गो-दान/३३

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(गोदान/भाग 33 से अनुप्रेषित)
गो-दान  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

[ ३३० ]

३३

डाक्टर मेहता परीक्षक से परीक्षार्थी हो गये हैं। मालती से दूर-दूर रहकर उन्हें ऐमी शंका होने लगी है कि उसे खो न बैठें। कई महीनों से मालती उनके पास न आयी थी और जब वह विकल होकर उसके घर गये, तो मुलाक़ात न हुई। जिन दिनों रुद्रपाल और सरोज का प्रेमकाण्ड चलता रहा, तब तो मालती उनकी सलाह लेने प्रायः एक-दो बार रोज़ आती थी; पर जब से दोनों इंगलैंड चले गये थे, उनका आना-जाना बन्द हो गया था। घर पर भी मुश्किल से मिलती। ऐसा मालम होता था, जैसे वह उनसे बचती है, जैसे बलपूर्वक अपने मन को उनकी ओर से हटा लेना चाहती है। जिस पुस्तक में वह इन दिनों लगे हुए थे, वह आगे बढ़ने से इनकार कर रही थी, जैसे उनका मनोयोग लुप्त हो गया हो। गृह-प्रबन्ध में तो वह कभी बहुत कुशल न थे। सब मिलाकर एक हजार रुपए से अधिक महीने में कमा लेते थे; मगर बचत एक धैले की भी न होती थी। रोटी-दाल खाने के सिवा और उनके हाथ कुछ न था। तकल्लुफ अगर कुछ था तो वह उनकी कार थी, जिसे वह खुद ड्राइव करते थे। कुछ रुपए किताबों में उड़ जाते थे, कुछ चन्दों में, कुछ ग़रीब छात्रों की परवरिश में और अपने बाग़ की सजावट में जिससे उन्हें इश्क-सा था। तरह-तरह के पौधे और वनस्पतियाँ विदेशों से महँगे दामों मंँगाना और उनको पालना; यही उनका मानसिक चटोरपन था या इमे दिमाग़ी ऐयाशी कहें; मगर इधर कई महीनों से उस बगीचे की ओर से भी वह कुछ विरक्त-से हो रहे थे और घर का इन्तज़ाम और भी बदतर हो गया था। खाते दो फुलके और खर्च हो जाते सौ से ऊपर! अचकन पुरानी हो गयी थी; मगर इसी पर उन्होंने कड़ाके का जाड़ा काट दिया। नयी अचकन सिलवाने की तौफ़ीक़ न हुई थी। कभी-कभी बिना घी की दाल खाकर उठना पड़ता। कब घी का कनस्तर मँगाया था, इसकी उन्हें याद ही न थी, और महाराज से पूछे भी तो कैसे। वह समझेगा नहीं कि उस पर अविश्वास किया जा रहा है ? आखिर एक दिन जब तीन निराशाओं के बाद चौथी बार मालती से मुलाक़ात हुई और उसने इनकी यह हालत देखी, तो उससे न रहा गया। बोली--तुम क्या अबकी जाड़ा यों ही काट दोगे? वह अचकन पहनते तुम्हें शर्म भी नहीं आती ?

मालती उनकी पत्नी न होकर भी उनके इतने समीप थी कि यह प्रश्न उसने उसी सहज भाव से किया, जैसे अपने किसी आत्मीय से करती।

मेहता ने बिना झेपे हुए कहा--क्या करूँ मालती, पैसा तो बचता ही नहीं। [ ३३१ ]

मालती को अचरज हुआ--तुम एक हजार से ज्यादा कमाते हो, और तुम्हारे पास अपने कपड़े बनवाने को भी पैसे नहीं? मेरी आमदनी कभी चार सौ से ज्यादा न थी; लेकिन मैं उसी में सारी गृहस्थी चलाती हूँ और कुछ बचा लेती हूँ। आखिर तुम क्या करते हो?

'मैं एक पैसा भी फालतू नहीं खर्च करता। मुझे कोई ऐसा शौक़ भी नहीं है।'

'अच्छा, मुझसे रुपए ले जाओ और एक जोड़ी अचकन बनवा लो।'

मेहता ने लज्जित होकर कहा--अबकी बनवा लूंँगा। सच कहता हूँ।

'अब आप यहाँ आयें तो आदमी बनकर आयें।'

'यह तो बड़ी कड़ी शर्त है।'

'कड़ी सही। तुम-जैसों के साथ बिना कड़ाई किये काम नहीं चलता।'

मगर वहाँ तो सन्दूक खाली था और किसी दूकान पर बे पैसे जाने का साहस न पड़ता था! मालती के घर जायें तो कौन मुँह लेकर? दिल में तड़प-तड़प कर रह जाते थे। एक दिन नयी विपत्ति आ पड़ी। इधर कई महीने से मकान का किराया नहीं दिया था। पचहत्तर रुपए माहवार वढ़ते जाते थे। मकानदार ने जब बहुत तक़ाज़े करने पर भी रुपए वसूल न कर पाये, तो नोटिम दे दी; मगर नोटिस रुपये गढ़ने का कोई जन्तर तो है नहीं। नोटिस की तारीख निकल गयी और रुपए न पहुँचे। तब मकानदार ने मजबूर होकर नालिश कर दी। वह जानता था, मेहताजी बड़े सज्जन और परोपकारी पुरुष हैं; लेकिन इससे ज्यादा भलमनमी वह क्या करता कि छ: महीने बैठा रहा। मेहता ने किसी तरह की पैरवी न की, एकतरफ़ा डिग्री हो गयी, मकानदार ने तुरत डिग्री जारी करायी और कुर्क अमीन मेहता साहब के पास पूर्व सूचना देने आया; क्योंकि उसका लड़का यूनिवर्सिटी में पढ़ता था और उसे मेहता कुछ वजीफ़ा भी देते थे। संयोग से उस वक्त मालती भी बैठी थी।

बोली--कैसी कुकी है ? किस बात की?

