चन्द्रकांता सन्तति 3/10.4

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चंद्रकांता संतति भाग 3  (1896) 
द्वारा देवकीनंदन खत्री
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रात पहर भर से ज्यादा जा चुकी है। आज की रात मामूली से ज्यादा अंधेरी मालूम होती है क्योंकि आवोताव से चमक लेकर पाँचों सवारों में गिनती करने वाले तारों की थोड़ी रोशनी को दिन भर तेजी के साथ चले हुए हवा के झपेटों की सहायता से ऊपर की तरफ उठे हुए गर्द-गुबार ने अपना गेंदला शामियाना खींचकर जमीन तक आने से रोक रखा है। दिन भर के काम-काज से थके और आँधी के झोंकों तथा गर्द-गुबार से दुःखी आदमी इस समय सड़कों पर घूमना पसन्द न करके अपने-अपने झोंपड़ों, मकानों और महलों में आर कर रहे हैं इसलिए काशीपुरी के बाहरी प्रान्त की सड़कों पर कुछ विचित्र-सा सन्नाटा छाया हुआ है। केवल एक आदमी शहर की हद पर बहने वाली बर्ना नदी पार करके त्रिलोचन महादेव की तरफ तेजी के साथ बढ़ा चला जाता है और उसे टोकने या देखने वाला कोई भी नहीं। यह आदमी आधी रात के पहले ही मनोरमा के मकान के पास जा पहुँचा, जिसमें इस समय केवल नागर रहती थी। यहाँ पहुँच वह सीधे फाटक की तरफ चला गया। देखा कि फाटक बन्द है मगर उसकी छोटी खिड़की अभी तक खुली हुई है और उस राह से झाँक कर देखने से मालूम होता है कि भीतर की तरफ दो आदमी टहल-टहल कर पहरा दे रहे हैं।

वह आदमी बेधड़क छोटी खिड़की की राह से भीतर घुस गया और दोनों पहरा देनेवालों से बिना साहब-सलामत किये या बिना कुछ कहे अपनी जेब टटोलने लगा। एक पहरे वाले ने ताज्जुब में आकर उससे पूछा, "तुम कौन हो और क्या चाहते हो?" इसके जवाब में आगन्तुक ने एक चिट्ठी उसके हाथ पर रखकर कहा, “यह चिट्ठी बहुत जल्द उसके हाथ में दो, जो इस मकान में सबका सरदार मौजूद हो।"

सिपाही-पहले तुम अपना नाम बताओ और यह कहो कि तुम किसके भेजे हुए आये हो और इस चिट्ठी का मतलब क्या है?

आगन्तुक -तुम अपनी बातों का जवाब मुझसे नहीं पा सकते और न इस चिट्ठी के पहुँचाने में विलम्ब कर सकते हो, ताज्जुब नहीं कि तुम सफाई के साथ यह कहो कि मकान मालिक इस समय आराम के साथ खर्राटे ले रहा है और हम उसे जगा नहीं सकते मगर याद रखो कि यह समय बड़ा ही नाजुक बीत रहा है और एक पल भी व्यर्थ जाने देने लायक नहीं है, अगर तुम मुझसे कुछ पूछताछ करोगे तो मैं बिना कुछ जवाब दिये यहाँ से चला जाऊँगा और इसका नतीजा बहुत बुरा होगा, क्योंकि सवेरा होने से पहले इस मकान में रहने वाले जितने हैं सब-के-सब यमलोक को सिधार जायेंगे और सब कसूर तुम्हारा ही समझा जायेगा। खैर मुझे इन बातों से क्या मतलब, लो मैं जाता हूँ।

सिपाही--सुनो-सुनो, लौटे क्यों जाते हो, मैं यह चिट्ठी अभी अपने मालिक के पास पहुँचाए देता हूँ, मगर यह तो बताओ कि ऐसी कौन-सी आफत आने वाली है और उसका क्या सबब है?

आगन्तुक-मैं पहले ही कह चुका हूँ कि तुम्हारी बातों का कुछ जवाब नहीं [ ८९ ] दिया जायेगा, तुमने पुनः पूछने में जितना समय नष्ट किया, समझ रखो कि उतने समय में दो आदमियों का बेड़ा पार हो गया। बस मैं फिर कहता हूँ कि अभी चले जाओ, मैं जो कुछ कहता हूँ तुम लोगों के भले ही के लिए कहता हूँ।

