चतुरी चमार/चतुरी चमार

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चतुरी चमार

चतुरी चमार डाकख़ाना चमियानी, मौज़ा गढ़ाकाला, ज़िला उन्नाव का एक क़दीमी बाशिंदा है। मेरे, नहीं, मेरे पिताजी के, बल्कि उनके भी पूर्वजों के मकान के पिछवाड़े, कुछ फ़ासले पर, जहाँ से होकर कई और मकानों के नीचे और ऊपरवाले पनालों का, बरसात और दिन-रात का, शुद्धाशुद्ध जल बहता है, ढाल से कुछ ऊँचे एक बग़ल चतुरी चमार का पुश्तैनी मकान है। मेरी इच्छा होती है, चतुरी के लिये 'गौरवे बहुवचनम्' लिखूँ, क्योंकि साधारण लोगों के जीवन-चरित या ऐसे ही कुछ लिखने के लिये सुप्रसिद्ध संपादक पं॰ बनारसीदास चतुर्वेदी द्वारा दिया हुआ आचार्य द्विवेदीजी का प्रोत्साहन पढ़कर मेरी श्रद्धा बहुत बढ़ गई है; पर एक अड़चन है, गाँव के रिश्ते में चतुरी मेरा भतीजा लगता है। दूसरों के लिये वह श्रद्धेय अवश्य है; क्योंकि वह अपने उपानह-साहित्य में आजकल के अधिकांश साहित्यिकों की तरह अपरिवर्त्तनवादी है। वैसे ही देहात में दूर-दूर तक उसके मज़बूत जूतों की तारीफ़ है। पासी हफ़्ते में तीन दिन हिरन, चौगड़े और बनैले सुअर खदेड़कर फाँसते हैं, किसान अरहर की ठूँठियों पर ढोर भगाते हुए दौड़ते हैं—कटीली झाड़ियों को दबाकर चले जाते हैं, छोकड़े बेल, बबूल, करील और बेर के काँटों से भरे रुँधवाए बाग़ों से सरपट भगते हैं, लोग जेंगरे पर मड़नी करते हैं, द्वारिका नाई न्योता बाँटता हुआ दो साल में दो हज़ार कोस से ज़्यादा चलता है, चतुरी के जूते अपरिवर्त्तनवाद के चुस्त रूपक-जैसे टस से मस नहीं होते; यह ज़रूर है कि चतुरी के जूते ज़िला बाँदा के जूतों से वज़न में हल्के बैठते हैं; सम्भव है, चित्रकूट के इर्द-गिर्द होने के कारण वहाँ [  ]के चर्मकार भाइयों पर रामजी की तपस्या का प्रभाव पड़ा हो, इसलिये उनका साहित्य ज़्यादा ठोस हुआ; चतुरी वगैरह लखनऊ के नज़दीक होने के कारण नव्वाबों के साए में आए हों। उन दिनों मैं गाँव रहता था। घर बग़ल में होने के कारण, घर बैठे हुए ही मालूम कर लिया कि चतुरी चतुर्वेदी आदिकों से संत-साहित्य का अधिक मर्मज्ञ है, केवल चिट्ठी लिखने का ज्ञान न होने के कारण एक-क्रिय होकर भी भिन्न-फल है—वे पत्र और पुस्तकों के संपादक हैं, यह जूतों का। एक रोज़ मैंने चतुरी आदि के लिए चरस मँगवाकर अपने ही दरवाज़े बैठक लगवाई। चतुरी उम्र में मेरे चाचाजी से कुछ ही छोटा होगा, कई घरों के लड़के-बच्चे-समेत 'चरस-रसिक रघुपति-पद-नेहू' लोध आदिकों के सहयोग से मजीरेदार डफलियाँ लेकर