चन्द्रकांता सन्तति 3/11.9

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चंद्रकांता संतति भाग 3  (1896) 
द्वारा देवकीनंदन खत्री

[ १७२ ]

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दिन बहुत ज्यादा चढ़ चुका था, जब कमलिनी अपना काम करके सुरंग की राह से लौटी और किशोरी, कामिनी तथा तारा को भैरोंसिंह के साथ बातचीत करते पाया। कमलिनी, लाड़िली और देवीसिंह बहुत प्रसन्न हुए और क्यों न होते, जिस आदमी की मेहनत ठिकाने लगती है उसकी खुशी का अन्दाजा करना उसी आदमी का काम है जो कठिन मेहनत करके किसी अमूल्य वस्तु का लाभ कर चुका हो। किशोरी, कामिनी और तारा को इस तरह पाना कम खुशी की बात न थी जिनके मिलने के किषय में आशा की भी आशा टूटी हुई थी।

किशोरी, कामिनी और तारा जमीन पर पड़ी बातें कर रही थीं क्योंकि उनमें उठने की सामर्थ्य बिल्कुल न थी, उन्होंने अपने बचाने वालों की तरफ―खास कर कमलिनी की तरफ―अहसान, शुक्रगुजारी और मुहब्बत-भरी निगाहों से देर तक देखा, जिसे कमलिनी तथा उसके साथी अच्छी तरह समझ कर प्रसन्न होते रहे। कमलिनी को इस बात की खुशी हद से ज्यादा थी कि किशोरी, कामिनी तथा तारा की जान बच गई।

कमलिनी, लाड़िली, देवीसिंह, और भैरोंसिंह इस बात पर विचार करने लगे कि अब क्या करना चाहिए। किशोरी, कामिनी और तारा में इतनी सामर्थ्य न थी कि दो कदम भी चल सकें या घोड़े पर सवार हो सकें और दो-तीन दिन के अन्दर इतनी ताकत हो भी नहीं सकती थी।

कमलिनी―अफसोस तो यह है कि दुश्मनों ने मेरे तिलिस्मी मकान की अवस्था बिल्कुल खराब कर दी और वह मकान अब इस योग्य न रहा कि उसमें चल कर डेरा डालें, बिछावन और बर्तन तक उठा के ले गये।

देवीसिंह―तालाब की अवस्था भी तो बिल्कुल खराब है। मिट्टी भर जाने के कारण वह स्थान अब निर्भय होकर रहने योग्य नहीं रहा और उसकी सफाई भी सहज में नहीं हो सकती।

कमलिनी―नहीं, इस बात की तो मुझे कुछ भी चिन्ता नहीं है क्योंकि दो दिन के अन्दर मैं उस तालाब को बिना परिश्रम साफ कर सकती हूँ और ऐसा करने के लिए किसी मजदूर की भी आवश्यकता नहीं है।

भैरोंसिंह–सो कैसे?

कमलिनी―उस मकान में एक विचित्र कुआँ है। यदि उसका मुँँह खोल दिया जाये, तो चश्मे की तरफ दो हाथ मोटी पानी की धारा उसमें से निकला करे और महीनों बन्द न हो, इसके अतिरिक्त तालाब में जल की निकासी के लिए भी एक लम्बी-चौड़ी [ १७३ ]
मोरी बनी हुई है। कारीगरों ने ये दोनों चीजें तालाब की सफाई के लिए बनाई हैं। बस इसी से तुम समझ सकते हो कि तालाब की सफाई कोई मुश्किल नहीं है। जब कुएँ से बेअन्दाज जल निकल कर तालाब को साफ करता हुआ दूसरी तरफ से निकल जाने लगेगा तो उतनी मिट्टी का बह जाना कुछ कठिन नहीं है जितनी दुश्मनों ने तालाब में भर दी हैं।

देवीसिंह―बेशक अगर ऐसा है तो तालाब की सफाई कुछ मुश्किल नहीं है।

तारा―(बारीक और कमजोर आवाज से) अफसोस, यह बात मुझे मालूम नहीं थी, नहीं तो तालाब का जल क्यों सूखता और मिट्टी भरने की नौबत क्यों आती!

