गो-दान/७

विकिस्रोत से
(गोदान/भाग 7 से अनुप्रेषित)
गो-दान  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

[ ७८ ]

यह अभिनय जब समाप्त हुआ, तो उधर रंगशाला में धनुष-यज्ञ समाप्त हो चुका था और सामाजिक प्रहसन की तैयारी हो रही थी; मगर इन सज्जनों को उससे विशेष दिलचस्पी न थी। केवल मिस्टर मेहता देखने गये और आदि से अन्त तक जमे रहे। उन्हें बड़ा मज़ा आ रहा था। बीच-बीच में तालियाँ बजाते थे और 'फिर कहो, फिर कहो' का आग्रह करके अभिनेताओं को प्रोत्साहन भी देते जाते थे। राय साहब ने इस प्रहसन में एक मुक़दमेबाज़ देहाती ज़मींदार का खाका उड़ाया था। कहने को तो प्रहसन था; मगर [ ७९ ]करुणा से भरा हुआ। नायक का बात-बात में कानून की धाराओं का उल्लेख करना, पत्नी पर केवल इसलिए मुकदमा दायर कर देना कि उसने भोजन तैयार करने में ज़रा-सी देर कर दी, फिर वकीलों के नखरे और देहाती गवाहों की चालाकियाँ और झाँसे, पहले गवाही के लिए चट-पट तैयार हो जाना; मगर इजलास पर तलबी के समय खूब मनावन करना और नाना प्रकार की फरमाइशें करके उल्लू बनाना, ये सभी दृश्य देखकर लोग हँसी के मारे लोटे जाते थे। सबसे सुन्दर वह दृश्य था, जिसमें वकील गवाहों को उनके बयान रटा रहा था। गवाहों का बार-बार भूलें करना, वकील का बिगड़ना, फिर नायक का देहाती बोली में गवाहों को समझाना और अन्त में इजलास पर गवाहों का बदल जाना, ऐसा सजीव और सत्य था कि मिस्टर मेहता उछल पड़े और तमाशा समाप्त होने पर नायक को गले लगा लिया और सभी नटों को एक-एक मेडल देने की घोषणा की। राय साहब के प्रति उनके मन में श्रद्धा के भाव जाग उठे। राय साहब स्टेज के पीछे ड्रामे का संचालन कर रहे थे। मेहता दौड़कर उनके गले लिपट गये और मुग्ध होकर बोले––आपकी दृष्टि इतनी पैनी है, इसका मुझे अनुमान न था।

दूसरे दिन जलपान के वाद शिकार का प्रोग्राम था। वहीं किसी नदी के तट पर बाग में भोजन बने, खूब जल-कीड़ा की जाय और शाम को लोग घर आयें। देहाती जीवन का आनन्द उठाया जाय। जिन मेहमानों को विशेष काम था, वह तो विदा हो गये, केवल वे ही लोग बच रहे जिनकी राय साहब से घनिष्ठता थी। मिसेज़ खन्ना के सिर में दर्द था, न जा सकीं, और सम्पादकजी इस मण्डली से जले हुए थे और इनके विरुद्ध एक लेख-माला निकालकर इनकी खबर लेने के विचार में मग्न थे। सब-के-सब छटे हुए गुण्डे हैं। हराम के पैसे उड़ाते हैं और मूछों पर ताव देते हैं। दुनिया में क्या हो रहा है, इन्हें क्या खबर। इनके पड़ोस में कौन मर रहा है, इन्हें क्या परवा। इन्हें तो अपने भोग-विलास से काम है। यह मेहता, जो फ़िलासफ़र बना फिरता है, उसे यही धुन है कि जीवन को सम्पूर्ण बनाओ। महीने में एक हज़ार मार लेते हो, तुम्हें अख्तियार है, जीवन को सम्पूर्ण बनाओ या परिपूर्ण बनाओ। जिसको यह फ़िक दबाये डालती है कि लड़कों का ब्याह कैसे हो, या बीमार स्त्री के लिए वैद्य कैसे आयें या अब की घर का किराया किसके घर से आएगा, वह अपना जीवन कैसे सम्पूर्ण बनाये! छूटे साँड़ बने दूसरों के खेत में मुँह मारते फिरते हो और समझते हो संसार में सब सुखी हैं। तुम्हारी आँखें तब खुलेंगी, जब क्रान्ति होगी और तुमसे कहा जायगा––बचा,खेत में चलकर हल जोतो। तब देखें, तुम्हारा जीवन कैसे सम्पूर्ण होता है। और वह जो है मालती, जो बहत्तर घाटों का पानी पीकर भी मिस बनी फिरती है!'शादी नहीं करेगी, इससे जीवन बन्धन में पड़ जाता है, और बन्धन में जीवन का पूरा विकास नहीं होता। बस जीवन का पूरा विकास इसी में है कि दुनिया को लूटे जाओ और निर्द्वन्द्व विलास किये जाओ! सारे बन्धन तोड़ दो, धर्म और समाज को गोली मारो, जीवन के कर्तव्यों को पास न फटकने दो, बस तुम्हारा जीवन सम्पूर्ण हो गया। इससे ज्यादा आसान [ ८० ]और क्या होगा। माँ-बाप से नहीं पटती, उन्हें धता बताओ; शादी मत करो, यह बन्धन है; बच्चे होंगे, यह मोहपाश है; मगर टैक्स क्यों देते हो? क़ानून भी तो बन्धन है, उसे क्यों नहीं तोड़ते? उससे क्यों कन्नी काटते हो। जानते हो न कि का़नून की ज़रा भी अवज्ञा की और बेड़ियाँ पड़ जायँगी। बस वही बन्धन तोड़ो, जिसमें अपनी भोग-लिप्सा में बाधा नहीं पड़ती। रस्सी को साँप बनाकर पीटो और तीसमारखाँ बनो। जीते साँप के पास जाओ ही क्यों! वह फुंकार भी मारेगा, तो लहरें आने लगेंगी। उसे आते देखो, तो दुम दबाकर भागो। यह तुम्हारा सम्पूर्ण जीवन है!

आठ बजे शिकार-पार्टी चली। खन्ना ने कभी शिकार न खेला था, बन्दूक की आवाज़ से काँपते थे; लेकिन मिस मालती जा रही थीं, वह कैसे रूक सकते थे। मिस्टर तंखा को अभी तक एलेक्शन के विपय में बातचीत करने का अवसर न मिला था। शायद वहाँ वह अवसर मिल जाय। राय साहब अपने इस इलाके में बहुत दिनों से नहीं गये थे। वहाँ का रंग-ढंग देखना चाहते थे। कभी-कभी इलाके में आने-जाने से आदमियों से एक सम्बन्ध भी हो जाता है और रोब भी रहता है। कारकुन और प्यादे भी सचेत रहते हैं। मिर्ज़ा खुर्शेद को जीवन के नये अनुभव प्राप्त करने का शौक़ था, विशेषकर ऐसे, जिनमें कुछ साहस दिखाना पड़े। मिस मालती अकेले कैमे रहतीं। उन्हें तो रसिकों का जमघट चाहिए। केवल मिस्टर मेहता शिकार खेलने के सच्चे उत्साह से जा रहे थे। राय साहब की इच्छा तो थी कि भोजन की सामग्री, रसोइया, कहार, खिदमतगार, सब साथ चलें, लेकिन मिस्टर मेहता ने इसका विरोध किया।

खन्ना ने कहा––आखिर वहाँ भोजन करेंगे या भूखों मरेंगे?

मेहता ने जवाब दिया––भोजन क्यों न करेंगे, लेकिन आज हम लोग खुद अपना सारा काम करेंगे। देखना तो चाहिए कि नौकरों के बगैर भी हम जिन्दा रह सकते हैं या नहीं। मिस मालती पकायेंगी और हम लोग खायेंगे। देहातों में हाँडियाँ और पत्तल मिल ही जाते हैं, और ईंधन की कोई कमी नहीं। शिकार हम करेंगे ही।

मालती ने गिला किया––क्षमा कीजिए। आपने रात मेरी क़लाई इतने ज़ोर मे पकड़ी कि अभी तक दर्द हो रहा है।

'काम तो हम लोग करेंगे, आप केवल बताती जाइएगा।'

मिर्ज़ा खुर्शेद बोले––अजी आप लोग तमाशा देखते रहिएगा, मैं सारा इन्तज़ाम कर दूंगा। बात ही कौन-सी है। जंगल में हाँडी और बर्तन ढूंढना हिमाक़त है। हिरन का शिकार कीजिए, भूनिए, खाइए, और वहीं दरख्त के साये में खर्राटे लीजिए।

यही प्रस्ताव स्वीकृत हुआ। दो मोटरें चलीं। एक मिस मालती ड्राइव कर रही थीं, दूसरी खुद राय साहब। कोई बीस-पचीस मील पर पहाड़ी प्रान्त शुरू हो गया। दोनों तरफ़ ऊँची पर्वतमाला दौड़ी चली आ रही थी। सड़क भी पेंचदार होती जाती थी। कुछ दूर की चढ़ाई के बाद एकाएक ढाल आ गया और मोटर नीचे की ओर चली। दूर से नदी का पाट नज़र आया, किसी रोगी की भाँति दुर्बल, निस्पन्द कगार पर एक घने वटवृक्ष की छाँह में कारें रोक दी गयीं और लोग उतरे। यह सलाह हुई कि दो-दो की टोली [ ८१ ]
बने और शिकार खेलकर बारह बजे तक यहाँ आ जाय। मिस मालती मेहता के साथ चलने को तैयार हो गयीं। खन्ना मन में ऐंठकर रह गये। जिस विचार से आये थे,उसमें जैसे पंचर हो गया;अगर जानते,मालती दग़ा देगी,तो घर लौट जाते;लेकिन राय साहब का साथ उतना रोचक न होते हुए भी बुरा न था। उनसे बहुत-सी मुआमले की बात करनी थीं। खुर्शद और तंखा वच रहे। उनकी टोली वनी-बनायी थी। तीनों टोलियाँ एक-एक तरफ़ चल दीं।

कुछ दूर तक पथरीली पगडण्डी पर मेहता के साथ चलने के बाद मालती ने कहा--तुम तो चले ही जाते हो। ज़रा दम ले लेने दो।

मेहता मुस्कराये--अभी तो हम एक मील भी नहीं आये। अभी से थक गयीं?

'थकीं नहीं;लेकिन क्यों न ज़रा दम ले लो।'

'जब तक कोई शिकार हाथ न आ जाय,हमें आराम करने का अधिकार नहीं।मैं शिकार खेलने न आयी थी।'

मेहता ने अनजान बनकर कहा--अच्छा यह मैं न जानता था। फिर क्या करने आयी थीं?

'अब तुमसे क्या बताऊँ।'

हिरनों का एक झुण्ड चरता हुआ नजर आया। दोनों एक चट्टान की आड़ में छिप गये और निशाना बाँधकर गोली चलायी। निशाना खाली गया। झुण्ड भाग निकला।

{{Gap{}मालती ने पूछा--अब?

'कुछ नहीं,चलो,फिर कोई शिकार मिलेगा।'

दोनों कुछ देर तक चुपचाप चलते रहे। फिर मालती ने ज़रा रुककर कहा--गर्मी के मारे बुरा हाल हो रहा है। आओ, इस वृक्ष के नीचे बैठ जायें।

'अभी नहीं। तुम बैठना चाहती हो,तो बैठो। मैं तो नहीं बैठता।'

'बड़े निर्दयी हो तुम,सच कहती हूँ।'

'जब तक कोई शिकार न मिल जाय,मैं बैठ नहीं सकता।'

'तब तो तुम मुझे मार ही डालोगे। अच्छा बताओ; रात तुमने मुझे इतना क्यों सताया? मुझे तुम्हारे ऊपर बड़ा क्रोध आ रहा था। याद है,तुमने मुझे क्या कहा था? तुम हमारे साथ चलेगा दिलदार? मैं न जानती थी,तुम इतने शरीर हो। अच्छा, सच कहना,तुम उस वक्त मझे अपने साथ ले जाते?'

