ लोग ईसा से कई शताब्दी पहले का मानते हैं। नाटकों के सम्बन्ध में लोगों का यह कहना है कि उन के बीज वैदिक सम्वादों में मिलते हैं। वैदिक काल में भी अभिनय संभवतः बड़े-बड़े यज्ञों के अवसर पर होते रहे। एक छोटे से अभिनय का प्रसंग सोमयाग के अवसर पर आता है। इस में तीन पात्र होते थे―यजमान, सोम विक्रेता और अध्वर्यु। यह ठीक है कि यह याज्ञिक क्रिया है, किन्तु है अभिनय सी ही। क्योंकि सोम रसिक आत्मवादी इन्द्र के अनुयायी इस याग की योजना करते। सोम राजा का क्रय समारोह के साथ होता। सोम राजा के लिए पाँच बार, मोल-भाव किया जाता। सोम बेचने वाले प्रायः बनवासी होते। उन से मोल-भाव करने में पहले पूछा जाता:―

'सोम विक्रयो! सोम राजा बेचोगे?'

'बिकेगा।'

'तो लिया जायगा।'

'ले लो।'

'गौ की एक कला से उसे लूँगा।'

'सोम राजा इस से अधिक मूल्य के योग्य हैं।'

'गौ भी कम महिमा वाली नहीं। इस में मट्ठा, दूध, घी सब है। अच्छा आठवाँ भाग ले लो।'

'नहीं सोम राजा अधिक मूल्यवान हैं।'

'तो चौथाई लो।'

'नहीं और मूल्य चाहिए।'

'अच्छा आधी ले लो।'

'अधिक मूल्य चाहिए।'

'अच्छा पूरी गौ ले लो भाई।'

'तब सोम राजा बिक गये; परन्तु और क्या दोगे? सोम का मूल्य समझ कर और कुछ दो।'

'स्वर्ण लो, कपड़े लो, छाग लो, गाय के जोड़े, बछड़े वाली गौ, जो चाहो सब दिया जायगा।' (यह मानो मूल्य से अधिक चाहने वाले को भुलावा देने के लिए अध्वर्यु कहता।)

फिर जब बेचने के लिए वह प्रस्तुत हो जाता, तब सोम विक्रेता को सोना दिखला कर ललचाते हुए निराश किया जाता। यह अभिनय कुछ काल तक चलता। (सम्मेत इति सोम विक्र यिणं हिरण्येनाभि कम्पयति।) सूत्र की टीका में कहा गया है। हिरण्यं दत्त्वा दत्त्वा स्वीकुर्वस्तं निराशं कुर्यात्। उस जंगली को छका कर फिर वह सोना अध्वर्यु यजमान के पास रख देता; और उसे एक बकरी दी जाती। संभवतः सोना भी उसे दे दिया जाता। तब सोम विक्रेता यजमान के कपड़े पर सोम डाल देता। सोम मिल जाने पर यजमान तो कुछ जप करने बैठ जाता। जैसे अब उस से सोम के झगड़े से कोई सम्बन्ध नहीं। सहसा परिवर्त्तन होता। हिरण्यं सहसाऽच्छिय पृषता वरत्रकाण्डेनाहिन्तिवा (७-८-२५ कात्यायन श्रौत सूत्र) सोम विक्रेता से सहसा सोना छीन कर उस की पीठ पर कोड़े लगा कर उसे भगा दिया जाता। इस के बाद सोम राजा गाड़ी पर घुमाये जाते; फिर सोम रस के रसिक आनंद और उल्लास के प्रतीक इन्द्र का आवाहन किया जाता। भरत ने भी लिखा है कि―

महानयं प्रयोगस्य समयः समुपस्थितः
अयं ध्वजमहः श्रीमान्महेन्द्रस्य प्रवर्तते।

देवासुर संग्राम के बाद इन्द्रध्वज के महोत्सव पर देवताओं के द्वारा नाटक का आरंभ हुआ। भरत ने नाट्य के साथ नृत्त का समावेश कैसे हुआ इस का भी उल्लेख किया है। कदाचित पहले अभिनयों में―जैसा कि सोमयाय प्रसंग पर होता था―नृत्त की उपयोगिता नहीं थी; किन्तु वैदिक काल के बाद जब आगमवादियों ने रस सिद्धान्त वाले नाटकों को अपने व्यवहार में प्रयुक्त किया तो परमेश्वर के ताण्डव के अनुकरण में, उस की संवर्धना के लिए, नृत्त में उल्लास और प्रमोद की पराकाष्ठा देख कर नाटकों में इस की योजना की। भरत ने भी कहा है―

प्रायेण सर्व लोकस्य नृत्तमिष्टं स्वभावतः

(४―२७१)

परमेश्वर के विश्वनृत्त की अनुभूति के द्वारा नृत्त को उसी के अनुकरण में आनन्द का साधन बनाया गया। भरत ने लिखा है कि त्रिपुरदाह के अवसर पर शंकर की आज्ञा से ताण्डव की योजना इस में की गयी। इन बातों से निष्कर्ष यह निकलता है कि नृत्त पहले बिना गीत का होता था, उस में गीत और अभिनय की योजना पीछे से हुई। और इसे तब नृत्य कहने लगे। इन का और भी एक भेद है। शुद्ध नृत्त में रेचक और अंगहार का ही प्रयोग होता था। गान वाद्य तालानुसार भौंह, हाथ, पैर और कमर का कम्पन नृत्य में होता था। ताण्डव और लास्य नाम के इस के दो भेद और हैं। कुछ लोग समझते हैं कि ताण्डव पुरुषोचित और उद्धत नृत्य को ही कहते हैं; किन्तु यह बात नहीं, इस में विषय की विचित्रता है। ताण्डव नृत्य प्रायः देव सम्बन्ध में होता था।