इस आये हुए आदमी की धमकी लिए हुए जल्दबाजी ने उस पहरे वाले को बल्कि और सिपाहियों को भी जो उस समय वहाँ मौजूद थे और उसकी बातें सुन रहे थे बदहवास कर दिया—फिर उससे कुछ पूछने की हिम्मत किसी की न पड़ी। वह सिपाही जिसके हाथ में चिट्ठी दी गई थी कुछ सोचता-विचारता बाग के अन्दर वाले मकान की तरफ रवाना हुआ और नजरों से गायब होकर आधे घण्टे तक न आया। तब तक वह आदमी जो चिट्ठी देने आया था फाटक ही में एक किनारे चुपचाप खड़ा रहा। सिपाहियों ने कुछ पूछना चाहा, मगर उसने किसी की बात का जवाब न दिया और सिर नीचा किये इस ढंग से जमीन को देखता रहा जैसे बड़े गौर और फिक्र में कुछ विचार कर रहा हो।

आधे घण्टे के बाद जब वह सिपाही लौट कर आया तो उसने आगन्तुक से कहा, "चलिए आपको नागर जी बुला रही हैं।"

आगन्तुक-(ताज्जुब से) नागरजी! क्या इस समय इस मकान में वही मालिक की तौर पर हैं? मैं तो मायारानी से मिलने की आशा रखता था!

सिपाही-इस समय नागरजी के सिवाय यहाँ और मालिक लोग नहीं हैं। क्या तुम्हारी चिट्ठी इस लायक न थी कि नागरजी के हाथ में दी जाती? क्योंकि मैंने देखा कि चिट्ठी पढ़ने के साथ ही फिक्र और तरवुद ने उनकी सूरत बदल दी।

आगन्तुक-नहीं कोई विशेष हानि नहीं है, खैर चलो मैं चलता हूँ।

वह आगन्तुक सिपाही के पीछे-पीछे उस मकान की तरफ रवाना हुआ, जो इस बाग के बीचोंबीच में था और क्यारियों के बीच बनी हुई बारीक सड़कों पर घूमता हुआ मकान के पिछली तरफ जा पहुँचा। इस जगह मकान के दोनों तरफ दो कोठरियाँ थीं, दाहिनी तरफ वाली कोठरी तो बन्द थी मगर बायीं तरफ वाली कोठरी का दरवाजा खुला हुआ था जौर भीतर चिराग जल रहा था। दोनों आदमी उस कोठरी के भीतर गये। वहाँ ऊपर की छत पर जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी थीं, उसी राह से दोनों ऊपर की छत पर चले गये और एक कमरे में पहुँचे जहाँ सिवाय सफेद फर्श के और कोई सामान जमीन पर न था। सामने की दीवार में दो जोड़ी दीवारगीरों की थीं जिनमें मोटी-मोटी मोमबत्तियां जल रही थीं और उनकी रोशनी से इस कमरे में अच्छी तरह उजाला हो रहा था। इस कमरे में बायीं तरफ एक कोठरी थी जिसके दरवाजे पर लाल साटन का पर्दा पड़ा हुआ था। वह आदमी उसी पर्दे की तरफ मुँह करके खड़ा हो गया, क्योंकि इस कमरे में सिवाय इन दो आदमियों के और कोई भी न था।

इन दोनों आदमियों को बहुत थोड़ी देर तक वहाँ खड़े रहना पड़ा और इसी बीच में उस आदमी को जो चिट्ठी लाया था मालूम हो गया कि पर्दे के अन्दर से किसी ने उसे अच्छी तरह देखा है। थोड़ी देर में पर्दे के अन्दर से दो लौंड़ियाँ चुस्त और साफ पोशाक पहने हाथ में नंगी तलवार लिए बाहर निकलीं और इसके बाद उसी तरह की बेशकीमत पोशाक पहने नागर भी पर्दे के बाहर आई। उसकी कमर में वही तिलिस्मी [ ९० ] खंजर था और उंगली में उसके जोड़ की अँगूठी मौजूद थी। नागर ने उस आये हुए आदमी की तरफ देखकर कहा-"तुम किसके भेजे हुए आये हो और तुम्हारा क्या नाम है? मुझे खयाल आता है कि मैंने तुम्हें कहीं देखा है मगर याद नहीं पड़ता कि कब और कहाँ!"

इस आदमी की उम्र लगभग चालीस या पैंतालीस वर्ष के होगी। इसका कद लम्बा और शरीर दुबला मगर गठीला, रंग गोरा, चेहरा खूबसूरत और रोबीला था। बड़ी-बड़ी मूंछे दोनों किनारों से ऐंठी और घूमी हुई थीं। आँखें बड़ी और इस समय कुछ लाल थीं। पोशाक यद्यपि बेशकीमत न थी मगर साफ और अच्छे ढंग की थी। चुस्त पायजामा घुटने के चार अंगुल नीचे तक का, चपकन और उस पर से एक ढीला चोगा पहने और सिर पर भारी मुँड़ासा बाँधे हुए था। सरसरी निगाह से देखने पर वह कोई छोटा या बदरोब आदमी नहीं कहा जा सकता था।