अमीन ने कहा--वही किराये कि डिग्री जो हुई थी। मैने कहा, हुजूर को इत्तला दे दूंँ। चार-पाँच सौ का मामला है, कौन-सी बड़ी रकम है। दस दिन में भी रुपए दे दीजिए, तो कोई हरज नहीं। मैं महाजन को दस दिन तक उलझाए रहूँगा।

जब अमीन चला गया तो मालती ने तिरस्कार-भरे स्वर में पूछा--अब यहाँ तक नौबत पहुँच गई ! मुझे आशचय होता है कि तुम इतने मोटे-मोटे ग्रन्थ कैमे लिखते हो। मकान का किराया छ:-छ: महीने से बाकी पड़ा है और तुम्हें खबर नहीं।

मेहता लज्जा मे सिर झुकाकर बोले--खबर क्यों नहीं है। लेकिन रुपए बचते ही नहीं। मैं एक पैसा भी व्यर्थ नहीं खर्च करता।

'कोई हिसाब-किताब भी लिखते हो?'

'हिसाब क्यों नहीं रखता। जो कुछ पाता हूँ, वह सब दर्ज करता जाता हूँ, नहीं इनकमटैक्सवाले जिन्दा न छोड़ें।'

'और जो कुछ खर्च करते हो वह ?' [ ३३२ ]

'उसका तो कोई हिसाब नहीं रखता।'

'क्यों?'

'कौन लिखे ? बोझ-सा लगता है।'

'और यह पोथे कैसे लिख डालते हो?'

'उसमें तो विशेष कुछ नहीं करना पड़ता। क़लम लेकर बैठ जाता हूँ। हर वक्त खर्च का खाता तो खोलकर नहीं बैठता।'

'तो रुपए कैसे अदा करोगे?'

'किसी से क़र्ज़ ले लूँगा। तुम्हारे पास हों तो दे दो।'

'मैं तो एक ही शर्त पर दे सकती हूँ। तुम्हारी आमदनी सब मेरे हाथों में आये और खर्च भी मेरे हाथ से हो।'

मेहता प्रसन्न होकर बोले--वाह, अगर यह भार ले लो, तो क्या कहना; मूसलों ढोल बजाऊँ।

मालती ने डिग्री के रुपए चुका दिये और दूसरे ही दिन मेहता को वह बॅगला खाली करने पर मजबूर किया। अपने बॅगले में उसने उनके लिए दो बड़े-बड़े कमरे दे दिये। उनके भोजन आदि का प्रबन्ध भी अपनी ही ग हस्थी में कर दिया। मेहता के पास और सामान तो ज्यादा न था; मगर किताबें कई गाड़ी थीं। उनके दोनों कमरे पुस्तकों से भर गये। अपना बग़ीचा छोड़ने का उन्हें ज़रूर क़लक़ हुआ; लेकिन मालती ने अपना पूरा अहाता उनके लिए छोड़ दिया कि जो फूल-पत्तियाँ चाहें लगायें।

मेहता तो निश्चिन्त हो गये; लेकिन मालती को उनकी आय-व्यय पर नियन्त्रण करने में बड़ी मुश्किल का सामना करना पड़ा। उसने देखा, आय तो एक हजार से ज्यादा है; मगर वह सारी की सारी गुप्तदान में उड़ जाती है। बीस-पच्चीस लड़के उन्हीं से वजीफा पाकर विद्यालय में पढ़ रहे थे। विधवाओं की तादाद भी इससे कम न थी। इस खर्च में कैसे कमी करे, यह उसे न सूझता था। सारा दोष उसी के सिर मढ़ा जायगा, सारा अपयश उसी के हिसे पड़ेगा। कभी मेहता पर झुंँझलाती, कभी अपने ऊपर, कभी प्रार्थियों के ऊपर, जो एक सरल, उदार प्राणी पर अपना भार रखते जरा भी न सकुचाते थे। यह देखकर और भी झुंँझलाहट होती थी कि इन दान लेने वालों में कुछ तो इसके पात्र ही न थे। एक दिन उसने मेहता को आड़े हाथों लिया।

मेहता ने उसका आक्षेप सुनकर निश्चिन्त भाव से कहा--तुम्हें अस्नियार है, जिसे चाहे दो, चाहे न दो। मुझसे पूछने की कोई जरूरत नहीं। हाँ, जबाव भी तुम्ही को देना पड़ेगा।

मालती ने चिढ़कर कहा-- हाँ, और क्या, यश तो तुम लो, अपयश मेरे सिर मढ़ो। मैं नहीं समझती, तुम किस तर्क से इस दान-प्रथा का समर्थन कर सकते हो। मनुष्य-जाति को इस प्रथा ने जितना आलसी और मुफ्तखोर बनाया है और उसके आत्मगौरव पर जैसा आघात किया है, उतना अन्याय ने भी न किया होगा; बल्कि मेरे खयाल में अन्याय ने मनुष्य-जाति में विद्रोह की भावना उत्पन्न करके समाज का बड़ा उपकार किया है। [ ३३३ ]

मेहता ने स्वीकार किया--मेरे भी यही खयाल हैं।

'तुम्हारा यह खयाल नहीं है।'

'नहीं मालती, मैं सच कहता हूँ।'

'तो विचार और व्यवहार में इतना भेद क्यों ?'

मालती ने तीसरे महीने बहुतों को निराश किया। किसी को साफ जवाब दिया, किसी से मजबूरी जताई, किसी की फ़ज़ीहत की।

मिस्टर मेहता का बजट तो धीरे-धीरे ठीक हो गया; मगर इससे उनको एक प्रकार की ग्लानि हुई। मालती ने जब तीसरे महीने में तीन सौ की बचत दिखायी, तब वह उससे कुछ बोले नहीं; मगर उनकी दृष्टि में उसका गौरव कुछ कम अवश्य हो गया। नारी में दान और त्याग होना चाहिए। उसकी यही सबसे बड़ी विभूति है। इसी आधार पर समाज का भवन खड़ा है। वणिक्-बुद्धि को वह आवश्यक बुराई ही समझते थे।

जिस दिन मेहता की अचकनें बन कर आयीं और नयी घड़ी आयी, वह संकोच के मारे कई दिन बाहर न निकले। आत्म-सेवा मे बड़ा उनकी नज़र में दूसरा अपराध न था।