वह रात आठ बजे आकर डट गया। कबीरदास, सूरदास, तुलसीदास, पल्टूदास आदि ज्ञात-अज्ञात अनेकानेक संतों के भजन होने लगे। पहले मैं निर्गुण शब्द का केवल अर्थ लिया करता था, लोगों को 'निर्गुण पद है' कहकर संगीत की प्रशंसा करते हुए सुनकर हँसता था; अब गंभीर हो जाया करता हूँ—जैसी उम्र की बाढ़ के साथ अक़्ल बढ़ती है! मैं मचिया पर बैठकर भजन सुनने लगा। चतुर आचार्य-कंठ से लोगों को भूले पदों की याद दिला दिया करता। मुझे मालूम हुआ, चतुरी कबीर-पदावली का विशेषज्ञ है। मुझसे उसने कहा—"काका, ये निर्गुण-पद बड़े-बड़े विद्वान् नहीं समझते।" फिर शायद मुझे भी उन्हीं विद्वानों की कोटि में शुमारकर बोला—"इस पद का मतलब—" मैंने उतरे गले से बात काटकर उभड़ते हुए कहा—"चतुरी, आज गा लो, कल सुबह आकर मतलब समझाना। मतलब से गाने की तलब चली जायगी।" चतुरी खँखारकर गंभीर हो गया। फिर उसी तरह डिक्टेट करता रहा। बीच-बीच ओजस्विता लाने के लिये चरस की पुट चलती रही। गाने में मुझे बड़ा आनन्द आया। ताल पर तालियाँ देकर मैंने भी सहयोग किया। वे [  ]लोग ऊँचे दर्जे के उन गीतों का मतलब समझते थे, उनकी नीचता पर यह एक आश्चर्य मेरे साथ रहा। बहुत-से गाने आलंकारिक थे। वे उनका भी मतलब समझते थे। रात एक तक मैं बैठा रहा। मुझे मालूम न था कि 'भगत' कराने के अर्थ रात-भर गँवाने के हैं। तब तक आधी चरस भी खतम न हुई थी। नींद ने ज़ोर मारा। मैंने चतुरी से चलने की आज्ञा माँगी। चरस की ओर देखते हुए उसने कहा—"काका, फिर कैसे काम बनेगा?" मैंने कहा—"चतुरी, तुम्हारी काकी तो भगवान् के यहाँ चली गई, जानते ही हो—भोजन अपने हाथ पकाना पड़ता है, कोई दूसरा मदद के लिए है नहीं, ज़रा आराम न करेंगे, तो कल उठ न पायेंगे।" चतुरी नाराज़ होकर, बोला—"तुम ब्याह करते ही नहीं, नहीं तो तेरह काकी आ जायँ हाँ, वैसी तो—" मैंने कहा—"चतुरी, भगवान् की इच्छा।" दुखी हृदय से सहानुभूति दिखलाते हुए चतुरी ने कहा—"काकी बहुत पढ़ी-लिखी थीं। मैंने हसार को कई चिट्ठियाँ उनसे लिखवाई हैं।" फिर चलती हुई चिलम में दम लगाकर, धुवाँ पीकर, सर नीचे की ओर ज़ोर से दबाकर, नाक से धुवाँ निकालकर बैठे गले से बोला—"काकी रोटी भी करती थीं, बर्तन भी मलती थीं और रोज़ रामायण भी पढ़ती थीं, बड़ा अच्छा गाती थीं काका, तुम वैसा नहीं गाते, बुढ़ऊ बाबा (मेरे चाचा) दरवाजे बैठते थे—भीतर काकी रामायण पढ़ती थीं। गजलैं और न-जाने क्या-क्या—टिल्लाना गाती थीं—क्यों काका?" मैंने कहा—"हूँ; तुम लोग चतुरी गाओ, मैं दरवाज़ा बन्द करके सुनता हूँ।"