कमलिनी―ठीक है, और इसी सबब से मैं मकान की बरबादी का इलजाम तुझ पर नहीं लगाती बल्कि अपने ऊपर लगाती हूँ इसलिए कि यह भेद मैंने तुझे क्यों न बता रखा था। असल तो यह है कि दुश्मनों के इस उद्योग का मुझे गुमान भी न था, खैर, जो होना था हो गया।

देवीसिंह―अच्छा, तो जिस तरकीब से आपने कहा है तालाब को साफ करके इन लोगों को उसी मकान में ले चलना चाहिए। बाकी रहा मकान के अन्दर का सामान, सो इसके लिए कोई चिन्ता नहीं, देखा जायेगा।

कमलिनी―हाँ, मैं भी यही उचित समझती हूँ, दो रोज में मकान और तालाब की दुरुस्ती हो जायेगी, तब तक इन लोगों को इसी जगह रखना चाहिए, यह जगह भी बड़ी हिफाजत की है, जिसको रास्ता मालूम न हो यहाँ कदापि नहीं आ सकता। देखिये चारो तरफ कैसे ऊँचे-ऊँचे पहाड़ हैं। कभी-कभी इन पहाड़ों के ऊपर से जाते हुए मुसाफिर दिखाई देते हैं मगर वे लोग यदि यहाँ आना चाहें तो नहीं आ सकते। जब तक मकान और तालाब की सफाई न हो जाये, तब तक वहाँ केवल आपका रहना काफी है। सफाई के सम्बन्ध में या और भी जिन-जिन बातों की आवश्यकता है, मैं आपको समझा दूँगी और फिर इसी जगह आकर इनके पास रहूँगी और इनका इलाज करूँगी।

देवीसिंह―आपका खयाल बहुत ठीक है, जो कुछ आप कहें, मैं करने के लिए तैयार हूँ।

कमलिनी―पहले किशोरी, कामिनी और तारा के खाने-पीने का बंदोबस्त करना चाहिए। (भैरोंसिंह से) इस रमणीक स्थान में तीतरों और बटेरों की कमी नहीं है।

भैरोंसिंह―और हमारे पास खाना बनाने का सफरी सामान भी है, मैं भी यही समझता हूँ कि इनके लिए तीतर का शोरबा बहुत लाभदायक होगा।

किशोर—(कमजोर आवाज से) नहीं, मैं शोरवा या मांस न खाऊँगी, औरतों के लिए यह...

देवीसिंह―(हुकूमत के ढंग पर, मगर वह हुकूमत का ढंग ठीक वैसा ही था जैसा बड़े लोग छोटों पर कर सकते हैं) नहीं, बीमारी की अवस्था में इसका खयाल नहीं हो सकता है, तुम इसे दवा समझ के चुप रहो।

बेचारी किशोरी ने इस बात का कुछ भी जवाब नहीं दिया और चुप ही रही। भैरोंसिंह उसी समय उठ खड़ा हुआ और तीतर पकड़ने के लिए चला गया। उस धूर्त और चालाक ऐयार को इस काम के लिए तीर या गुलेल इत्यादि किसी विशेष सामान [ १७४ ] की आवश्यकता न थी, वह केवल अपनी फुर्ती और चालाकी से बात-की-बात में सब्ज घास पर चरते हुए और खटका पाने के साथ ही झाड़ियों में घुस कर छिप जाने वाले कई तीतरों को पकड़ लाया और शोरबा पकाने का बन्दोबस्त करने लगा। इधर कमलिनी और देवीसिंह में बातचीत होने लगी।

देवीसिंह-उन दोनों घोड़ों की भी सुध लेनी चाहिए जिन्हें यहाँ से थोड़ी ही दूर पर एक पेड़ से बाँध कर छोड़ आये हैं।

कमलिनी- हाँ, उन घोड़ों को भी जिस तरह बने, धीरे-धीरे यहाँ तक ले आना चाहिए, नहीं तो बेचारे जानवर भूख और प्यास के मारे मर जायेंगे। एक तो यहाँ का रास्ता ऐसा खराब है कि घोड़ों पर सवार होकर मैं आ नहीं सकती थी; दूसरे रात का समय था इसलिए लाचार होकर उनको उसी जगह छोड़ देना पड़ा, पर अब हम लोगों को वहाँ तक जाने की कोई आवश्यकता नहीं जान पड़ती।