नागर की बात सुन कर वह आदमी कुछ मुस्कराया और बोला, "केवल इतना ही नहीं, आप अभी बहुत कुछ मुझसे पूछेगी मगर मैं किसी के सामने आपकी बातों का जवाब नहीं दिया चाहता, क्योंकि मैं एक नाजुक काम के लिए आया हूँ। यदि किसी तरह का खौफ न हो तो (सिपाही और लौंडियों की तरफ इशारा करके) इनको हट जाने के लिए कहिए और फिर जो कुछ चाहे पूछिए, मैं साफ जवाब दूँगा।"

उस आदमी की बात सुन कर नागर ने अपने तिलिस्मी खंजर की तरफ देखा जो कमर से लटक रहा था, मानो उस खंजर पर उसे बहुत भरोसा है और इसके बाद सिपाही तथा लौंडियों को वहाँ से हट जाने का इशारा करके बोली, "नहीं-नहीं, मुझे तुमसे खौफ खाने का कोई सबब मालूम नहीं होता।"

आदमी—(सिपाही और लौंडियों के हट जाने के बाद) हाँ, अब जो कुछ आपको पूछना हो पूछिए, मैं जवाब दूँगा।

नागर-मैं फिर पूछती हूँ कि तुम किसके भेजे हुए आये हो और तुम्हारा नाम क्या है? मैंने तुम्हें कहीं-न-कहीं अवश्य देखा है।

आदमी-मेरा नाम श्यामलाल है और तुमने मुझे उस समय देखा होगा जब तुम्हारा नाम 'मोतीजान' था और तुम बाजार में कोठे के ऊपर बैठ कर अपने कटाक्षों से सैकड़ों को घायल किया करती थीं। रंडियों के लिए यह मामूली बात है कि जब विशेष दौलत हो जाती है, तब वे उन दोस्तों को भूल जाती हैं, जिनसे किसी जमाने में थोड़ी रकम पाई हो, चाहे वह उस समय कितना ही गाढ़ा मुलाकाती क्यों न रह चुका हो। मैं यह ताने के ढंग पर नहीं कहता, बल्कि इस उम्मीद पर कहता हूँ कि पुरानी मुलाकात की याद कर मुझे माफ करोगी क्योंकि इस समय तुम एक ऊँचे दर्जे पर हो।

नागर-(नाक-भौं सिकोड़ कर, जिससे मालूम होता था कि श्यामलाल की बातों से वह कुछ चिढ़ गई है) हाँ खैर, मैंने तुम्हें पहचाना। अच्छा अब बताओ कि तुम क्या चाहते हो?

श्यामलाल-(मुस्करा कर) बस यही चाहता हूँ कि तुम मुझे विदा करो और चुपचाप यहाँ से चले जाने दो। [ ९१ ] नागर--नहीं-नहीं, मेरा यह मतलब नहीं है। मैं उस चिट्ठी का भेद जानना चाहती हूँ, जो मेरे सिपाही के हाथ तुमने भेजी है और जिसमें केवल इतना ही लिखा है कि 'लक्ष्मीदेवी के प्रकट हो जाने से अनर्थ हो गया, अब मायारानी और उसके पक्षपातियों को एक दम भाग कर अपनी जान बचाना उचित है।' (चिट्ठी दिखा कर) देखो, यही है न!

श्यामलाल-हाँ, यही है, मगर इसमें यह भी लिखा है कि 'नहीं तो बारह घंटे के बाद फिर कुछ करते-धरते न बन पड़ेगा।'

नागर-हाँ ठीक है, यह भी लिखा है। मगर यह बताओ कि लक्ष्मीदेवी कौन है और उसके प्रकट हो जाने से हमारा क्या नुकसान है?

श्यामलाल—(ताज्जुब से नागर का मुँह देख कर) क्या तुम लक्ष्मीदेवी वाला भेद नहीं जानती हो? क्या यह भेद मायारानी ने तुमसे छिपा रखा है? खैर, अगर यह बात है, तो मैं भी इस भेद को खोलना उचित नहीं समझता। अच्छा, यह तो बताओ

मायारानी कहाँ है, मैं उससे कुछ कहना चाहता हूँ।

नागर-क्या मायारानी तुम्हारे सामने हो सकती है? क्या तुम नहीं जानते कि उनका दर्जा कितना बड़ा है, और उन्हें कोई गैर मर्द नहीं देख सकता!

श्यामलाल—मैं सब कुछ जानता हूँ और यह भी जानता हूँ कि वह मुझसे पर्दा न करेगी।

नागर–शायद ऐसा ही हो, लेकिन इस समय वह किसी काम से गई हैं, और यहाँ नहीं हैं।

श्यामलाल-अगर ऐसा ही है, तो मैं भी जाता हूँ और तुमसे कहे जाता हूँ कि जहाँ तक हो सके जल्द भाग कर अपनी जान बचाओ।

यह कह कर श्यामलाल पीछे की तरफ लौटा मगर नागर ने उसे रोक कर कहा, "सुनो तुम अभी कह चुके हो कि हमारे पुराने दोस्त हो, तो क्या तुम मुझ पर कृपा करके और पुरानी दोस्ती को याद करके लक्ष्मीदेवी वाला भेद मुझे नहीं बता सकते? क्या तुम साफ-साफ नहीं कह सकते कि हम लोगों पर क्या आफत आने वाली है?"