जगने तक भगत होती रही। फिर कब बंद हुई, मालूम नहीं। जब आँख खुली, तब काफ़ी दिन चढ़ आया था। मुँह धोकर दरवाज़ा खोला, चतुरी बैठा एकटक दरवाज़े की ओर देख रहा था। कबीर[  ]पदावली का अर्थ उससे किसी ने नहीं सुना, मैंने सुबह सुनने के लिये कहा था, वह आया हुआ है। मैंने कहा—"क्यों चतुरी, रात सोए नहीं?" चतुरी सहज-गंभीर मुद्रा से बोला—"सोकर जगे तो बड़ी देर हुई, बुलाने की वजह आया हुआ हूँ।" जिनमें शक्ति होती है, अवैतनिक शिक्षक वही हो सकते हैं। मैंने कहा—"मैं तैयार हूँ, पहले तुम कबीर साहब की कोई उल्टवाँसी सीधी करो।" "कौन सुनाऊँ?" चतुरी ने कहा—"एक से एक बढ़कर हैं। मैं कबीरपंथी हूँ न काका, जहाँ गिरह लगती है, साहब आप खोल देते हैं।" मैंने कहा—"तुम पहुँचे हुए हो, यह मुझे कल ही मालूम हो गया था।" चतुरी आँख मूँदकर शायद साहब का ध्यान करने लगा, फिर सस्वर एक पद गुनगुनाकर गाने लगा, फिर एक-एक कड़ी गाकर अर्थ समझाने लगा। उसके अर्थ में अनर्थ पैदा करना आनन्द खोना था। जब वह भाष्य पूरा कर चुका, जिस तरह के भाष्य से हिंदीवालों पर 'कल्याण' के निरामिष लेखों का प्रभाव पड़ सकता है, मैंने कहा—"चतुरी, तुम पढ़े-लिखे होते, तो पाँच सौ की जगह पाते।" खुश होकर चतुरी बोला—"काका, कहो तो अर्जुनवा (चतुरी का एक सत्रह साल का लड़का) को पढ़ने के लिये भेज दिया करूँ, तुम्हारे पास पढ़ जायगा, तुम्हारी विद्या ले लेगा, मैं भी अपनी दे दूँगा, तो कहो, भगवान् की इच्छा हो जाय, तो कुछ हो जाय।" मैंने कहा—"भेज दिया करो। दिया घर से लेकर आया करे। हमारे पास एक ही लालटेन है। बहुत नज़दीक घिसेगा, तो गाँववाले चौंकेंगे। आगे देखा जायगा। लेकिन गुरु-दक्षिणा हम रोज़ लेंगे। घबराओ मत। सिर्फ़ बाज़ार से हमारे लिये गोश्त ले आना होगा, और महीने में दो दिन चक्की से आटा पिसवा लाना होगा। इसकी मिहनत हम देंगे। बाज़ार तुम जाते ही हो।" चतुरी को इस सहयोग से बड़ी खुशी हुई। एक प्रसंग पर आने के विचार से मैंने कहा—"चतुरी, तुम्हारे जूते की बड़ी तारीफ़ है।" खुश होकर चतुरी बोला—"हाँ, काका, दो साल चलता है।" उसमें एक [  ]दर्द भी दबा था। दुखी होकर कहा—"काका, जिमींदार के सिपाही को एक जोड़ा हर साल देना पड़ता है। एक जोड़ा भगतवा देता है, एक जोड़ा पंचमा। जब मेरा ही जोड़ा मजे में दो साल चलता है, तब ज़्यादा लेकर कोई चमड़े की बरबादी क्यों करे?" कहकर डबडबाई आँखों देखता हुआ जुड़े हाथों सेवई-सी बटने लगा।