मगर रहस्य की बात यह थी कि मालती उनको तो लेग्वे-ड्योढ़े में कसकर बाँधना चाहती थी। उनके धन-दान के द्वार बन्द कर देना चाहती थी; पर खुद जीवन-दान देने में अपने समय और सदाशयता को दोनों हाथों से लुटाती थी। अमीरों के घर तो वह बिना फ़ीस लिये न जाती थी, लेकिन ग़रीबों को मुफ्त देखती थी, मुफ्त दवा भी देती थी। दोनों में अन्तर इतना ही था, कि मालती घर की भी थी और बाहर की भी; मेहता केवल बाहर के थे, घर उनके लिए न था। निजत्व दोनों मिटाना चाहते थे। मेहता का रास्ता साफ था। उन पर अपनी ज़ात के सिवा और कोई ज़िम्मेदारी न थी। मालती का रास्ता कठिन था, उस पर दायित्व था, बन्धन था जिसे वह तोड़ न सकती थी, न तोड़ना चाहती थी। उस बन्धन में ही उसे जीवन की प्रेरणा मिलती थी। उमे अब मेहता को समीप से देखकर यह अनुभव हो रहा था कि वह खुले जंगल में विचरनेवाले जीव को पिंजरे में बन्द नहीं कर सकती। और बन्द कर देगी, तो वह काटने और नोचने दौड़ेगा। पिंजरे में सब तरह का सुख मिलने पर भी उसके प्राण सदैव जंगल के लिए ही तड़पते रहेंगे। मेहता के लिए घरवारी दुनिया एक अनजानी दुनिया थी, जिसकी रीति-नीति से वह परिचित न थे।

उन्होंने संसार को बाहर से देखा था और उसे मक्र और फरेब से ही भरा समझते थे। जिधर देखते थे, उधर ही बुराइयाँ नज़र आती थीं; मगर समाज में जब गहराई में जाकर देखा, तो उन्हें मालूम हुआ कि इन बुराइयों के नीचे त्याग भी है, प्रेम भी है, साहस भी है, धैर्य भी है। मगर यह भी देखा कि वह विभूतियाँ हैं तो ज़रूर, पर दुर्लभ हैं, और इस शंका और संदेह में जब मालती का अन्धकार से निकलता हुआ देवी-रूप उन्हें नज़र आया, तब वह उसकी ओर उतावलेपन के साथ, सारा धैर्य खोकर टूटे और चाहा कि उसे ऐसे जतन से छिपाकर रखें कि किसी दूसरे की आँख भी उस पर न पड़े। यह ध्यान न रहा कि यह मोह ही विनाश की जड़ है। प्रेम-जैसी निर्मम वस्तु क्या [ ३३४ ]भय से बाँधकर रखी जा सकती है? वह तो पूरा विश्वास चाहती है, पूरी स्वाधीनता चाहती है, पूरी ज़िम्मेदारी चाहती है। उसके पल्लवित होने की शक्ति उसके अन्दर है। उसे प्रकाश और क्षेत्र मिलना चाहिए। वह कोई दीवार नहीं है, जिस पर ऊपर से ईंटें रखी जाती हैं। उसमें तो प्राण है, फैलने की असीम शक्ति है।

जब से मेहता इस बँगले में आये हैं, उन्हें मालती से दिन में कई बार मिलने का अवसर मिलता है। उनके मित्र समझते हैं, यह उनके विवाह की तैयारी है। केवल रस्म अदा करने की देर है। मेहता भी यही स्वप्न देखते रहते हैं। अगर मालती ने उन्हें सदा के लिए ठुकरा दिया होता, तो क्यों उन पर इतना स्नेह रखती। शायद वह उन्हें सोचने का अवसर दे रही है, और वह खूब सोचकर इसी निश्चय पर पहुंँचे हैं कि मालती के बिना वह आधे हैं। वही उन्हें पूर्णता की ओर ले जा सकती है। बाहर से वह विलासिनी है, भीतर से वही मनोवृत्ति शक्ति का केन्द्र है; मगर परिस्थिति बदल गयी है। तव मालती प्यासी थी, अव मेहता प्यास से विकल हैं। और एक बार जवाब पा जाने के बाद उन्हें उम प्रश्न पर मालती से कुछ कहने का साहस नहीं होता, यद्यपि उनके मन में अब संदेह का लेश नहीं रहा। मालती को ममीप से देखकर उनका आकर्षण बढ़ता ही जाता है, दूर से पुस्तक के जो अक्षर लिपे-पुते लगते थे, समीप मे वह स्पष्ट हो गये हैं, उनमें अर्थ है, सन्देश है।

इधर मालती ने अपने बाग़ के लिए गोबर को माली रख लिया था। एक दिन वह किसी मरीज़ को देखकर आ रही थी कि रास्ते में पेट्रोल न रहा। वह खुद ड्राइव कर रही थी। फिक्र हुई पेट्रोल कैसे आये? रात के नौ बज गये थे और माघ का जाड़ा पड़ रहा था। सड़कों पर सन्नाटा हो गया था। कोई ऐसा आदमी नज़र न आता था, जो कार को ढकेल कर पेट्रोल की दूकान तक ले जाय। बार-बार नौकर पर झुंँझला रही थी। हरामखोर कहीं का। बेखबर पड़ा रहता है।

संयोग से गोबर उधर से आ निकला। मालती को खड़े देखकर उसने हालत समझ ली और गाड़ी को दो फर्लाग ठेल कर पेट्रोल की दूकान तक लाया।

मालती ने प्रसन्न होकर पूछा--नौकरी करोगे?