देवीसिंह-ठीक है, अगर कहिए, तो मैं उन दोनों घोड़ों को यहाँ ले आऊँ, अब तो दिन का समय है और जब तक भैरोंसिंह खाने की तैयारी करता है तब तक बेकार बैठे रहने से कुछ काम ही करना अच्छा है।

कमलिनी-अगर ले आइए, तो अच्छी बात है, मगर हाँ, सुनिए तो सही, भूतनाथ और श्यामसुन्दरसिंह को कहा गया था कि आज रात के समय हम लोगों से मिलने के लिए उसी ठिकाने तैयार रहें जहाँ भगवानी उनके हवाले की गई थी।

देवीसिंह जी हाँ, कहा गया था, मगर मैं समझता हूँ कि अब हम लोगों का वहाँ जाना वृथा ही है, अगर आप कहिए तो मैं उन लोगों के पास जाऊँ और यदि इस समय मुलाकात हो जाय, तो इस बात की इत्तिला भी देता जाऊँ या उन लोगों को इसी जगह लेता आऊँ?

कमलिनी-एक तो रात होने के पहले उन लोगों से मुलाकात ही नहीं हो सकती, कौन ठिकाना वहाँ हों या दूसरी जगह चले गये हों, दूसरी बात यह है कि मैं उन लोगों को यह जगह दिखाना नहीं चाहती और न यहाँ का भेद बताना चाहती हैं, क्योंकि आजकल की अवस्था देखकर श्यामसुन्दरसिंह पर से भी विश्वास उठा जाता है, बाकी रहा भूतनाथ। वह यद्यपि मेरे आधीन है और इस बात का उद्योग भी करता है कि हम लोगों को प्रसन्न रखे, मगर वह कई ऐसी भयानक घटनाओं का शिकार हो रहा है कि बहुत लायक और खैरख्वाह होने पर भी मैं उसे किसी भी योग्य नहीं समझती और न इसी बात का विश्वास है कि उसका दिल वैसा ही रहेगा जैसा आज है, बल्कि मैं कह सकती हैं कि वह अपने दिल का मालिक नहीं है।

देवीसिंह-यह तो आप एक ऐसी बात कहती हैं जिसे पहेली की तरह उल्टी


1. तीतरों और बटेरों की प्रकृति है कि यदि उनके पीछे दौडिए तो वे भी आगे-आगे पहले तो दौडते हैं और इसके बाद अगल-बगल की झाड़ी में ऐसा घुस बैठते हैं कि जल्दी पता नहीं लगता, हां जब साफ मैदान पाते हैं अर्थात् पास में कोई छोटी या बड़ी झाड़ी नहीं होती तो उड़ भी जाते हैं। [ १७५ ]भूमिका कहने की इच्छा होती है।

कमलिनी-बेशक ऐसा ही है। इस जगह 'तिनके की ओट पहाड़ वाली कहावत ठीक बैठती है। न मालूम वह कौन-सा भेद है जिसको जानने के लिए पहाड़ ऐसे पचासों दिन नष्ट करने की आवश्यकता होगी।

देवीसिंह-तो क्या आप भूतनाथ को अच्छी तरह नहीं जानती?

कमलिनी-मैं भूतनाथ के सात पुश्त को जानती हूँ जिसका परिचय आप लोगों को भी आपसे-आप मिल जायगा। निःसन्देह भूतनाथ दिल से हम लोगों का खैरख्वाह है परन्तु उसका दिल निरोग नहीं है और उसके भीतर का लंगर जो फौलाद की तरह ठोस है किसी चुम्बक की समीपता के कारण सीधी चाल नहीं चलता। मैं इस फिक्र में हूँ कि उसे हर तरह से स्वतन्त्र कर दूं मगर उसके दिल पर किसी जबरदस्त घटना के हादसे की लगी हुई मोहर उसके द्वारा कोई भेद प्रकट होने नहीं देती, निःसन्देह उस पर किसी अनुचित कार्य का काला धब्बा ऐसा मजबूत लगा है कि वह केवल आँसुओं के जल से धुलकर साफ नहीं हो सकता। हाय, एक दफे की चूक जन्म-भर के लिए बवाल हो जाती है। आप स्वयं चालाक हैं; यदि मेरी तरह खोज में लगे रहेंगे तो कुछ पता पा जायेंगे। वह बेशक हम लोगों का खैरख्वाह है, नमकहराम नहीं, मगर जिसका दिल इश्क का लवलेश न होने पर भी अपने अख्तियार में न हो उसका क्या विश्वास?