मुझे सहानुभूति के साथ हँसी आ गई। मगर हँसी को होंठों से बाहर न आने दिया। सँभलकर स्नेह से कहा—"चतुरी, इसका वाजिब-उल-अर्ज़ में पता लगाना होगा। अगर तुम्हारा जूता देना दर्ज होगा, तो इसी तरह पुश्त-दर-पुश्त तुम्हें जूते देते रहने पड़ेंगे।"

चतुरी सोचकर मुस्कराया। बोला—"अब्दुल-अर्ज़ में दर्ज होगा, क्यों काका?" मैंने कहा—"हूँ, देख लो, सिर्फ़ एक रुपया हक़ लगेगा।"

वक़्त बहुत हो गया था। मुझे काम था। चतुरी को मैंने बिदा किया। वह गम्भीर होकर सर हिलाता हुआ चला। मैं उसके मनोविकार पढ़ने लगा—"वह एक ऐसे जाल में फँसा है, जिसे वह काटना चाहता है, भीतर से उसका पूरा ज़ोर उभड़ रहा है, पर एक कमज़ोरी है, जिसमें बार-बार उलझकर रह जाता है।"

अर्जुन का आना जारी हो गया। उन दिनों बाहर मुझे कोई काम न था, देहात में रहना पड़ा। गोश्त आने लगा। समय-समय पर लोध, पासी, धोबी और चमारों का ब्रह्मभोज भी चलता रहा। घृत-पक्व मसालेदार मांस की खुशबू से जिसकी भी लार टपकी, आप निमंत्रित होने को पूछा। इस तरह मेरा मकान साधारण जनों का अड्डा, बल्कि House of Commons हो गया। अर्जुन की पढ़ाई उत्तरोत्तर बढ़ चली। पहले-पहल जब 'दादा, मामा, काका, दीदी, नानी' उसने [ १० ]सीखा, तो हर्ष में उसके माँ-बाप सम्राट्-पद पाए हुए को छापकर छलके। सब लोग आपस में कहने लगे, अब अर्जुनवा 'दादा-दीदी' पढ़ गया। अर्जुन अपने बाप चतुरी को दादा और माँ को दीदी कहता था। दूसरे दिन उसके बड़े भाई ने मुझसे शिकायत की, कहा—"बाबा, अर्जुनवा और तो सब लिख-पढ़ लेता है, पर भय्या नहीं लिखता।" मैंने समझाया कि किताब में 'दादा-दीदी' से भय्या की इज़्ज़त बहुत ज्य़ादा है; 'भय्या' तक पहुँचने में उसे दो महीने की देर होगी।

धीरे-धीरे आम पकने के दिन आए। अर्जुन अब दूसरी किताब समाप्त कर अपने ख़ानदान में विशेष प्रतिष्ठित हो चला। कुछ नाज़ुकमिज़ाज भी हो गया। मोटा काम न होता था। आम खिलाने के विचार से मैं अपने चिरंजीव को लिवा लाने के लिये ससुराल गया। तब उसकी उम्र ९-१० साल की होगी। सोम या चहर्रुम में पढ़ता था। मेरे यहाँ उसके मनोरञ्जन की चीज़ न थी। कोई स्त्री भी न थी, जिसके प्यार से वह बहला रहता। पर दो-चार दिन के बाद मैंने देखा, वह ऊबा नहीं, अर्जुन से उसकी गहरी दोस्ती हो गई है। मैं अर्जुन के बाप का जैसा, वह भी अर्जुन का काका लगता था। यद्यपि अर्जुन उम्र में उससे पौने-दो-पट था, फिर भी पद और पढ़ाई में मेरे चिरंजीव बड़े थे, फिर यह ब्राह्मण के लड़के भी थे। अर्जुन को नई और इतनी बड़ी उम्र में उतने छोटे से काका को श्रद्धा देते हुए प्रकृति के विरुद्ध दबना पड़ता था। इसका असर अर्जुन के स्वास्थ्य पर तीन ही चार दिन में प्रत्यक्ष हो चला। तब मुझे कुछ मालूम न था, अर्जुन शिकायत करता न था। मैं देखता था, जब मैं डाकखाना या बाहर-गाँव से लौटता हूँ, मेरे चिरंजीव अर्जुन के यहाँ होते हैं, या घर ही पर उसे घेरकर पढ़ाते रहते हैं। चमारों के टोले में गोस्वामीजी के इस कथन को—'मनहु मत्त गजगन निरखि सिंह किसोरहिं चोप'—वह कई बार सार्थक करते देख पड़े। मैं ब्राह्मण-संस्कारों की सब बातों को समझ गया। पर उसे उपदेश क्या देता? [ ११ ]चमार दबेंगे, ब्राह्मण दबाएँगे। दवा है, दोनों की जड़ें मार दी जायँ, पर यह सहज-साध्य नहीं। सोचकर चुप हो गया।

मैं अर्जुन को पढ़ाता था, तो स्नेह देकर, उसे अपनी ही तरह का एक आदमी समझकर, उसके उच्चारण की त्रुटियों को पार करता हुआ। उसकी कमज़ोरियों की दरारें भविष्य में भर जायँगी, ऐसा विचार रखता था। इसलिए कहाँ-कहाँ उसमें प्रमाद है, यह मुझे याद भी न था। पर मेरे चिरंजीव ने चार ही दिन में अर्जुन की सारी कमज़ोरियों का पता लगा लिया, और समय-असमय उसे घर बुलाकर (मेरी ग़ैर-हाज़िरी में) उन्हीं कमज़ोरियों के रास्ते उसकी जीभ को दौड़ाते हुए अपना मनोरंजन करने लगे। मुझे बाद को मालूम हुआ।