श्यामलाल–बेशक मैं तुम्हारी दोस्ती का इकरार कर चुका हूँ और अब भी यह कहता हूँ कि अभी तक तुम्हारी मुहब्बत ने मेरा साथ नहीं छोड़ा है मगर (कुछ सोच कर) अच्छा लो, मैं एक चिट्ठी देता हूँ, इसके पढ़ने से तुम्हें सब हाल मालूम हो जायगा मगर कोठरी के दरवाजे पर पड़े हुए परदे की तरफ देख कर) मुझे शक है कि इस परदे के अन्दर से कोई लौंडी छिप कर न देखती हो।

नागर--नहीं-नहीं, ऐसा कभी नहीं हो सकता। लो, मैं तुम्हारा शक दूर किये देती हूँ।

यह कह कर नागर ने आगे बढ़कर वह पर्दा किनारे कर दिया और कोठरी का दरवाजा बन्द कर लिया। श्यामलाल ने नागर की तरफ चिट्ठी बढ़ा कर कहा, "देखो, मैं निश्चय करके आया था कि यह चिट्ठी सिवाय मायारानी के और किसी के हाथ में न दूँगा, क्योंकि उसे मैं दिल से चाहता हूँ और उसी की खातिर इतना कष्ट उठा कर [ ९२ ] आया भी हूँ, सच तो यह है कि वह भी मुझे जी-जान से मानती और प्यार करती है।"

नागर—अफसोस और ताज्जुब की बात यह है कि तुम मायारानी की शान में ऐसी बात कह रहे हो। निःसन्देह तुम झूठे और दगाबाज हो। मायारानी को क्या पड़ी है कि वह तुमसे मुहब्बत करें? क्या वह भी मेरी तरह से गन्धर्व कुल को रौनक देने वाली हैं?

श्यामलाल--(हँस कर और चिट्ठी वाला हाथ अपनी तरफ खींच कर) हः-हः-हः, जब तुम असल बातों को जानती ही नहीं हो तो मेरी बातें क्योंकर समझ सकती हो? तुम मायारानी की सखी कहलाने का दावा रखती हो, मगर मैं देखता हूँ कि मायारानी तुम्हें एक लौंडी के बराबर भी नहीं समझती। यही सबब है कि उसने अपना असली हाल तुमसे कुछ भी नहीं कहा। अफसोस, तुम्हें इतनी खबर भी नहीं है कि मायारानी मेरी सगी साली है।

नागर-(चौंक कर) मायारानी तुम्हारी साली हैं! और लक्ष्मीदेवी?

श्यामलाल-लक्ष्मीदेवी वह है जिसकी जगह मायारानी मेरी और दारोगा की मदद... मगर नहीं, ओफ, मैं भूलता हूँ, जब मायारानी ने ही खुद अपना हाल तुमसे छिपाया, तो मैं क्यों कहूँ? अच्छा, मायारानी आवे तो कह देना कि श्यामलाल आया था और कह गया है कि मैंने लक्ष्मीदेवी और गोपालसिंह का बन्दोवस्त कर लिया है। अब तू बेफिक्र होकर बैठ और जहाँ तक हो सके, मुझसे जल्द मिल। लेकिन अफसोस तो यह है कि इस मकान में रहने वाले आज गिरफ्तार कर लिए जायेंगे और मायारानी को यहाँ आने का मौका ही न मिलेगा। तब मैं यह सब बातें तुमसे क्यों कह रहा हूँ। अच्छा खैर, जाने दो, जहाँ तक हो जल्द भाग कर तुम अपनी जान बचाओ और जो कुछ दौलत यहाँ से निकाल कर ले जा सको, लेती जाओ। लो, अब मैं जाता हूँ।

नागर--सुनो-सुनो, वह चिट्ठी जो तुम मुझे दिखाना चाहते थे, सो तो दिखा दो, और इसके बाद मेरी एक बात का जवाब देकर तब जाओ।

श्यामलाल--(कुछ सोच कर और नागर की तरफ चिट्ठी बढ़ा कर) खैर, लो, तुम ही पढ़ लो, देखो तो सही अपनी साली की खातिर से कैसे खुशबूदार अतरों से बसी हुई चिट्ठी तयार करके मैं लाया था। अच्छा कोई हर्ज नहीं, किसी जमाने में तुम भी मुझे खुश कर चुकी हो। इसके पढ़ने से आने वाली आफत का पूरा-पूरा हाल मिल जायगा। मैं यह चिट्ठी इसलिए लिख लाया था कि शायद किसी सबब से मैं स्वयं मायारानी से न मिल सकूँगा, तो यह चिट्ठी भेज कर उसे आने वाली आफत से होशियार कर दूँगा और फिर वह स्वयं मुझसे मिल लेगी, मगर अफसोस! उससे तो मुलाकात ही न हुई। खैर, इस चिट्ठी को पढ़ो, मगर बैठ जाओ और मुझे भी बैठने के लिए कहो, क्योंकि मैं खड़ा-खड़ा थक गया हूँ।

