गो-दान/४

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(गोदान/भाग 4 से अनुप्रेषित)
गो-दान  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

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होरी को रात भर नींद नहीं आयी। नीम के पेड़-तले अपनी बाँस की खाट पर पड़ा बार-बार तारों की ओर देखता था। गाय के लिए एक नाँद गाड़नी है। बैलों से अलग उसकी नाँद रहे तो अच्छा। अभी तो रात को बाहर ही रहेगी;लेकिन चौमासे में उसके लिए कोई दूसरी जगह ठीक करनी होगी। बाहर लोग नजर लगा देते हैं। कभीकभी तो ऐसा टोना-टोटका कर देते है कि गाय का दूध ही सूख जाता है। थन में हाथ ही नहीं लगाने देती। लात मारती है। नहीं,वाहर वाँधना ठीक नहीं। और वाहर नांद भी कौन गाड़ने देगा। कारिन्दा साहब नजर के लिए मुंह फुलायेंगे।छोटी-छोटी बात के लिए गय साहब के पास फरियाद ले जाना भी उचित नहीं। और कारिन्दे के सामने मेरी मुनता कौन है। उनसे कुछ कहूँ,तो कारिन्दा दुश्मन हो जाय। जल में रहकर मगर मे वैर करना लड़कपन है।भीतर ही बाँधूंगा। आँगन है तो छोटा-सा; लेकिन एक मडैया डाल देने से काम चल जायगा। अभी पहला ही ब्यान है। पांच सेर से कम क्या दूध देगी। सेर-भर तो गोबर ही को चाहिए। रुपिया दूध देखकर कैसी ललचाती रहती है। अब पिये जितना चाहे। कभी-कभी दो-चार सेर मालिकों को दे आया करूँगा। कारिन्दा साहब की पूजा भी करनी ही होगी।और भोला के रुपए भी दे देना चाहिए। सगाई के ढकोसले में उसे क्यों डालूं। जो आदमी अपने ऊपर इतना विश्वास करे, उससे दगा करना नीचता है। अस्सी रुपए की गाय मेरे विश्वास पर दे दी। नहीं यहाँ तो कोई एक पैसे को नहीं पतियाता। सन में क्या कुछ न मिलेगा? अगर पच्चीस रुपए [ ३१ ]
भी दे दूं, तो भोला को ढाढ़स हो जाय। धनिया से नाहक बता दिया। चुपके से गाय लेकर वाँध देता तो चकरा जाती। लगती पूछने, किसकी गाय है? कहाँ से लाये हो? खूब दिक करके तब बताता;लेकिन जब पेट में वात पचे भी। कभी दो-चार पैसे ऊपर से आ जाते हैं; उनको भी तो नहीं छिपा सकता। और यह अच्छा भी है। उसे घर की चिन्ता रहती है;अगर उसे मालूम हो जाय कि इनके पास भी पैसे रहते हैं, तो फिर नखरे वघारने लगे। गोवर जरा आलसी है,नहीं मैं गऊ की ऐसी सेवा करता कि जैसी चाहिए। आलसी-वालसी कुछ नहीं है। इस उमिर में कौन आलसी नहीं होता। मैं भी दादा के सामने मटरगस्ती ही किया करता था। बेचारे पहर रात से कुट्टी काटने लगते। कभी द्वार पर झाड़ लगाते,कभी खेत में खाद फेंकते। मै पड़ा सोता रहता था। कभी जगा देते,तो मै विगड़ जाता और घर छोड़कर भाग जाने की धमकी देता था। लड़के जब अपने माँ-बाप के सामने भी जिन्दगी का थोड़ा-सा सुख न भोगेंगे, तो फिर जव अपने मिर पड़ गयी तो क्या भोगेंगे? दादा के मरते ही क्या मैने घर नहीं सम्भाल लिया? सारा गाँव यही कहता था कि होरी घर वरवाद कर देगा; लेकिन सिर पर बोझ पड़ते ही मैने ऐसा चोला वदला कि लोग देखते रह गये। सोभा और हीरा अलग ही हो गये,नहीं आज इस घर की और ही बात होती। तीन हल एक साथ चलते। अब तीनों अलग-अलग चलते है। बस,समय का फेर है। धनिया का क्या दोप था। बेचारी जव से घर में आयी, कभी तो आराम से न बैठी। डोली से उतरते ही सारा काम सिर पर उठा लिया। अम्मा को पान की तरह फेरती रहती थी। जिसने घर के पीछे अपने को मिटा दिया, देवरानियों से काम करने को कहती थी, तो क्या बुरा करती थी। आखिर उसे भी तो कुछ आराम मिलना चाहिए। लेकिन भाग्य में आराम लिखा होता नब तो मिलता। तब देवरों के लिए मरती थी,अब अपने बच्चों के लिए मरती है। वह इतनी सीधी,गमखोर, निर्छल न होती, तो आज सोभा और हीरा जो मूंछों पर ताव देते फिरते हैं, कही भीख मांगते होते। आदमी कितना स्वार्थी हो जाता है। जिसके लिए लड़ो वही जान का दुश्मन हो जाता है।

होरी ने फिर पूर्व की ओर देखा। साइत भिनसार हो रहा है। गोबर काहे को जागने लगा। नहीं,कहके तो यही सोया था कि मैं अँधेरे ही चला जाऊँगा। जाकर नाँद तो गाड़ दूं, लेकिन नहीं,जब तक गाय द्वार पर न आ जाय,नाँद गाड़ना ठीक नहीं। कहीं भोला बदल गये या और किसी कारन से गाय नदी, तो सारा गाँव तालियाँ पीटने लगेगा, चले थे गाय लेने। पट्टे ने इतनी फुर्ती से नाँद गाड़ दी, मानो इसी की कसर थी। भोला है तो अपने घर का मालिक;लेकिन जब लड़के सयाने हो गये,तो बाप की कौन चलती है। कामता और जंगी अकड़ जायें,तो क्या भोला अपने मन से गाय मुझे दे देंगे,कभी नहीं।

सहसा गोबर चौंककर उठ बैठा और आँखें मलता हुआ बोला-अरे! यह तो भोर हो गया। तुमने नाँद गाड़ दी दादा?

होरी गोबर के सुगठित शरीर और चौड़ी छाती की ओर गर्व से देखकर और मन [ ३२ ]
में यह सोचते हुए कि कहीं इसे गोरस मिलता,तो कैसा पट्ठा हो जाता,बोला-नहीं,अभी नहीं गाड़ी। सोचा,कहीं न मिले,तो नाहक भद्द हो।

गोवर ने त्योरी चढ़ाकर कहा--मिलेगी क्यों नहीं?

'उनके मन में कोई चोर पैठ जाय?चोर पैठे या डाकू,गाय तो उन्हें देनी ही पड़ेगी।'

गोबर ने और कुछ न कहा। लाठी कन्धे पर रखी और चल दिया। होरी उसे जाते देखता हुआ अपना कलेजा ठंढा करता रहा। अब लड़के की सगाई में देर न करनी चाहिए। सत्रहवां लग गया;मगर करें कैसे? कहीं पैसे के भी दरसन हों। जब से तीनों भाइयों में अलगौझा हो गया,घर की साख जाती रही। महतो लड़का देखने आते हैं,पर घर की दशा देखकर मुंह फीका करके चले जाते हैं। दो-एक राजी भी हुए,तो रुपए मांगते है। दो-तीन सौ लड़की का दाम चकाये और इतना ही ऊपर से खर्च करे, तब जाकर व्याह हो। कहाँ से आवें इतने रुपए। रास खलिहान में तुल जाती है। खाने-भर को भी नहीं बचता। व्याह कहाँ से हो? और अब तो सोना व्याहने योग्य हो गयी। लड़के का व्याह न हुआ, न सही। लड़की का व्याह न हुआ,तो सारी बिरादरी में हँसी होगी। पहले तो उसी की सगाई करनी है, पीछे देखी जायगी।

एक आदमी ने आकर राम-राम किया और पूछा--तुम्हारी कोठी में कुछ बाँस होंगे महतो?

होरी ने देखा,दमड़ी बॅसार सामने खड़ा है,नाटा, काला,खूब मोटा,चौड़ा मुँह,बड़ीबड़ी मूंछे,लाल आँखें,कमर में बाँस काटने की कटार खोंसे हुए। साल में एक-दो वार आकर चिकें,कुरसियाँ,मोढ़े,टोकरियाँ आदि बनाने के लिए कुछ बाँस काट ले जाता था।

होरी प्रसन्न हो गया। मुट्ठी गर्म होने की कुछ आशा बॅधी। चौधरी को ले जाकर अपनी तीनों कोठियाँ दिखायीं,मोल-भाव किया और पच्चीस रुपए सैकड़े में पचास वाँसों का बयाना ले लिया। फिर दोनों लौटे। होरी ने उसे चिलम पिलायी,जलपान कराया और तब रहस्यमय भाव से बोला-मेरे बाँस कभी तीस रुपए से कम में नहीं जाते;लेकिन तुम घर के आदमी हो, तुमसे क्या मोल-भाव करता। तुम्हारा वह लड़का,जिसकी सगाई हुई थी,अभी परदेस से लौटा कि नहीं?

