चन्द्रकांता सन्तति १/1.1

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चन्द्रकांता सन्तति
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

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चन्द्रकान्ता सन्तति
पहिला हिस्सा
पहिला बयान

गढ़ के राजा सुरेन्द्रसिंह के लङके बीरेन्द्रसिंह की शादी विजयगढ़ | के महज जयसिह की लडकी चन्द्रकान्ता के साथ हो गई । भारत वाले | दिन तेजसिंह की अाखिरी दिल्ली के सर्वत्र चुनार के महाराज शिवदत्त को मशालची बनना पडा । बहुत की यह राय हुई कि महाराज शिवदत्त | कह दिल भी साफ नहीं हुआ इसलिये अब इनको कैद ही में रखना मुनासिव है, मगर महाराजा सुरेन्द्रसिंह ने इस बात को नापसन्द करके कहा कि 'महाराज शिवदत्त को हम छोड़ चुके हैं, इस वक्त जो तेजसिंह से उनकी लवई हो गई यह हमारे साथ बैर रखने का सबूत नहीं हो सकता, अाखिर महाराज शिवदत्त क्षत्री हैं, जब तेजसिंह उनकी सूरत बन बेइज्जती करने पर उतारू हो गये तो यद्द देख कर भी ये कैसे बरदाश्त कर सकते थे ! में यह भी नहीं कह सकता कि महाराज शिवदत्त का दिल हम लोगों की तरफ से [  ]बिल्कुल साफ हो गया क्योकि अगर उनका दिल साफ ही होता तो इस बात को छिप कर देखने के लिए आने की जरूरत क्या थी तो भी यह मानकर कि तेजसिंह के साथ की इनकी यह लड़ाई हमारी दुश्मनी का मन नहीं कहा जा सकता, हम फिर इनको छोड़ देते हैं। अगर अव भी ये हमारे साथ दुश्मनी करेंगे तो क्या हर्ज है, ये भी मर्द हैं और हम भी मर्द, देखा जायगा। __ महाराज शिवदत्त फिर भी छूट कर न मालूम कहाँ चले गए। बीरेन्द्रसिंह की शादी होने के बाद महाराज सुरेन्द्रसिंह और जयसिंह की राय से चपला की शादी तेजसिंह के साथ और चम्पा की शादी देवीसिंह के साथ की गई । चम्पा दूर के नाते में चपला की बहिन होती थी। ।

न्यासी मब ऐयारों की शादी भई हुई थी। उन लोगो की घर गृहस्थी चुनार ही में थी, अदल बदल करने की जरूरत न पड़ी, क्योंकि शादी होने के थोड़े ही दिन बाद बड़े धूमधाम के साथ कुँवर वीरेन्द्रसिंह चुनार की राजगद्दी पर बैठाए गए और कुंवर छोड राजा कहलाने लगे । तेजतिह उनो राजद वान मुकर र रुए योर इसीलिए सब ऐयारों को भी चुनार ही मेसना पा। मुरेन्द्रसिंह अपने लके को ग्रॉसी के मामने से हटाया 'नहीं चाहते थे, लाचार नीदमा मद्दा फतेविद के सुपुर वे भी चुनार ही में राने लगे, मगर राज्य का काम मिल्कुन वीरेन्द्रहिस के जिम्मे या, हाँ कभी कमी गय दे दे।। ते जनिए के बार जीतसिंह भी बी भाजार के सात गुनार में लगे । महाराज मुरेन्दरिद और जीतसिद में बहुत सुन्नत भीती दमत नि दिन बढ़ता ही गई। रात म जातसिंह इसी गारकि उनती जितनी स्टर की जाना था। थी। नादीगने दाम बाट ता की लार या। मी गानो न भागमा पर सके न रस कागो तरान:दे चन्द्रमाता के बड़े लडके [  ]________________