नागर ने अपने हाथ में चिट्ठी लेकर श्यामलाल को बैठने के लिए कहा और खुद भी उसी जगह बैठ कर लिफाफा खोला। लिफाफे और चिट्ठी का कागज खुशबूदार चीजों से ऐसा बसा हुआ था कि लिफाफा हाथ में लेने और खोलने के साथ ही नागर का जी खुश हो गया। ऐसी मीठी और भली खुशबू उसके दिमाग में शायद आज तक न [ ९३ ] पहुँची होगी। चिट्ठी पढ़ने के पहले ही उसने कई दफे उसे सूंघा और आँखें बन्द करके 'वाह-वाह' कहने लगी। मगर उस खुशबू का काम केवल इतना ही न था कि दिल और दिमाग को खुश करे बल्कि उसमें मजेदार और आनन्द देने वाली बेहोशी पैदा करने का भी गुण था, इसलिए चिट्ठी पढ़ने के पहले ही नागर के दिमाग की ताकत जिससे चेतना और विचार शक्ति का सम्बन्ध है बिल्कुल जाती रही और वह बेहोश होकर दीवार के साथ उठेग गई। उसकी हालत देख कर श्यामलाल आगे बढ़ा और पास जाकर बिना कुछ सोचे-विचारे उसकी उँगली से वह अंगूठी निकाल ली जो तिलिस्मी खंजर के जोड़ की और मामूली तौर की बिल्कुल सादी थी। अँगूठी लेकर श्यामलाल ने मुँह में रख ली और उसी रंग की दूसरी अंगूठी अपनी जेब से निकाल कर नागर की उँगली में पहना दी। इसके बाद अपनी कमर से एक खंजर निकाला जो चपकन और अबा के अन्दर छिपा हुआ था। यह खंजर नागर की कमर में खोंसा और उसकी कमर से तिलिस्मी खंजर लेकर अपनी कमर में चपकन के अन्दर छिपा लिया। श्यामलाल ये दोनों चीजें निःसन्देह इसी काम के लिए तैयार करके ले आया था, क्योंकि वह खंजर और अंगूठी ठीक तिलिस्मी खंजर और अंगूठी के रंग-ढंग के ही थे, बहत गौर करने पर भी किसी तरह का शक नहीं हो सकता था।

खंजर और अँगूठी बदल लेने के बाद श्यामलाल ने वह खुशबूदार चिट्ठी भी नागर के हाथ से ले ली और उसके बदले में उसी तरह की दूसरी चिट्ठी उसके हाथ में रख दी। इस चिट्ठी में से भी उसी तरह की खुशबू आ रही थी। फर्क सिर्फ इतना ही था कि उसकी खुशबू बेहोशी पैदा करने वाली थी और इसकी खुशबू बेहोशी दूर करने की ताकत रखती थी अर्थात् लखलखे का काम देती थी।

इस काम से छुट्टी पाकर श्यामलाल पीछे हटा और अपने ठिकाने बैठ कर नागर के चैतन्य होने की राह देखने लगा। थोड़ी ही देर में नागर चैतन्य हो गई और आँखें खोल कर श्यामलाल की तरफ देख और उस चिट्ठी को पुनः सूंघ कर बोली, "बेशक खशबू बहुत ही अच्छी और प्रिय मालूम होती है, मगर मुझे क्या हो गया था! क्या मैं बेहोश हो गई थी?"

श्यामलाल-(हँस कर) वाह क्या खूब! केवल एक दफे आँख बन्द करके खोल देने का ही अर्थ अगर बेहोशी है, तो बस हो चुका, क्योंकि मेरी समझ में तुमने चार पल से ज्यादे देर तक आँख बन्द नहीं की, सो भी इस खुशबू से पैदा हुई मस्ती के सबब था।

नागर-(मुस्कराकर) अगर तुम मायारानी के बहनोई न होते तो मैं कुछ कह बैठती, क्योंकि ऐसे समय में जब कि जान बचाने की फिक्र पड़ रही है जैसा कि तुम स्वयं कह रहे हो तो इस तरह की दिल्लगी अच्छी नहीं मालूम पड़ती। अच्छा, अब मैं इस चिट्ठी को पढ़ कर देखती हूँ कि तुमने क्या लिखा है। (चिट्ठी को पढ़ कर) वाहवाह, इसका मतलब तो मेरी समझ में कुछ भी नहीं आता, मालूम होता है कि बहुत-सी पहेलियाँ लिख कर रखी हुई हैं!