चौधरी ने चिलम का दम लगाकर खाँसते हुए कहा-उस लौंडे के पीछे तो मर मिटा महतो!जवान बहू घर में बैठी थी और वह बिरादरी की एक दूसरी औरत के साथ परदेस में मौज करने चल दिया। बहू भी दूसरे के साथ निकल गयी। बड़ी नाकिस जात है महतो, किसी की नहीं होती। कितना समझाया कि तू जो चाहे खा,जो चाहे पहन,मेरी नाक न कटवा,मुदा कौन सुनता है। औरत को भगवान सब कुछ दे,रूप न दे,नहीं वह काबू में नहीं रहती। कोठियाँ तो बँट गयी होंगी?

होरी ने आकाश की ओर देखा और मानो उसकी महानता में उड़ता हुआ बोलासब कुछ बँट गया चौधरी!जिनको लड़कों की तरह पाला-पोसा,वह अब बराबर के हिस्सेदार है; लेकिन भाई का हिस्सा खाने की अपनी नीयत नहीं है। इधर तुमसे रुपए [ ३३ ]
मिलेंगे,उधर दोनों भाइयों को बाँट दूंगा। चार दिन की ज़िन्दगी में क्यों किसी से छलकपट करूँ। नहीं कह दूं कि बीस रुपए सैकड़े में बेचे हैं तो उन्हें क्या पता लगेगा। तुम उनसे कहने थोड़े ही जाओगे। तुम्हें तो मैंने बराबर अपना भाई समझा है।

व्यवहार में हम 'भाई' के अर्थ का कितना ही दुरुपयोग करें,लेकिन उसकी भावना में जो पवित्रता है,वह हमारी कालिमा से कभी मलिन नहीं होती।

होरी ने अप्रत्यक्ष रूप से यह प्रस्ताव करके चौधरी के मुँह की ओर देखा कि वह स्वीकार करता है या नहीं। उसके मुख पर कुछ ऐसा मिथ्या विनीत भाव प्रकट हुआ जो भिक्षा माँगते समय मोटे भिक्षुकों पर आ जाता है।

चौधरी ने होरी का आसन पाकर चाबुक जमाया--हमारा तुम्हारा पुराना भाई चारा है महतो,ऐसी बात है भला;लेकिन बात यह है कि ईमान आदमी बेचता है. तो किसी लालच से। बीस रुपाए नहीं मैं पन्द्रह रुपए कहूँगा;लेकिन जो बीस रुपए के दाम लो।

होरी ने खिसियाकर कहा--तुम तो चौधरी अन्धेर करते हो, बीस रुपए में कहीं ऐसे बाँस जाते है?

‘ऐसे क्या, इससे अच्छे बाँस जाते हैं दस रुपए पर, हाँ दस कोस और पच्छिम चले जाओ। मोल वाँस का नहीं है, शहर के नगीच होने का है। आदमी सोचता है,जितनी देर वहाँ जाने में लगेगी,उतनी देर में तो दो-चार रुपए का काम हो जायगा।'

{{Gapसौदा पट गया। चौधरी ने मिर्जई उतारकर छान पर रख दी और वाँस काटने लगा।

ऊख की सिंचाई हो रही थी। हीरा-बहू कलेवा लेकर कुएँ पर जा रही थी। चौधरी को बाँस काटते देखकर चूंघट के अन्दर से बोली--कौन बाँस काटता है? यहाँ वाँस न कटेंगे।

चौधरी ने हाथ रोककर कहा--बाँस मोल लिए हैं, पन्द्रह रुपए सैकड़े का बयाना हुआ है। सेंत में नहीं काट रहे हैं।

हीरा-बहू अपने घर की मालकिन थी। उसी के विद्रोह से भाइयों में अलगौझा हुआ था। धनिया को परास्त करके शेर हो गयी थी। हीरा कभी-कभी उसे पीटता था। अभी हाल में इतना मारा था कि वह कई दिन तक खाट से न उठ सकी,लेकिन अपना पदाधिकार वह किसी तरह न छोड़ती थी। हीरा क्रोध में उसे मारता था;लेकिन चलता था उसी के इशारों पर,उस घोड़े की भाँति जो कभी-कभी स्वामी को लात मारकर भी उसी के आसन के नीचे चलता है।)

कलेवे की टोकरी सिर से उतार कर बोली-पन्द्रह रुपए में हमारे बाँस न जायेंगे।

चौधरी औरत जात से इस विषय में बात-चीत करना नीति-विरुद्ध समझते थे। बोले-जाकर अपने आदमी को भेज दो। जो कुछ कहना हो,आकर कहें।

हीरा-बहू का नाम था पुन्नी। बच्चे दो ही हुए थे। लेकिन ढल गयी थी। बनावसिंगार से समय के आघात का शमन करना चाहती थी,लेकिन गृहस्थी में भोजन ही का ठिकाना न था, सिंगार के लिए पैसे कहाँ से आते। इस अभाव और विवशता ने [ ३४ ]
उसकी प्रकृति का जल सुखाकर कठोर और शुष्क बना दिया था,जिस पर एक बार फावड़ा भी उचट जाता था।

समीप आकर चौधरी का हाथ पकड़ने की चेष्टा करती हुई बोली-आदमी को क्यों भेज दूं। जो कुछ कहना हो,मुझसे कहो न। मैने कह दिया,मेरे बाँस न कटेंगे।

चौधरी हाथ छुड़ाता था,और पुन्नी बार-बार पकड़ लेती थी। एक मिनट तक यही हाथा-पाई होती रही। अन्त मे चौधरी ने उसे ज़ोर से पीछे ढकेल दिया। पुन्नी धक्का खाकर गिर पड़ी; मगर फिर सँभली और पाँव से तल्ली निकालकर चौधरी के सिर,मुंह,पीठ पर अन्धाधुन्ध जमाने लगी। बँसोर होकर उसे ढकेल दे? उसका यह अपमान! मारती जाती थी और रोती भी जाती थी। चौधरी उसे धक्का देकर-- नारी जाति पर बल का प्रयोग करके--गच्चा खा चुका था। खड़े-खड़े मार खाने के मिवा इस संकट से बचने की उसके पास और कोई दवा न थी।

{{Gap}]पुन्नी का रोना सुनकर होरी भी दौड़ा हुआ आया। पुन्नी ने उसे देखकर और ज़ोर मे चिल्लाना शुरू किया। होरी ने समझा, चौधरी ने पुनिया को मारा है। खून ने जोश मारा और अलगौझे की ऊँची वाँध को तोड़ता हुआ, सब कुछ अपने अन्दर समेटने के लिए बाहर निकल पड़ा। चौधरी को ज़ोर से एक लात जमाकर बोला--अव अपना भला चाहते हो चौधरी,तो यहाँ से चले जाओ,नही तुम्हारी लहास उठेगी। तुमने अपने को समझा क्या है? तुम्हारी इतनी मजाल कि मेरी बहू पर हाथ उठाओ।

चौधरी कसमे खा-खाकर अपनी सफाई देने लगा। तल्लियों की चोट मे उसकी अपराधी आत्मा मौन थी। यह लात उसे निरपराध मिली और उसके फूले हुए गाल आँसुओं से भीग गये। उसने तो बहू को छुआ भी नही। क्या वह इतना गॅवार है कि महतो के घर की औरतों पर हाथ उठायेगा।

होरी ने अविश्वास करके कहा-आँखों में धूल मत झोंको चौधरी, तुमने कुछ कहा नहीं, तो बहू झूठ-मूठ रोती है? रुपए की गर्मी है, तो वह निकाल दी जायगी। अलग हैं तो क्या हुआ, हैं तो एक खून। कोई तिरछी आँख से देखे,तो आँख निकाल लें।

पुन्नी चण्डी बनी हुई थी। गला फाड़कर बोली-तूने मुझे धक्का देकर गिरा नहीं दिया? खा जा अपने बेटे की कसम!

हीरा को भी खबर मिली कि चौधरी और पुनिया में लड़ाई हो रही है। चौधरी ने पुनिया को धक्का दिया। पुनिया ने उसे तल्लियों से पीटा। उसने पुर वहीं छोड़ा और औगी लिए घटनास्थल की ओर चला। गाँव में अपने क्रोध के लिए प्रसिद्ध था। छोटा डील, गठा हुआ शरीर,आँखें कौड़ी की तरह निकल आयी थीं और गर्दन की नसें तन गयी थीं; मगर उसे चौधरी पर क्रोध न था, क्रोध था पुनिया पर। वह क्यों चौधरी से लड़ी?क्यों उसकी इज्जत मिट्टी में मिला दी? बँसोर से लड़ने-झगड़ने का उसे क्या प्रयोजन था? उसे जाकर हीरा से सारा समाचार कह देना चाहिए था। हीरा जैसा उचित समझता, करता। वह उससे लड़ने क्यों गयी? उसका बस होता,तो वह पुनिया को पर्दे में रखता। पुनिया किसी बड़े से मुंह खोलकर बातें करे,यह उसे असह्य था। वह खुद [ ३५ ]
जितना उदंड था,पुनिया को उतना ही शान्त रखना चाहता था। जब भैया ने पन्द्रह रुपये में सौदा कर लिया,तो यह बीच में कूदनेवाली कौन!