सोमवार मियाँगंज के बाज़ार का दिन था। गोश्त के पैसे मैंने चतुरी को दे दिये थे। डाकख़ाना तब मगरायर था। वहाँ से बाज़ार नज़दीक है। मैं डाकख़ाने से प्रबन्ध भेजने के लिए टिकट लेकर टहलता हुआ बाज़ार गया चतुरी जूते की दूकान लिए बैठा था। मैंने कहा—मैं "कालिका (धोबी) भैया आये हुए हैं, चतुरी, हमारा गोश्त उनके हाथ भेज देना। तुम बाज़ार उठने पर जाओगे, देर होगी।" चतुरी ने कहा—"काका, एक बात है, अर्जुनवा तुमसे कहते डरता है, मैं घर आकर कहूँगा, बुरा न मानना लड़कों की बात का।" 'अच्छा' कहकर मैंने बहुत कुछ सोच लिया। बक़र-क़साई के सलाम का उत्तर देकर बादाम और ठण्डाई लेने के लिए बनियों की तरफ़ गया। बाज़ार में मुझे पहचाननेवाले न पहचाननेवालों को मेरी विशेषता से परिचित करा रहे थे—चारों ओर से आँखें उठी हुई थीं—ताज्जुब यह था कि अगर ऐसा आदमी है, तो मांस खाना-जैसा घृणित पाप क्यों करता है। मुझे क्षण-मात्र में यह सब समझ लेने का काफ़ी अभ्यास हो गया था। गुरुमुख ब्राह्मण आदि मेरे घड़े का पानी छोड़ चुके थे। गाँव तथा पड़ोस के लड़के अपने-अपने भक्तिमान पिता-पितामहों को समझा [ १२ ]चुके थे कि बाबा (मैं) कहते हैं, मैं पानी-पाँड़े थोड़े ही हूँ, जो ऐरे-गैरे नत्थू-खैरे सबको पानी पिलाता फिरूँ। इससे लोग और नाराज़ हो गये थे। साहित्य की तरह समाज में भी दूर-दूर तक मेरी तारीफ़ फैल चुकी थी—विशेष रूप से जब एक दिन विलायत की रोटी-पार्टी की तारीफ़ करनेवाले एक देहाती स्वामीजी को मैंने कबाब खाकर काबुल में प्रचार करनेवाले, रामचन्द्रजी के वक़्त के, एक ऋषि की कथा सुनाई, और मुझसे सुनकर वहीं गाँव के ब्राह्मणों के सामने बीड़ी पीने के लिए प्रचार करके भी वह मुझे नीचा नहीं दिखा सके—उन दिनों भाग्यवश मिले हुए अपने आवारागर्द नौकर से बीड़ी लेकर, सबके सामने दियासलाई लगाकर मैंने समझा दिया कि तुम्हारा इस जूठे धुएँ से बढ़कर मेरे पास दूसरा महत्त्व नहीं।

मैं इन आश्चर्य की आँखों के भीतर बादाम और ठण्डाई लेकर ज़रा रीढ़ सीधी करने को हुआ कि एक बुड्ढे पंडितजी एक देहाती भाई के साथ मेरी ओर बढ़ते नज़र आये। मैंने सोचा, शायद कुछ उपदेश होगा। पंडितजी सारी शिकायत पीकर, मधु-मुख हो अपने प्रदर्शक से बोले—"आप ही हैं?" उसने कहा—"हाँ, यही हैं।" पंडितजी देखकर गद्गद हो गये। ठोढ़ी उठाकर बोले—"ओहोहो! आप धन्य हैं।" मैंने मन में कहा—"नहीं, मैं वन्य हूँ। मज़ाक़ करता है खूसट।" पर ग़ौर से उनका पग्ग और खौर देखकर कहा—"प्रणाम करता हूँ पंडितजी।" पंडितजी मारे प्रेम के संज्ञा खो बैठे। मेरा प्रणाम मामूली प्रणाम नहीं—बड़े भाग्य से मिलता है। मैं खड़ा पंडितजी को देखता रहा। पंडितजी ने अपने देहाती साथी से पूछा—"आप बे-मे सब पास हैं?" उनका साथी अत्यन्त गम्भीर होकर बोला—"हाँ! ज़िला में दूसरा नहीं है।" होंठ काटकर मैंने कहा—"पंडितजी, रास्ते में दो नाले और एक नदी पड़ती है। भेड़िए लागन हैं। डंडा नहीं लाया। आज्ञा हो, तो चलूँ—शाम हो रही है।" पंडितजी स्नेह से [ १३ ]देखने लगे। जो शिकायत उन्होंने सुनी थी, आँखों में उस पर सन्देह था; दृष्टि कह रही थी—"यह वैसा नहीं—ज़रूर गोश्त न खाता होगा, बीड़ी न पी होगी, लोग पाजी हैं।" प्रणाम करके, आशीर्वाद लेकर मैंने घर का रास्ता पकड़ा।