पहिला हिस्सा | का नाम इन्द्रजीतसिंह, छोटे का नाम अनिन्दसिंह, चपला के लडके का | नाम भैरोसिह, और चम्पा के लक्ष्के को नाम तारासिंह रक्खा गया । जब ये चारो लडके कुछ बड़े श्रौर बातचीत करने लायक हुए तत्र इनके लिखने पढ़ने और तालीम का इन्तजाम किया गया और राजा सुरेन्द्रसिंह ने इन चारो लडको को जीतसिंह को शागिदीं और हिफाजत में छोड़ दिया। । भैरोसिंह और तारासिंह ऐवारी के फन में बड़े ही तेज और चालाक निकले । उनकी ऐयारी का इम्तिहान बराबर लिया जाता था । जैतह का हुक्म था कि भैरोसिंह और तारासिंह बुल ऐयारो को दकि अपने चाप तक को धोखा दे की कोशिश करें और इस तरह पन्नालाल बचे रह ऐयार भी उन दोनों लड़कों को भुलावा दिया करें । धीरे धीरे ये दोनों लडके इतने तेज और चालाक हो गए कि पन्नालाल वरह की ऐयारी इनके सामने व गई । भैरोसिंह ग्रोर तारासिंह इन दोनों में चान्नाक ज्या दे कौन था इसके कहने का कोई जरूरत नहीं, आगे मौका पने पर यापही मालूम हो | जायगा, ह इतना कह देना जरूरी है कि भैभिह को इन्द्रजीतसिंह के । साथ और तारासिंह को आनन्दसिंह के साथ ज्यादे मुहब्ब्त थी । चारो लडके होशियार हुए अर्थात् इन्द्रजीतसिंह भैरसिंह शौर तारा { सिंह की उम्र अट्र ह अटारह वर्ष की श्रौर नन्दसिंह की उम्र पन्द्रह .. वर्ष की हुई ! इतन दिन तक चुनार राज्य में बराबर शान्ति रही बल्कि ", छिनी तकलं फे श्रौर महाराज शिवदत्त की शैतानी एक स्वप्न की तरह सभी के दिल में रह गई ।। इन्द्रज तसिंह को शिकार का शौक बहुत था, जहाँ तक बन पडता वे • रोज शिकार खेला करते ! एक दिन किसी वनरखे ने हाजिर हो कर बयान | किया कि इन दिनो फलाने जंगल की शोभा खूब बढ़ो चढो है और । शिकारी जानवर भी इतने झाए हुए हैं कि अगर वहाँ महीने भर टिक कर [  ]________________

चन्द्रकान्ता सन्तति शिकार खेला जाय तो भी जानवर न घटें और कोई दिन खाली भी न जाय | यह सुन दोनों भाई बड़े खुश हुए। अपने बाप राजा बीरेन्द्रसिंह ते शिकार पेलने की इजाजत माँगी और कहा कि “हम लोगों का इरादा झाट दस दिन तक जंगल में रद्द कर शिकार खेलने का है । इसके जवाब में राज चोरेन्द्रसिंह ने कहा कि इतने दिनो तक जगल में रह कर शिकार पैलने का हुक्म में नहीं दे सकता, हाँ अपने दादा से पूछोअगर चे हुक्म है तो कोई हर्ज नहीं है। यह सुन इन्द्रजीतसिंह अौर अानन्दसिंह ने अपने दादा महाराज सुरेन्द्र के पास जाकर अपना मतलन अर्ज किया । उन्होंने खुशी से मन्जूर किया और हुक्म दिया कि शिकीरगाह में इन दोनों के लिए खेमा उदा किया जाय और जब तक वे शिकारगाह में रहे पाँच सौ फौज बरावर इनके साथ रहे ! शिफार पेलने का हुक्म पा इन्द्र जीतसिंह शौर श्रीनन्दसिंह बहुत पुग्न हुए श्रीर अपने दोनों ऐयार भैरोसिंह और तारासिंह को साथ ले मय पाँच मी फोन के चुनार से रवाना हुए। नुनार से पाँच कम दक्षि एक घने और भयानक जंगल में पहुँच कर उन्होंने देश ४ाला ! दिन थोटा बाकी रह गया था इसलिए यह राय गरि 'प्राज्ञ श्रीराम करे, कल सवेरे शिकार का बन्दोवस्त किया जायगा, मगर वनरम्प 5 ॐा शेर का पता लगाने के लिए, आज ही कर दिया जाय । जगली की हिफाजत के लिए जो नौकरे रहते हैं उनको बनरखे ने १ । शिर पिलाने का काम देनरी हा का है। ये लोग जगल * पून घूम र श्री शिकारी जानवरों के पैर का निशान दे और उस -गज पर जा जा जर पता लगाते हैं कि शेर इत्यादि कोई चिंकारा जानपर म जान ५१ ना, या प्रगर है तो कहाँ पर है । वनरखो का | ":{" ::रना ना । टप झा व उत्रर कि फलानो हो। ः । नागः या २५ ।। [  ]________________