मेहता ने कोई जवाब न दिया,मानो सुना ही नहीं।

दोनों कुछ दूर चलते रहे। एक तो जेठ की धूप,दूसरे पथरीला रास्ता। मालती थककर बैठ गयी।

मेहता खड़े-खड़े बोले--अच्छी बात है,तुम आराम कर लो। मैं यहीं आ जाऊँगा।

'मुझे अकेले छोड़कर चले जाओगे?'

'मैं जानता हूँ, तुम अपनी रक्षा कर सकती हो।'

'कैसे जानते हो?' [ ८२ ]'नये युग की देवियों की यही सिफ़त है। वह मर्द का आश्रय नहीं चाहतीं,उससे कधा मिलाकर चलना चाहती हैं।'

मालती ने झेंपते हुए कहा--तुम कोरे फ़िलसाफ़र हो मेहता,सच।

सामने वृक्ष पर एक मोर बैठा हुआ था। मेहता ने निशाना साधा और बन्दूक चलायी। मोर उड़ गया।

मालती प्रसन्न होकर बोली--बहुत अच्छा हुआ। मेरा शाप पड़ा।

मेहता ने बन्दूक कन्धे पर रखकर कहा--तुमने मुझे नहीं, अपने आपको शाप दिया। शिकार मिल जाता,तो मैं तुम्हें दस मिनट की मुहलत देता। अब तो तुमको फ़ौरन चलना पड़ेगा।

मालती उठकर मेहता का हाथ पकड़ती हुई बोली--फ़िलासफ़रों के शायद हृदय नहीं होता। तुमने अच्छा किया, विवाह नहीं किया। उस गरीब को मार ही डालते;मगर मैं यों न छोडू़ँगी। तुम मुझे छोड़कर नहीं जा सकते।

मेहता ने एक झटके से हाथ छुड़ा लिया और आगे बढ़े।

मालती सजलनेत्र होकर बोली--मैं कहती हूँ,मत जाओ। नहीं मै इसी चट्टान पर सिर पटक दूंँगी।

मेहता ने तेजी से क़दम बढ़ाये। मालती उन्हें देखती रही। जब वह बीस क़दम निकल गये,तो झुंँझलाकर उठी और उनके पीछे दौड़ी। अकेले विश्राम करने में कोई आनन्द न था।

समीप आकर बोली--मैं तुम्हें इतना पशु न समझती थी।

'मैं जो हिरन मारूँगा,उसकी खा़ल तुम्हें भेंट करूंँगा।'

'खाल जाय भाड़ में। मै अब तुमसे बात न करूंँगी।'

'कहीं हम लोगों के हाथ कुछ न लगा और दूसरों ने अच्छे शिकार मारे तो मुझे बड़ी झेंप होगी।'

एक चौड़ा नाला मुंँह फैलाये बीच में खड़ा था। बीच की चट्टानें उसके दाँतों से लगती थीं। धार में इतना वेग था कि लहरें उछली पड़ती थीं। सूर्य मध्याह्न पर आ पहुंँचा था और उसकी प्यासी किरणें जल में क्रीड़ा कर रही थीं।

मालती ने प्रसन्न होकर कहा--अब तो लौटना पड़ा।

'क्यों?उस पार चलेंगे। यहीं तो शिकार मिलेंगे।'

'धारा में कितना वेग है। मैं तो बह जाऊँगी।'

'अच्छी बात है। तुम यहीं बैठो, मैं जाता हूँ।'

'हाँ आप जाइए। मुझे अपनी जान से बैर नहीं है।'

मेहता ने पानी में क़दम रखा और पाँव साधते हुए चले। ज्यों-ज्यों आगे जाते थे,पानी गहरा होता जाता था। यहाँ तक कि छाती तक आ गया।

मालती अधीर हो उठी। शंका से मन चंचल हो उठा। ऐसी विकलता तो उसे कभी न होती थी। ऊँचे स्वर में बोली--पानी गहरा है। ठहर जाओ,मैं भी आती हूँ। [ ८३ ]'नहीं-नहीं, तुम फिसल जाओगी। धार तेज़ है।'

'कोई हरज़ नहीं,मैं आ रही हूँ। आगे न बढ़ना, खबरदार।'

मालती साड़ी ऊपर चढ़ाकर नाले में पैठी। मगर दस हाथ आते-आते पानी उसकी कमर तक आ गया।

मेहता घबड़ाये। दोनों हाथ से उसे लौट जाने को कहते हुए बोले--तुम यहाँ मत आओ मालती! यहाँ तुम्हारी गर्दन तक पानी है।

मालती ने एक क़दम और आगे बढ़कर कहा--होने दो। तुम्हारी यही इच्छा है कि मैं मर जाऊँ तो तुम्हारे पास ही मरूँगी।

मालती पेट तक पानी में थी। धार इतनी तेज़ थी कि मालूम होता था,क़दम उखड़ा। मेहता लौट पड़े और मालती को एक हाथ से पकड़ लिया।

मालती ने नशीली आँखों में रोष भरकर कहा--मैंने तुम्हारे-जैसा बेदर्द आदमी कभी न देखा था। बिल्कुल पत्थर हो। खैर,आज सता लो,जितना सताते बने;मै भी कभी समझूँगी।

मालती के पाँव उखड़ते हुए मालूम हुए। वह बन्दूक सँभालती हुई उनसे चिमट गयी।

मेहता ने आश्वासन देते हुए कहा--तुम यहाँ खड़ी नहीं रह सकती। मैं तुम्हें अपने कन्धे पर बिठाये लेता हूँ।

मालती ने भृकुटी टेढ़ी करके कहा--तो उस पार जाना क्या इतना ज़रूरी है?

मेहता ने कुछ उत्तर न दिया।बन्दूक़ कनपटी से कन्धे पर दबा ली और मालती को दोनों हाथों से उठाकर कन्धे पर बैठा लिया।

मालती अपनी पुलक को छिपाती हुई बोली--अगर कोई देख ले?

'भद्दा तो लगता है।'

दो पग के बाद उसने करुण स्वर में कहा--अच्छा बताओ,मैं यहीं पानी में डूब जाऊँ,तो तुम्हें रंज हो या न हो? मैं तो समझती हूँ,तुम्हें बिलकुल रंज न होगा।

मेहता ने आहत स्वर से कहा--तुम समझती हो,मैं आदमी नहीं हूँ?

'मैं तो यही समझती हूँ,क्यों छिपाऊँ।'

'सच कहती हो मालती?'

'तुम क्या समझते हो?'

'मैं!कभी बतलाऊँगा।'

पानी मेहता के गर्दन तक आ गया।कहीं अगला क़दम उठाते ही सिर तक न आ जाय।मालती का हृदय धक्-धक् करने लगा।बोली,मेहता,ईश्वर के लिए अब आगे मत जाओ,नहीं,मैं पानी में कूद पडू़ँगी।

उस संकट में मालती को ईश्वर याद आया, जिसका वह मज़ाक उड़ाया करती थी। जानती थी,ईश्वर कहीं बैठा नहीं है जो आकर उन्हें उबार लेगा;लेकिन मन को जिस अवलम्बन और शक्ति की ज़रूरत थी,वह और कहाँ मिल सकती थी। [ ८४ ]पानी कम होने लगा था। मालती ने प्रसन्न होकर कहा--अब तुम मुझे उतार दो।

'नहीं-नहीं, चुपचाप बैठी रहो। कहीं आगे कोई गढ़ा मिल जाय।'

'तुम समझते होगे,यह कितनी स्वार्थिनी है।'

'मुझे इसकी मजदूरी दे देना।'

मालती के मन में गुदगुदी हुई।

'क्या मज़दूरी लोगे?'

'यही कि जब तुम्हें जीवन में ऐसा ही कोई अवसर आये तो मुझे बुला लेना।'

किनारे आ गये। मालती ने रेत पर अपनी साड़ी का पानी निचोड़ा,जूते का पानी निकाला,मुंँह-हाथ धोया; पर ये शब्द अपने रहस्यमय आशय के साथ उसके सामने नाचते रहे।

उसने इस अनुभव का आनन्द उठाते हुए कहा--यह दिन याद रहेगा।

मेहता ने पूछा--तुम बहुत डर रही थीं?

'पहले तो डरी;लेकिन फिर मुझे विश्वास हो गया कि तुम हम दोनों की रक्षा कर सकते हो।'

मेहता ने गर्व से मालती को देखा--उनके मुख पर परिश्रम की लाली के माथ तेज था।

'मुझे यह सुनकर कितना आनन्द आ रहा है,तुम यह समझ सकोगी मालती?'

'तुमने समझाया कब। उलटे और जंगलों में घसीटते फिरते हो;और अभी फिर लौटती बार यही नाला पार करना पड़ेगा। तुमने कैसी आफ़न में जान डाल दी। मुझे तुम्हारे साथ रहना पड़े,तो एक दिन न पटे।'

मेहता मुस्कराये। इन शब्दों का संकेत खूब समझ रहे थे।

'तुम मुझे इतना दुष्ट समझती हो! और जो मै कहूँ कि तुमसे प्रेम करता हूँ। मुझसे विवाह करोगी?'

‘ऐसे काठ-कठोर से कौन विवाह करेगा! रात-दिन जलाकर मार डालोगे।'

और मधुर नेत्रों से देखा, मानो कह रही हो--इसका आशय तुम खूब समझते हो। इतने बुदू नहीं हो।

मेहता ने जैसे सचेत होकर कहा--तुम सच कहती हो मालती। मैं किसी रमणी को प्रसन्न नहीं रख सकता। मुझसे कोई स्त्री प्रेम का स्वाँग नहीं कर सकती। मैं उसके अन्तस्तल तक पहुँच जाऊँगा। फिर मुझे उससे अरुचि हो जायगी।

मालती काँप उठी। इन शब्दों में कितना सत्य था।

उसने पूछा--बताओ,तुम कैसे प्रेम से सन्तुष्ट होगे?

'बस यही कि जो मन में हो,वही मुख पर हो! मेरे लिए रंग-रूप और हाव-भाव और नाज़ो-अन्दाज़ का मूल्य इतना ही है,जितना होना चाहिए। मैं वह भोजन चाहता हूँ, जिससे आत्मा की तृप्ति हो। उत्तेजक और शोषक पदार्थों की मुझे जरूरत नहीं।'

मालती ने ओठ सिकोड़कर ऊपर को साँस खींचते हुए कहा-तुमसे कोई पेश न [ ८५ ]
पायेगा।एक ही घाघ हो।अच्छा बताओ,मेरे विषय में तुम्हारा क्या खयाल है?

मेहता ने नटखटपन से मुस्कराकर कहा--तुम सब कुछ कर सकती हो,बुद्धिमती हो,चतुर हो,प्रतिभावान् हो,दयालु हो,चंचल हो,स्वाभिमानिनी हो,त्याग कर सकती हो;लेकिन प्रेम नहीं कर सकती।

मालती ने पैनी दृष्टि से ताककर कहा--झूठे हो तुम, बिलकुल झूठे। मुझे तुम्हारा यह दावा निस्सार मालूम होता है कि तुम नारी-हृदय तक पहुंँच जाते हो।

दोनों नाले के किनारे-किनारे चले जा रहे थे। बारह बज चुके थे;पर अब मालती को न विश्राम की इच्छा थी,न लौटने की। आज के सम्भाषण में उसे एक ऐसा आनन्द आ रहा था,जो उसके लिए विलकुल नया था। उसने कितने ही विद्वानों और नेताओं को एक मुस्कान में,एक चितवन में,एक रसीले वाक्य में उल्लू बनाकर छोड़ दिया था। ऐसी बालू की दीवार पर वह जीवन का आधार नहीं रख सकती थी। आज उसे वह कठोर,ठोस,पत्थर-सी भूमि मिल गयी थी,जो फावड़ों से चिनगारियाँ निकाल रही थी और उसकी कठोरता उसे उत्तरोत्तर मोह लेती थी।

धायँ की आवाज़ हुई। एक लालसर नाले पर उड़ा जा रहा था। मेहता ने निशाना मारा। चिड़िया चोट खाकर भी कुछ दूर उड़ी,फिर बीच धार में गिर पड़ी और लहरों के साथ बहने लगी।

'अब?'