गोबर ने धन्यवाद के साथ स्वीकार किया। पन्द्रह रुपए वेतन तय हुआ। माली का काम उसे पसन्द था। यही काम उसने किया था और उसमें मजा हुआ था। मिल की मजूरी में वेतन ज्यादा मिलता था: पर उस काम से उसे उलझन होती थी।

दूसरे दिन से गोबर ने मालती के यहाँ काम करना शुरू कर दिया। उसे रहने को एक कोठरी भी मिल गयी। झुनिया भी आ गयी। मालती बाग़ में आती तो उसे झुनिया का बालक धूल-मिट्टी में खेलता मिलता। एक दिन मालती ने उसे एक मिठाई दे दी। बच्चा उस दिन से परच गया। उसे देखते ही उसके पीछे लग जाता और जब तक मिठाई न लेता, उसका पीछा न छोड़ता।

एक दिन मालती बाग़ में आयी तो बालक न दिखायी दिया। झुनिया से पूछा तो मालूम हुआ बच्चे को ज्वर आ गया है। [ ३३५ ]

मालती ने घबराकर कहा--ज्वर आ गया! तो मेरे पास क्यों नहीं लायी? चल देखूँ।

बालक खटोले पर ज्वर में अचेत पड़ा था। खपरैल की उस कोठरी में इतनी सील, इतना अँधेरा, और इस ठण्ड के दिनों में भी इतनी मच्छड़ कि मालती एक मिनट भी वहाँ न ठहर सकी; तुरन्त आकर थर्मामीटर लिया और फिर जाकर देखा, एक सौ चार था! मालती को भय हुआ, कहीं चेचक न हो। बच्चे को अभी तक टीका नहीं लगा था। और अगर इस सीली कोठरी में रहा, तो भय था, कहीं ज्वर और न बढ़ जाय।

सहसा बालक ने आँखें खोल दी और मालती को खड़ी पाकर करुण नेत्रों से उसकी ओर देखा और उसकी गोद के लिए हाथ फैलाये। मालती ने उसे गोद में उठा लिया और थपकियाँ देने लगी।

बालक मालती की गोद में आकर जैसे किसी बड़े सुख का अनुभव करने लगा। अपनी जलती हुई उँगलियों से उसके गले की मोतियों की माला पकड़कर अपनी ओर खींचने लगा। मालती ने नेकलेस उतारकर उसके गले में डाल दी। बालक की स्वार्थी प्रकृति इस दशा में भी सजग थी। नेकलेस पाकर अब उमे मालती की गोद में रहने की कोई ज़रूरत न रही। यहाँ उमके छिन जाने का भय था। झुनिया की गोद इस समय ज्यादा सुरक्षित थी।

मालती ने खिले हुए मन से कहा--बड़ा चालाक है। चीज़ लेकर कैमा भागा!

झुनिया ने कहा--दे दो बेटा, मेम साहब का है।

बालक ने हार को दोनों हाथों से पकड़ लिया और माँ की ओर रोप से देखा।

मालती बोली--तुम पहने रहो वचा, मैं माँगती नहीं हूँ।

उसी वक्त बँगले में आकर उसने अपना बैठक का कमरा खाली कर दिया और उसी वक्त झुनिया उस नये कमरे में डट गयी।

मंगल ने उस स्वर्ग को कुतूहल-भरी आँखों से देखा। छत में पंखा था, रंगीन बल्ब थे, दीवारों पर तस्वीरें थीं। देर तक उन चीजों को टकटकी लगाये देखता रहा। मालती ने बड़े प्यार से पुकारा--मंगल !

मंगल ने मुस्कराकर उसकी ओर देखा, जैसे कह रहा हो--आज तो हॅमा नहीं जाता मेम साहब ! क्या करूँ। आपसे कुछ हो सके तो कीजिए।

मालती ने झुनिया को बहुत-सी बातें समझाई और चलते-चलते पूछा--तेरे घर में कोई दूसरी औरत हो, तो गोबर से कह दे, दो-चार दिन के लिए बुला लावे। मुझे चेचक का डर है। कितनी दूर है तेरा घर ?

झुनिया ने अपने गाँव का नाम और पता बताया। अन्दाज से अट्ठारह-बीस कोस होंगे।

मालती को बेलारी याद था। बोली--वही गाँव तो नहीं, जिसके पच्छिम तरफ़ आध मील पर नदी है ?

'हाँ-हाँ मेम साहब, वही गाँव है। आपको कैसे मालूम ?'

'और जा कछ खच करत हा वह ! [ ३३६ ]

'एक बार हम लोग उस गाँव में गये थे। होरी के घर ठहरे थे। तू उसे जानती है ?'

'वह तो मेरे ससुर हैं मेम साहब। मेरी सास भी मिली होंगी।'

'हाँ-हाँ, बड़ी समझदार औरत मालूम होती थी। मुझमे खूब बातें करती रही। तो गोबर को भेज दे, अपनी माँ को बुला लाये।'

'वह उन्हें बुलाने नहीं जायेंगे।'

'क्यों?'

'कुछ ऐसा कारन है।'