कमलिनी की इन भेद-भरी बातों ने केवल देवीसिंह ही को नहीं बल्कि किशोरी, कामिनी और तारा को भी हैरानी में डाल दिया जो असाध्य रोगियों की तरह जमीन पर पड़ी हुई थी और उनसे थोड़ी ही दूर पर बैठे हुए भैरोंसिंह ने भी कमलिनी की बातों को अच्छी तरह सुना और समझा, मगर जिस तरह देवीसिंह के दिल पर उन बातों ने असर किया उस तरह भैरोंसिंह के दिल पर उन बातों ने, मालूम होता है कोई असर नहीं किया क्योंकि भैरोंसिंह के चेहरे पर उन बातों को सुनने से आश्चर्य या उत्कण्ठा की कोई निशानी नहीं पाई जाती थी।

कुछ देर तक सोचने के बाद देवीसिंह यह कहकर उठ खड़े हुए, "अच्छा, मैं पहले घोडों की फिक्र में जाता हूँ, फिर जैसा होगा देखा जायगा।"

आधा घण्टा सफर करने के बाद देवीसिंह उस जगह पहुंचे जहाँ एक पेड़ के साथ दोनों घोडे बँधे हए थे। वहाँ से थोड़ी दूर पर एक चश्मा बह रहा था। देवीसिंह दोनों घोड़ों को वहाँ ले गये और पानी पिलाने के बाद लम्बी बागडोर के सहारे पेड़ों के साथ बांध दिया जहाँ उनके चरने के लिए लम्बी घास बहुतायत के साथ जमी हुई थी।

देवीसिंह ने सोचा कि यद्यपि कुसमय है मगर फिर भी वहाँ अवश्य चलना चाहिए जहाँ भगवानी को छोड़ आये थे, शायद भूतनाथ या श्यामसुन्दरसिंह से मुलाकात हो जाय, अगर किसी से मुलाकात हो गई तो कह देंगे कि आज प्रतिज्ञानुसार इस जगह कमलिनी से मुलाकात न होगी। अगर यह काम हो गया तो रात के समय पुनः बीमारों को छोड़ के इस तरफ आने की आवश्यकता न पड़ेगी।

इन बातों को सोचकर देवीसिंह वहाँ से आगे की तरफ बढ़े, मगर सौ कदम से ज्यादा दूर न गये होंगे कि सामने की तरफ से किसी के आने की आहट मालूम पड़ी। [ १७६ ] देवीसिंह ठहर गये और बड़े गौर से उधर देखने लगे जिधर से किसी के आने की आहट मिल रही थी। थोड़ी ही देर में दो आदमी निगाह के सामने आ पहुँचे जिनमें से एक को देवीसिंह पहचानते थे और दूसरे को नहीं। पाठक समझ गये होंगे कि उन दोनों में से एक तो भूतनाथ था और दूसरा वही विचित्र आदमी जिसने भूतनाथ पर अपना अधिकार कर लिया था और जो इसे उसे समय अपने साथ न मालूम कहाँ लिये जाता था।

देवीसिंह ने भूतनाथ के उदास और मुरझाये चेहरे को बड़े गौर से देखा और फिर आगे बढ़कर उससे पूछा

देवीसिंह-क्यों साहब, आप कहाँ जा रहे हैं और वह आपका साथी कौन है?

भूतनाथ-(अपने साथी की तरफ इशारा करके) इन्हें आप नहीं जानते। इनके साथ मैं एक जरूरी काम के लिए जा रहा हूँ, आप कमलिनीजी से कह दीजियेगा कि आज रात को प्रतिज्ञानुसार मैं उनसे मिल नहीं सकता।

देवीसिंह–सो क्यों?