'अभी जाकर लाता हूँ। जाती कहाँ है।'

यह कहने के साथ वह रेत में दौड़े और बन्दूक किनारे पर रख गड़ाप से पानी में कूद पड़े और बहाव की ओर तैरने लगे;मगर आध मील तक पूरा जोर लगाने पर भी चिड़िया न पा सके। चिड़िया मर कर भी जैसे उड़ी जा रही थी।

सहसा उन्होंने देखा,एक युवती किनारे की एक झोपड़ी में निकली,चिड़िया को बहते देखकर साड़ी को जाँघों तक चढ़ाया और पानी में घुस पड़ी। एक क्षण में उसने चिड़िया पकड़ ली और मेहता को दिखाती हुई बोली--पानी से निकल जाओ बाबूजी,तुम्हारी चिड़िया यह है। मेहता युवती की चपलता और साहस देखकर मुग्ध हो गये। तुरन्त किनारे की ओर हाथ चलाये और दो मिनट में युवती के पास जा खड़े हुए।

युवती का रंग था तो काला और वह भी गहरा,कपड़े बहुत ही मैले और फूहड़,आभूपण के नाम पर केवल हाथों में दो-दो मोटी चूड़ियाँ,सिर के बाल उलझे,अलग-अलग। मुख-मंडल का कोई भाग ऐसा नहीं,जिसे सुन्दर या सुघड़ कहा जा सके;लेकिन उस स्वच्छ,निर्मल जलवायु ने उसके कालेपन में ऐसा लावण्य भर दिया था और प्रकृति की गोद में पलकर उसके अंग इतने सुडौल,सुगठित और स्वच्छन्द हो गये थे कि यौवन का दिन खींचने के लिए उससे सुन्दर कोई रूप न मिलता। उसका सबल स्वास्थ्य जैसे मेहता के मन में बल और तेज भर रहा था।

मेहता ने उसे धन्यवाद देते हुए कहा--तुम बड़े मौके से पहुंच गयीं,नहीं मुझे न जाने कितनी दूर तैरना पड़ता। [ ८६ ]युवती ने प्रसन्न मुख से कहा--मैने तुम्हें तैरते आते देखा, तो दौड़ी। शिकार खेलने आये होंगे?

'हाँ,आये तो थे शिकार ही खेलने;मगर दोपहर हो गया और यही चिड़िया मिली है।'

'तेंदुआ मारना चाहो,तो मैं उसका ठौर दिखा दूंँ। रात को यहाँ रोज पानी पीने आता है। कभी-कभी दोपहर में भी आ जाता है।'

फिर ज़रा सकुचाकर सिर झुकाये हुए बोली--उसकी खाल हमें देनी पड़ेगी। चलो मेरे द्वार पर। वहाँ पीपल की छाया है। यहाँ धूप में कब तक खड़े रहोगे। कपड़े भी तो गीले हो गये हैं।

मेहता ने उसकी देह में चिपकी हुई गीली साड़ी की ओर देखकर कहा--तुम्हारे कपड़े भी तो गीले हैं।

उसने लापरवाही से कहा--ऊँह हमारा क्या, हम तो जंगल के हैं। दिन-दिन भर धूप और पानी में खड़े रहते हैं। तुम थोड़े ही रह सकते हो।

लड़की कितनी समझदार है और बिलकुल गॅवार।

'तुम खाल लेकर क्या करोगी?'

'हमारे दादा बाजार में बेचते हैं। यही तो हमारा काम है।'

'लेकिन दोपहरी यहाँ काटें,तो तुम खिलाओगी क्या?'

युवती ने लजाते हुए कहा--तुम्हारे खाने लायक हमारे घर में क्या है। मके की रोटियाँ खाओ जो धरी है। चिड़िये का सालन पका दूंँगी। तुम बताते जाना जैसे बनाना हो। थोड़ा-सा दूध भी है। हमारी गैया को एक बार तेंदुए ने घेरा था। उसे सींगों से भगाकर भाग आयी,तब से तेंदुआ उससे डरता है।

'लेकिन मैं अकेला नहीं हूँ। मेरे साथ एक औरत भी है।'

'तुम्हारी घरवाली होगी?'

'नहीं,घरवाली तो अभी नहीं है,जान-पहचान की है।'

'तो मैं दौड़कर उनको बुला लाती हूँ। तुम चलकर छाँह में बैठो।'

'नही-नहीं,मैं बुला लाता हूँ।'

'तुम थक गये होगे। शहर का रहैया जंगल में काहे आते होंगे। हम तो जंगली आदमी हैं। किनारे ही तो खड़ी होंगी।'

जब तक मेहता कुछ बोलें,वह हवा हो गयी। मेहता ऊपर चढ़कर पीपल की छाँह में बैठे। इग स्वच्छन्द जीवन से उनके मन में अनुराग उत्पन्न हुआ। सामने की पर्वतमाला दर्शन-तत्त्व की भाँति अगम्य और अत्यन्त फैली हुई,मानो ज्ञान का विस्तार कर रही हो,मानो आत्मा उस ज्ञान को,उस प्रकाश को,उस अगम्यता को,उसके प्रत्यक्ष विराट् रूप मे देख रही हो। दूर के एक बहुत ऊँचे शिखर पर एक छोटा-सा मन्दिर था,जो उम अगम्यता में बुद्धि की भाँति ऊँचा,पर खोया हुआ-सा खड़ा था,मानो वहाँ तक पर मारकर पक्षी विश्राम लेना चाहता है और कहीं स्थान नहीं पाता।

मेहता इन्हीं विचारों में डूबे हुए थे कि युवती मिस मालती को साथ लिये आ [ ८७ ]
पहुँची, lएक वन-पुष्प की भाँति धूप में खिली हुई,दूसरी गमले के फूल की भाँति धूप में मुरझायी और निर्जीव।

मालती ने बेदिली के साथ कहा-—पीपल की छाँह बहुत अच्छी लग रही है क्या? और यहाँ भूख के मारे प्राण निकले जा रहे हैं।

युवती दो बड़े-बड़े मटके उठा लायी और बोली--तुम जब तक यहीं बैठो,मैं अभी दौड़कर पानी लाती हूँ,फिर चूल्हा जला दूंगी;और मेरे हाथ का खाओ,तो मै एक छन में बाटियाँ सेंक दूंगी,नहीं,अपने आप सेंक लेना। हाँ,गेहूँ का आटा मेरे घर में नहीं है और यहाँ कहीं कोई दूकान भी नहीं है कि ला दूंँ।

मालती को मेहता पर क्रोध आ रहा था। बोली--तुम यहाँ क्यों आकर पड़ रहे?

मेहता ने चिढ़ाते हुए कहा--एक दिन ज़रा इस जीवन का आनन्द भी तो उठाओ। देखो,मक्के की रोटियों में कितना स्वाद है।

'मुझसे मक्के की रोटियाँ खायी ही न जायेंगी, और किसी तरह निगल भी जाऊँ तो हज़म न होंगी। तुम्हारे साथ आकर मैं बहुत पछता रही हूँ। रास्ते-भर दौड़ा के मार डाला और अब यहाँ लाकर पटक दिया!'

मेहता ने कपड़े उतार दिये थे और केवल एक नीला जाँघिया पहने बैठे हुए थे। युवती को मटके ले जाते देखा,तो उसके हाथ से मटके छीन लिये और कुएंँ पर पानी भरने चले। दर्शन के गहरे अध्ययन में भी उन्होंने अपने स्वास्थ्य की रक्षा की थी और दोनों मटके लेकर चलते हुए उनकी मांसल भुजाएँ और चौड़ी छाती और मछलीदार जाँघे किसी यूनानी प्रतिमा के सुगठित अंगों की भाँति उनके पुरुपार्थ का परिचय दे रही थीं। युवती उन्हें पानी खींचते हुए अनुराग भरी आँखों से देख रही थी। वह अब उसकी दया के पात्र नहीं,श्रद्धा के पात्र हो गये थे।

कुआँ बहुत गहरा था,कोई साठ हाथ,मटके भारी थे और मेहता कसरत का अभ्यास करते रहने पर भी एक मटका खीचते-खीचते शिथिल हो गये। युवती ने दौड़कर उनके हाथ से रस्सी छीन ली और बोली--तुमसे न खिचेगा। तुम जाकर खाट पर बैठो,मैं खीचे लेती हूँ।

मेहता अपने पुरुषत्व का यह अपमान न सह सके। रस्सी उसके हाथ से फिर ले ली और जोर मारकर एक क्षण में दूसरा मटका भी खींच लिया और दोनों हाथों में दोनों मटके लिये आकर झोंपड़ी के द्वार पर खड़े हो गये। युवती ने चटपट आग जलायी,लालसर के पंख झुलस डाले। छुरे से उसकी वोटियाँ बनायीं और चूल्हे में आग जलाकर मांस चढ़ा दिया और चूल्हे के दूसरे ऐले पर कढ़ाई में दूध उवालने लगी|

और मालती भौंहें चढ़ाये,खाट पर खिन्न-मन पड़ी इस तरह यह दृश्य देख रही थी मानो उसके ऑपरेशन की तैयारी हो रही हो।

मेहता झोपड़ी के द्वार पर खड़े होकर, युवती के गृह-कौशल को अनुरक्त नेत्रों से देखते हुए बोले--मुझे भी तो कोई काम बताओ,मैं क्या करूँ? [ ८८ ]युवती ने मीठी झिड़की के साथ कहा--तुम्हें कुछ नहीं करना है,जाकर बाई के पास बैठो,बेचारी बहुत भूखी है। दूध गरम हुआ जाता है,उसे पिला देना।

{{Gap))उसने एक घड़े से आटा निकाला और गूंँधने लगी। मेहता उसके अंगों का विलास देखते रहे। युवती भी रह-रहकर उन्हें कनखियों से देखकर अपना काम करने लगती थी।

मालती ने पुकारा--तुम वहाँ क्या खड़े हो? मेरे सिर में जोर का दर्द हो रहा है। आधा सिर ऐसा फटा पड़ता है,जैसे गिर जायगा।

मेहता ने आकर कहा--मालूम होता है,धूप लग गयी है।

'मैं क्या जानती थी,तुम मुझे मार डालने के लिए यहाँ ला रहे हो।'

'तुम्हारे साथ कोई दवा भी तो नहीं है?'

'क्या मै किसी मरीज़ को देखने आ रही थी,जो दवा लेकर चलती? मेरा एक दवाओं का बक्स है,वह मेमरी में है। उफ़! सिर फटा जाता है!'

मेहता ने उसके सिर की ओर ज़मीन पर बैठकर धीरे-धीरे उसका सिर सहलाना शुरू किया। मालती ने आँखें बन्द कर लीं।

युवती हाथों में आटा भरे,सिर के बाल बिखेरे,आँखें धुएँ से लाल और सजल,सारी देह पसीने में तर,जिससे उसका उभरा हुआ वक्ष साफ़ झलक रहा था,आकर खड़ी हो गयी और मालती को आँखें बन्द किये पड़ी देखकर बोली--बाई को क्या हो गया है?

मेहता बोले--सिर में बड़ा दर्द है।

'पूरे सिर में है कि आधे में?'

'आधे में बतलाती है।'

'दाई ओर है,कि बाई ओर?'

'बाई ओर।'

'मैं अभी दौड़ के एक दवा लाती हूँ। घिसकर लगाते ही अच्छा हो जायगा।'

'तुम इस धूप मे कहाँ जाओगी?'

युवती ने सुना ही नहीं। वेग से एक ओर जाकर पहाड़ियों में छिप गयी। कोई आधा घण्टे के बाद मेहता ने उसे एक ऊँची पहाड़ी पर चढ़ते देखा। दूर से बिलकुल गुड़िया-.सी लग रही थी। मन में सोचा--इस जंगली छोकरी में सेवा का कितना भाव और कितना व्यावहारिक ज्ञान है। लू और और धूप में आसमान पर चढ़ी चली जा रही है।

मालती ने आँखें खोलकर देखा--कहाँ गयी वह कलूटी। गज़ब की काली है,जैसे आबनूस का कुन्दा हो। इसे भेज दो,राय साहब से कह आये,कार यहाँ भेज दें। इस तपिश में मेरा दम निकल जायगा।

'कोई दवा लेने गयी है। कहती है,उससे आधा-सीसी का दर्द बहुत जल्द आराम हो जाता है!'