झुनिया को अपने घर का चौका-बरतन, झाड़-बहारू, रोटी-पानी सभी कुछ करना पड़ता। दिन को तो दोनों चना-चवेना खाकर रह जाते, रात को जब मालती आ जाती, तो झुनिया अपना खाना पकाती और मालती बच्चे के पास बैठती। वह बार-बार चाहती कि बच्चे के पास बैठे; लेकिन मालती उसे न आने देती। रात को बच्चे का ज्वर तेज़ होता जाता और वह बेचैन होकर दोनों हाथ ऊपर उठा लेता। मालती उमे गोद में लेकर घण्टों कमरे में टहलती। चौथे दिन उमे चेचक निकल आयी। मालती ने सारे घर को टीका लगाया, खुद टीका लगवाया, मेहता को भी लगाया। गोबर, झुनिया, महाराज, कोई न बचा। पहले दिन तो दाने छोटे थे और अलग-अलग थे। जान पड़ता था, छोटी माता हैं। दूसरे दिन दाने जैसे खिल उठे और अंगर के दाने के बराबर हो गये और फिर कई-कई दाने मिलकर बड़े-बड़े आँवले जैसे हो गये। मंगल जलन और खुजली और पीड़ा से बेचैन होकर करुण स्वर में कराहना और दीन, अमहाय नेत्रों से मालती की ओर देखता। उसका कराहना भी प्रौढ़ों का-सा था, और दृष्टि में भी प्रौढ़ता थी, जैसे वह एकाएक जवान हो गया हो। इस असह्य वेदना ने मानो उसके अवोध शिशुपन को मिटा डाला हो। उसकी शिशु-बुद्धि मानो सज्ञान होकर समझ रही थी कि मालती ही के जतन में वह अच्छा हो सकता है। मालती ज्यों ही किसी काम से चली जाती, वह रोने लगता। मालती के आते ही चुप हो जाता। रात को उसकी बेचैनी बढ़ जाती और मालती को प्रायः सारी रात बैठना पड़ जाता; मगर वह न कभी झुंँझलाती, न चिढ़ती। हाँ, झुनिया पर उसे कभी-कभी अवश्य क्रोध आता, क्योंकि वह अज्ञान के कारण जो न करना चाहिए, वह कर बैठती। गोबर और झुनिया दोनों की आस्था झाड़-फूंँक में अधिक थी; यहाँ उसको कोई अवसर न मिलता। उस पर झुनिया दो बच्चे की माँ होकर बच्चे का पालन करना न जानती थी, मंगल दिक करता, तो उसे डाँटती-कोसती। जरा-सा भी अवकाश पाती, तो जमीन पर सो जाती और सवेरे से पहले न उठती; और गोबर तो उस कमरे में आते जैसे डरता था। मालती वहाँ बैठी है, कैसे जाय ? झुनिया से बच्चे का हाल-हवाल पूछ लेता और खाकर पड़ रहता। उस चोट के बाद वह पूरा स्वस्थ न हो पाया था। थोड़ासा काम करके भी थक जाता था। उन दिनों जब झुनिया घास बेचती थी और वह आराम से पड़ा रहता था, वह कुछ हरा हो गया था; मगर इधर कई महीने बोझ ढोने और चूने-गारे का काम करने से उसकी दशा गिर गयी थी। उस पर यहाँ काम [ ३३७ ]बहुत था। मारे बाग को पानी निकालकर सींचना, क्यारियों को गोड़ना, घास छीलना, गायों को चाग-पानी देना और दुहना। और जो मालिक इतना दयालु हो, उसके काम में काम-चोरी कैसे करे? यह एहसान उसे एक क्षण भी आराम से न बैठने देता, और जब मेहता खुद खुरपी लेकर घण्टों बाग में काम करते तो वह कैसे आराम करता? वह खुद मूखता था; पर बाग़ हरा हो रहा था।

मिस्टर मेहता को भी बालक मे स्नेह हो गया था। एक दिन मालती ने उसे गोद मे लेकर उनकी मॅछ उखड़वा दी थी। दुष्ट ने मूंँछों को ऐसा पकड़ा था कि समूल ही उखाड़ लेगा। मेहता की आँखों में आँसू भर आये थे।

मेहता ने बिगड़कर कहा था--बड़ा शैतान लौंडा है।

मालती ने उन्हें डांँटा था--तुम मूँछे साफ़ क्यों नहीं कर लेते ?

'मेरी मछे मुझे प्राणों मे प्रिय है।'

'अबकी पकड़ लेगा, तो उखाड़कर ही छोड़ेगा।'

'तो मैं टसके कान भी उखाड़ लूंँगा।'

मगल को उनकी मूँछे उखाड़ने में कोई खाम मज़ा आया था। वह खूब खिल-खिलाकर हंँसा था और मूंँछों को और जोर से ग्वीचा था; मगर मेहता को भी शायद मूँछे उखड़वाने में मजा आया था; क्योकि वह प्रायः दो एक बार रोज़ उसमे अपनी मूंँछों की रम्माकगी करा लिया करते थे।

इधर जब में मंगल को चेचक निकल आयी थी, मेहता को भी बड़ी चिन्ता हो गयी थी। अकमर कमरे में जाकर मगल को व्यथित आँखों से देखा करते। उसके कष्टों की कल्पना करके उनका कोमल हृदय हिल जाता था। उनके दौड़-धूप से वह अच्छा हो जाना, तो पथ्वी के उस छोर तक दौड़ लगाते; रुपए खर्च करने से अच्छा होता, तो चाहे भीख ही मांँगना पड़ता, वह उसे अच्छा करके ही रहते; लेकिन यहाँ कोई बस न था। उसे छूने भी उनके हाथ कांँपते थे। कहीं उसके आवले न टूट जाय। मालती कितने कोमल हाथों से उसे उठाती है, कन्धे पर उठाकर कमरे में टहलाती है और कितने स्नेह से उसे बहलाकर दूध पिलाती है, यह वात्सल्य मालती को उनकी दृष्टि में न जाने कितना ऊंँचा उठा देता है। मालती केवल रमणी नहीं है, माता है और ऐसी-वैसी माता नहीं. सच्चे अर्थों में देवी और माता और जीवन देनेवाली, जो पराये बालक को भी अपना समझ सकती है, जैसे उसने मातापन का सदैव संचय किया हो और आज दोनों हाथों से उसे लुटा रही हो। उसके अंग-अंग से मातापन फूटा पड़ता था, मानो यही उसका यथार्थ रूप हो, यह हाव-भाव, यह शौक-सिंगार उसके मातापन के आवरण-मात्र हों, जिसमें उस विभूति की रक्षा होती रहे।

रात को एक बज गया था। मंगल का रोना सुनकर मेहता चौंक पडे़। सोचा, बेचारी मालती आधी रात तक तो जागती रही होगी, इस वक्त उसे उठने में कितना कष्ट होगा; अगर द्वार खुला हो तो मैं ही बच्चे को चुप करा दूंँ। तुरन्त उठकर उस कमरे के द्वार पर आये और शीशे से अन्दर झांँका। मालती बच्चे को गोद में लिये बैठी थी [ ३३८ ]और बच्चा अनायास ही रो रहा था। शायद उसने कोई स्वप्न देखा था, या और किसी वजह से डर गया था। मालती चुमकारती थी, थपकती थी, तसवीरें दिखाती थी, गोद में लेकर टहलती थी, पर बच्चा चुप होने का नाम न लेता था। मालती का यह अटूट वात्सल्य, यह अदम्य मातृ-भाव देखकर उनकी आँखें सजल हो गयीं। मन में ऐसा पुलक उठा कि अन्दर जाकर मालती के चरणों को हृदय से लगा लें। अन्तस्तल से अनुराग में डूबे हुए शब्दों का एक समूह मचल पड़ा--प्रिये, मेरे स्वर्ग की देवी, मेरी रानी, डारलिंग...