श्यामलाल -- बस-बस, अब मुझे और भी निश्चय हो गया कि मायारानी तुम लोगों से मुँह-देखी मुहब्बत रखती है क्योंकि अगर वह तुम लोगों की कदर करती तो [ ९४ ] अपना भेद जरूर कहती और अपना भेद कहती तो इस चिट्ठी का मतलब भी तुम जरूर समझ जातीं-मगर उसने अदना से अदना भेद भी छिपा रखा जिसके बताने में कोई हानि न थी।

नागर--ठीक है, मुझे भी यही विश्वास होता है। मगर जब मुझ पर दया करके यह कह रहे हो कि जल्दी यहाँ से भाग कर अपनी जान बचाओ, तो कृपा कर इसका सबब भी बता दो, क्योंकि मुझे कुछ भी नहीं सूझता कि मैं भाग कर कहाँ जाऊँ और इस जायदाद के बचाने का क्या उद्योग करूँ?

श्यामलाल-इसका जवाब मैं कुछ भी नहीं दे सकता, क्योंकि मैं अगर तुम्हें कोई तरकीब बताऊँ या अपने साथ चलने के लिए कहूँगा तो तुम्हें मुझ पर अविश्वास होगा क्योंकि तुम बहुत दिनों के बाद मुझे आज देख रही हो सो भी ऐसे समय में जब तुम्हारा दिल राजकीय विषयों की उलझन में हद से ज्यादा उलझा हुआ है, परन्तु इतना कह देने में मेरी कोई हानि भी नहीं है कि राजा गोपालसिंह के लिखे बमूजिम काशिराज इस मकान को अपने कब्जे में कर लेने के बाद यहाँ के रहने वालों को कैद कर लेंगे। गोपालसिंह ने सुना था कि मायारानी इस मकान में टिकी हुई है। इसलिए यह कार्रवाई और भी जोर के साथ की गई, मगर इतनी खैरियत है कि अभी तक वह आदमी इस शहर में नहीं पहुँचा जिसे राजा गोपालसिंह ने चिट्ठी देकर काशिराज के पास भेजा है। हाँ आशा है कि सवेरा होते-होते वह शहर में आ पहुँचेगा। (कुछ सोच कर) क्या करें, आज तुम्हें देख कर तुम्हारी मुहब्बत फिर से नई हो गई। खैर, अगर तुम चाहोगी तो मैं तुम्हारी कुछ मदद इस समय भी कर सकूँगा।"

नागर-अगर इस समय तुम मेरी सहायता करोगे तो मैं जन्म भर तुम्हारा अहसान न भूलूँगी। मैं कसम खाकर कहती हूँ कि मैं तुम्हारी हो जाऊँगी और जो कुछ तुम कहोगे वही करुँगी।

श्यामलाल-अच्छा तो अब मैं बयान करता हूँ, कि इस समय तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूँ। सुनो और अच्छी तरह ध्यान देकर सुनो। मैं उस आदमी को अच्छी तरह पहचानता हूँ, जो गोपालसिंह की चिट्ठी लेकर काशिराज के पास आ रहा है, मुझसे उसकी बहुत दिनों की जान-पहचान है। मैं उम्मीद करता हूँ कि सवेरा होते ही वह आदमी बरना के किनारे आ पहुँचेगा। यदि वह किसी तरह गिरफ्तार कर लिया जाय तो बेशक कई दिनों तक तुम्हें सोचने-विचारने का मौका मिलेगा क्योंकि राजा गोपालसिंह कई दिनों तक बैठे राह देखेंगे कि हमारा आदमी पत्र का जवाब लेकर अब आता होगा।

नागर-बात तो बहुत अच्छी है। क्या तुम उसे गिरफ्तार नहीं कर सकते?

श्यामलाल-(हँसकर) वाह, वाह, वाह, कहते शर्म तो नहीं आती! हाँ, इतना कर सकता हूँ कि तुम थोड़े-से सिपाही अपने साथ लेकर इस समय मेरे साथ चलो, और शहर के बाहर होकर रास्ता रोक बैठो, जब वह आदमी आवेगा तो मैं इशारे से बता दूँगा कि यही है, फिर जो तुम्हारे जी में आवे करना। मगर, मैं उसका सामना न करूँगा, क्योंकि अभी कह चुका हूँ कि मेरी उसकी जान-पहचान बहुत पुरानी है। [ ९५ ]नागर-जब तुम मुझ पर कृपा करके इतना काम कर सकते हो तो मेरे जाने की क्या जरूरत है? मैं थोड़े से सिपाही तुम्हारे साथ कर देती हूँ, समय पड़ने पर तुम..