'इनकी दवाएँ इन्हीं को फ़ायदा करती हैं,मुझे न करेंगी। तुम तो इस छोकरी पर लटू हो गये हो। कितने छिछोरे हो। जैसी रूह वैसे फ़रिश्ते!' [ ८९ ]मेहता को कटु सत्य कहने में संकोच न होता था।

'कुछ बातें तो उसमें ऐसी हैं कि अगर तुममें होतीं, तो तुम सचमुच देवी हो जाती।'

'उसकी खूबियाँ उसे मुबारक,मुझे देवी बनने की इच्छा नहीं है।'

'तुम्हारी इच्छा हो,तो मैं जाकर कार लाऊँ,यद्यपि कार यहाँ आ भी सकेगी,मैं नहीं कह सकता।'

'उस कलूटी को क्यों नहीं भेज देते?'

'वह तो दवा लेने गयी है,फिर भोजन पकायेगी।'

'तो आज आप उसके मेहमान हैं। शायद रात को भी यहीं रहने का विचार होगा। रात को शिकार भी तो अच्छे मिलते हैं।'

मेहता ने इस आक्षेप से चिढ़कर कहा--इस युवती के प्रति मेरे मन में जो प्रेम और श्रद्धा है,वह ऐसी है कि अगर मैं उसकी ओर वासना से देखूँ तो आँखे फूट जायें। मै अपने किसी घनिष्ठ मित्र के लिए भी इस धूप और लू में उस ऊँची पहाड़ी पर न जाता। और हम केवल घड़ी भर के मेहमान हैं,यह वह जानती है। वह किसी गरीब औरत के लिए भी इसी तत्परता से दौड़ जायगी। मै विश्व-बन्धुत्व और विश्व-प्रेम पर केवल लेख लिख सकता हूँ,केवल भाषण दे सकता हूँ;वह उस प्रेम और त्याग का व्यवहार कर सकती है। कहने से करना कहीं कठिन है। इसे तुम भी जानती हो।

मालती ने उपहास भाव से कहा--बस-बस,वह देवी है। मैं मान गयी। उसके वक्ष में उभार है,नितम्बों में भारीपन है,देवी होने के लिए और क्या चाहिए।

मेहता तिलमिला उठे। तुरन्त उठे,कपड़े पहने जो सूख गये थे,बन्दूक उठायी और चलने को तैयार हुए।मालती ने फुंकार मारी--तुम नहीं जा सकते,मुझे अकेली छोड़कर।

'तब कौन जायगा?'

'वही तुम्हारी देवी।'

मेहता हतबुद्धि-से खड़े थे। नारी पुरुष पर कितनी आसानी से विजय पा सकती है,इसका आज उन्हें जीवन में पहला अनुभव हुआ।

वह दौड़ी हाँफती चली आ रही थी। वही कलूटी युवती,हाथ में एक झाड़ लिये हुए। समीप जाकर मेहता को कहीं जाने को तैयार देखकर बोली--मैं वह जड़ी खोज लायी। अभी घिसकर लगाती हूँ;लेकिन तुम कहाँ जा रहे हो। मांँस तो पक गया होगा,मैं रोटियाँ सेंक देती हूँ। दो-एक खा लेना। बाई दूध पी लेगी। ठंढा हो जाय,तो चले जाना।

उसने निस्संकोच भाव से मेहता के अचकन की बटनें खोल दीं। मेहता अपने को बहुत रोके हुए थे। जी होता था,इस गॅवारिन के चरणों को चूम लें।

मालती ने कहा--अपनी दवाई रहने दो। नदी के किनारे,बरगद के नीचे हमारी मोटरकार खड़ी है। वहाँ और लोग होंगे। उनसे कहना,कार यहाँ लायें। दौड़ी हुई जा। [ ९० ]युवती न दीन नेत्रों से मेहता को देखा। इतनी मेहनत से बूटी लायी,उसका यह अनादर। इस गॅवारिन की दवा इन्हें नहीं अँची,तो न सही,उसका मन रखने को ही ज़रा-सी लगवा लेतीं,तो क्या होता।

उसने बूटी ज़मीन पर रखकर पूछा--तब तक तो चूल्हा ठण्ढा हो जायगा बाईजी। कहो तो रोटियां सेंककर रख दूंँ। बाबूजी खाना खा लें,तुम दूध पी लो और दोनों जने आराम करो। तब तक मैं मोटरवाले को बुला लाऊँगी।

वह झोपड़ी में गयी,बुझी हुई आग फिर जलायी। देखा तो माँस उबल गया था। कुछ जल भी गया था। जल्दी-जल्दी रोटियाँ सेंकी,दूध गर्म था,उसे ठण्ढा किया और एक कटोरे में मालती के पास लायी। मालती ने कटोरे के भद्देपन पर मुंँह बनाया;लेकिन दूध त्याग न सकी। मेहता झोपड़ी के द्वार पर बैठकर एक थाली में मांँस और रोटियाँ खाने लगे। युवती खड़ी पंखा झल रही थी।

मालती ने युवती से कहा--उन्हें खाने दो। कहीं भागे नहीं जाते हैं। तू जाकर गाड़ी ला।

युवती ने मालती की ओर एक बार सवाल की आँखों से देखा,यह क्या चाहती हैं। इनका आशय क्या है? उसे मालती के चेहरे पर रोगियों की-सी नम्रता और कृतज्ञता और याचना न दिखायी दी। उसकी जगह अभिमान और प्रमाद की झलक थी। गॅवारिन मनोभावों के पहचानने में चतुर थी। बोली--मैं किसी की लौडी नहीं हूँ बाईजी! तुम बड़ी हो,अपने घर की बड़ी हो। मैं तुमसे कुछ माँगने तो नहीं जाती। मैं गाड़ी लेने न जाऊँगी।

मालती ने डाँटा–-अच्छा, तूने गुस्ताखी पर कमर बाँधी! बता तू किसके इलाके मे रहती है?

'यह राय साहब का इलाका है।'

'तो तुझे उन्हीं राय साहब के हाथों हंटरों से पिटवाऊँगी।'

'मुझे पिटवाने से तुम्हें सुख मिले तो पिटवा लेना बाईजी!कोई रानी-महारानी थोड़ी हूँ कि लस्कर भेजनी पड़ेगी।'

मेहता ने दो-चार कौर निगले थे कि मालती की यह बातें सुनीं। कौर कण्ठ में अटक गया। जल्दी से हाथ धोया और बोले--वह नहीं जायगी। मै जा रहा हूँ।

मालती भी खड़ी हो गयी--उसे जाना पड़ेगा।

मेहता ने अंग्रेजी में कहा--उसका अपमान करके तुम अपना सम्मान बढ़ा नही रही हो मालती!

मालती ने फटकार बतायी--ऐसी ही लौंडियाँ मर्दो को पसन्द आती हैं,जिनमें और कोई गुण हो या न हो,उनकी टहल दौड़-दौड़कर प्रसन्न मन से करें और अपना भाग्य सराहें कि इस पुरुष ने मुझसे यह काम करने को तो कहा। वह देवियाँ हैं, शक्तियाँ हैं,विभूतियाँ हैं। मैं समझती थी,वह पुरुषत्व तुममें कम-से-कम नहीं है। लेकिन अन्दर से,संस्कारों से,तुम भी वही बर्वर हो। [ ९१ ]मेहता मनोविज्ञान के पण्डित थे। मालती के मनोरहस्यों को समझ रहे थे। ईर्ष्या का ऐसा अनोखा उदाहरण उन्हें कभी न मिला था। उस रमणी में, जो इतनी मृदु-स्वभाव, इतनी उदार, इतनी प्रसन्नमुख थी, ईर्ष्या की ऐसी प्रचण्ड ज्वाला!

बोले––कुछ भी कहो, मैं उसे न जाने दूँगा। उसकी सेवाओं और कृपाओं का यह पुरस्कार देकर मैं अपनी नज़रों में नीच नहीं बन सकता।

मेहता के स्वर में कुछ ऐसा तेज था कि मालती धीरे से उठी और चलने को तैयार हो गयी।

उसने जलकर कहा––अच्छा, तो मैं ही जाती हूँ, तुम उसके चरणों की पूजा करके पीछे आना।

मालती दो–तीन क़दम चली गयी, तो मेहता ने युवती से कहा––अब मुझे आज्ञा दो बहन; तुम्हारा यह नेह, तुम्हारी निःस्वार्थ सेवा हमेशा याद रहेगी।

युवती ने दोनों हाथों से, सजलनेत्र होकर उन्हें प्रणाम किया और झोपड़ी के अन्दर चली गई।

++++

दूसरी टोली राय साहब और खन्ना की थी। राय साहब तो अपने उसी रेशमी कुरते और रेशमी चादर में थे। मगर खन्ना ने शिकारी सूट डाला था, जो शायद आज ही के लिए वनवाया गया था; क्योंकि खन्ना को आसामियों के शिकार से इतनी फुरसत कहाँ थी कि जानवरों का शिकार करते। खन्ना ठिगने, इकहरे, रूपवान आदमी थे; गेहुँआँ रंग, बड़ी-बड़ी आँखें, मुँह पर चेचक के दाग़; बात-चीत में बड़े कुशल।

कुछ दूर चलने के बाद खन्ना ने मिस्टर मेहता का ज़िक्र छेड़ दिया जो कल से ही उनके मस्तिष्क में राहु की भाँति समाये हुए थे।

बोले––यह मेहता भी कुछ अजीब आदमी है। मुझे तो कुछ बना हुआ मालूम होता है।

राय साहब मेहता की इज्जत करते थे और उन्हें सच्चा और निष्कपट आदमी समझते थे; पर खन्ना से लेन-देन का व्यवहार था, कुछ स्वभाव से शान्ति-प्रिय भी थे, विरोध न कर सके। बोले––मैं तो उन्हें केवल मनोरंजन की वस्तु समझता हूँ। कभी उनसे बहस नहीं करता। और करना भी चाहूँ तो उतनी विद्या कहाँ से लाऊँ। जिसने जीवन के क्षेत्र में कभी क़दम ही नहीं रखा, वह अगर जीवन के विषय में कोई नया सिद्धान्त अलापता है, तो मुझे उस पर हँसी आती है। मजे से एक हजार माहवार फटकारते हैं, न जोरू न जाँता, न कोई चिन्ता न बाधा, वह दर्शन न बघारें, तो कौन बघारे? आप निर्द्वन्द्व रहकर जीवन को सम्पूर्ण बनाने का स्वप्न देखते हैं। ऐसे आदमी से क्या बहस की जाय।

'मैंने सुना चरित्र का अच्छा नहीं है।'

'बेफ़िक्री में चरित्र अच्छा रह ही कैसे सकता है। समाज में रहो और समाज के कर्तव्यों और मर्यादाओं का पालन करो तब पता चले!' [ ९२ ]'मालती न जाने क्या देखकर उन पर लटू हुई जाती है।'

'मैं समझता हूँ,वह केवल तुम्हें जला रही है।'

'मुझे वह क्या जलायेंगी। बेचारी। मैं उन्हें खिलौने से ज्यादा नहीं समझता।'

'यह तो न कहो मिस्टर खन्ना,मिस मालती पर जान तो देते हो तुम।'

'यों तो मैं आपको भी यही इलज़ाम दे सकता हूँ।'

'मैं सचमुच खिलौना समझता हूँ। आप उन्हें प्रतिमा बनाये हुए हैं।'

खन्ना ने ज़ोर से कहक़हा मारा,हालाँकि हँसी की कोई बात न थी!