दरवाज़े पर आकर रुक गया। भीतर बातचीत चल रही थी। प्रकाश कुछ-कुछ था। सूर्य डूब रहे थे। मेरे पुत्र की आवाज़ आई—"बोल रे, बोल!" इस वीर-रस का अर्थ मैं समझ गया। अर्जुन बोलता हुआ हार चुका था, पर चिरंजीव को रस मिलने के कारण बुलाते हुए हार न हुई थी। चूँकि बार-बार बोलना पड़ता था, इसलिए अर्जुन बोलने से ऊबकर चुप था। डाँटकर पूछा गया, तो सिर्फ़ कहा—"क्या?"

"वही—गुण, बो-ल।"

अर्जुन ने कहा—"गुड़।"

बच्चे के अट्टहास से घर गूँज उठा। भरपेट हँसकर, स्थिर होकर फिर उसने आज्ञा की—"बोल—गणेश।"

रोनी आवाज़ में अर्जुन ने कहा—"गड़ेस।" खिलखिलाकर, हँसकर, चिरंजीव ने डाँटकर कहा—"गड़ेस-गड़ास करता है—साफ़ नहीं कह पाता—क्यों रे, रोज़ दातौन करता है?"

अर्जुन अप्रतिभ होकर, दबी आवाज़ में एक छोटी-सी 'हूँ' करके, सर झुकाकर रह गया। मैं दरवाज़ा धीरे से धकेलकर भीतर खम्भे की आड़ से देख रहा था। मेरे चिरंजीव उसे उसी तरह देख रहे थे, जैसे गोरे कालों को देखते हैं। ज़रा देर चुप रहकर फिर आज्ञा की—"बोल वर्ण।"

अर्जुन की जान की आ पड़ी। मुझे हँसी भी आई, गुस्सा भी लगा। निश्चय हुआ, अब अर्जुन से विद्या का धनुष नहीं उठने का। अर्जुन वर्ण के उच्चारण में विवर्ण हो रहा था। तरह-तरह से मुँह बना रहा था। [ १४ ]पर खुलकर कुछ कहता न था। उसके मुँह बनाने का आनन्द लेकर चिरंजीव ने फिर डाँटा—"बोलता है, या लगाऊँ झापड़। नहा लूँगा, गरमी तो है।"

मैंने सोचा, अब प्रकट होना चाहिए। मुझे देखकर अर्जुन खड़ा हो गया, और आँखें मल-मलकर रोने लगा। मैंने पुत्र-रत्न से कहा—"कान पकड़कर उठो-बैठो दस दफ़े।" उसने नज़र बदलकर कहा—"मेरा क़ुसूर कुछ नहीं, और मैं यों ही कान पकड़कर उठूँ-बैठूँ!" मैंने कहा—"तुम इससे गुस्ताख़ी कर रहे थे।" उसने कहा—"तो आपने भी की होगी। इससे 'गुण' कहला दीजिए, आपने पढ़ाया तो है, इसकी किताब में लिखा है।" मैंने कहा—"तुम हँसते क्यों थे?" उसने कहा—"क्या मैं जान-बूझकर हँसता था?" मैंने कहा—"अब आज से तुम इससे बोल न सकोगे।" लड़के ने जवाब दिया—"मुझे मामा के यहाँ छोड़ आइए, यहाँ डाल के आम खट्टे होते हैं—चोपी होती है— मुँह फदक जाता है वहाँ पाल के आम आते हैं।"

चिरंजीव को नाई के साथ भेजकर मैंने अर्जुन और चतुरी को सांत्वना दी।

कुछ महीने और मुझे गाँव रहना पड़ा। अर्जुन कुछ पढ़ गया। शहरों की हवा मैंने बहुत दिनों से न खाई थी—कलकत्ता, बनारस, प्रयाग आदि का सफ़र करते हुए लखनऊ में डेरा डाला—स्वीकृत किताबें छपवाने के विचार से। कुछ काम लखनऊ में और मिल गया। अमीनाबाद होटल में एक कमरा लेकर निश्चिन्त चित्त से साहित्य-साधना करने लगा।