आते ही उसने पुन्नी का हाथ पकड़ लिया और घसीटता हुआ अलग ले जाकर लगा लाते जमाने--हरामजादी,तू हमारी नाक कटाने पर लगी हुई है! तू छोटे-छोटे आदमियों से लड़ती फिरती है,किसकी पगड़ी नीची होती है बता!(एक लात और जमाकर) हम तो वहाँ कलेऊ की वाट देख रहे हैं,तू यहाँ लड़ाई ठाने बैठी है। इतनी बेमर्मी! आँख का पानी ऐसा गिर गया! खोदकर गाड़ दूंगा।

पुन्नी हाय-हाय करती जाती थी और कोसती जाती थी, 'तेरी मिट्टी उठे,तुझे हैजा हो जाय,तुझे मरी आये,देवी मैया तुझे लील जायँ,तुझे इन्फ्लुएंजा हो जाय। भगवान् करे,तू कोढ़ी हो जाय। हाथ-पाँव कट-कट गिरें।'

और गालियाँ तो हीरा खड़ा-खड़ा सुनता रहा, लेकिन यह पिछली गाली उगे लग गयी। हैजा,मरी आदि में विशेप कप्ट न था। इधर बीमार पड़े, उधर विदा हो गये,लेकिन कोढ़! यह घिनौनी मौत,और उसमे भी घिनौना जीवन। वह तिलमिला उठा, दाँत पीसता हुआ फिर पुनिया पर झपटा और झोटे पकड़कर फिर उसका सिर जमीन पर रगड़ता हुआ बोला--हाथ-पाँव कटकर गिर जायेंगे,तो मैं तुझे लेकर चाटूंगा! तू ही मेरे बाल-बच्चों को पालेगी? ऐं! तू ही इतनी बड़ी गिरस्ती चलायेगी? तू तो दूसरा भरतार करके किनारे खड़ी हो जायगी।

चौधरी को पुनिया की इस दुर्गति पर दया आ गयी। हीरा को उदारतापूर्वक समझाने लगा-हीरा महतो,अव जाने दो, बहुत हुआ। क्या हुआ,बहू ने मुझे मारा। मैं तो छोटा नहीं हो गया। धन्य भाग कि भगवान् ने यह दिन तो दिखाया।

हीरा ने चौधरी को डाँटा-तुम चुप रहो चौधरी, नहीं मेरे क्रोध में पड़ जाओगे तो बुग होगा। औरत जात इसी तरह बकती है। आज को तुमसे लड़ गयी,कल को दूसरों से लड़ जायगी। तुम भले मानस हो,हँसकर टाल गये,दूसरा तो बरदास न करेगा। कहीं उसने भी हाथ छोड़ दिया,तो कितनी आवरू रह जायेगी,बताओ।

इस खयाल ने उसके क्रोध को फिर भड़काया। लपका था कि होरी ने दौड़कर पकड़ लिया और उसे पीछे हटाते हुए बोला-अरे हो तो गया। देख तो लिया दुनिया ने कि बड़े बहादुर हो। अब क्या उसे पीसकर पी जाओगे?

हीरा अब भी बड़े भाई का अदब करता था। सीधे-सीधे न लड़ता था। चाहता तो एक झटके में अपना हाथ छुड़ा लेता; लेकिन इतनी बेअदबी न कर सका।चौधरी की ओर देखकर बोला-अब खड़े क्या ताकते हो। जाकर अपने बाँस काटो। मैंने सही कर दिया। पन्द्रह रुपए सैकड़े में तय है।

कहाँ तो पुन्नीरो रही थी। कहाँ झमककर उठी और अपना सिर पीटकर बोली-लगा दे घर में आग,मुझे क्या करना है। भाग फूट गया कि तुम-जैसी कसाई के पाले पड़ी। लगा दे घर में आग! [ ३६ ]उसने कलेऊ की टोकरी वहीं छोड़ दी और घर की ओर चली। हीरा गरजा-वहाँ कहाँ जाती है,चल कुएँ पर,नहीं खून पी जाऊँगा।

पुनिया के पाँव रुक गये। इस नाटक का दूसरा अंक न खेलना चाहती थी। चुपके से टोकरी उठाकर रोती हुई कुएँ की ओर चली। हीरा भी पीछे-पीछे चला।

होरी ने कहा-अब फिर मार-धाड़ न करना। इससे औरत बेसरम हो जाती है।

धनिया ने द्वार पर आकर हाँक लगायी--तुम वहाँ खड़े-खड़े क्या तमासा देख रहे हो। कोई तुम्हारी मुनता भी है कि यों ही शिक्षा दे रहो हो। उस दिन इसी बहू ने तुम्हें चूंघट की आड़ में डाढ़ीजार कहा था,भूल गये। बहुरिया होकर पराये मरदों से लड़ेगी,तो डांटी न जायेगी।

होरी द्वार पर आकर नटखटपन के साथ बोला--और जो मै इसी तरह तुझे मारूँ ?

'क्या कभी मारा नहीं है,जो मारने की साध बनी हुई है?'

'इतनी बेदरदी से मारता, तो तू घर छोड़कर भाग जाती ! पुनिया बड़ी गमखोर है।'

'ओहो! ऐसे ही तो बड़े दरदवाले हो। अभी तक मार का दाग बना हुआ है। हीरा मारता है तो दुलारता भी है। तुमने खाली मारना सीखा,दुलार करना सीखा ही नहीं। मै ही ऐसी हूँ कि तुम्हारे साथ निबाह हुआ।'

'अच्छा रहने दे, बहुत अपना वखान न कर! तू ही रूठ-रूठकर नैहर भागती थी। जब महीनों खुशामद करता था, तब जाकर आती थी!'

'जब अपनी गरज सताती थी, तब मनाने जाते थे लाला! मेरे दुलार से नहीं जाते थे।'

'इसी से तो मैं सबसे तेरा बखान करता हूँ।'

वैवाहिक जीवन के प्रभात में लालसा अपनी गुलाबी मादकता के साथ उदय होती है और हृदय के सारे आकाश को अपने माधुर्य की सुनहरी किरणों से रंजित कर देती है। फिर मध्याह्न का प्रखर ताप आता है,क्षण-क्षण पर बगूले उठते हैं, और पृथ्वी काँपने लगती है। लालसा का सुनहरा आवरण हट जाता है और वास्तविकता अपने नग्न रूप में सामने आ खड़ी होती है। उसके बाद विश्राममय संध्या आती है,शीतल और शान्त,जब हम थके हुए पथिकों की भांति दिन-भर की यात्रा का वृत्तान्त कहते और सुनते हैं तटस्थ भाव से,मानो हम किसी ऊँचे शिखर पर जा बैठे हैं जहाँ नीचे का जन-रव हम तक नहीं पहुँचता।

धनिया ने आँखों में रस भरकर कहा--चलो-चलो, बड़े बखान करनेवाले। जरा-सा कोई काम बिगड़ जाय,तो गरदन पर सवार हो जाते हो।

होरी ने मीठे उलाहने के साथ कहा-ले,अब यही तेरी बेइन्साफी मुझे अच्छी नहीं लगती धनिया! भोला से पूछ,मैंने उनसे तेरे बारे में क्या कहा था?

धनिया ने बात बदलकर कहा--देखो,गोबर गाय लेकर आता है कि खाली हाथ।

चौधरी ने पसीने में लथ-पथ आकर कहा-महतो, चलकर बाँस गिन लो। कल ठेला लाकर उठा ले जाऊँगा। [ ३७ ]होरी ने बाँस गिनने की ज़रूरत न समझी। चौधरी ऐसा आदमी नहीं है। फिर एकाध बाँस बेसी ही काट लेगा, तो क्या। रोज़ ही तो मँगनी बाँस कटते रहते हैं। सहालगों में तो मण्डप बनाने के लिए लोग दरजनों बाँस काट ले जाते हैं।

चौधरी ने साढ़े सात रुपए निकालकर उसके हाथ में रख दिये। होरी ने गिनकर कहा-और निकालो। हिसाब से ढाई और होते हैं।

चौधरी ने बेमुरौवती से कहा-पन्द्रह रुपए में तय हुए हैं कि नहीं?