'अगर एक लोटा जल चढ़ा देने मे वरदान मिल जाय, तो क्या बुरा है।'

अबकी राय साहब ने जोर से कहक़हा मारा,जिसका कोई प्रयोजन न था।

'तब आपने उस देवी को समझा ही नहीं। आप जितनी ही उसकी पूजा करेंगे,उतना ही वह आप से दूर भागेगी। जितना ही दूर भागियेगा,उतना ही आपकी ओर दौड़ेगी।'

'तब तो उन्हें आपकी ओर दौड़ना चाहिए था।'

'मेरी ओर! मैं उस रसिक-समाज मे विलकुल बाहर हूँ मिस्टर खन्ना,सच कहता हूँ। मुझमें जितनी बुद्धि,जितना बल है, वह इस इलाके के प्रबन्ध में ही खर्च हो जाता है। घर के जितने प्राणी है,सभी अपनी-अपनी धुन में मस्त;कोई उपासना में,कोई विषयवामना में। कोऊ काहू में मगन,कोऊ काहू में मगन। और इन सब अजगरों को भक्ष्य देना मेरा काम है,कर्तव्य है। मेरे बहुत से ताल्लुकेदार भाई भोग-विलास करते हैं,यह सब मैं जानता हूँ। मगर वह लोग घर फूंँककर तमाशा देखते हैं। क़र्ज़ का बोझ सिर पर लदा जा रहा है, रोज डिग्रियाँ हो रही है। जिससे लेते हैं,उसे देना नही जानते,चारों तरफ़ बदनाम। मैं तो ऐसी ज़िन्दगी से मर जाना अच्छा समझता हूँ। मालूम नहीं,किस संस्कार से मेरी आत्मा में ज़रा-सी जान बाकी रह गयी,जो मुझे देश और समाज के बन्धन में बाँधे हुए है। सत्याग्रह-आन्दोलन छिड़ा। मेरे सारे भाई गराब-कवाव में मस्त थे। मैं अपने को न रोक सका। जेल गया और लाखों रुपए की जेरबारी उठाई और अभी तक उसका तावान दे रहा हूंँ। मुझे उसका पछतावा नहीं है। बिलकुल नहीं। मुझे उसका गर्व है। मैं उस आदमी को आदमी नहीं समझता,जो देश और समाज की भलाई के लिए उद्योग न करे और बलिदान न करे। मुझे क्या अच्छा लगता है कि निर्जीव किसानों का रक्त चूसूंँ और अपने परिवारवालों की वासनाओं की तृप्ति के साधन जुटाऊँ;मगर करूंँ क्या? जिस व्यवस्था में पला और जिया,उससे घृणा होने पर भी उसका मोह त्याग नहीं सकता और उसी चरखे में रातदिन पड़ा रहता हूँ कि किसी तरह इज्जत-आबरू वची रहे,और आत्मा की हत्या न होने पाये। ऐसा आदमी मिस मालती क्या,किसी भी मिस के पीछे नहीं पड़ सकता,और पड़े तो उसका मर्वनाश ही समझिये। हाँ,थोड़ा-सा मनोरंजन कर लेना दूसरी बात है।

मिस्टर खन्ना भी साहसी आदमी थे,संग्राम में आगे बढ़नेवाले। दो वार जेल हो [ ९३ ]
आये थे। किसी से दबना न जानते थे। खद्दर न पहनते थे और फ्रांस की शराब पीते थे। अवसर पड़ने पर बड़ी-बड़ी तकलीफें झेल सकते थे। जेल में शराब छुई तक नहीं,और ए० क्लास में रहकर भी सी० क्लास की रोटियाँ खाते रहे,हालाँकि, उन्हें हर तरह का आराम मिल सकता था;मगर रण-क्षेत्र में जानेवाला रथ भी तो बिना तेल के नहीं चल सकता। उनके जीवन में थोड़ी-सी रसिकता लाजिमी थी। बोले--आप संन्यासी बन सकते हैं,मैं तो नहीं बन सकता। मैं तो समझता हूँ,जो भोगी नहीं है,वह सग्राम में भी पूरे उत्साह से नही जा सकता। जो रमणी से प्रेम नहीं कर सकता,उसके देश-प्रेम में मुझे विश्वास नहीं।

राय साहब मुसकराये--आप मुझी पर आवाजें कसने लगे।

'आवाज़ नही है,तत्त्व की बात है।'

'शायद हो।'

'आप अपने दिल के अन्दर पैठकर देखिए तो पता चले।'

'मैंने तो पैठकर देखा है,और मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ,वहाँ और चाहे जितनी बुराइयाँ हों,विषय की लालसा नहीं है।'

'तब मुझे आपके ऊपर दया आती है। आप जो इतने दुखी और निराश और चिन्तित हैं,इसका एकमात्र कारण आपका निग्रह है। मैं तो यह नाटक खेलकर रहूँगा,चाहे दुःखान्त ही क्यों न हो! वह मुझसे मज़ाक करती है,दिखाती है कि मुझे तेरी परवाह नहीं है;लेकिन मैं हिम्मत हारनेवाला मनुष्य नहीं हूँ। मैं अब तक उसका मिज़ाज़ नहीं समझ पाया। कहाँ निशाना ठीक बैठेगा,इसका निश्चय न कर सका।'

'लेकिन वह कुंजी आपको शायद ही मिले। मेहता शायद आपसे बाजी मार ले जायँ।'

{{Gap]}एक हिरन कई हिरनियों के साथ चर रहा था, बड़े सींगोंवाला,बिलकुल काला। राय साहब ने निशाना बाँधा। खन्ना ने रोका--क्यों हत्या करते हो यार? बेचारा चर रहा है,चरने दो। धूप तेज हो गयी है,आइए कहीं बैठ जायें।आप से कुछ बातें करनी हैं।

राय साहब ने बन्दूक चलायी;मगर हिरन भाग गया। बोले--एक शिकार मिला भी तो निशाना खाली गया।

'एक हत्या से बचे।'

'आपके इलाके़ में ऊख होती है?'

'बड़ी कसरत से।'

'तो फिर क्यों न हमारे शुगर मिल में शामिल हो जाइए। हिस्से धड़ाधड़ बिक रहे हैं। आप ज्यादा नहीं एक हजार हिस्से खरीद लें?'

'ग़ज़ब किया,मैं इतने रुपए कहाँ से लाऊँगा?'

'इतने नामी इलाकेदार और आपको रुपयों की कमी! कुल पचास हज़ार ही तो होते हैं। उनमें भी अभी २५ फीसदी ही देना है।' [ ९४ ]'नहीं भाई साहब, मेरे पास इस वक्त बिलकुल रुपए नहीं हैं।'

'रुपए जितने चाहें, मुझसे लीजिए। बैंक आपका है। हाँ, अभी आपने अपनी ज़िन्दगी इंश्योर्ड न करायी होगी। मेरी कम्पनी में एक अच्छी-सी पालिसी लीजिए। सौ-दो सौ रुपए तो आप बड़ी आसानी से हर महीने दे सकते हैं और इकट्ठी रक़म मिल जायगी––चालीस-पचास हज़ार। लड़कों के लिए इससे अच्छा प्रबन्ध आप नहीं कर सकते। हमारी नियमावली देखिए। हम पूर्ण सहकारिता के सिद्धान्त पर काम करते हैं। दफ्तर और कर्मचारियों के खर्च के सिवा नफे की एक पाई भी किसी की जेब में नहीं जाती। आपको आश्चर्य होगा कि इस नीति से कम्पनी चल कैसे रही है। और मेरी सलाह मे थोड़ा-सा स्पेकुलेशन का काम भी शुरू कर दीजिए। यह जो आज सैकड़ों करोड़पति वने हुए हैं,सब इसी स्पेकुलेशन से बने हैं। रूई, शक्कर, गेहूँ, रबर किसी जिन्स का सट्टा कीजिए। मिनटों में लाखों का वारा-न्यारा होता है। काम जरा अटपटा है। बहुत से लोग गच्चा खा जाते हैं, लेकिन वही, जो अनाड़ी हैं। आप जैसे अनुभवी, सुशिक्षित और दूरन्देश लोगों के लिए इससे ज्यादा नफ़े का काम ही नहीं। बाज़ार का चढ़ाव-उतार कोई आकस्मिक घटना नहीं। इसका भी विज्ञान है। एक बार उसे गौर से देख लीजिए, फिर क्या मजाल कि धोखा हो जाय।'

राय साहब कम्पनियों पर अविश्वास करते थे, दो-एक बार इसका उन्हें कड़वा अनुभव हो भी चुका था, लेकिन मिस्टर खन्ना को उन्होंने अपनी आँखों से बढ़ते देखा था और उनकी कार्यदक्षता के कायल हो गये थे। अभी दस साल पहले जो व्यक्ति बैंक में क्लर्क था, वह केवल अपने अध्यवसाय, पुरुषार्थ और प्रतिभा से शहर में पुजता है। उसकी सलाह की उपेक्षा न की जा सकती थी। इस विषय में अगर खन्ना उनके पथ-प्रदर्शक हो जायें, तो उन्हें बहुत कुछ कामयाबी हो सकती है। ऐसा अवसर क्यों छोड़ा जाय। तरह-तरह के प्रश्न करते रहे।

सहसा एक देहाती एक बड़ी-सी टोकरी में कुछ जड़ें, कुछ पत्तियाँ, कुछ फल लिये जाता नज़र आया।

खन्ना ने पूछा––अरे, क्या बेचता है?

देहाती सकपका गया। डरा, कहीं बेगार में न पकड़ जाय। बोला––कुछ तो नहीं मालिक! यही घास-पात है।

'क्या करेगा इनका?'

'बेचूंगा मालिक! जड़ी-बूटी है।'

'कौन-कौन सी जड़ी-बूटी है, बता?'

देहाती ने अपना औषधालय खोलकर दिखलाया। मामूली चीजें थीं जो जंगल के आदमी उखाड़कर ले जाते हैं और शहर में अत्तारों के हाथ दो-चार आने में बेच आते हैं। जैसे मकोय, कंघी, सहदेइया, कुकरौंधे, धतूरे के बीज, मदार के फूल, करजे, घमची आदि। हरएक चीज़ दिखाता था और रटे हुए शब्दों में उसके गुण भी बयान करता जाता था। यह मकोय है सरकार! ताप हो, मंदाग्नि हो, तिल्ली हो, धड़कन हो, शूल हो, खाँसी [ ९५ ]हो, एक खोराक में आराम हो जाता है। यह धतूरे के बीज हैं मालिक, गठिया हो, बाई हो......

खन्ना ने दाम पूछा––उसने आठ आने कहे। खन्ना ने एक रुपया फेंक दिया और उसे पड़ाव तक रख आने का हुक्म दिया। ग़रीब ने मुँह-माँगा दाम ही नहीं पाया, उसका दुगुना पाया। आशीर्वाद देता चला गया।

राय साहब ने पूछा––आप यह घास-पात लेकर क्या करेंगे?

खन्ना ने मुस्कराकर कहा––इनकी अशर्फियाँ बनाऊँगा। मैं कीमियागर हूँ। यह आपको शायद नहीं मालूम।

'तो यार, वह मन्त्र हमें सिखा दो।'

'हाँ-हाँ, शौक़ से। मेरी शागिर्दी कीजिए। पहले सवा सेर लड्डू लाकर चढ़ाइए, तब बताऊँगा। बात यह है कि मेरा तरह-तरह के आदमियों से साबक़ा पड़ता है। कुछ ऐसे लोग भी आते हैं,जो जड़ी-बूटियों पर जान देते हैं। उनको इतना मालूम हो जाय कि यह किसी फ़कीर की दी हुई बूटी है,फिर आपकी खुशामद करेंगे, नाक रगड़ेंगे, और आप वह चीज़ उन्हें दे दें, तो हमेशा के लिए आपके ऋणी हो जायेंगे। एक रुपए में अगर दस-बीस बुद्धओं पर एहसान का नमदा कसा जा सके, तो क्या बुरा है। ज़रा से एहसान से बड़े-बड़े काम निकल जाते हैं।

राय साहब ने कुतूहल से पूछा––मगर इन बूटियों के गुण आपको याद कैसे रहेंगे?