इन्हीं दिनों देश में आन्दोलन ज़ोरों का चला—यही, जो चतुरी आदिकों के कारण फिस्स हो गया है। होटल में रहकर, देहात से आने[ १५ ]वाले शहरी युवक मित्रों से सुना करता था, गढ़ाकोला में भी आन्दोलन ज़ोरो पर है—छ-सात सौ तक का जोत किसान लोग इस्तीफ़ा देकर छोड़ चुके हैं—वह ज़मीन अभी तक नहीं उठी—किसान रोज़ इकट्ठे होकर झंडा-गीत गाया करते हैं। साल-भर बाद, जब आन्दोलन में प्रतिक्रिया हुई, ज़मींदारों ने दावा करना और रियाया को बिना किसी रियायत के दबाना शुरू किया, तब गाँव के नेता मेरे पास मदद के लिये आए, बोले—"गाँव में चलकर लिखो। तुम रहोगे, तो मार न पड़ेगी, लोगों को हिम्मत रहेगी, अब सख्ती हो रही है।" मैंने कहा—"मैं कुछ पुलिस तो हूँ नहीं, जो तुम्हारी रक्षा करूँगा, फिर मार खाकर चुपचाप रहनेवाला धैर्य मुझमें बहुत थोड़ा है, कहीं ऐसा न हो कि शक्ति का दुरुपयोग हो।" गाँव के नेता ने कहा—"तुम्हें कुछ करना तो है नहीं, बस बैठा रहना है।" मैं गया।

मेरे गाँव की कांग्रेस ऐसी थी कि ज़िले के साथ उसका कोई तअल्लुक़ न था—किसी खाते में वहाँ के लोगों के नाम दर्ज न थे। पर काम में पुरवा-डिविज़न में उससे आगे दूसरा गाँव न था। मेरे जाने के बाद पता नहीं, कितनी दरख़्वास्तें ज़मींदार साहब ने इधर-उधर लिखीं।

कच्चे रंगों से रँगा तिरंगा झंडा महाबीर स्वामी के सामने एक बड़े बाँस में गड़ा, बारिश से धुलकर धवल हो रहा था। इन दिनों मुक़दमेबाज़ी और तहक़ीक़ात ज़ोरो से चल रही थी। कुछ किसानों पर, एक साल के हरी-भूसे को तीन साल की बाक़ी बनाकर, ज़मींदार साहब ने दावे दायर किए थे, जो अपनी क्षुद्रता के कारण ज़मींदार आनरेरी मजिस्ट्रेट के पास आकर किसानों की दृष्टि में और भयानक हो रहे थे। एक दिन, दरख़्वास्तों के फलस्वरूप शायद, दारोग़ाजी तहक़ीक़ात रने आए। मैं मगरायर डाक देखने जा रहा था। बाहर निकला, तो लोगों ने कहा—"दारोग़ाजी आए हैं, अभी रहो।" आगे दारोग़ाजी भी मिल गए। ज़मींदार साहब ने मेरी तरफ़ दिखाकर अँगरेजी में धीरे [ १६ ]से कुछ कहा। तब मैं कुछ दूर था, सुना नहीं। गाँववाले समझे नहीं, दारोग़ाजी झंडे की तरफ़ जा रहे थे। ज़मींदार शायद उखड़वा देने के इरादे लिये जा रहे थे। महावीरजी के अहाते में झंडा देखकर दारोग़ाजी कुछ सोचने लगे, बोले—"यह तो मंदिर का झंडा है।" अच्छी तरह देखा, उसमें कोई रंग न देख पड़ा। ज़मींदार साहब को ग़ौरसे देखते हुए लौटकर डेरे की तरफ़ चले। ज़मींदार साहब ने बहुत समझाया कि यह बारिश से धुलकर सफ़ेद हो गया है, लेकिन है यह कांग्रेस का झंडा। पर दारोग़ाजी बुद्धिमान थे।

महावीरजी के अहाते में सफ़ेद झंडे को उखड़वाकर वीरता प्रदर्शित करने की आज्ञा न दी। गाँव में कांग्रेस है, इसका पता न सब-डिविज़न में लगा, न ज़िले में; थानेदार साहब करें क्या?