पहिला हिस्सा भैंसा + बाधने की कोई जरूरत नहीं, शेर का शिकार पैदल ही किया जायगा । । दूसरे दिन सवेरे मनरखों ने हाजिर होकर अर्ज किया कि इस जुगल | में शेर तो है मगर रात हो जाने के सबब हम लोग उन्हें अपनी अॉखों से न दे सके, अगर आज का दिन शिकार न खेला जाय तो हम लोग देख कर उनका पता दे सकेंगे ।। | आज के दिन भी शिकार खेलना बन्द किया गया । पहर भर दिन बाकी रहे इन्द्रजीतसिंह और शानन्दसिंह घो पर सवार हो अपने दोनों + खास शेर के शिकार मै भैसा बाँधा जाता है । भैंसा बाँधने के दो कारण हैं । एक तो शिकार को अटकाने के लिए अथात् जब बनरखे आकर खवर दें कि फलाने जगले में शेर है, उस वक्त या कई दिनों तक अगर शिकार खेलने वाले को किसी कारण शिकार खेलने की फुरसत न हुई और शेर को अटकाना चाहा तो भंसा बाँधने का हुक्म दिया जाता है । बनरले भैसा ले जाते हैं और जिस जगह शेर का पता लगता हैं उसके पास ही किसी भयानक और सायेदार जगल या नाले में मजबूत लूटा बाड़ कर भैंसे को वाँध देते हैं । जब शेर भ से की वं पाता है तो वह आता है और भैंसे को खा कर उस जगल में कई दिनों तक मस्त और वैफिक्र पड़ा रहता है । इस वकीब से दो चार भैंसा देकर महेनो श्र को अटका लिया जाता है। शेर को जब तक खाने के लिए मिलता है वह दूसरे जगल में नहीं जाता | शेर का पेट अगर एक दफे खूब भर जाये - तो उसे सात आठ दिनों तक खाने की परवाह नहीं रहता 1 खुले भेसे को शेर जल्दी नहीं मार सकता है। - दूसरे जर मचान बॉध कर शेर का शिकार किया चाहते है या एक जंगल से दूसरे जंगल में अपने सुबीते के लिए उसे ले जाया चाहते हैं तेव ३ भो इसी तरह भैसे वय वव कर हटाते ले जाते है | इसको शिकार लोरा 'भर' भी कहते हैं । [  ]
ऐयारों को साथ ले घूमने और दिल बहलाने के लिए डेरे से बाहर निकले और टहलते हुए दूर तक चले गए।

ये लोग धीरे धीरे टहलते और बातें करते जा रहे थे कि बायें तरफ से शेर के गरजने की आवाज आई जिसे सुनते ही चारो अटक गए और धूम कर उस तरफ देखने लगे जिधर से वह आवाज आई थी।

लगभग दो सौ गज की दूरी पर एक साधू शेर पर सवार जाता दिखाई पडा जिसकी लम्बी लम्बी और घनी जटाये पीछे की तरफ लटक रही थी एक हाथ में त्रिशूल दूसरे में शख लिए हुए था। इसकी सवारी का शेर बहुत बड़ा था और उनके गर्दन के बाल जमीन तक पहुंच रहे थे।

इसके आठ दस हाथ पीछे एक शेर और जा रहा था जिसकी पीट पर आदमी के बदले बोझ लदा हुया नजर आया। शायद यह असबाब उन्हीं शेर सवार महात्मा का हो।

शाम हो जाने के सबब साधू की सूरत साफ मालूम न पडी तौ भी उसे देव दन चारो को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और कई तरह की बाते सोचने लगे।

इन्द्र०। इस तरह शेर पर सवार हो कर घूमना मुश्किल है।

आनन्द०। कोई अच्छे महात्मा मालूम होते।

मैने०। पीछे वाने शेर को देखिए जिस पर असबाब लदा हुया है किस त भेद की तरह सिर नीचा किए जा रहा है।