‘पन्द्रह रुपए में नहीं,बीस रुपए में।'

'हीरा महतो ने तुम्हारे सामने पन्द्रह रुपए कहे थे। कहो तो बुला लाऊँ।'

'तय तो बीस रुपए में ही हुए थे चौधरी! अव तुम्हारी जीत है, जो चाहे कहो। ढाई रुपए निकलते हैं,तुम दो ही दे दो।'

मगर चौधरी कच्ची गोलियाँ न खेला था। अब उसे किसका डर। होरी के मुंह में तो ताला पड़ा हुआ था। क्या कहे, माथा ठोंककर रह गया। वस इतना बोला--यह अच्छी बात नहीं है,चौधरी,दो रुपए दवाकर राजा न हो जाओगे।

चौधरी तीक्ष्ण स्वर में बोला-और तुम क्या भाइयों के थोड़े-से पैसे दबाकर राजा हो जाओगे? ढाई रुपए पर अपना ईमान बिगाड़ रहे थे,उस पर मुझे उपदेस देते हो। अभी परदा खोल दूं,तो सिर नीचा हो जाय।

होरी पर जैसे सैकड़ों जूते पड़ गये। चौधरी तो रुपए सामने जमीन पर रखकर चला गया ; पर वह नीम के नीचे बैठा बड़ी देर तक पछताता रहा। वह कितना लोभी और स्वार्थी है, इसका उसे आज पता चला। चौधरी ने ढाई रुपए दे दिये होते, तो वह खुशी से कितना फूल उठता। अपनी चालाकी को सराहता कि बैठे-बैठाये ढाई रुपए मिल गये। ठोकर खाकर ही तो हम सावधानी के साथ पग उठाते हैं।

धनिया अन्दर चली गयी थी। बाहर आयी तो रुपए जमीन पर पड़े देखे,गिनकर बोली--और रुपए क्या हुए,दस न चाहिए?

होरी ने लम्बा मुंह बनाकर कहा--हीरा ने पन्द्रह रुपए में दे दिये, तो मैं क्या करता।

'हीरा पाँच रुपए में दे दे। हम नहीं देते इन दामों।'

'वहाँ मार-पीट हो रही थी। मै बीच में क्या बोलता।'

होरी ने अपनी पराजय अपने मन में ही डाल ली,जैसे कोई चोरी से आम तोड़ने के लिए पेड़ पर चढ़े और गिर पड़ने पर धूल झाड़ता हुआ उठ खड़ा हो कि कोई देख न ले। जीतकर आप अपनी धोखेबाजियों की डींग मार सकते है;जीत से सब-कुछ माफ है। हार की लज्जा तो पी जाने की ही वस्तु है।

धनिया पति को फटकारने लगी। ऐसे सुअवसर उसे बहुत कम मिलते थे। होरी उससे चतुर था;पर आज बाजी धनिया के हाथ थी। हाथ मटकाकर बोली-क्यों न हो,भाई ने पन्द्रह रुपए कह दिये,तो तुम कैसे टोकते। अरे राम-राम! लाड़ले भाई का दिल छोटा हो जाता कि नहीं। फिर जब इतना बड़ा अनर्थ हो रहा था कि लाड़ली [ ३८ ]
वह के गले पर छुरी चल रही थी,तो भला तुम कैसे बोलते। उस बखत कोई तुम्हारा सरवस लूट लेता,तो भी तुम्हें सुध न होती।

होरी चुपचाप सुनता रहा। मिनका तक नहीं। झुंझलाहट हुई,क्रोध आया,खून खौला,आँख जली,दाँत पिसे;लेकिन बोला नहीं। चुपके-से कुदाल उठायी और ऊख गोड़ने चला।

धनिया ने कुदाल छीनकर कहा--क्या अभी सवेरा है जो ऊख गोड़ने चले? सूरज देवता माथे पर आ गये। नहाने-धोने जाव। रोटी तैयार है।

होरी ने घुन्नाकर कहा-मुझे भूख नहीं है।

धनिया ने जले पर नोन छिड़का-हाँ, काहे को भूख लगेगी। भाई ने बड़े-बड़े लड्डू खिला दिये हैं न! भगवान ऐसे सपूत भाई सबको दें।

होरी बिगड़ा। क्रोध अब रस्सियाँ तुड़ा रहा था-तू आज मार खाने पर लगी हुई है।

धनिया ने नकली विनय का नाटक करके कहा--क्या करूँ, तुम दुलार ही इतना करते हो कि मेरा सिर फिर गया है।

'तू घर में रहने देगी कि नहीं?'

'घर तुम्हारा,मालिक तुम,मैं भला कौन होती हूँ तुम्हें घर से निकालनेवाली।'

होरी आज धनिया से किसी तरह पेश नहीं पा सकता। उसकी अक्ल जैसे कुन्द हो गयी है। इन व्यंग्य-बाणों के रोकने के लिए उसके पास कोई ढाल नहीं है। धीरे से कुदाल रख दी और गमछा लेकर नहाने चला गया। लौटा कोई आध घण्टे में;मगर गोबर अभी तक न आया था। अकेले कैसे भोजन करे। लौंडा वहाँ जाकर सो रहा। भोला की वह मदमाती छोकरी नहीं है झुनिया। उसके साथ हँसी-दिल्लगी कर रहा होगा। कल भी तो उसके पीछे लगा हुआ था। नहीं गाय दी,तो लौट क्यों नहीं आया। क्या वहाँ ढई देगा।

धनिया ने कहा-अब खड़े क्या हो? गोबर साँझ को आयेगा।

{{Gap]}होरी ने और कुछ न कहा। कही धनिया फिर न कुछ कह बैठे।

भोजन करके नीम की छाँह में लेट रहा।

रूपा रोती हुई आई,नंगे बदन एक लॅगोटी लगाये, झवरे बाल इधर-उधर बिखरे हुए। होरी की छाती पर लोट गयी। उसकी बड़ी बहन सोना कहती है-गाय आयेगी,तो उसका गोवर मैं पाचूंगी। रूपा यह नहीं बरदाश्त कर सकती। सोना ऐसी कहाँ की बड़ी रानी है कि सारा गोवर आप पाथ डाले। रूपा उससे किस बात में कम है। सोना रोटी पकाती है,तो क्या रूपा बरतन नहीं माँजती? सोना पानी लाती है,तो क्या रूपा कुएँ पर रस्सी नहीं ले जाती? सोना तो कलसा भरकर इठलाती चली आती है। रस्सी समेटकर रूपा ही लाती है। गोबर दोनों साथ पाथती हैं। सोना खेत गोड़ने जाती है,तो क्या रूपा बकरी चराने नहीं जाती? फिर सोना क्यों अकेली गोबर पाथेगी? यह अन्याय रूपा कैसे सहे।

होरी ने उसके भोलेपन पर मुग्ध होकर कहा-नहीं,गाय का गोबर तूं पाथना। सोना गाय के पास जाये तो भगा देना। [ ३९ ]<gap>रूपा ने पिता के गले में हाथ डालकर कहा--दूध भी मै ही दुहुँगी।

'हाँ-हाँ,तू न दुहेगी तो और कौन दुहेगा?'

'वह मेरी गाय होगी।'

'हाँ,सोलहो आने तेरी।'

रूपा प्रसन्न होकर अपनी विजय का शुभ समाचार पराजिता सोना को सुनाने चली गयी। गाय मेरी होगी,उसका दूध मैं दुहँगी,उसका गोबर मैं पाचुंगी,तुझे कुछ न मिलेगा।

(सोना उम्र से किशोरी, देह के गठन में युवती और बुद्धि से वालिका थी,जैसे उसका यौवन उसे आगे खीचता था, वालपन पीछे। कुछ बातों में इतनी चतुर कि ग्रेजुएट युवतियों को पढ़ाये,कुछ बातों में इतनी अल्हड़ कि शिशुओं से भीपीछे। लम्बा,रूखा,किन्तु प्रसन्न मुख ठोड़ी नीचे को खिचीहुई,आँखों में एक प्रकार की तृप्ति,न केशों में तेल,न आँखों में काजल,न देह पर कोई आभूपण,जैसे गृहस्थी के भार ने यौवन को दबाकर बौना कर दिया हो।

मिर को एक झटका देकर बोली-जा तू गोवर पाथ। जब तू दूध दुहकर रखेगी तो मैं पी जाऊँगी।

{{Gap}]'मैं दूध की हाँड़ी ताले में बन्द करके रसूंगी।'

'मै ताला तोड़कर दूध निकाल लाऊँगी।'

यह कहती हुई वह बाग की तरफ चल दी। आम गदरा गये थे। हवा के झोंकों से एकाध ज़मीन पर गिर पड़ते थे,लू के मारे चुचके, पीले; लेकिन वाल-वृन्द उन्हें टपके समझकर बाग को घेरे रहते थे। रूपा भी बहन के पीछे हो ली। जो काम सोना करे,वह रूपा ज़रूर करेगी। सोना के विवाह की बातचीत हो रही थी,रूपा के विवाह की कोई चर्चा नहीं करता;इसलिए वह स्वयं अपने विवाह के लिए आग्रह करती है। उसका दूल्हा कैसा होगा,क्या-क्या लायेगा, उसे कैसे रखेगा,उसे क्या खिलायेगा, क्या पहनायेगा,इसका वह बड़ा विशद वर्णन करती, जिसे सुनकर कदाचित् कोई वालक उससे विवाह करने पर राजी न होता।