उन दिनों मुझे उन्निद्र-रोग था। इसलिये सर के बाल साफ़ थे। मैंने सोचा—"वेश का अभाव है, तो भाषा को प्रभावशाली करना चाहिए; नहीं तो थानेदार साहब पर अच्छी छाप न पड़ेगी। वहाँ तो महावीर स्वामी की कृपा रही, यहाँ अपनी ही सरस्वती का सहारा है।" मैं ठेठ देहाती हो रहा था; थानेदार साहब ने मुझसे पूछा—"आप कांग्रेस में हैं?" मैंने सोचा—"इस समय राष्ट्रभाषा से राजभाषा का बढ़कर महत्त्व होगा।" कहा—"मैं तो विश्व-सभा का सदस्य हूँ।" इस सभा का नाम भी थानेदार साहब ने न सुना था। पूछा—"यह कौन-सी सभा है?" उनके जिज्ञासा-भाव पर गम्भीर होकर नोबुल- पुरस्कार पाए हुए कुछ लोगों के नाम गिनाकर मैंने कहा—"ये सब उसी सभा के सदस्य हैं।" थानेदार साहब क्या समझे; वह जानें। मुझसे पूछा, "इस गाँव में कांग्रेस है?" मैंने सोचा—युधिष्ठिर की तरह सत्य की रक्षा करूँ, तो असत्य-भाषण का पाप न लगेगा।" कहा—"इस गाँव के लोग तो कांग्रेस का मतलब भी नहीं जानते।" इतना कहकर मैंने सोचा—"अब ज़्यादा बातचीत ठीक न होगी।" उठकर खड़ा हो [ १७ ]गया, और थानेदार साहब से कहा—"अच्छा, मैं चलता हूँ। ज़रा डाकख़ाने में काम है। चिट्ठीरसा हफ़्ते में दो ही दिन ग़श्त पर आता है। मेरी ज़रूरी चिट्ठियाँ होती हैं, और रजिस्ट्री, अख़बार, मासिक पत्र-पत्रिकाएँ आती हैं, फिर उस गाँव में हम लोगों की लाइब्रेरी भी है, जाना पड़ता है।" थानेदार साहब ने पूछा—"कांग्रेस की चिट्ठियाँ आती हैं?" मैंने कहा—"नहीं, मेरी अपनी।" मैं चला आया। थानेदार साहब ज़मींदार साहब से शायद नाराज़ होकर गये।

इससे तो बचाव हुआ, पर मुक़द्दमा चलता रहा। ज़मींदार ऑनरेरी मैजिस्ट्रेट ने, जिनके एक रिश्तेदार ज़मींदार की तरफ़ से वकील थे, किसानों पर ज़मींदार को डिगरी दे दी। बाद को चतुरी वग़ैरह की बारी आई। दावे दायर हो गये, अब तक जो सम्मिलित धन मुक़द्दमों में लग रहा था, सब ख़र्च हो गया। पहले की डिगरी में कुछ लोगों के बैल वग़ैरह नीलाम कर लिये गये। लोग घबरा गये। चतुरी को मदद की आशा न रही। गाँववालों ने चतुरी आदि के लिये दोबारा चन्दा न लगाया।

चतुरी सूखकर मेरे सामने आकर खड़ा हुआ। मैंने कहा—"चतुरी, मैं शक्ति-भर तुम्हारी मदद करूँगा।"

"तुम कहाँ तक मदद करोगे काका?" चतुरी जैसे कुएँ में डूबता हुआ उभड़ा।

"तो तुम्हारा क्या इरादा है?" उसे देखते हुए मैंने पूछा।

"मुक़द्दमा लड़ूँगा। पर गाँववाले डर गये हैं, गवाही न देंगे।" दिल से बैठा हुआ चतुरी बोला।

उस परिस्थिति पर मुझे भी निराशा हुई। उसी स्वर से मैंने पूछा—"फिर, चतुरी?"

चतुरी बोला—"फिर छेदनी-पिरकिया आदि मालिक ही ले लें।" [ १८ ] 

मैंने गाँव में कुछ पक्के गवाह ठीक कर दिये। सत्तू बाँधकर, रेल छोड़कर पैदल दस कोस उन्नाव चलकर, दूसरी पेशी के बाद पैदल ही लौटकर हँसता हुआ चतुरी बोला—"काका, जूता और पुरवाली बात अब्दुल-अर्ज़ में दर्ज नहीं है।"

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।