तास०। शेरों को बस में कर लिया है।

इन्द्र०। जी चाहता है उनके पास चल कर दर्शन करें।

आनन्द०। अच्ची बात है, चलिए पास से दरों कैसा शेर है।

साग०। बिना पास गए महात्मा और पाखण्टी में भेद भी न मालूम होगा।

भैगे०। शाम तो हो गई है, और चलिए आगे से बढ़ कर रोकें।

आनन्द०। आगे से चल कर गरने से बुरा न मानें। [  ]________________

पहिला हिस्सा भैरो० } हम ऐयारों का तो पेशा ही ऐसा है कि पहले तो उनका साधू ना ही विश्वास न कर सकवै ! । इन्द्र० । अाप लोगों की क्या बात है जिनकी मूछ मेरो ही मुई। तो है, खैर चलिए तो सही । भै३० ३,लए ।। | चारो अामा अागे से घूम कर उन अरबाजी के सामने गए ? शेर र सवार जा रहे थे । इन लोगों को अपने पास अ.ते देख बाबाजी स्क ए ! पहिले तो इन्द्रजीतसिह और श्रानन्दसिह का ६ शेर को देख र अ मगर पिर ललकारने से आगे बढ़ा । थो दूर जाकर दोनों राई घोड़े के ऊपर से उतर पड़े, भैरोसिह और तारासिह में दोनों घो। को पेद से बाँध दिया। इसके बाद पैदल ही चारो अादमी महात्मा के इस पहुँचे ।। | बाबाजी० } { दूर ही से ) यो राजकुमार इन्द्रजंतसिंह और निन्दसिंह, कहो कुशल तो है ? इन्द्र० } ( प्रणाम करके ) आपकी कृपा से सब मंगल है । | बा० । ( भैरोसिंह और तारासिंह की तरफ देख कर ) को भैरो और तार, अच्छे हौ ? दोनो० ( पृथ जोड़ कर ) यापकी दया से । चा० । राजकुमार, मैं खुद तुम लोगों के पास जाने को था क्योंकि मने शेर के शिकार करने के लिए इस जल में डेरा डाला हैं । मैं रिनार जा रहा हूँ, घूमता फिरता इस जगल में भी र पचा | यह ल अच्छी मालूम होता है इसलिए दो तीन दिन तक यहाँ रहने का । चार है, कोई अच्छी जगह देख कर धूनी लगाऊँगा । मैरे साथ सवारी र अमात्र लादने के कई शोर हैं, इसलिए कहता हूँ कि धासे में मेरे सी शेर के मत मारना नहीं तो मुश्किल होग, सैक शेर पच कर हारे लश्कर में हलचल मचा डानेंगे और बहुत की जान जाय । [  ]________________

च द्रकान्ता सन्तति तुम प्रतापी राजा सुरेन्द्रसिंह * के लड़के ही इसलिए तुम्हें पहले ही समझा देना मुनासिव है जिसमें किसी तरह का दुःख न हो । इन्द्र० । महाराज में कैसे जानें गई कि यह श्रापका शेर है। ऐसा ही है तो शिकार न पैलूगा । बाथा ० । नहीं नहीं, तुम शिकार खेली, मगर मेरे शेरों को मत मारो । इन्द० | मगर यह कैसे मालूम हो कि फलाना शेर श्रीपका है। बाबा० । टेप में अपने शेरों को बुलाता हूँ, पहिचान ले । बाबाजी ने शंख बजाया । भारी शख की विजि चारो तरफ जंगल में गुज गई और हर तरफ से गुर्राहट की आवाज आने लगी । थोडी हो देर में इधर उधर से दौडते हुए पॉच शेर श्री श्री पहुचे । ये चारो दिलावर शौर बहादुर ये, अगर कोई दूसरा होता तो डर से उसकी जान निकल जाती । इन्द्रजीतसिह और आनन्दसिंह के घोड़े शेरों को देख उछनने कूदने लगे मगर रेशम को मजबूत बागडोर से बंधे हुए थे इससे माग न मके } इन शेरों ने श्राकर बडी उधम मचाई, इन्द्रजातसिंह वगैह को दे गरजने कूदने अौर उछलने लगे, मगर बाबाजी के डॉटते ही मी ठण्डे रो सिर नीचा कर भइ बकरी की तरह खड़े हो गए। यत्रि० । दे। इन शेरी को पहिचान लो, अभी दो चार शौर है, माग होता है उन्होंने शर ीं अविाज नहीं सुनी । खेर अभी तो * गं जगत् मे हैं, उन बाकी शेरों को भी दिखला दूंगा, कल भर • । गदा श्रीर त्रुट क्यो । | भो० } फिर अपने मुलत कहाँ होगी १ अापकी धूनी किस जग गई है। | जावा० | मुझे तो यही जग आनन्द की मालूम होती है, के : ना सुना होगा । | गाध माग भूल गए, वरिन्द्रसिद्द की जगह सुरेन्द्रसिंह का ना [ १० ]चाचीजी शेर से ना उत हे गौर जितने शेर उस जग्इ आए थे वे मन बावाजी चार तरफ धूने तथा मुहब्बत से उनके बदन को चाटने और सूधन लगे।व चार!दिम।धोडी देर तक वह और अटकने के बाद वविाजी से विदा है। अमे में शाये।