साँझ हो रही थी। होरी ऐसा अलसाया कि ऊख गोड़ने न जा सका। बैलों को नाँद में लगाया,सानी-खली दी और एक चिलम भरकर पीने लगा। इस फसल में सब कुछ खलिहान में तौल देने पर भी अभी उस पर कोई तीन सौ कर्ज था,जिस पर कोई सौ रुपए सूद के बढ़ते जाते थे। (मँगरू साह से आज पाँच साल हुए बैल के लिए साठ रुपए लिए थे,उसमें साठ दे चुका था;पर वह साठ रुपए ज्यों-के-त्यों बने हुए थे। दातादीन पण्डित से तीस रुपए लेकर आलू बोये थे। आलू तो चोर खोद ले गये,और उस तीस के इन तीन बरसों में सौ हो गये थे। दुलारी विधवा सहुआइन थी,जो गाँव में नोन तेल तमाखू की दूकान रखे हुए थी। बटवारे के समय उससे चालीस रुपए लेकर भाइयों को देना पड़ा था। उसके भी लगभग सौ रुपए हो गये थे; क्योंकि आने रुपए का ब्याज था। लगान के भी अभी पच्चीस रुपए बाकी पड़े हुए थे और दशहरे के दिन शगुन के रुपयों का भी कोई प्रबन्ध करना था। बाँसों के रुपए बड़े अच्छे समय पर मिल गये। शगुन की समस्या हल हो [ ४० ]
जायगी;लेकिन कौन जाने। यहाँ तो एक धेला भी हाथ में आ जाय,तो गाँव में शोर मच जाता है,और लेनदार चारों तरफ से नोचने लगते हैं;ये पाँच रुपए तो वह शगुन में देगा,चाहे कुछ हो जाय;मगर अभी जिन्दगी के दो बड़े-बड़े काम सिर पर सवार थे। गोबर और सोना का विवाह। बहुत हाथ बाँधने पर भी तीन सौ से कम खर्च न होंगे। ये तीन सौ किसके घर से आयेंगे? कितना चाहता है कि किसी से एक पैसा कर्ज न ले,जिमका आता है,उसका पाई-पाई चुका दे;लेकिन हर तरह का कष्ट उठाने पर भी गला नहीं छूटता। इसी तरह सूद बढ़ता जायगा और एक दिन उसका घर-द्वार सब नीलाम हो जायगा,उसके बाल-बच्चे निराश्रय होकर भीख माँगते फिरेंगे। होरी जब काम-धन्धे से छुट्टी पाकर चिलम पीने लगता था,तो यह चिन्ता एक काली दीवार की भाँति चारों ओर से घेर लेती थी,जिसमें से निकलने की उसे कोई गली न सूझती थी। अगर सन्तोप था तो यही कि यह विपत्ति अकेले उसी के सिर न थी। प्रायः सभी किसानों का यही हाल था। अधिकांश की दशा तो इससे भी बदतर थी। शोभा और हीरा को उससे अलग हए अ कुल तीन साल हुए थे;मगर दोनों पर चार-चार सौ का बोझ लद गया। झींगुर दो हल की खेती करता है। उस पर एक हजार से कुछ बेसी ही देना है। जियावन महतो के घर भिखारी भीख भी नहीं पाता;लेकिन करजे का कोई ठिकाना नहीं। यहाँ कौन वचा है।

सहसा सोना और रूपा दोनों दौड़ी हुई आयीं और एक साथ बोलीं--भैया गाय ला रहे हैं। आगे-आगे गाय,पीछे-पीछे भैया है।

रूपा ने पहले गोवर को आते देखा था। यह खवर सुनाने की सुर्खरूई उसे मिलनी चाहिए थी। सोना बराबर की हिस्सेदार हुई जाती है,यह उससे कैसे सहा जाता।

उसने आगे बढ़कर कहा--पहले मैंने देखा था। तभी दौड़ी। बहन ने तो पीछे से देखा।

सोना इस दावे को स्वीकार न कर सकी। बोली-तूने भैया को कहाँ पहचाना। तू तो कहती थी,कोई गाय भागी आ रही है। मैने ही कहा,भैया हैं।

दोनों फिर वाग की तरफ दौड़ी,गाय का स्वागत करने के लिए।

धनिया और होरी दोनो गाय बाँधने का प्रबन्ध करने लगे। होरी बोला-चलो,जल्दी से नाँद गाड़ दें।

धनिया के मुख पर जवानी चमक उठी थी-नहीं,पहले थाली में थोड़ा-सा आटा और गुड़ घोलकर रख दें। वेचारी धूप में चली होगी। प्यासी होगी। तुम जाकर नाँद गाड़ो,मै घोलती हूँ।

'कहीं एक घंटी पड़ी थी। उसे ढूंढ़ ले। उसके गले में बाँधेगे।'

'सोना कहाँ गयी। सहुआइन की दुकान से थोड़ा-सा काला डोरा मँगवा लो,गाय को नजर बहुत लगती है।'

'आज मेरे मन की बड़ी भारी लालसा पूरी हो गयी।' [ ४१ ]
अपने साथ कोई नयी बाधा न लाये,यह शंका उसके निराश हृदय में कम्पन डाल रही थी। आकाश की ओर देखकर बोली--गाय के आने का आनन्द तो जब है कि उसका पौरा भी अच्छा हो। भगवान् के मन की बात है।

मानो वह भगवान् को भी धोखा देना चाहती थी। भगवान् को भी दिखाना चाहती थी कि इस गाय के आने से उसे इतना आनन्द नहीं हुआ कि ईर्ष्यालु भगवान् सुख का पलड़ा ऊँचा करने के लिए कोई नयी विपत्ति भेज दें।

वह अभी आटा घोल ही रही थी कि गोबर गाय को लिये बालकों के एक जुलूस के साथ द्वार पर आ पहुंचा। होरी दौड़कर गाय के गले से लिपट गया। धनिया ने आटा छोड़ दिया और जल्दी से एक पुरानी साड़ी का काला किनारा फाड़कर गाय के गले में बाँध दिया।

होरी श्रद्धा-विह्वल नेत्रों से गाय को देख रहा था,मानो साक्षात् देवीजी ने घर में पदार्पण किया हो। आज भगवान् ने यह दिन दिखाया कि उसका घर गऊ के चरणों से पवित्र हो गया। यह सौभाग्य! न जाने किसके पुण्य-प्रताप से।

धनिया ने भयातुर होकर कहा-खड़े क्या हो, आँगन में नाँद गाड़ दो।

{{Gap@))'आँगन में,जगह कहाँ है ?'

'बहुत जगह है।'

'मैं तो बाहर ही गाड़ता हूँ।'

'पागल न बनो। गाँव का हाल जानकर भी अनजान बनते हो।'

'अरे बित्ते-भर के आँगन में गाय कहाँ बंधेगी भाई?'

'जो बात नहीं जानते,उसमें टाँग मत अड़ाया करो। संसार-भर की बिद्दा तुम्ही नही पढ़े हो।'

होरी सचमुच आपे में न था। गऊ उसके लिए केवल भक्ति और श्रद्धा की वस्तु नहीं,सजीव सम्पत्ति भी थी। वह उससे अपने द्वार की शोभा और अपने घर का गौरव बढ़ाना चाहता था। वह चाहता था,लोग गाय को द्वार पर बँधे देखकर पूछे--यह किसका घर है? लोग कहें-होरी महतो का। तभी लड़कीवाले भी उसकी विभूति से प्रभावित होंगे। आँगन में बँधी, तो कौन देखेगा?धनिया इसके विपरीत सशंक थी। वह गाय को सात परदों के अन्दर छिपाकर रखना चाहती थी। अगर गाय आठों पहर कोठरी में रह सकती,तो शायद वह उसे बाहर न निकालने देती। यों हर बात में होरी की जीत होती थी। वह अपने पक्ष पर अड़ जाता था और धनिया को दवना पड़ता था,लेकिन आज धनिया के सामने होरी की एक न चली। धनिया लड़ने पर तैयार हो गयी। गोवर,सोना और रूपा,सारा घर होरी के पक्ष में था; पर धनिया ने अकेले सब को परास्त कर दिया। आज उसमें एक विचित्र आत्म-विश्वास और होरी में एक विचित्र विनय का उदय हो गया था।

मगर तमाशा कैसे रुक सकता था। गाय डोली में बैठकर तो आयी न थी। कैसे सम्भव था कि गाँव में इतनी बड़ी बात हो जाय और तमाशा न लगे। जिसने सुना,सब

[ ४२ ]
काम छोड़कर देखने दौड़ा। यह मामूली देशी गऊ नहीं है। भोला के घर से अस्सी रुपए में आयी है। होरी अस्सी रुपए क्या देंगे,पचास-साठ रुपए में लाये होंगे। गाँव के इतिहास में पचास-साठ रुपए की गाय का आना भी अभूतपूर्व बात थी। बैल तो पचास रुपए के भी आये,सौ के भी आये;लेकिन गाय के लिए इतनी बड़ी रकम किसान क्या खा के खर्च करेगा। यह तो ग्वालों ही का कलेजा है कि अंजुलियों रुपए गिन आते हैं। गाय क्या है, साक्षात् देवी का रूप है। दर्शकों,आलोचकों का तांता लगा हुआ था,और होरी दौड़-दौड़कर सबका सत्कार कर रहा था। इतना विनम्र,इतना प्रसन्न चित्त वह कभी न था।