श्यामलाल-बस बस बस, अब मत बोलो, मैं समझ गया कि तुम्हारी नीयत साफ नहीं है। मैं खुदगर्जो का साथ देना उचित नहीं समझता, केवल तुम्हारे ही बारे में नहीं बल्कि मायारानी के बारे में भी जो मेरी साली होती है मेरा यही खयाल है कि वह परले सिरे की खुदगर्ज है, दूसरे को फंसा कर अपना काम निकालना और आप अलग रहना खूब जानती है, मगर मैं क्या करूँ अपनी स्त्री से लाचार हूँ जो मुझसे भी ज्यादा मायारानी के साथ मुहब्बत रखती है और मैं उसे जाने से ज्यादा चाहता हूँ।

श्यामलाल की बातचीत कुछ अजब ढंग की थी जिसमें हर जगह से सचाई की बू पाई जाती थी। बात करने के समय वह अपने चेहरे के उतार-चढ़ाव को ऐसा दुरुस्त रखता था कि होशियार से होशियार आदमी को भी उस पर किसी तरह का शक नहीं हो सकता था। नागर को उसकी बातों पर पूरा विश्वास हो गया और वह इस उम्मीद पर कि राजा गोपालसिंह के भेजे हुए आदमी को अवश्य गिरफ्तार कर लेगी, अपने साथ केवल थोड़े सिपाहियों को लेकर जाने के लिए तैयार हो गई। इसके बाद उसने अपनी कमर से लटकते हुए तिलिस्मी खंजर पर पुनः गम्भीर निगाह डाली, मानो अपने सिपाहियों से ज्यादे उस खंजर पर भरोसा रखती है मगर उसे इस बात का गुमान भी न था कि वह खंजर बड़ी खूबी के साथ बदल दिया गया है।

नागर ने अपनी समझ में श्यामलाल को बहुत कुछ कह-सुनकर मदद के लिए राजी किया और आप उसके साथ जाने के लिए तैयार हो गई। उसने श्यामलाल से आधी घड़ी की छुट्टी ली और उस कोठरी के अन्दर चली गई जिसके दरवाजे पर पर्दा पड़ा हुआ था। आधी घड़ी के बाद वह बाहर आई और श्यामलाल से बोली, "अब मैं हर तरह से तैयार हो गई, आप चलिए।" इस समय भी नागर उसी पोशाक में थी जिसमें घड़ी भर पहले देखी गयी थी, फर्क इतना ही था कि एक चादर उसके हाथ में थी जिसे फाटक के बाहर होते ही अपने को सिर से पैर तक ढांक लेने की नीयत से वह अपने साथ लाई थी।

श्यामलाल को साथ लिए हुए नागर नीचे उतरी और चक्कर खाती हुई सदर फाटक के पास पहुँची। यहाँ उसने स्याह चादर में अपने को छिपा लिया और फाटक के बाहर रवाना हुई! श्यामलाल ने इस समय मामूली पहरा देने वाले सिपाहियों के अतिरिक्त आठ सिपाही हों से दुरुस्त वहां मौजूद पाये जो फाटक के बाहर होते ही नागर और श्यामलाल के पीछे-पीछे रवाना हुए, नागर को इसके लिए कुछ कहने की जरूरत न पड़ी जिससे श्यामलाल समझ गया कि आधी घड़ी की छुट्टी में नागर ने यह इन्तजाम किया है।

ये दसों आदमी गंगा के किनारे उतरे और वहाँ से तेजी के साथ काशी के छोर पर बहने वाली बरना नदी की तरफ रवाना होकर आधे घण्टे से कुछ ज्यादा देर में वहाँ जा पहुँचे। इस समय रात आधी से ज्यादा जा चुकी थी और चन्द्रदेव उदय हो रहे थे। बरना नदी पार करने के लिए नदी से बीस गज ऊँचा एक मजबूत पुल बना हुआ था। [ ९६ ] इस पुल के दोनों बगल मुसाफिरों के आराम के लिए बारह दालान बने हुए थे और उसी जगह से पुल के नीचे उतरने के लिए छोटी-छोटी सीढ़ियाँ भी बनी हुई थीं। ये दसों आदमी जब उस पर पहुँचे तो नागर ने श्यामलाल से पूछा, “कहिये इसी पार ठहरने का इरादा है या उस पार चल कर?" जिसके जवाब में श्यामलाल ने कहा, "बिना उस पार गये ठीक न होगा।"

अब ये लोग पुल के उस पार रवाना हुए, मगर आधी दूर से ज्यादे न गये होंगे कि सामने से आते हुए दो घोड़ों की आहट मिलने लगी जिसे सुनते ही श्यामलाल ने कहा, "लीजिए, हम लोगों को ज्यादे ठहरना न पड़ा। निःसन्देह ये वे ही सवार हैं जिन्हें हम लोग गिरफ्तार किया चाहते हैं। बस अब जल्दी करना चाहिए, कहीं ऐसा न हो कि ये लोग तेजी के साथ निकल जाये क्योंकि ये घोड़ों पर सवार हैं और हम लोग पैदल।"

नागर ने अपनी कमर से खंजर निकाल लिया जिसे वह तिलिस्मी समझे हुए थी और इसके बाद अपने आदमियों की तरफ देख के बोली, "देखो ये सवार जाने न पावें, इन्हीं को गिरफ्तार करने के लिए हम लोग आये हैं!"