और उसी प्रमोन्माद में उन्होंने पुकारा--मालती, ज़रा द्वार खोल दो।

मालती ने आकर द्वार खोल दिया और उनकी ओर जिज्ञासा की आँखों से देखा।

मेहता ने पूछा--क्या झुनिया नहीं उठी? यह तो बहुत रो रहा है।

मालती ने समवेदना भरे स्वर में कहा--आज आठवाँ दिन है, पीड़ा अधिक होगी। इसी से।

'तो लाओ, मैं कुछ देर टहला दूंँ, तुम थक गयी हो।'

मालती ने मुस्कराकर कहा--तुम्हें जरा ही देर में गुस्सा आ जायगा !

बात सच थी; मगर अपनी कमजोरी को कौन स्वीकार करता है ? मेहता ने जिद करके कहा--तुमने मुझे इतना हलका समझ लिया है ?

मालती ने बच्चे को उनकी गोद में दे दिया। उनकी गोद में जाते ही वह एकदम चुप हो गया। बालकों में जो एक अन्तर्ज्ञान होता है, उसने उमे बता दिया, अब रोने में तुम्हारा कोई फायदा नहीं। यह नया आदमी स्त्री नही, पुरुष है और पुरुष गुम्मेवर होता है और निर्दयी भी होता है, और चारपाई पर लेटाकर, या बाहर अँधेरे में सुलाकर दर चला जा सकता है और किसी को पास आने भी न देगा।

मेहता ने विजय-गर्व मे कहा--देवा, कैमा चुप कर दिया।

मालती ने विनोद किया--हाँ, तुम इस कला में कुशल हो। कहांँ सीखी ?

'तुमसे।'

'मैं स्त्री हूँ और मुझ पर विश्वास नहीं किया जा सकता।'

मेहता ने लज्जित होकर कहा--मालती, मैं तुमसे हाथ जोड़कर कहता हूँ, मेरे उन शब्दों को भूल जाओ। इन कई महीनों में मैं कितना पछताया हूँ, कितना लज्जित हुआ हूंँ, कितना दुखी हुआ हूँ, शायद तुम इसका अन्दाज़ न कर सको।

मालती ने सरल भाव में कहा--मैं तो भूल गयी, मच कहती हूँ।

'मुझे कैमे विश्वास आये ?'

'उसका प्रमाण यही है कि हम दोनों एक ही घर में रहते हैं, एक साथ खाते हैं, हमते हैं, बोलने है।'

'क्या मुझे कुछ याचना करने की अनुमति न दोगी?'

उन्होंने मंगल को खाट पर लिटा दिया, जहाँ वह दबककर सो रहा। और मालती की ओर प्रार्थी आँखों मे देखा जैसे उमी अनुमति पर उनका सब कुछ टिका हुआ हो। [ ३३९ ]

मालती ने आर्द्र होकर कहा--तुम जानने हो, तुममे ज्यादा निकट संसार में मेरा कोई दूसरा नही है। मैंने बहुत दिन हुए, अपने को तुम्हारे चरणों पर समर्पित कर दिया। तुम मेरे पथ-प्रदर्गक हो, मेरे देवता हो, मेरे गुरु हो। तुम्हें मुझसे कुछ याचना करने की जरूरत नहीं, मुझे केवल संकेत कर देने की ज़रूरत है। जब मुझे तुम्हारे दर्शन न हुए थे और मैंने तुम्हें पहचाना न था, भोग और आत्म-मेवा ही मेरे जीवन का इाट था। तुमने आकर उसे प्रेरणा दी, स्थिरता दी। मैं तुम्हारे एहमान कभी नहीं भूल सकती। मैंने नदी की नटवाली तुम्हारी बातें गाँठ बाँध ली। दुःख यही हुआ कि तुमने भी मुझे वही समझा जो कोई दूसरा पुरुष समझता, जिसकी मुझे तुमसे आशा न थी। उसका दायित्य मेरे ऊपर है, यह मैं जानती हूँ; लेकिन तुम्हारा अमूल्य प्रेम पाकर भी मैं वही बनी रहंँगी, ऐमा समझकर तुमने मेरे माथ अन्याय किया। मैं इस समय कितने गर्व का अनुभव कर रही हूंँ, यह तुम नही समझ मकते। तुम्हारा प्रेम और विश्वास पाकर अब मेरे लिए कुछ भी शेष नही रह गया है। यह वरदान मेरे जीवन को सार्थक कर देने के लिए काफी है। यह मेरी पूर्णता है।

यह कहते-कहते मालती के मन में ऐमा अनुराग उठा कि मेहता के सीने से लिपट जाय। भीतर की भावनाएंँ बाहर आकर मानो मत्य हो गयी थी। उसका रोम-रोम पुलकित हो उठा। जिस आनन्द को उसने दुर्लभ समझ रखा था, वह इतना सुलभ इतना समीप है ! और हृदय का वह आह्लाद मुख पर आकर उसे ऐमी गोभा देने लगा कि मेहता को उसमे देवत्व की आभा दिखी। यह नारी है ; या मगल की, पवित्रता की और त्याग की प्रतिमा।

उसी वक्त झुनिया जागकर उठ बैठी और मेहता अपने कमरे में चले गये और फिर दो सप्ताह तक मालती मे कुछ बातचीत करने का अवसर उन्हें न मिला। मालती कभी उनमे एकान्त मे न मिलती। मालती के वह शब्द उनके हृदय में गूंँजते रहते। उनमें कितनी सान्त्वना थी, कितनी विनय थी, कितना नशा था !