सत्तर साल के बूढ़े पण्डित दातादीन लठिया टेकते हुए आये और पोपले मुँह से बोलेकहाँ हो होरी,तनक हम भी तुम्हारी गाय देख लें। सुना बड़ी सुन्दर है।

होरी ने दौड़कर पालागन किया और मन, में अभिमानमय उल्लास का आनन्द उठाता हुआ,बड़े सम्मान से पण्डितजी को आँगन में ले गया। ने महाराज गऊ को अपनी पुरानी अनुभवी आँखों से देखा,सींगें देखीं,थन देखा,पुट्ठा देखा और घनी सफेद भौंहों के नीचे छिपी हुई आंखों में जवानी की उमंग भरकर बोले--कोई दोष नहीं है बेटा,बालभौंरी,सब ठीक। भगवान् चाहेंगे,तो तुम्हारे भाग खुल जायँगे,ऐसे अच्छे लच्छन है कि वाह! बस रातिब न कम होने पाये। एक-एक बाछा सौ-सौ का होगा।

होरी ने आनन्द के सागर में डुबकियाँ खाते हुए कहा-सब आपका असीरवाद है,दादा!

{{Gap}]दातादीन ने सुरती की पीक थूकते हुए कहा-मेरा असीरबाद नहीं है बेटा,भगवान् की दया है। यह सब प्रभु की दया है। रुपए नगद दिये?

होरी ने बे-पर की उड़ाई।अपने महाजन के सामने भी अपनी समृद्धि-प्रदर्शन का ऐमा अवसर पाकर वह कैसे छोड़े। टके की नयी टोपी सिर पर रखकर जब हम अकड़ने लगते है,जरा देर के लिए किसी सवारी पर बैठकर जब हम आकाश में उड़ने लगते हैं,तो इतनी बड़ी विभूति पाकर क्यों न उसका दिमाग आसमान कर चढ़े। बोला-भोला ऐसा भलामानस नहीं है महाराज! नगद गिनाये,पूरे चौकस।

अपने महाजन के सामने यह डींग मारकर होरी ने नादानी तो की थी; पर दातादीन के मुख पर असन्तोष का कोई चिह्न न दिखायी दिया। इस कथन में कितना सत्य है यह उनकी उन बूझी आँखों से छिपा न रह सका जिनमें ज्योति की जगह अनुभव छिपा बैठा था।

प्रसन्न होकर बोले--कोई हरज नहीं वेटा, कोई हरज नहीं। भगवान सब कल्यान करेंगे। पाँच सेर दूध है इसमें बच्चे के लिए छोड़कर।

धनिया ने तुरन्त टोका-अरे नहीं महाराज,इतना दूध कहाँ। बुढ़िया तो हो गयी है। फिर यहाँ रातिब कहाँ धरा है।

दातादीन ने मर्म-भरी आँखों से देखकर उसकी सतर्कता को स्वीकार किया,मानो कह रहे हों,'गृहिणी का यही धर्म है, सीटना मरदों का काम है,उन्हें सीटने दो।'फिर रहस्य-भरे स्वर में बोले-बाहर न बाँधना,इतना कहे देते हैं। [ ४३ ]धनिया ने पति की ओर विजयी आँखों से देखा,मानो कह रही हो-लो अब तो मानोगे।

{{Gap}]दातादीन से बोली- नहीं महाराज,बाहर क्या बाँधेगे, भगवान् दें तो इसी आँगन में तीन गायें और बॅध सकती है।

सारा गाँव गाय देखने आया। नहीं आये तो सोभा और हीरा जो अपने सगे भाई थे। होरी के हृदय में भाइयों के लिए अब भी कोमल स्थान था। वह दोनों आकर देख लेते और प्रसन्न हो जाते तो उसकी मनोकामना पूरी हो जाती। साँझ हो गयी। दोनों पुर लेकर लौट आये। इसी द्वार से निकले,पर पूछा कुछ नहीं।

होरी ने डरते-डरते धनिया से कहा--न सोभा आया, न हीरा। सुना न होगा?

धनिया बोली-तो यहाँ कौन उन्हें बुलाने जाता है।

'तू बात तो समझती नहीं। लड़ने को तैयार रहती है। भगवान् ने जब यह दिन दिखाया है,तो हमें सिर झुकाकर चलना चाहिए। आदमी को अपने सगों के मुंह से अपनी भलाई-बुराई सुनने की जितनी लालसा होती है,बाहरवालों के मुंह से नहीं। फिर अपने भाई लाख बुरे हों,हैं तो अपने भाई ही। अपने हिस्से-बखरे के लिए सभी लड़ते हैं,पर इससे खून थोड़े ही बट जाता है। दोनों को बुलाकर दिखा देना चाहिए। नहीं कहेंगे गाय लाये,हमसे कहा तक नहीं।'

धनिया ने नाक सिकोड़कर कहा-मैंने तुमसे सौ बार हजार बार कह दिया मेरे मुंह पर भाइयों का बखान न किया करो,उनका नाम सुनकर मेरी देह में आग लग जाती है। सारे गाँव ने सुना,क्या उन्होंने न सुना होगा? कुछ इतनी दूर भी तो नहीं रहते। सारा गाँव देखने आया,उन्हीं के पावों में मेंहदी लगी हुई थी;मगर आये कैसे? जलन हो रही होगी कि इसके घर गाय आ गयी। छाती फटी जाती होगी।

दिया-बत्ती का समय आ गया था। धनिया ने जाकर देखा,तो बोतल में मिट्टी का तेल न था। बोतल उठा कर तेल लाने चली गयी। पैसे होते,तो रूपा को भेजती,उधार लाना था, कुछ मुंह देखी कहेगी;कुछ लल्लो-चप्पो करेगी,तभी तो तेल उधार मिलेगा।

होरी ने रूपा को बुलाकर प्यार से गोद में बैठाया और कहा-जरा जाकर देख,हीरा काका आ गये हैं कि नहीं। सोभा काका को भी देखती आना। कहना,दादा ने तुम्हें बुलाया है। न आये,हाथ पकड़कर खींच लाना।

रूपा ठुनककर बोली-छोटी काकी मुझे डाँटती है।

'काकी के पास क्या करने जायगी। फिर सोभा-बहू तो तुझे प्यार करती है?'

'सोभा काका मुझे चिढ़ाते हैं,कहते हैं...मैं न कहूँगी।'

'क्या कहते हैं,बता?'

'चिढ़ाते हैं।'

'क्या कहकर चिढ़ाते हैं?'

'कहते हैं,तेरे लिए मूस पकड़ रखा है।ले जा, भूनकर खा ले।' [ ४४ ]होरी के अन्तस्तल में गुदगुदी हुई।

'तू कहती नहीं,पहले तुम खालो,तो मै खाऊँगी।'

'अम्माँ मने करती है। कहती हैं उन लोगों के घर न जाया करो।'

'तू अम्माँ की बेटी है कि दादा की?'

रूपा ने उसके गले में हाथ डालकर कहा-अम्माँ की, और हँसने लगी।

'तो फिर मेरी गोद से उतर जा। आज मै तुझे अपनी थाली में न खिलाऊँगा।'

घर में एक ही फूल की थाली थी,होरी उसी थाली में खाता था। थाली में खाने का गौरव पान के लिए रूपा होरी के साथ खाती थी। इस गौरव का परित्याग कैसे करे? हुमककर बोली--अच्छा,तुम्हारी।

'तो फिर मेरा कहना मानेगी कि अम्माँ का?'

'तुम्हारा।'

'तो जाकर हीरा और सोभा को खींच ला।'

'और जो अम्माँ बिगड़ें।'

{{gap}]'अम्माँ से कहने कौन जायगा।'

रूपा कूदती हुई हीरा के घर चली। द्वेप का मायाजाल बड़ी-बड़ी मछलियों को ही फंसाता है। छोर्टी मछलियाँ या तो उसमें फंसती ही नहीं या तुरन्त निकल जाती हैं। उनके लिए वह घातक जाल क्रीड़ा की वस्तु है,भय की नहीं। भाइयों से होरी की बोलचाल बन्द थी;पर रूपा दोनों घरों में आती-जाती थी। बच्चों से क्या बैर!