प्रायेण ताण्डपविधिर्देवस्तुत्याश्रयो भवेत्।

(४–२७५)

और लास्य अपने विषय के अनुसार लौकिक तथा सुकुमार होता था। नाट्य शास्त्रों में लास्य के जिन दश अंगों का वर्णन किया गया है वे प्रयोग में ही भिन्न नहीं होते थे, किन्तु उन के विषयों की भी भिन्नता होती थी। इस तरह नृत्त, नृत्य, ताण्डव और लास्य, प्रयोग और विषय के अनुसार, चार तरह के होते थे। नाटकों में इन सब भेदों का समावेश था। ऐसा जान पड़ता है कि आरम्भ में नृत्य की योजना पूर्व रंग में देव स्तुति के साथ होती थी। अभिनय के बीच-बीच में नृत्य करने की प्रथा भी चली। अत्यधिक गीत नृत्य के लिए अभिनय में भरत ने मना भी किया है। गीत वाद्ये च नृत्तेच प्रवृत्तेऽति प्रसंगतः। खेदो भवेत् प्रयोक्तृणां प्रेक्षकाणाम् तथैव च।

नाट्य के साथ नृत्य की योजना ने अति प्राचीन काल में ही अभिनय को सम्पूर्ण बना दिया था। बौद्ध काल में भी वह अच्छी तरह भारत भर में प्रचलित था। विनय पिटक में इस का उल्लेख है कि कीटागिरि की रंग-शाला में संघाटी फैला कर नाचनेवाली नर्त्तकी के साथ, मधुर आलाप करनेवाले और नाटक देखनेवाले अश्वजित् पुनर्वसु नाम के दो भिक्षुओं को प्रव्राजनीय दण्ड मिला और वे बिहार से निर्वासित कर दिये गये। (चुल्ल बग्ग)।

रंगशाला के आनन्द को दुःखवादी भिक्षु निंदनीय मानते थे। यद्यपि गायन और नृत्य प्राचीन वैदिक काल से ही भारत में थे (यस्यां गायंति नृत्यंति भूम्यां—पृथ्वी सूक्त) किन्तु अभिनय के साथ इन की योजना भी भारत में प्राचीन काल से ही हुई थी। इसलिए यह कहना ठीक नहीं कि भारत में अभिनय कठपुतलियों से आरम्भ हुआ; और न तो महावीर चरित ही छाया नाटक के लिए बना। उस में तो भवभूति ने स्पष्ट ही लिखा है—ससदर्भो अभिनेतव्यः। कठपुतलियों का भी प्रचार सम्भवतः पाठ्य काव्य के लिए प्रचलित किया गया। एक व्यक्ति काव्य का पाठ करता था और पुतलियों के छाया चित्र उसी के साथ दिखलाये जाते थे। मलाबार में अब भी कम्बर के रामायण का छाया नाटक होता है।*[] कठपुतलियों से नाटक आरम्भ होने की कल्पना का आधार सूत्रधार शब्द है। किन्तु सूत्र के लाक्षणिक अर्थ का ही प्रयोग सूत्रधार और सूत्रात्मा जैसे शब्दों में मानना चाहिए। जिस में अनेक वस्तु ग्रथित हों और जो सूक्ष्मता से सब में व्याप्त हो उसे सूत्र कहते हैं। कथावस्तु और नाटकीय प्रयोजन के सब उपादानों का जो ठीक-ठीक संचालन करता हो वह सूत्रधार आज कल के डाइरेक्टर की ही तरह का होता था।

सम्भव है कि पटाक्षेप और जवनिका आदि के सूत्र भी उसी के हाथ में रहते हों। सूत्रधार का अवतरण रङ्गमंच पर सब से पहले रङ्ग पूजा और मङ्गल पाठ के लिए होता था। कथा या वस्तु की सूचना देने का काम स्थापक करता था। रंगमंच की व्यवस्था आदि में यह सूत्रधार का सहकारी रहता था। किन्तु नाटकों में नान्द्यन्ते सूत्रधारः से जान पड़ता है कि पीछे लाघव के लिए सूत्रधार ही स्थापक का भी काम करने लगा।

हाँ, अभिनवगुप्त ने गद्य-पद्य मिश्रित नाटकों से अतिरिक्त राग काव्य का भी उल्लेख किया है। (अभिनव भारती अध्याय ४) राघव विजय और मारीच बध नाम के राग काव्य ठक्क और ककुभ राग में कदाचित् अभिनय के साथ वाद्यताल के अनुसार गाये जाते थे। ये प्राचीन राग-काव्य ही आजकल की भाषा में गीतिनाट्य कहे जाते हैं। इस तरह अति प्राचीन काल में ही नृत्य अभिनय से सम्पूर्ण नाटक और गीति-नाट्य भारत में प्रचलित थे। वैदिक, बौद्ध तथा रामायण और महाभारत काल में नाटकों का प्रयोग भारत में प्रचलित था।

  1. * The existence in India of the Ramayan shadow play will surprise not a few people. This primitivo drama is still to the found in Malabar, where it is acted by strolling players and their puppets, and the author was lucky in witness a performance. (Note of Editor, The illustrated Weekly of India, 7 July, 1935.)