जब सन्नाटा हुआ भैरोसिंह ने इन्द्रजःतभिह से कहा,"मेरे दिमाग में इम समय बहुत सी बातें घूम रही हैं।मैं चाहताहूँ कि हम लोग चारों|आदिमी एक जगह बैठ कुमेटी कर कुछ राय पक्की करें।

इन्द्रजीतसिंह ने कहा,अच्छा आनन्द और तारा को भी इसी जगह बुला लो।

भैरोसिंह गये और आनन्दसिह तथा तारासिंह को उसी जगह बुला लाए।उस वक्त सिवाय इन चारा के उस खेमे में और कोई न रहा।भैरोसिंह ने अपने दिल को हालै कद्दा जिसे सभी ने बड़े गौर से सुना,इसके बाद पहर भर तक कुमेटी करके निश्चय कर लिया कि क्या करना चाहिए।

यह कुमेटी कैसी भई?भैरोसिंह का क्या इरादा हुशा श्रौर उन्होंने क्या निश्चय किया है?तथा रात भर वे लोग क्या करते रहे है?इसके कहनेकी कोई जरूरत नहीं, समय पर सब कुछ खुन जाय।

सवेरा होते ही चारो आदमी खेमे के बाहर हुए और अपनी फौज के सदर कञ्चनसिंह को बुला कुछ समझा बुझा बावाजी की तरफ रवाना हुए । जव लश्कर से दूर निकल गए,नन्दसिंह भैरोसिंह और तारासिंह ता तेजी के साथ चुचार की तरफ रवाना हुए, और अकले इन्द्रजीतसिंह शबाजी से मिलने के लिए गए।

बाबाजी शो के बीच में धूनी रमाए बैठे थे।दो शेर उनके चारो। तरफ घूम घूम कर पहरा दे रहे थे।इन्द्रजीतसिंह ने पहुँच कर प्रणाम किया और चार्ज ने प्रार्शीवाद देकर चैठने के लिए कहा।

इन्द्रजतसिंह ने बनिस्बत कल के आज दो शेर और ज्यादै देखे।थोड़ी देर चुप रहने के बाद बातचीत होने लगी है।

[ ११ ]बाबा कही इन्द्रजीतसिंह,तुम्हारे भाई और दोनों ऐयार कहाँ रह गए,वे नहीं आए?

इन्द्र०।हमारे छोटे भाई आनन्द को बुखार आ गया।इस सबब से वह न या सका।उसी की हिफा नत में दोनों ऐयारों को छोड मैं अकेला आपके दर्शन को आया हूँ!

वावा०।अच्छा क्या हर्ज है,आज शाम तक वह अच्छे हो जायेंगे,कहो आज कल तुम्हारे राज्य में कुशल तो है?