लेकिन रूपा घर से निकली ही थी कि धनिया तेल लिए मिल गयी। उसने पूछासाँझ की बेला कहाँ जाती है, चल घर। रूपा माँ को प्रसन्न करने के प्रलोभन को न रोक सकी।

धनिया ने डाँटा-चल घर,किसी को बुलाने नहीं जाना है।

रूपा का हाथ पकड़े हुए वह घर लायी और होरी से बोली--मैने तुमसे हजार बार कह दिया,मेरे लड़कों को किसी के घर न भेजा करो। किसी ने कुछ कर-करा दिया,तो मैं तुम्हें लेकर चाटूंगी? ऐसा ही बड़ा परेम है,तो आप क्यों नहीं जाते? अभी पेट नही भरा जान पड़ता है।

होरी नाँद जमा रहा था। हाँथों में मिट्टी लपेटे हुए अज्ञान का अभिनय करके बोलाकिस बात पर बिगड़ती है भाई? यह तो अच्छा नहीं लगता कि अन्धे कूकर की तरह हवा को भूका करे।

धनिया को कुप्पी में तेल डालना था,इस समय झगड़ा न बढ़ाना चाहती थी। रूपा भी लड़कों में जा मिली।

पहर रात से ज्यादा जा चुकी थी। नाँद गड़ चुकी थी। सानी और खली डाल दी गयी थी। गाय मनमारे उदास बैठी थी, जैसे कोई वधू ससुराल आयी हो। नाँद में मुंह तक न डालती थी। होरी और गोबर खाकर आधी-आधी रोटियाँ उसके लिए लाये, [ ४५ ]
पर उसने संघा तक नहीं। मगर यह कोई नयी बात न थी। जानवरों को भी बहुधा घर छूट जाने का दुःख होता है।

होरी बाहर खाट पर बैठ कर चिलम पीने लाग,तो फिर भाइयों की याद आयी। नहीं,आज इस शुभ अवसर पर वह भाइयों की उपेक्षा नहीं कर सकता। उसका हृदय वह विभूति पाकर विशाल हो गया था। भाइयों से अलग हो गया है,तो क्या हुआ। उनका दुश्मन तो नहीं है। यही गाय तीन साल पहले आयी होती,तो सभी का उस पर बराबर अधिकार होता। और कल को यही गाय दूध देने लगेगी,तो क्या वह भाइयों के घर दूध न भेजेगा या दही न भेजेगा? ऐसा तो उसका धरम नहीं है। भाई उसका बुग चेते,वह क्यों उनका बुरा चेते। अपनी-अपनी करनी तो अपने-अपने साथ ह।

उसने नारियल खाट के पाये से लगाकर रख दिया और हीरा के घर की ओर चला। सोभा का घर भी उधर ही था। दोनों अपने-अपने द्वार पर लेटे हुए थे। काफी अँधेरा था। होरी पर उनमें से किसी की निगाह नहीं पड़ी। दोनों में कुछ बातें हो रही थीं। होरी ठिठक गया और उनकी बातें सुनने लगा। ऐसा आदमी कहाँ है, जो अपनी चर्चा सुनकर टाल जाय।

हीरा ने कहा-जब तक एक में थे एक वकरी भी नहीं ली। अव पछाईं गाय ली जाती है। भाई का हक मारकर किसी को फलते-फूलते नहीं देखा।

सोभा बोला--यह तुम अन्याय कर रहे हो हीरा!भैया ने एक-एक पैसे का हिसाव दे दिया था। यह मैं कभी न मानूंगा कि उन्होंने पहले की कमाई छिपा रखी थी।

'तुम मानो चाहे न मानो,है यह पहले की कमाई।'

'किसी पर झूठा इलजाम न लगाना चाहिए।'

'अच्छा तो यह रुपए कहाँ से आ गये? कहाँ से हुन बरस पड़ा। उतने ही खेत तो हमारे पास भी हैं। उतनी ही उपज हमारी भी है। फिर क्यों हमारे पास कफन को कौड़ी नहीं और उनके घर नयी गाय आती है?'

'उधार लाये होंगे।'

'भोला उधार देनेवाला आदमी नहीं है।'

'कुछ भी हो,गाय है बड़ी सुन्दर,गोवर लिये जाता था, तो मैंने रास्ते में देखा।'

'बेईमानी का धन जैसे आता है,वैसे ही जाता है। भगवान् चाहेंगे,तो बहुत दिन गाय घर में न रहेगी।

होरी से और न सुना गया। वह बीती बातों को बिसारकर अपने हृदय में स्नेह और सौहार्द भरे भाइयों के पास आया था। इस आघात ने जैसे उसके हृदय में छेद कर दिया और वह रस-भाव उसमें किसी तरह नहीं टिक रहा था। लत्ते और चिथड़े ठंसकर अब उस प्रवाह को नहीं रोक सकता। जी में एक उबाल आया कि उसी क्षण इस आक्षेप का जवाब दे;लेकिन बात बढ़ जाने के भय से चुप रह गया। अगर उसकी नीयत साफ है, तो कोई कुछ नहीं कर सकता। भगवान के सामने वह निर्दोष है। दूसरों की उसे परवाह नहीं। उलटे पाँव लौट आया। और वह जला हुआ तम्बाकू पीने लगा। लेकिन जैसे वह विष [ ४६ ]
प्रतिक्षण उसकी धमनियों में फैलता जाता था। उसने सो जाने का प्रयास किया,पर नींद न आयी। बैलों के पास जाकर उन्हें सहलाने लगा,विष शान्त न हुआ। दूसरी चिलम भरी;लेकिन उसमें भी कुछ रस न था। विप ने जैसे चेतना को आक्रान्त कर दिया हो। जैसे नशे में चेतना एकांगी हो जाती है,जैसे फैला हुआ पानी एक दिशा में बहकर वेगवान हो जाता है, वही मनोवृत्ति उसकी हो रही थी। उसी उन्माद की दशा में वह अन्दर गया। अभी द्वार खुला हुआ था। आँगन में एक किनारे चटाई पर लेटी हुई धनिया सोना से देह दबवा रही थी और रूपा जो रोज़ साँझ होते ही सो जाती थी,आज खड़ी गाय का मुंह सहला रही थी। होरी ने जाकर गाय को खूटे से खोल लिया और द्वार की ओर ले चला। वह इसी वक्त गाय को भोला के घर पहुंचाने का दृढ़ निश्चय कर चुका था। इतना बड़ा कलंक सिर पर लेकर वह अब गाय को घर में नहीं रख सकता। किसी तरह नहीं।

धनिया ने पूछा--कहाँ लिये जाते हो रात को? होरी ने एक पग बढ़ाकर कहा-ले जाता हूँ भोला के घर। लौटा दूंगा।

धनिया को विस्मय हुआ,उठकर सामने आ गयी और बोली-लौटा क्यों दोगे? लौटाने के लिए ही लाये थे।

'हाँ इसके लौटा देने में ही कुशल है?'

'क्यों बात क्या है? इतने अरमान से लाये और अब लौटाने जा रहे हो? क्या भोला रुपए माँगते हैं?'

'नहीं, भोला यहाँ कब आया?'

'तो फिर क्या बात हुई?'

'क्या करोगी पूछकर?'

धनिया ने लपककर पगहिया उसके हाथ से छीन ली। उसकी चपल बुद्धि ने जैसे उड़ती हुई चिड़िया पकड़ ली। बोली-तुम्हें भाइयों का डर हो,तो जाकर उनके पैरों पर गिरो। मैं किसी से नहीं डरती। अगर हमारी बढ़ती देखकर किसी की छाती फटती है,तो फट जाय,मुझे परवाह नहीं है।

होरी ने विनीत स्वर में कहा-धीरे-धीरे बोल महरानी! कोई सुने,तो कहे,ये सब इतनी रात गये लड़ रहे हैं! मैं अपने कानों से क्या सुन आया हूँ,तू क्या जाने! यहाँ चरचा हो रही है कि मैंने अलग होते समय रुपए दबा लिये थे और भाइयों को धोखा दिया था,यही रुपए अब निकल रहे हैं।'

'हीरा कहता होगा?'

'साग गाँव कह रहा है! हीरा को क्यों वदनाम करूँ।'

'सारा गाँव नहीं कह रहा है,अकेला हीरा कह रहा है। मैं अभी जाकर पूछती हूँ न कि तुम्हारे वाप कितने रुपए छोड़कर मरे थे। डाढ़ीजारों के पीछे हम बरबाद हो गये,सारी जिन्दगी मिट्टी में मिला दी,पाल-पोसकर संडा किया,और अब हम बेईमान है!मैं कहे देती हैं,अगर गाय घर के बाहर निकली, तो अनर्थ हो जायगा। रख लिये [ ४७ ]
हमने रुपए, दबा लिये, बीच खेत दबा लिये। डंके की चोट कहती हूँ,मैंने हंडेभर असफियाँ छिपा लीं। हीरा और सोभा और संसार को जो करना हो,कर ले। क्यों न रुपए रख लें? दो-दो संडों का ब्याह नहीं किया,गौना नहीं किया?'