दो सप्ताह में मंगल अच्छा हो गया। हाँ, मुंँह पर चेचक के दाग न भर सके। उस दिन मालती ने आम-पास के लड़कों को भर पेट मिठाई खिलाई और जो मनौतियांँ कर रखी थी, वह भी पूरी की। इस त्याग के जीवन में कितना आनन्द है, इसका अब उसे अनुभव हो रहा था। झुनिया और गोबर का हर्ष मानो उसके भीतर प्रतिबिम्बिन हो रहा था। दूसरों के कष्ट-निवारण मे उमने जिम मुख और उल्लास का अनुभव किया, वह कभी भोग-विलाम के जीवन मे न किया था। वह लालसा अब उन फलों की भांँति क्षीण हो गयी थी जिसमे फल लग रहे हों। अब वह उस दर्जे से आगे निकल चुकी थी, जब मनुष्य स्थल आनन्द को परम मुख मानता है। यह आनन्द अब उसे तुच्छ पतन की ओर ले जानेवाला, कुछ हलका, बल्कि बीभत्स-सा लगता था। उस बड़े बंँगले में रहने का क्या आनन्द जब उसके आस-पास मिट्टी के झोपड़े मानो विलाप कर रहे हो। कार पर चढ़कर अब उसे गर्व नहीं होता। मंगल जैसे अबोध बालक ने उसके जीवन मे कितना प्रकाश डाल दिया, उसके मामने सच्चे आनन्द का द्वार-सा खोल दिया। [ ३४० ]

एक दिन मेहता के सिर में जोर का दर्द हो रहा था। वह आँखें बंद किये चारपाई पड़े तड़प रहे थे कि मालती ने आकर उनके सिर पर हाथ रखकर पूछा--कब से यह दर्द हो रहा है?

मेहता को ऐसा जान पड़ा, उन कोमल हाथों ने जैसे सारा दर्द खींच लिया। उठकर बैठ गये और बोले--दर्द तो दोपहर से ही हो रहा था और ऐसा सिर-दर्द मुझे रज तक नहीं हुआ था, मगर तुम्हारे हाथ रखते ही सिर ऐसा हल्का हो गया है, तो दर्द था ही नहीं। तुम्हारे हाथों में यह सिद्धि है।

मालती ने उन्हें कोई दवा लाकर खाने को दे दी और आराम से लेट रहने की कोद करके तुरन्त कमरे से निकल जाने को हुई।

मेहता ने आग्रह करके कहा--ज़रा दो मिनट बैठोगी नहीं ?

मालती ने द्वार पर से पीछे फिरकर कहा--इस वक्त बातें करोगे तो शायद फिर द होने लगे। आराम से लेटे रहो। आज-कल मैं तुम्हें हमेशा कुछ-न-कुछ पढ़ने या लखते देखती हूँ। दो-चार दिन पढ़ना-लिखना छोड़ दो।

'तुम एक मिनट बैठोगी नहीं ?'

'मुझे एक मरीज़ को देखने जाना है।'

'अच्छी बात है, जाओ।'

मेहता के मुख पर कुछ ऐसी उदासी छा गयी कि मालती लौट पड़ी और सामने कर बोली--अच्छा कहो, क्या कहते हो?

मेहता ने विमन होकर कहा--कोई खा़स बात नहीं है। यही कह रहा था कि नी रात गये किस मरीज़ को देखने जाओगी?

'वही राय साहब की लड़की है। उसकी हालत बहुत खराब हो गयी थी। अब भल गयी है।'

उसके जाते ही मेहता फिर लेट रहे। कुछ समझ में नहीं आया कि मालती के रखते ही दर्द क्यों शान्त हो गया। अवश्य ही उसमें कोई सिद्धि है और यह - की तपस्या का, उसकी कर्मण्य मानवता का ही वरदान है। मालती नारीत्व के उम ॐच आदर्श पर पहुँच गयी थी, जहाँ वह प्रकाश के एक नक्षत्र-सी नज़र आती थी। अब वह प्रेम की वस्तु नहीं, श्रद्धा की वस्तु थी। अब वह दुर्लभ हो गयी थी और दुर्लभता मनस्वी आत्माओं के लिए उद्योग का मंत्र है। मेहता प्रेम में जिस सुख की कल्पना कर रहे थे, उमे श्रद्धा ने और भी गहरा, और भी स्फूर्तिमय बना दिया। प्रेम में कुछ मान भी होता है, कुछ महत्त्व भी। श्रद्धा तो अपने को मिटा डालती है और अपने मिट जाने को ही अपना इष्ट बना लेती है। प्रेम अधिकार कराना चाहता है, जो कुछ देता है, उसके बदले में कुछ चाहता भी है। श्रद्धा का चरम आनन्द अपना समर्पण है, जिसमें अहम्मन्यता का ध्वंस हो जाता है।

मेहता का वह बृहत् ग्रन्थ समाप्त हो गया था, जिसे वह तीन साल से लिख रहे थे और जिसमें उन्होंने संसार के सभी दर्शन-तत्त्वों का समन्वय किया था। यह ग्रन्थ [ ३४१ ]उन्होंने मालती को समर्पित किया, और जिस दिन उसकी प्रतियाँ इंगलैंड से आयीं और उन्होंने एक प्रति मालती को भेंट की, तो वह उसे अपने नाम से समर्पित देखकर विस्मित भी हुई और दुखी भी।

उसने कहा--यह तुमने क्या किया? मैं तो अपने को इस योग्य नहीं समझती।

मेहता ने गर्व से कहा--लेकिन मैं तो समझता हूँ। यह तो कोई चीज़ नहीं। मेरे तो अगर सौ प्राण होते, तो वह तुम्हारे चरणों पर न्योछावर कर देता।

'मुझ पर! जिसने स्वार्थ-सेवा के सिवा कुछ जाना ही नहीं।'

'तुम्हारे त्याग का एक टुकड़ा भी मैं पा जाता, तो अपने को धन्य समझता। तुम देवी हो।'

'पत्थर की, इतना और क्यों नहीं कहते?'