बात की बात में वे दोनों सवार पास आ गये। नागर के सिपाही म्यान से तलवार निकाल कर खड़े हो गए और ललकार कर बोले, "खबरदार, आगे मत बढ़ना!" मगर इतने में ही मालूम हुआ कि पीछे की तरफ से भी कई आदमी दौड़े आ रहे हैं। उस समय नागर घबड़ा गई और उसे निश्चय हो गया कि अब यहाँ से बच कर निकल जाना मुश्किल है क्योंकि हमलोग दोनों तरफ से घिर गये, हाँ तिलिस्मी खंजर की बदौलत अलबत्ते बच सकते हैं। नागर ने तिलिस्मी खंजर का (जो वास्तव में असली न था) कब्जा दबाया मगर किसी तरह की चमक पैदा न हुई। तब उसने फिर कर श्यामलाल की तरफ देखा मगर उसे कहीं न पाया। अब उसके ताज्जुब की हद न रही और घबराहट के मारे वह ऐसी बौखला गई कि थोड़ी देर तक तन-बदन की भी सुध जाती रही। इस बीच में वे आदमी भी जो पीछे से आ रहे थे आ पहुँचे और नागर के सिपाहियों पर टूट पड़े। वे लोग भी गिनती में उतने ही थे जितने नागर के सिपाही थे, मगर नागर के सिपाही इतने दिलावर और मजबूत न थे कि उन आठों के मुकाबले में ठहर सकते। नागर डर के मारे चिल्ला कर एक किनारे हट गई और भागना चाहती थी मगर मौका न मिला। वे दोनों सवार नागर की आवाज सुन कर पहचान गये कि वह औरत है। एक ने घोड़े से उतर कर उसे गोद में उठा लिया और उसके हाथ से खंजर छीन कर उसे दूसरे सवार के आगे बैठा दिया। इसके बाद खुद भी अपने घोड़े पर सवार होकर उसने ऊँची आवाज में न मालूम किससे पूछा- "यहाँ केवल एक नागर ही औरत है या और भी कोई औरत है?" इसके जवाब में किसी ने कुछ दर से पुकार कर कहा, "अगर कोई औरत हाथ आ गई तो ले भागो और समझो कि यही नागर है।" इस जवाब को नागर ने भी सुना और पहचान गई कि यह श्यामलाल की आवाज है। अपने सवाल का जवाब पाते ही वे सवार उत्तर की तरफ रवाना हो गये। [ ९७ ]इस समय चन्द्रदेव पूरी तरह से निकल कर अपनी सुफेद चाँदनी चारों तरफ फैला रहे थे। नागर के सिपाहियों को जब मालूम हुआ कि नागर गिरफ्तार कर ली गई तो उनकी ताकत और भी जाती रही। दो सिपाही तो जख्मी होकर जमीन पर गिर पड़े और बाकी छह अपनी जान लेकर भागे। उस समय श्यामलाल भी आकर उन आठों बहादुरों के पास खड़ा हो गया और उन लोगों की तरफ देख के बोला, "शाबाश, तुम लोगों ने अपना काम बड़ी खूबी के साथ पूरा किया, मैं बहुत खुश हूँ, अब बताओ, मेरे लिए घोड़ा कहाँ है?"

श्यामलाल को देखते ही उन लोगों ने हाथ जोड़ कर सिर झुकाया और एक यह कह कर उत्तर की तरफ बढ़ा कि 'ठहरिये, मैं घोड़ा लेकर अभी आता हूँ।' थोड़ी देर तक सन्नाटा रहा और जब वह आदमी घोड़ा लेकर आ गया तो श्यामलाल घोड़े पर सवार हो गया तथा उन आठों से बोला, "अच्छा अब तुम लोग रमापुर जाओ, मैं अपना काम करके तुमसे मिलूँगा।"

श्यामलाल भी उत्तर की तरफ रवाना हुआ और पुल के पार होकर उसने अपने घोड़े को तेज किया। जब लगभग एक कोस के गया तो देखा कि वे दोनों सवार, जो नागर को उठा लाये थे, सड़क पर खड़े हैं। उन लोगों को देखकर श्यामलाल ने कहा, "शाबाश मेरे दोस्तो, तुम लोगों की जितनी तारीफ की जाय थोड़ी है। अच्छा, अब यहाँ ठहरने का मौका नहीं है, चले चलो।"