खन्ना ने क़हक़हा मारा––आप भी राय साहब! बड़े मजे की बातें करते हैं। जिस बूटी में जो गुण चाहे बता दीजिए, वह आपकी लियाक़त पर मुनहसर है। सेहत तो रुपए में आठ आने विश्वास से होती है। आप जो इन बड़े-बड़े अफ़सरों को देखते हैं, और इन लम्बो पूँछवाले विद्वानों को, और इन रईसों को, ये सब अंधविश्वासी होते हैं। मैं तो वनस्पति-शास्त्र के प्रोफेसर को जानता हूँ, जो कुकरौंधे का नाम भी नहीं जानते। इन विद्वानों का मज़ाक तो हमारे स्वामीजी खूब उड़ाते हैं। आपको तो कभी उनके दर्शन न हुए होंगे। अबकी आप आयेंगे, तो उनसे मिलाऊँगा। जब से मेरे बगीचे में ठहरे हैं, रात-दिन लोगों का तांता लगा रहता है। माया तो उन्हें छू भी नहीं गयी। केवल एक बार दूध पीते हैं। ऐसा विद्वान महात्मा मैंने आज तक नहीं देखा। न जाने कितने वर्ष हिमालय पर तप करते रहे। पूरे सिद्ध पुरुष हैं। आप उनसे अवश्य दीक्षा लीजिए। मुझे विश्वास है, आपकी यह सारी कठिनाइयाँ छूमन्तर हो जायँगी। आपको देखते ही आपका भूत-भविष्य सब कह सुनायेंगे। ऐसे प्रसन्नमुख हैं कि देखते ही मन खिल उठता है। ताज्जुब तो यह है कि खुद इतने बड़े महात्मा हैं; मगर संन्यास और त्याग मंदिर और मठ, संप्रदाय और पन्थ, इन सबको ढोंग कहते हैं, पाखण्ड कहते हैं, रूढ़ियों के बन्धन को तोड़ो और मनुष्य बनो, देवता बनने का खयाल छोड़ो। देवता बनकर तुम मनुष्य न रहोगे।

राय साहब के मन में शंका हुई। महात्माओं में उन्हें भी वह विश्वास था, जो प्रभुतावालों में आमतौर पर होता है। दुखी प्राण को आत्मचिन्तन में जो शान्ति मिलती है। [ ९६ ]उसके लिए वह भी लालायित रहते थे। जब आर्थिक कठिनाइयों से निराश हो जाते, मन में आता, संसार से मुँह मोड़कर एकान्त में जा बैठे और मोक्ष की चिन्ता करें। संसार के बन्धनों को वह भी साधारण मनुष्यों की भाँति आत्मोन्नति के मार्ग की बाधाएँ समझते थे और इनसे दूर हो जाना ही उनके जीवन का भी आदर्श था; लेकिन संन्यास और त्याग के बिना बन्धनों को तोड़ने का और क्या उपाय है?

'लेकिन जब वह संन्यास को ढोंग कहते है, तो खुद क्यों संन्यास लिया है?'

'उन्होंने संन्यास कब लिया है साहब, वह तो कहते हैं––आदमी को अन्त तक काम करते रहना चाहिए। विचार-स्वातन्त्र्य उनके उपदेशों का तत्त्व है।'

'मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। विचार-स्वातन्त्र्य का आशय क्या है?'

'समझ में तो मेरे भी कुछ नही आता, अबकी आइए, तो उनमें बातें हों। वह प्रेम को जीवन का सत्य कहते हैं। और इसकी ऐसी मुन्दर व्याख्या करते हैं कि मन मुग्ध हो जाता है।'

'मिस मालती को उनमे मिलाया या नहीं?'

'आप भी दिल्लगी करते हैं। मालती को भला इनसे क्या मिलता....'

वाक्य पूरा न हुआ था कि वह सामने झाड़ी में सरसराहट की आवाज सुनकर चौक पड़े और प्राण-रक्षा की प्रेरणा से राय साहब के पीछे आ गये। झाड़ी में से एक तेंदुआ निकला और मन्द गति से सामने की ओर चला।

राय साहब ने बन्दूक उठायी और निशाना बाँधना चाहते थे कि खन्ना ने कहा––यह क्या करते हैं आप? ख्वाहमख्वाह उसे छेड़ रहे हैं। कही लौट पड़े तो?

'लौट क्या पड़ेगा, वहीं ढेर हो जायगा।'

'तो मुझे उस टीले पर चढ़ जाने दीजिए। मैं शिकार का ऐसा शौकीन नहीं हूं।'

'तब क्या शिकार खेलने चले थे?'

'शामत और क्या।'

राय साहब ने बन्दूक नीचे कर ली।

'बड़ा अच्छा शिकार निकल गया। ऐसे अवसर कम मिलते हैं।'

'मैं तो अब यहाँ नहीं ठहर सकता। खतरनाक जगह है।'

'एकाध शिकार तो मार लेने दीजिए। खाली हाथ लौटते शर्म आती है।'

'आप मुझे कृपा करके कार के पास पहुंचा दीजिए, फिर चाहे तेंदुए का शिकार कीजिए या चीते का।'

'आप बड़े डरपोक हैं मिस्टर खन्ना, सच।'

'व्यर्थ में अपनी जान खतरे में डालना बहादुरी नहीं है।'

'अच्छा तो आप खुशी से लौट सकते हैं।'

'अकेला?'

'रास्ता बिलकुल साफ़ है।'

'जी नहीं। आपको मेरे साथ चलना पड़ेगा।' [ ९७ ]राय साहब ने बहुत समझाया; मगर खन्ना ने एक न मानी। मारे भय के उनका चेहरा पीला पड़ गया था। उस वक्त अगर झाड़ी में से एक गिलहरी भी निकल आती, तो वह चीख मारकर गिर पड़ते। बोटी-बोटी काँप रही थी। पसीने से तर हो गये थे! राय साहब को लाचार होकर उनके साथ लौटना पड़ा।

जब दोनों आदमी बड़ी दूर निकल आये, तो खन्ना के होश ठिकाने आये।

बोले-खतरे से नहीं डरता; लेकिन खतरे के मुंह में उँगली डालना हिमाक़त है।

'अजी जाओ भी। ज़रा-सा तेंदुआ देख लिया, तो जान निकल गयी।'

'मैं शिकार खेलना उस ज़माने का संस्कार समझता हूँ, जब आदमी पशु था। तब से संस्कृति बहुत आगे बढ़ गयी है।'

'मैं मिस मालती से आपकी कलई खोलूंगा।'

'मैं अहिंसावादी होना लज्जा की बात नहीं समझता।'

'अच्छा, तो यह आपका अहिंसावाद था। शाबाश!'

खन्ना ने गर्व से कहा-जी हाँ, यह मेरा अहिंसावाद था। आप बुद्ध और शंकर के नाम पर गर्व करते हैं और पशुओं की हत्या करते हैं, लज्जा आपको आनी चाहिए, न कि मुझे।

कुछ दूर दोनों फिर चुपचाप चलते रहे। तब खन्ना बोले––तो आप कब तक आयेंगे? मैं चाहता हूँ, आप पालिसी का फ़ार्म आज ही भर दें और शक्कर के हिस्सों का भी। मेरे पास दोनों फ़ार्म भी मौजूद हैं।

राय साहब ने चिन्तित स्वर में कहा––ज़रा सोच लेने दीजिए।

'इसमें सोचने की ज़रूरत नहीं।'

×××

तीसरी टोली मिर्ज़ा खुर्शेद और मिस्टर तंखा की थी। मिर्ज़ा खुर्शेद के लिए भूत और भविष्य सादे काग़ज की भाँति था। वह वर्तमान में रहते थे। न भूत का पछतावा था, न भविष्य की चिंता। जो कुछ सामने आ जाता था, उसमें जी-जान से लग जाते थे। मित्रों की मंडली में वह विनोद के पुतले थे। कौसिल में उनसे ज्यादा उत्साही मेम्बर कोई न था। जिस प्रश्न के पीछे पड़ जाते, मिनिस्टरों को रुला देते। किसी के साथ रू-रियायत करना न जानते थे। बीच-बीच में परिहास भी करते जाते थे। उनके लिए आज जीवन था, कल का पता नहीं। गुस्सेवर भी ऐसे थे कि ताल ठोंककर सामने आ जाते थे। नम्रता के सामने दंडवत करते थे; लेकिन जहाँ किसी ने शान दिखायी और यह हाथ धोकर उसके पीछे पड़े। न अपना लेना याद रखते थे, न दूसरों का देना। शौक़ था शायरी का और शराब का। औरत केवल मनोरंजन की वस्तु थी। बहुत दिन हुए हृदय का दिवाला निकाल चुके थे।

मिस्टर तंखा दाँव-पेंच के आदमी थे, सौदा पटाने में, मुआमला सुलझाने में, अड़ंगा लगाने में, बालू से तेल निकालने में, गला दबाने में, दुम झाड़कर निकल जाने में बड़े सिद्धहस्त। कहिये रेत में नाव चला दें, पत्थर पर दूब उगा दें। ताल्लुकेदारों को महाजनों से कर्ज [ ९८ ]दिलाना, नयी कम्पनियाँ खोलना, चुनाव के अवसर पर उम्मेदवार खड़े करना, यही उनका व्यवसाय था। खासकर चुनाव के समय उनकी तक़दीर चमकती थी। किसी पोढ़े उम्मेदवार को खड़ा करते, दिलोजान से उसका काम करते और दस-बीस हज़ार बना लेते। जब काँग्रेस का ज़ोर था तो काँग्रेस के उम्मेदवारों के सहायक थे। जब साम्प्रदायिक दल का ज़ोर हुआ, तो हिन्दूसभा की ओर से काम करने लगे; मगर इस उलट-फेर के समर्थन के लिए उनके पास ऐसी दलीलें थीं कि कोई उँगली न दिखा सकता था। शहर के सभी रईस, सभी हुक्काम, सभी अमीरों से उनका याराना था। दिल में चाहे लोग उनकी नीति पसन्द न करें; पर वह स्वभाव के इतने नम्र थे कि कोई मुंह पर कुछ न कह सकता था।

मिर्ज़ा खुर्शेद ने रूमाल से माथे का पसीना पोंछकर कहा––आज तो शिकार खेलने के लायक दिन नहीं है। आज तो कोई मुशायरा होना चाहिए था।

वकील ने समर्थन किया––जी हाँ, वहीं बाग़ में बड़ी बहार रहेगी।

थोड़ी देर के बाद मिस्टर तंखा ने मामले की बात छेड़ी।

'अबकी चुनाव में बड़े-बड़े गुल खिलेंगे। आपके लिए भी मुश्किल है।'

मिर्ज़ा विरक्त मन से बोले––अबकी मैं खड़ा ही न हूँगा।

तंखा ने पूछा––क्यों ?

'मुफ्त की बकबक कौन करे। फ़ायदा ही क्या! मुझे अब इस डेमॉक्रेसी में भक्ति नहीं रही। ज़रा-सा काम और महीनों की बहस। हाँ, जनता की आँखों में धूल झोंकने के लिए अच्छा स्वाँग है। इससे तो कहीं अच्छा है कि एक गवर्नर रहे, चाहे वह हिन्दुस्तानी हो, या अँग्रेज़, इसमे बहस नहीं। एक इंजिन जिस गाड़ी को बड़े मजे से हज़ारों मील खींच ले जा सकता है, उसे दम हज़ार आदमी मिलकर भी उतनी तेज़ी से नहीं खींच सकते। मैं तो यह सारा तमाशा देखकर कौंसिल से बेज़ार हो गया हूँ। मेरा बस चले, तो कौंसिल में आग लगा दूँ। जिसे हम डेमॉक्रेसी कहते हैं, वह व्यवहार में बड़े-बड़े व्यापारियों और ज़मींदारों का राज्य है, और कुछ नहीं। चुनाव में वही बाज़ी ले जाता है, जिसके पास रुपए हैं। रुपए के ज़ोर से उसके लिए सभी सुविधाएँ तैयार हो जाती हैं। बड़े-बड़े पण्डित, बड़े-बड़े मौलवी, बड़े-बड़े लिखने और बोलने वाले, जो अपनी ज़बान और क़लम से पबलिक को जिस तरफ़ चाहें फेर दें, सभी सोने के देवता के पैरों पर माथा रगड़ते हैं। मैंने तो इरादा कर लिया है, अब एलेक्शन के पास न जाऊँगा! मेरा प्रोपेगंडा अब डमॉक्रेसी के खिलाफ़ होगा।'

मिर्ज़ा साहब ने कुरान की आयतों से सिद्ध किया कि पुराने जमाने के बादशाहों के आदर्श कितने ऊँचे थे। आज तो हम उसकी तरफ़ ताक भी नहीं सकते। हमारी आँखों में चकाचौंध आ जायगी। बादशाह को खज़ाने की एक कौड़ी भी निजी खर्च में लाने का अधिकार न था। वह किताबें नक़ल करके, कपड़े सीकर, लड़कों को पढ़ाकर अपना गुज़र करता था। मिर्ज़ा ने आदर्श महीपों की एक लम्बी सूची गिना दी। कहाँ [ ९९ ]
तो वह प्रजा को पालनेवाला वादशाह,और कहाँ आजकल के मन्त्री और मिनिस्टर,पाँच,छ,सात,आठ हजार माहवार मिलना चाहिए। यह लूट है या डेमॉक्रेसी!