इन्द्र०।आपकी कृपा से सब ग्रानन्द है।

वावा०।बेचारे वीरेन्द्रसिंह ने भी बड़ा ही कष्ट पायो!खैर जो हो दुनिया।उनका नाम रह जायगा।इस हजार वर्ग के अन्दर कोई ऐसा सजा नहीं है जिसने तिलिस्म ताड़ हो!एक और तिलिस्म है,असल में वही भरी और तारीफ के लायक है।।

एन्द्र०।पिताजी तो कहते हैं कि वह तिलिस्म तेरे हाथ से टूटेगा।

वावा०।हाँ ऐसा ही होगा,वह जरूर तुम्हारे हाथ से फतह होगा,सभे केाई मन्दे नए।

इन्द्र०।देखें कर तक ऐसा होता है,उसकी ताली का तो कही पता ही नहीं लगता।

बावा°। ईश्वर चाहेंगा तो एक ही दो दिन तक तुम उस तिलिस्म के होने में हाथ लगा दोगे।उस तिलिस्म की ताली में हूं।कई पुश्त ने हम लोगों उस तिलिस्म के दागी होते चले आए हैं।मेरे परदादा दाट श्री बाप उमी तिलिस्म के दारोगा,जब मेरे पिता का देहान्तने लगा तो हैन को ताली मेरे सुपुर्द कर मुझे उसका दारोगा मुररर:दिइ।अप वर उतर आ गया है कि में उस ताला तुम्हारे या वह निन्मि तुग्गु नाम पर वाया गया है और मित नुरा’ र ? उमा मानिस' नद्दा पन मना है। • १ २ १ देर का है ? [ १२ ]पहिला हिस्सा।वाचा।कुछ नहीं,कल से तुम उसके तोडने में हाथ लगा दो,मगर एक बात तुम्हारे फायदे की हम कहते हैं।

इन्द्र०।वृह क्या?

वावा॰तुम उसके तोड़ने में अपने भाई अनिन्द को भी शरीक कर लो,ऐसा करने से दौलत भी दूनी मिलेगी और नास मी दोनों भाइयों की दुनिया में हमेशा के लिए बना रहेगा।

इन्द्र०।उसकी तो तबीयत ही ठीक नहीं!

वाचा॰।क्या हर्ज है, तुम अभी जाकर जिस तरह बने उसे मेरे।पास ले आओ,मैं बात की बात में उसको चगा कर दूगा!श्रीज ही तुम लोग मेरे साथ चलो,जिसमें कल तिलिस्म टूटने में हाथ लग जाय,नहीं तो साल भर फिर मौका न मिलेगा।

इन्द्र०।बावाजी, शअसल तो यह है कि मैं अपने भाई की बढ़ती नहीं चाहता,मुझे यह मजूर नहीं कि मेरे साथ उसका भी नाम हो।

वावा॰।नहीं नहीं,तुम्हें ऐसा न सोचना चाहिए,दुनिया में भाई से बढ़ के कोई रन नहीं है।

इन्द्र०।जी हाँ,दुनिया में भाई से बढ़ के रन नहो तो भाई से बढ़ के कोई दुश्मन भी नहीं,यह बात मेरे दिल में ऐसी वैठ गई है कि उसके हटाने के लिए ब्रह्मा भी कर समझा बुझा तो भी कुछ नतीजा न निकलेगा।

बाबा०।विना उसको साथ लिए तुम तिलिस्म नहीं तोड़ सकते।

इन्द्र०!( हाथ जोड़ कर ) बस तों जाने दीजिए,माफ कीजिए,मुझे तिलिस्म तोडने की जरूरत नहीं!

वावा॰। क्या तुम्हें इतनी जिद्द है?

इन्द्र०।में कह जो चुकी कि ब्रह्मा भी मेरी राय पलट नहीं सकते।

वावा०।खैर तुम्हीं चलो,मगर इसी वक्त चलना होगा।

इन्द्र०।हाँ हाँ,मैं तैयार है,अभी चलिए । [ १३ ]नावाजी उसी समय उठ खड़े हुए,अपनी गठडी मुठडी चाध एक शैर पर लाद दिया तथा दूमरे पर आप सवार हो गए।इसके बाद एक गैर की तरफ देख कर कहा, 'इसा गङ्गाराम, यहाँ तो आओ।”वह शेर नुरत इनके पास आया ।बाबा जी ने इन्द्रजीतसिंह से कहा,“तुम दुग्न पर मार हो लो।"इन्द्रजीतसिंह भी कूद कर सवार हो गए और था गज के साथ साथ दक्षिण का रास्ता लिया!बावाजी के साथ शेर भी कई प्रागे कोई पीछे कोई ये कोई दाहिने हो बाबाजी के साथ साथ जाने लगे।