होरी सिटपिटा गया। धनिया ने उसके हाथ से पगहिया छीन ली,और गाय को खूटे से बाँधकर द्वार की ओर चली। होरी ने उसे पकड़ना चाहा;पर वह वाहर जा चुकी थी। वहीं सिर थामकर बैठ गया। बाहर उसे पकड़ने की चेप्टा करके वह कोई नाटक नही दिखाना चाहता था। धनिया के क्रोध को खूब जानता था। विगड़ती है,तो चण्डी हो जाती है। मारो,काटो,सुनेगी नहीं;लेकिन हीरा भी तो एक ही गुस्सेवर है। कहीं हाथ चला दे तो परलै ही हो जाय। नहीं,हीरा इतना मूरख नहीं है। मैने कहाँ-से-कहाँ यह आग लगा दी। उसे अपने आप पर क्रोध आने लगा। बात मन में रख लेता,तो क्यों यह टंटा खड़ा होता। सहसा धनिया का कर्कश स्वर कान में आया। हीरा की गरज भी सुन पड़ी। फिर पुन्नी की पैनी पीक भी कानों में चुभी। सहसा उसे गोवर की याद आयी। वाहर लपककर उसकी खाट देखी। गोबर वहाँ न था। गजव हो गया! गोबर भी वहाँ पहुँच गया। अब कुशल नहीं। उसका नया खून है,न जाने क्या कर बैठे;लेकिन होरी वहाँ कैसे जाय? हीरा कहेगा,आप तो बोलते नहीं,जाकर इस डाइन को लड़ने के लिए भेज दिया। कोलाहल प्रतिक्षण प्रचण्ड होता जाता था। सारे गाँव में जाग पड़ गयी। मालूम होता था, कहीं आग लग गयी है,और लोग खाट से उठउठ बुझाने दौड़े जा रहे हैं।

इतनी देर तक तो वह जब्त किये बैठा रहा। फिर न रह गया। धनिया पर क्रोध आया। वह क्यों चढ़कर लड़ने गयी। अपने घर में आदमी न जाने किसको क्या कहता है। जब तक कोई मुंह पर बात न कहे,यही समझना चाहिए कि उसने कुछ नहीं कहा। होरी की कृषक प्रकृति झगड़े से भागती थी। चार बातें सुनकर गम खा जाना इससे कहीं अच्छा है कि आपस में तनाजा हो। कहीं मार-पीट हो जाय तो थाना-पुलिस हो, बॅधे-बँधे फिरो, सब की चिरौरी करो,अदालत की धूल फाँको, खेती-बारी जहन्नुम में मिल जाय। उसका हीरा पर तो कोई बस न था;मगर धनिया को तो वह जबरदस्ती खींच ला सकता है। बहुत होगा, गालियाँ दे लेगी,एक-दो दिन रूठी रहेगी,थाना-पुलिस की नौबत तो न आयेगी। जाकर हीरा के द्वार पर सबसे दूर दीवार की आड़ में खड़ा हो गया। एक सेनापति की भाँति मैदान में आने के पहले परिस्थिति को अच्छी तरह समझ लेना चाहता था। अगर अपनी जीत हो रही है,तो बोलने की कोई जरूरत नहीं;हार हो रही है,तो तुरन्त कूद पड़ेगा। देखा तो वहाँ पचासों आदमी जमा हो गये हैं। पण्डित दातादीन,लाला पटेश्वरी,दोनों ठाकुर, जो गाँव के करता-धरता थे,सभी पहुँचे हुए हैं। धनिया का पल्ला हलका हो रहा था। उसकी उग्रता जनमत को उसके विरुद्ध किये देती थी। वह रणनीति में कुशल न थी। क्रोध में ऐसी जली-कटी सुना रही थी कि लोगों की सहानुभूति उससे दूर होती जाती है।

वह गरज रही थी--तू हमें देखकर क्यों जलता है? हमें देखकर क्यों तेरी छाती [ ४८ ]
फटती है?पाल-पोसकर जवान कर दिया,यह उसका इनाम है?हमने न पाला होता तो आज कहीं भीख माँगते होते। रूख की छाँह भी न मिलती।

होरी को ये शब्द ज़रूरत से ज्यादा कठोर जान पड़े। भाइयों का पालना-पोसना तो उसका धर्म था। उनके हिस्से की जायदाद तो उसके हाथ में थी। कैसे न पालतापोसता? दुनिया में कहीं मुंह दिखाने लायक रहता?

हीरा ने जवाब दिया-हम किसी का कुछ नहीं जानते। तेरे घर में कुत्तों की तरह एक टुकड़ा खाते थे और दिन-भर काम करते थे। जाना ही नहीं कि लड़कपन और जवानी कैसी होती है। दिन-दिन भर सूखा गोवर बीना करते थे। उस पर भी तू बिना दस गाली दिये रोटी न देती थी। तेरी-जैसी राच्छसिन के हाथ में पड़कर जिन्दगी तलख हो गयी।

धनिया और भी तेज हुई-जबान सँभाल,नहीं जीभ खींच लूंगी। राच्छसिन तेरी औरत होगी। तू है किस फेर में मूंडी-काटे,टुकड़े-खोर,नमक-हराम।

दातादीन ने टोका--इतना कटु-वचन क्यों कहती है धनिया?नारी का धरम है कि गम खाय। वह तो उजड्ड है,क्यों उसके मुंह लगती है?


लाला पटेश्वरी पटवारी ने उसका समर्थन किया--बात का जवाब बात है,गाली नहीं। तूने लड़कपन में उसे पाला-पोसा;यह क्यों भूल जाती है कि उसकी जायदाद तेरे हाथ में थी?

धनिया ने समझा,सब-के-सब मिलकर मुझे नीचा दिखाना चाहते हैं। चौमुख लड़ाई लड़ने के लिए तैयार हो गयी--अच्छा,रहने दो लाला!मैं सबको पहचानती हूँ। इस गाँव में रहते बीस साल हो गये। एक-एक की नस-नस पहचानती हूँ। मैं गाली दे रही हूँ,वह फूल बरसा रहा है,क्यों?

दुलारी सहुआइन ने आग पर घी डाला--बाकी बड़ी गाल-दराज औरत है भाई!मरद के मुंह लगती है। होरी ही जैसा मरद है कि इसका निबाह होता है। दूसरा मरद होता तो एक दिन न पटती।।

अगर हीरा इस समय ज़रा नर्म हो जाता,तो उसकी जीत हो जाती;लेकिन ये गालियाँ सुनकर आपे से बाहर हो गया। औरों को अपने पक्ष में देखकर वह कुछ शेर हो रहा था। गला फाड़कर बोला--चली जा मेरे द्वार से,नहीं जूतों से बात करूँगा। झोंटा पकड़कर उखाड़ लूंगा। गाली देती है डाइन!बेटे का घमण्ड हो गया है। खून....

पासा पलट गया। होरी का खून खौल उठा। बारूद में जैसे चिनगारी पड़ गयी हो।आगे आकर बोला-अच्छा बस,अब चुप हो जाओ हीरा,अब नहीं सुना जाता। मैं इस औरत को क्या कहूँ।जब मेरी पीठ में धूल लगती है,तो इसी के कारन। न जाने क्यों इससे चुप नहीं रहा जाता।

चारों ओर से हीरा पर बौछार पड़ने लगी। दातादीन ने निर्लज्ज कहा,पटेश्वरी ने गुण्डा बनाया,झिगुरीसिंह ने शैतान की उपाधि दी।दुलारी सहुआइन ने कपूत कहा। [ ४९ ]
एक उदंड शब्द ने धनिया का पल्ला हल्का कर दिया था। दूसरे उग्र शब्द ने हीरा को गच्चे में डाल दिया। उस पर होरी के संयत वाक्य ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी।

हीरा सँभल गया। सारा गाँव उसके विरुद्ध हो गया। अब चुप रहने में ही उसकी कुशल है। क्रोध के नशे में भी इतना होश उसे बाकी था।

धनिया का कलेजा दूना हो गया। होरी से बोली-सुन लो कान खोल के। भाइयों के लिए मरते रहते हो। ये भाई हैं, ऐसे भाई का मुंह न देखे। यह मुझे जूतों से मारेगा। खिला-पिला....

होरी ने डाँटा-फिर क्यों बक-बक करने लगी तू! घर क्यों नहीं जाती?

धनिया ज़मीन पर बैठ गयी और आर्त स्वर में बोली-अब तो इसके जूते खा के जाऊँगी। जरा इसकी मरदूमी देख लूं, कहाँ है गोबर? अब किस दिन काम आयेगा? तू देख रहा है बेटा,तेरी मा को जूते मारे जा रहे हैं!

यों विलाप करके उसने अपने क्रोध के साथ होरी के क्रोध को भी क्रियाशील बना डाला। आग को फूंक-फूंककर उसमें ज्वाला पैदा कर दी। हीरा पराजित-सा पीछे हट गया। पुनी उसका हाथ पकड़कर घर की ओर खींच रही थी। सहसा धनिया ने सिंहनी की भाँति झपटकर हीरा को इतने ज़ोर से धक्का दिया कि वह धम से गिर पड़ा और बोली--कहाँ जाता है,जूते मार,मार जूते,देखू तेरी मरदूमी!

होरी ने दौड़कर उसका हाथ पकड़ लिया और घसीटता हुआ घर ले चला।