हिरनों का एक झुण्ड चरता हुआ नज़र आया। मिर्जा़ के मुख पर शिकार का जोश चमक उठा। बन्दूक सँभाली और निशाना मारा। एक काला-सा हिरन गिर पड़ा। वह मारा! इस उन्मत्त ध्वनि के साथ मिर्जा भी वेतहागा दौड़े। बिलकुल बच्चों की तरह उछलते,कूदते,तालियाँ बजाते।

समीप ही एक वृक्ष पर एक आदमी लकड़ियाँ काट रहा था। वह भी चट-पट वक्ष से उतरकर मिर्जा़जी के साथ दौड़ा। हिरन की गर्दन में गोली लगी थी,उसके पैरों में कम्पन हो रहा था और आँखें पथरा गयी थीं।

लकड़हारे ने हिरन को करुण नेत्रों से देखकर कहा--अच्छा पट्ठा था,मन-भर से कम न होगा। हुकुम हो,तो मैं उठाकर पहुँचा दूंँ?

मिर्जा़ कुछ बोले नहीं। हिरन की टॅगी हुई,दीन वेदना से भरी आँखें देख रहे थे। अभी एक मिनट पहले इसमें जीवन था। ज़रा-सा पत्ता भी खड़कता,तो कान खड़े करके चौकड़ियाँ भरता हुआ निकल भागता। अपने मित्रों और बाल-बच्चों के साथ ईश्वर की उगाई हुई घास खा रहा था;मगर अब निस्पन्द पड़ा है। उसकी खाल उधेड़ लो,उसकी बोटियाँ कर डालो,उसका क़ीमा बना डालो,उसे खबर न होगी। उसके क्रीड़ामय जीवन में जो आकर्षण था,जो आनन्द था,वह क्या इस निर्जीव शव में है? कितनी सुन्दर गठन थी,कितनी प्यारी आँखें,कितनी मनोहर छवि? उसकी छलाँगें हृदय में आनन्द की तरंगें पैदा कर देती थीं,उसकी चौकड़ियों के साथ हमारा मन भी चौकड़ियाँ भरने लगता था। उसकी स्फूर्ति जीवन-सा बिखेरती चलती थी,जैसे फूल सुगन्ध बिखेरता है;लेकिन अब! उसे देखकर ग्लानि होती है।

लकड़हारे ने पूछा--कहाँ पहुँचाना होगा मालिक? मुझे भी दो-चार पैसे दे देना। मिर्जा़जी जैसे ध्यान से चौंक पड़े। बोले-अच्छा उठा ले। कहाँ चलेगा?

'जहाँ हुकुम हो मालिक।'

'नहीं,जहाँ तेरी इच्छा हो,वहाँ ले जा। मैं तुझे देता हूँ।'

लकड़हारे ने मिर्जा़ की ओर कुतूहल से देखा। कानों पर विश्वास न आया।'अरे नहीं मालिक,हुजूर ने सिकार किया है,तो हम कैसे खा लें।'

'नहीं-नहीं मैं खुशी से कहता हूँ, तुम इसे ले जाओ। तुम्हारा घर यहाँ से कितनी दूर है?'

'कोई आधा कोस होगा मालिक!'

'तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा। देखूँगा,तुम्हारे वाल-वच्चे कैसे खुश होते हैं।'

‘ऐसे तो मैं न ले जाऊँगा सरकार!आप इतनी दूर से आये,इस कड़ी धूप में सिकार किया,मैं कैसे उठा ले जाऊँ?'

'उठा उठा,देर न कर। मुझे मालूम हो गया तु भला आदमी है।'

लकड़हारे ने डरते-डरते और रह-रह कर मिर्जा़जी के मुख की ओर सशंक नेत्रों से [ १०० ]
देखते हुए कि कहीं विगड़ न जायँ, हिरन को उठाया। सहसा उसने हिरन को छोड़ दिया और खड़ा होकर बोला -- मैं समझ गया मालि़क, हजूर ने इसकी हलाली नहीं की।

मिर्ज़ाजी ने हॅसकर कहा -- बस-बस, तूने खूब समझा। अब उठा ले और घर चल।

मिर्जा़जी धर्म के इतने पावन्द न थे। दस साल से उन्होंने नमाज़ न पढ़ी थी। दो महीने में एक दिन व्रत रख लेते थे। विलकुल निराहार, निर्जल; मगर लकड़हारे को इस खयाल से जो सन्तोष हुआ था कि हिरन अब इन लोगों के लिए अखाद्य हो गया है, उसे फीका न करना चाहते थे।

लकड़हारे ने हलके मन से हिरन को गरदन पर रख लिया और घर की ओर चला। तंखा अभी तक-तटस्थ से वहीं पेड़ के नीचे खड़े थे। धूप में हिरन के पास जाने का कष्ट क्यों उठाते। कुछ समझ में न आ रहा था कि मुआमला क्या है; लेकिन जब लकड़हारे को उल्टी दिशा में जाते देखा, तो आकर मिर्जा से बोले -- आप उधर कहाँ जा रहे हैं हज़रत!क्या रास्ता भल गये?

मिर्जा़ ने अपराधी भाव से मुस्कराकर कहा -- मैंने शिकार इस ग़रीब आदमी को दे दिया। अब ज़रा इसके घर चल रहा हूँ। आप भी आइए न।

तंखा ने मिर्जा़ को कुतूहल की दृष्टि से देखा और बोले -- आप अपने होश में हैं या नहीं।

'कह नहीं सकता। मुझे खुद नहीं मालूम।'

'शिकार इसे क्यों दे दिया?'

'इसीलिए कि उसे पाकर इसे जितनी खुशी होगी, मुझे या आपको न होगी।'

तंखा खिसियाकर बोले -- जाइए! सोचा था, खूब कबाब उड़ायेंगे, सो आपने सारा मज़ा किरकिरा कर दिया। खैर, राय साहब और मेहता कुछ न कुछ लायेंगे ही। कोई ग़म नहीं। मैं इस एलेक्शन के बारे में कुछ अर्ज करना चाहता हूॅ। आप नहीं खड़ा होना चाहते न सही, आपकी जैसी मर्जी़, लेकिन आपको इसमें क्या ताम्मुल है कि जो लोग खड़े हो रहे हैं, उनसे इसकी अच्छी क़ीमत वसूल की जाय। मैं आपसे सिर्फ इतना चाहता हूॅ कि आप किसी पर यह भेद न खुलने दें कि आप नहीं खड़े हो रहे हैं। सिर्फ इतनी मेहरबानी कीजिए मेरे साथ। ख्वाजा जमाल ताहिर इसी शहर से खड़े हो रहे हैं। रईसों के वोट सोलहों आने उनकी तरफ़ है ही, हुक्काम भी उनके मददगार हैं। फिर भी पबलिक पर आपका जो असर है, इससे उनकी कोर दब रही है। आप चाहें तो आपको उनसे दस-बीस हज़ार रुपए महज़ यह ज़ाहिर कर देने के मिल सकते हैं कि आप उनकी खातिर बैठ जाते हैं....नहीं मुझे अर्ज़ कर लेने दीजिए। इस मुआमले में आपको कुछ नहीं करना है। आप बेफ़िक बैठे रहिए। मैं आपकी तरफ़ से एक मेनिफेस्टो निकाल दूंँगा। और उसी शाम को आप मुझसे दस हज़ार नक़द वसूल कर लीजिए। [ १०१ ]मिर्जा़ साहब ने उनकी ओर हिकारत से देखकर कहा -- मैं ऐसे रुपए पर और आप पर लानत भेजता हूँ।

मिस्टर तंखा ने ज़रा भी बुरा नहीं माना। माथे पर बल तक न आने दिया।

'मुझ पर आप जितनी लानत चाहें भेजें;मगर रुपए पर लानत भेजकर आप अपना ही नुक़सान कर रहे हैं।'

'मैं ऐसी रक़म को हराम समझता हूँ।'

'आप शरीयत के इतने पाबन्द तो नहीं हैं।'

'लूट की कमाई को हराम समझने के लिए शरा का पावन्द होने की ज़रूरत नहीं है।'

'तो इस मुआमले में क्या आप अपना फैसला तब्दील नहीं कर सकते?'

'जी नही।'

'अच्छी बात है, इसे जाने दीजिए। किसी बीमा कम्पनी के डाइरेक्टर बनने में तो आपको कोई एतराज़ नहीं है? आपको कम्पनी का एक हिस्सा भी न खरीदना पड़ेगा। आप सिर्फ़ अपना नाम दे दीजिएगा।'

'जी नहीं, मुझे यह भी मंजूर नहीं है। मैं कई कम्पनियों का डाइरेक्टर,कई का मैनेजिंग एजेण्ट, कई का चेयरमैन था। दौलत मेरे पाँव चुमती थी। मैं जानता हूँ, दौलत से आराम और तकल्लुफ़ के कितने सामान जमा किये जा सकते हैं; मगर यह भी जानता हूँ कि दौलत इंसान को कितना खुद-ग़रज़ बना देती है,कितना ऐश-पसन्द,कितना मक्कार,कितना वेगैरत।'

वकील साहब को फिर कोई प्रस्ताव करने का साहस न हुआ। मिर्जा़जी की बुद्धि और प्रभाव में उनका जो विश्वास था, वह बहुत कम हो गया। उनके लिए धन ही सब कुछ था और ऐसे आदमी से, जो लक्ष्मी को ठोकर मारता हो, उनका कोई मेल न हो सकता था।

लकड़हारा हिरन को कंधे पर रखे लपका चला जा रहा था। मिर्जा़ ने भी क़दम बढ़ाया; पर स्थूलकाय तखा पीछे रह गये।

उन्होंने पुकारा -- ज़रा सुनिए, मिर्जा़जी, आप तो भागे जा रहे हैं।

मिर्जा़जी ने बिना रुके हुए जवाब दिया -- वह ग़रीब बोझ लिये इतनी तेजी़ से चला जा रहा है। हम क्या अपना बदन लेकर भी उसके बराबर नहीं चल सकते?

लकड़हारे ने हिरन को एक ठूँठ पर उतारकर रख दिया था और दम लेने लगा था।

मिर्जा साहब ने आकर पूछा -- थक गये, क्यों?

लकड़हारे ने सकुचाते हुए कहा -- बहुत भारी है सरकार !

'तो लाओ, कुछ दूर मैं ले चलूंँ।'

लकड़हारा हॅसा। मिर्जा़ डील-डौल में उससे कहीं ऊँचे और मोटे-ताजे़ थे, फिर भी वह दुबला-पतला आदमी उनकी इस बात पर हॅसा। मिर्जा़जी पर जैसे चाबुक पड़ गया।

'तुम हँसे क्यों? क्या तुम समझते हो, मैं इसे नहीं उठा सकता?'
[ १०२ ]लकड़हारे ने मानो क्षमा माँगी––सरकार आप लोग बड़े आदमी हैं। बोझ उठाना तो हम-जैसे मजूरों ही का काम है।

'मैं तुम्हारा दुगुना जो हूँ।'

'इससे क्या होता है मालिक!'