'त्याग की, मंगल की, पवित्रता की।'

'तब तुमने मुझे खूब समझा। मैं और त्याग ! मैं तुमसे सच कहती हूँ, सेवा या त्याग का भाव कभी मेरे मन में नहीं आया। जो कुछ करती हूँ, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष स्वार्थ के लिए करती हूँ। मैं गाती इसलिए नहीं कि त्याग करती हूँ, या अपने गीतों से दुखी आत्माओं को सान्त्वना देती हूँ; बल्कि केवल इसलिए कि उससे मेरा मन प्रसन्न होता है। इसी तरह दवा-दारू भी गरीबों को दे देती हूँ; केवल अपने मन को प्रसन्न करने के लिए। शायद मन का अहंकार इसमें सुख मानता है। तुम मुझे ख्वाहमख्वाह देवी बनाये डालते हो। अब तो इतनी कसर रह गयी है कि धूप-दीप लेकर मेरी पूजा करो।'

मेहता ने कातर स्वर मे कहा--वह तो मैं बरसों से कर रहा हूँ मालती, और उस वक्त तक करता जाऊँगा जब तक वरदान न मिलेगा।

मालती ने चुटकी ली--तो वरदान पा जाने के बाद शायद देवी को मन्दिर से निकाल फेंको।

मेहता सॅभलकर बोले--तब तो मेरी अलग सत्ता ही न रहेगी; उपासक उपास्य में लय हो जायगा।

मालती ने गम्भीर होकर कहा--नहीं मेहता, मैं महीनों से इस प्रश्न पर विचार कर रही हूँ और अन्त में मैंने यह तय किया है कि मित्र बनकर रहना स्त्री-पुरुष बनकर रहने से कहीं सुखकर है। तुम मुझसे प्रेम करते हो, मुझ पर विश्वास करते हो, और मुझे भरोसा है कि आज अवसर आ पड़े तो तुम मेरी रक्षा प्राणों से करोगे। तुममें मैंने अपना पथ-प्रदर्शक ही नहीं, अपना रक्षक भी पाया है। मैं भी तुमसे प्रेम करती हूँ, तुम पर विश्वास करती हूँ, और तुम्हारे लिए कोई ऐसा त्याग नहीं है, जो मैं न कर सकूँ। और परमात्मा से मेरी यही विनय है कि वह जीवन-पर्यन्त मुझे इसी मार्ग पर दृढ़ रखे। हमारी पूर्णता के लिए, हमारी आत्मा के विकास के लिए, और क्या चाहिए? अपनी छोटी-सी गृहस्थी बनाकर, अपनी आत्माओं को छोटे-से पिंजड़े में बन्द करके, अपने दुःख-सुख को अपने ही तक रखकर, क्या हम असीम के निकट पहुँच सकते हैं ? [ ३४२ ]वह तो हमारे मार्ग में बाधा ही डालेगा। कुछ विरले प्राणी ऐसे भी हैं, जो पैरों में यह बेड़ियाँ डालकर भी विकास के पथ पर चल सकते हैं, और चल रहे हैं। यह भी जानती हूँ कि पूर्णता के लिए पारिवारिक प्रेम और त्याग और बलिदान का बहुत बड़ा महत्त्व है; लेकिन मैं अपनी आत्मा को उतना दृढ़ नहीं पाती। जब तक ममत्व नहीं है, अपनत्व नहीं है, तब तक जीवन का मोह नहीं है, स्वार्थ का ज़ोर नहीं है। जिस दिन मन मोह में आसक्त हुआ, और हम बन्धन में पड़े, उस क्षण हमारा मानवता का क्षेत्र सिकुड़ जायगा, नयी-नयी ज़िम्मेदारियाँ आ जायँगी और हमारी सारी शक्ति उन्हीं को पूरी करने में लगने लगेंगी। तुम्हारे जैसे विचारवान, प्रतिभाशाली मनुष्य की आत्मा को मैं इस कारागार में बन्दी नहीं करना चाहती। अभी तक तुम्हारा जीवन यज्ञ था, जिसमें स्वार्थ के लिए बहुत थोड़ा स्थान था। मैं उसको नीचे की ओर न ले जाऊँगी। संसार को तुम-जैसे साधकों की ज़रूरत है, जो अपनेपन को इतना फैला दें कि सारा संसार अपना हो जाय। संसार में अन्याय की, आतंक की, भय की दुहाई मची हुई है। अन्धविश्वास का, कपट-धर्म का, स्वार्थ का प्रकोप छाया हुआ है। तुमने वह आर्त-पुकार सुनी है। तुम भी न सुनोगे, तो सुननेवाले कहाँ से आयेंगे। और असत्य प्राणियों की तरह तुम भी उसकी ओर से अपने कान नहीं बन्द कर सकते। तुम्हें वह जीवन भार हो जायगा। अपनी विद्या और बुद्धि को, अपनी जागी हुई मानवता को और भी उत्साह और ज़ोर के साथ उसी रास्ते पर ले जाओ। मैं भी तुम्हारे पीछे-पीछे चलूंँगी। अपने जीवन के साथ मेरा जीवन भी सार्थक कर दो। मेरा तुमसे यही आग्रह है। अगर तुम्हारा मन सांसारिकता की ओर लपकता है, तब भी मैं अपना क़ाबू चलते तुम्हें उधर से हटाऊँगी और ईश्वर न करे कि मैं असफल हो जाऊँ, लेकिन तब मैं तुम्हारा साथ दो बूंँद आँसू गिराकर छोड़ दूंँगी, और कह नहीं सकती, मेरा क्या अन्त होगा, किस घाट लगूंँगी; पर चाहे वह कोई घाट हो, इस बन्धन का घाट न होगा; बोलो, मुझे क्या आदेश देते हो?

मेहता सिर झुकाये सुनते रहे। एक-एक शब्द मानो उनके भीतर की आँखें इस तरह खोले देता था, जैसी अब तक कभी न खुली थीं। वह भावनायें जो अब तक उनके सामने स्वप्न-चित्रों की तरह आयी थीं, अब जीवन-सत्य वनकर स्पंदित हो गयी थीं। वह अपने रोम-रोम में प्रकाश और उत्कर्ष का अनुभव कर रहे थे। जीवन के महान् संकल्पों के सम्मुख हमारा बालपन हमारी आँखों में फिर जाता है। मेहता की आँखों में मधुर बाल-स्मृतियाँ सजीव हो उठीं, जब वह अपनी विधवा माता की गोद में बैठकर महान् मुख का अनुभव किया करते थे। कहाँ है वह माता, आये और देखे अपने बालक की इस सुकीर्ति को। मुझे आशीर्वाद दो। तुम्हारा वह जिद्दी बालक आज एक नया जन्म ले रहा है।

उन्होंने मालती के चरण दोनों हाथ से पकड़ लिये और काँपते हुए बोले--तुम्हारा आदेश स्वीकार है मालती!

और दोनों एकान्त होकर प्रगाढ़ आलिंगन में बँध गये। दोनों की आँखों से आंँसुओं की धारा बह रही थी।