सब शेर तो पीछे रह गए मगर दो शेर जिन पर बावाजी श्रीर इन्द्र जीनसिंह मवार थे झागे निकल गएदो पहर तक ये दोन चल गए!जब दिन दुनने लगा वावज ने इन्द्र तमिह से कहा,'यह टड्र कर कुछ ग्या पी लेना चाहिए।इसके जवाब में कुमार चले,"बाबा,खाने पीन की कोई जरूरत नहीं।अभी महात्मा हा ठहरे,मुझे भूख ही नई लगी, फिर अटकने की क्या जरूरत है।जिस काम के पीछे पड़े उसमे मुला ऊना ठीकनहीं।

बाबाजी न कर, शाबाश,तुम बड़े बहादुर,अगर तुम्हारा दिल इतना मजा न होता तो तिलिस्म तु हारे ही हाथ से टूटेगा ऐसा‌ लान न ह जाते,खेर चलो!

कुछ दिन फ{ द्दा जब ये दान एक पहा के नाचे पहुंचे 1 बावज ने श ३ वजाया 1 धंदा हूँ दर में चारो तरफ से संकः पहाडा बुटेर द्दा * वर लिए आते दिपाई पई श्रीर में हैं। बीस पचास अदिमय मा५ लिए पूरा तप में ग्राती या राजा शिवदत्त नजर पजिरे * :17 िन ऊचा मायाज में कहा, “इन । म पहिचान *, * नाराज शिवदत्त । न तस्यार मेरे कमरे में लटका हुई। * 1 दादा नी म न तन्त्र र मुझे दियो कर कहा था कि हमारे सत्र में र न प दिन * | श्री श६, काश्ते में चावाज [ १४ ]पेयार ही निकले,जो सोचा था वही हु।खैर या हर्च है, इन्द्रचीतसिंह को गिरफार कर लेना जरा टेढ़ी खीर है।।

शिवदत्त॰।(पास पहुँच कर)मेरा श्राधा कलेजा तो ठण्डा हुआसंगर अफसोस तुम दोनों भाई हाधे न आएँ।

इन्द्रजीत।जी इस भरोसे न रहिएगा कि इन्द्रजीतसिंह को फँसा लिया, उनकी तरफ बुरा निगाह से देखना भी काम रखता है!

ग्रन्थकर्ता०।भला इसमें भी कोई शक है!!

दूसरा बयान।

।इस जगह पर थोडा सा हाल महाराज शिवदत्त की भी बयान करना मुनासिब मालूम होता है।महाराज शिवदत्ते को हर तरह से कु अर रेन्द्रसिंह के मुकाले में हार मानना पटी।लाचार उस शहर छोड़ दियाऔरअपने कई पुन खैखाह को साथ ल चुनार के दक्खिने का तरफ रवाना हूं।

चुनार से थोड़े ही दूर दक्खन लम्बा चौडा घना जगल है। यह विन्ध्य के पहाड़ जंगल का सिलसिला राव सरोज सुगुजा श्रौर सिंगरोल होता दुःश्रा सैकड़ों की तक चला गया है जिसमें बड़े बड़े पहाड धटया दरें शीर खोह पाते हैं।बीच बीच में दो दो चार चार कोस क फासल पर गाँव भी अवाद है।वही कहा पहाड़ो पर पुराने जमान के टूटे फूटे अलीशान किले अभी तक दिखाई पड़ते हैं।चुनार से आठ केस दक्खन अहरौरा के पास पहाई पर पुरान जमाने के एक वदि किले का निशान व्याज भी देखने से चित्त का भाव बदल जाता हैं।गौर करने से मालूम होता है कि जब यह किला दुरुस्त होगा तो तीन कोख से ज्यादं लम्बी चौडी जमीन इसने घेरं होगी,खीर में यह किला काशी के मशहूर राजा चेतसिंह के अधिकार में थी। इन्ही जगलों में अपना रानी और कई खैरखाही को मय उनकी श्रीरतो और बाल बच्चो के साथ लिए