मिर्जा़जी का पुरुषत्व अपना और अपमान न सह सका। उन्होंने बढ़कर हिरन को गर्दन पर उठा लिया और चले; मगर मुश्किल से पचास क़दम चले होंगे कि गर्दन फटने लगी; पाँव थरथराने लगे और आँखों में तितिलियाँ उड़ने लगीं। कलेजा मज़बूत किया और एक बीस कदम और चले। कम्बख्त कहाँ रह गया? जैसे इस लाश में सीसा भर दिया गया हो। ज़रा मिस्टर तंखा की गर्दन पर रख दूँ, तो मज़ा आये। मशक की तरह जो फ्ले चलते हैं, ज़रा उसका मज़ा भी देखें; लेकिन बोझा उतारें कैसे? दोनों अपने दिल में कहेंगे, बड़ी जवाँमर्दी दिखाने चले थे। पचास क़दम में चीं बोल गये।

लकड़हारे ने चुटकी ली––कहो मालिक, कैसे रंग-ढंग हैं। बहुत हलका है न?

मिर्जा़जी को बोझ कुछ हलका मालूम होने लगा। बोले––उतनी दूर तो ले ही जाऊँगा, जितनी दूर तुम लाये हो।

'कई दिन गर्दन दुखेगी मालिक!'

'तुम क्या समझते हो, मैं यों ही फूला हुआ हूँ!'

'नहीं मालिक, अब तो ऐसा नहीं समझता। मुदा आप हैरान न हों; वह चट्टान है, उस पर उतार दीजिए।'

'मैं अभी इसे इतनी ही दूर और ले जा सकता हूँ।'

'मगर यह अच्छा तो नहीं लगता कि मैं ठाला चलूँ और आप लदे रहें।'

मिर्ज़ा साहब ने चट्टान पर हिरन को उतारकर रख दिया। वकील साहब भी आ पहुंँचे।

मिर्ज़ा ने दाना फेंका––अब आप को भी कुछ दूर ले चलना पड़ेगा जनाब!

वकील साहब की नज़रों में अब मिर्जा़जी का कोई महत्व न था। बोले––मुआफ़ कीजिए। मुझे अपनी पहलवानी का दावा नहीं है।

'बहुत भारी नहीं है, सच।'

'अजी रहने भी दीजिए।'

'आप अगर इसे सौ क़दम ले चलें, तो मैं वादा करता हूँ आप मेरे सामने जो तजवीज़ रखेंगे, उसे मंजूर कर लूंँगा।'

'मैं इन चकमों में नहीं आता।'

'मैं चकमा नहीं दे रहा हूँ, वल्लाह। आप जिस हलके से कहेंगे खड़ा हो जाऊँगा। जब हुक्म देंगे, बैठ जाऊँगा। जिस कम्पनी का डाइरेक्टर, मेम्बर, मुनीम, कनवेसर, जो कुछ कहिएगा, बन जाऊँगा। बस सौ क़दम ले चलिए। मेरी तो ऐसे ही दोस्तों से निभती है, जो मौक़ा पड़ने पर सब कुछ कर सकते हों।'

तंखा का मन चुलबुला उठा। मिर्ज़ा अपने क़ौल के पक्के हैं, इसमें कोई सन्देह न था। [ १०३ ]हिरन ऐसा क्या बहुत भारी होगा। आखिर मिर्ज़ा इतनी दूर ले ही आये। बहुत ज्यादा थके तो नहीं जान पड़ते; अगर इनकार करते हैं तो सुनहरा अवसर हाथ से जाता है। आखिर ऐसा क्या कोई पहाड़ है। बहुत होगा, चार-पाँच पॅसेरी होगा। दो-चार दिन गर्दन ही तो दुखेगी! जेब में रुपए हों, तो थोड़ी-सी बीमारी सुख की वस्तु है।

'सौ क़दम की रही।'

'हाँ, सौ क़दम। मैं गिनता चलूँगा।'

'देखिए, निकल न जाइएगा।'

'निकल जानेवाले पर लानत भेजता हूँ।'

तंखा ने जूते का फीता फिर से बाँधा, कोट उतारकर लकड़हारे को दिया, पतलून ऊपर चढ़ाया, रूमाल से मुंह पोंछा और इस तरह हिरन को देखा, मानो ओखली में सिर देने जा रहे हों। फिर हिरन को उठाकर गर्दन पर रखने की चेष्ठा की। दो-तीन बार ज़ोर लगाने पर लाश गर्दन पर तो आ गयी; पर गर्दन न उठ सकी। कमर झुक गयी, हाँफ उठे और लाश को ज़मीन पर पटकनेवाले थे कि मिर्ज़ा ने उन्हें सहारा देकर आगे बढ़ाया।

तंखा ने एक डग इस तरह उठाया जैसे दलदल में पाँव रख रहे हों। मिर्ज़ा ने बढ़ावा दया––शाबाश! मेरे शेर, वाह-वाह!

तंखा ने एक डग और रखा। मालूम हुआ,गर्दन टूटी जाती है।

'मार लिया मैदान! नजीते रहो पठ्ठे!'

तंखा दो डग और बढ़े। आँखें निकली पड़ती थीं।

'बस,एक बार और जोर मारो दोस्त। सौ क़दम की शर्त ग़लत। पचास क़दम की ही रही।'

वकील साहब का बुरा हाल था। वह बेजान हिरन शेर की तरह उनको दबोचे हुए,उनका हृदय-रक्त चूस रहा था। सारी शक्तियाँ जवाब दे चुकी थीं। केवल लोभ,किसी लोहे की धरन की तरह छत को सँभाले हुए था। एक से पच्चीस हजार तक की गोटी थी। मगर अन्त में वह शहतीर भी जवाब दे गयी। लोभी की कमर भी टूट गयी। आँखों के सामने अँधेरा छा गया। सिर में चक्कर आया और वह शिकार गर्दन पर लिये पथरीली ज़मीन पर गिर पड़े।

मिर्ज़ा ने तुरन्त उन्हें उठाया और अपने रूमाल से हवा करते हुए उनकी पीठ ठोंकी।

'ज़ोर तो यार तुमने खूब मारा; लेकिन तक़दीर के खोटे हो।'

तंखा ने हांफते हुए लम्बी साँस खींचकर कहा––आपने तो आज मेरी जान ही ले ली थी। दो मन से कम न होगा ससुर।

मिर्ज़ा ने हँसते हुए कहा––लेकिन भाईजान मैं भी तो इतनी दूर उठाकर लाया ही था।

वकील साहब ने खुशामद करनी शुरू की––मुझे तो आपकी फ़रमाइश पूरी करनी [ १०४ ]थी। आपको तमाशा देखना था, वह आपने देख लिया। अब आपको अपना वादा पूरा करना होगा।

'आपने मुआहदा कब पूरा किया।

‘कोशिश तो जान तोड़कर की।'

'इसकी सनद नही।'

लकड़हारे ने फिर हिरन उठा लिया था और भागा चला जा रहा था। वह दिखा देना चाहता था कि तुम लोगों ने काँख-कूँखकर दस क़दम इसे उठा लिया, तो यह न समझो कि पास हो गये। इस मैदान में मैं दुर्बल होने पर भी तुमसे आगे रहूँगा। हाँ, कागद तुम चाहे जितना काला करो और झूठे मुकदमे चाहे जितने बनाओ।

एक नाला मिला, जिसमें बहुत थोड़ा पानी था। नाले के उस पार टीले पर एक छोटा-सा पाँच-छ: घरों का पुरवा था और कई लड़के इमली के पेड़ के नीचे खेल रहे थे। लकड़हारे को देखते ही सबों ने दौड़कर उसका स्वागत किया और लगे पूछने––किसने मारा बापू? कैसे मारा, कहाँ मारा, कैसे गोली लगी, कहाँ लगी, इसी को क्यों लगी, और हिरनों को क्यों न लगी? लकड़हारा हूँ-हाँ करता इमली के नीचे पहुंचा और हिरन को उतार कर पास की झोपड़ी से दोनों महानुभावों के लिए खाट लेने दौड़ा। उसके चारों लड़कों और लड़कियों ने शिकार को अपने चार्ज में ले लिया और अन्य लड़कों को भगाने की चेष्ठा करने लगे।

सबसे छोटे बालक ने कहा––यह हमारा है।।

उसकी बड़ी बहन ने, जो चौदह-पन्द्रह साल की थी, मेहमानों की ओर देखकर छोटे भाई को डाँटा––चुप,नहीं मिपाई पकड़ ले जायगा।

मि़र्जा़ ने लड़के को छेड़ा––तुम्हारा नहीं हमारा है।

बालक ने हिरन पर बैठकर अपना क़ब्ज़ा सिद्ध कर दिया और बोला––बापू तो लाये हैं।

बहन ने सिखाया––कह दे भैया,तुम्हारा है।

इन बच्चों की माँ बकरी के लिए पत्तियाँ तोड़ रही थी। दो नये भले आदमियों को देखकर उसने ज़रा-सा घूँघट निकाल लिया और शर्मायी कि उसकी साड़ी कितनी मैली, कितनी फटी, कितनी उटंगी है। वह इस वेष में मेहमानों के सामने कैसे जाय? और गये बिना काम नहीं चलता। पानी-वानी देना है।

अभी दोपहर होने में कुछ कसर थी; लेकिन मिर्ज़ा साहब ने दोपहरी इसी गाँव में काटने का निश्चय किया। गाँव के आदमियों को जमा किया। शराब मँगवायी, शिकार पका, समीप के बाजार से घी और मैदा मँगाया और सारे गाँव को भोज दिया। छोटे-बड़े स्त्री-पुरुष सबों ने दावत उड़ायी। मर्दों ने खूब शराब पी और मस्त होकर शाम तक गाते रहे। और मिर्ज़ाजी बालकों के साथ बालक, शराबियों के साथ शराबी, बूढों के साथ बूढ़े, जवानों के साथ जवान बने हुए थे। इतनी देर में सारे गाँव से उनका इतना घनिष्ठ परिचय हो गया था, मानो यहीं के निवासी हों। लड़के तो उनपर लदे पड़ते थे। [ १०५ ]कोई उनकी फुँदनेदार टोपी सिर पर रखे लेता था, कोई उनकी राइफल कन्धे पर रखकर अकड़ता हुआ चलता था, कोई उनकी कलाई की घड़ी खोलकर अपनी कलाई पर बाँध लेता था। मिर्ज़ा ने खुद खूब देशी शराब पी और झूम-झूमकर जंगली आदमियों के साथ गाते रहे।

जब ये लोग सूर्यास्त के समय यहाँ से विदा हुए तो गाँव-भर के नर-नारी इन्हें बड़ी दूर तक पहुँचाने आये। कई तो रोते थे। ऐसा सौभाग्य उन गरीबों के जीवन में शायद पहली ही बार आया हो कि किसी शिकारी ने उनकी दावत की हो। ज़रूर यह कोई राजा है, नहीं तो इतना दरियाव दिल किसका होता है। इनके दर्शन फिर काहे को होंगे!

कुछ दूर चलने के बाद मिर्जा़ ने पीछे फिरकर देखा और बोले--बेचारे कितने खुश थे। काश मेरी जिन्दगी में ऐसे मौके रोज आते। आज का दिन बड़ा मुबारक था।

तंखा ने वेरुखी के साथ कहा––आपके लिए मुबारक होगा, मेरे लिए तो मनहस ही था। मतलब की कोई बात न हुई। दिन-भर जंगलों और पहाड़ों की खाक छानने के बाद अपना-सा मुँह लिये लौट जाते है।

मिर्ज़ा ने निर्दयता से कहा––मुझे आपके साथ हमदर्दी नही है।

दोनों आदमी जब बरगद के नीचे पहुँचे, तो दोनों टोलियाँ लौट चुकी थीं। मेहता मुँह लटकाये हुए थे। मालती विमन-सी अलग बैठी थी,जो नयी बात थी। राय साहब और खन्ना दोनों भूखे रह गये थे और किसी के मुंह से बात न निकलती थी। वकील साहब इसलिए दुखी थे कि मिर्जा़ ने उनके साथ बेवफ़ाई की। अकेले मिर्ज़ा साहब प्रसन्न थे और वह प्रसन्नता अलौकिक थी।