भूतनाथ-इसलिए कि इनके साथ जाता हूँ, क्या जाने कब छुट्टी मिले!

देवीसिंह-इनके साथ कहाँ जाते हो?

भूतनाथ—(घबराहट और लाचारी के ढंग से) सो तो मुझे मालूम नहीं!

इतना कहके उसने एक लम्बी साँस ली। अब देवीसिंह के दिमाग में वे बातें घूमने लगीं जो भूतनाथ के विषय में कमलिनी ने कही थीं। देवीसिंह ने भूतनाथ की कलाई पकड़ ली और एक तरफ ले जाकर पूछा, "दोस्त, क्या तुम इतना भी नहीं बता सकते कि कहाँ जा रहे हो? ऐयार लोगों का आपस में क्या ऐसा ही बर्ताव होता है! क्या तुम और हम दोनों एक ही के पक्ष के नहीं हैं और क्या तुम अपने दिल की बातें मुझसे भी नहीं कह सकते? बोलो-बोलो, मेरी बातों का कुछ जवाब दो! वाह-वाह, यह क्या! तुम रो क्यों रहे हो?"

भूतनाथ—(आँखों से आँसू पोंछकर) हाय, मैं कुछ भी नहीं कह सकता कि मेरे दिल की क्या अवस्था है। (मुहब्बत से देवीसिंह का हाथ पकड़ के) मैं तुमको अपना बड़ा भाई समझता हूँ, और तुम इस बात का अपने दिल में ध्यान भी न लाना कि भूतनाथ तुम्हारे साथ चालबाजी की बातें करेगा, मगर हाय, मैं मजबूर है, कुछ नहीं कह सकता! (विचित्र मनुष्य की तरफ इशारा करके) मैं और मेरा सर्वस्व इस हरामजादे की मुट्ठी में है और छुटकारे की कोई आशा नहीं! अफसोस! अच्छा दोस्त, अब मुझे बिदा दो, अगर जीता रहा तो फिर मिलूंगा!

देवीसिंह-भूतनाथ, तुम कैसी बे-सिर-पैर की बातें कर रहे हो, कुछ समझ में नहीं आता! आश्चर्य है कि तुम्हारे ऐसा बहादुर आदमी और इस तरह की बातें करे। साफ-साफ कहो तो कुछ मालूम हो, कदाचित् मैं तुम्हारी मदद कर सकूँ।

भूतनाथ-नहीं, तुम कुछ भी मदद नहीं कर सकते। मेरा नसीबा बिगड़ा हुआ है और इसे वही ठीक कर सकता है जिसने इसे बनाया है।

देवीसिंह --मैं इस बात को नहीं मानता। निःसन्देह ईश्वर सबके ऊपर है, परन्तु साथ ही इसके यह भी समझना चाहिए कि वह किसी को बनाने और बिगाड़ने के लिए [ १७७ ] अपने हाथ-पैर से काम नहीं लेता। यदि ऐसा करे या हो तो उसमें और मनुष्य में कहने के लिए भी कोई भेद बाकी न रह जाय, अतएव कह सकते हैं कि केवल उसकी इच्छा ही इतनी प्रबल है कि वह किसी तरह टल नहीं सकती और वह इस पृथ्वी का काम इसी पर रहने वालों से कराता रहता है। इसका तत्त्व यह है कि वह जिस मनुष्य द्वारा अपनी इच्छा पूरी किया चाहता है उसके अन्दर उस बुद्धि और साहस का संचार करता है जिसका मुकाबला करने वाला पृथ्वी में सिवाय बुद्धि और साहस के और कोई नहीं। इसके साथ-ही-साथ जिससे वह रुष्ट होता है उससे बुद्धि और साहस छीन लेता है। बस, इन्हा के द्वारा वह अपनी इच्छा पूरी करके नित्य नवीन नाटक देखा करता है और यही उसकी कारीगरी है। मैं इस समय जब अपनी तरफ ध्यान देता हूँ तो ईश्वर की कृपा से अपने में साहस की कमी नहीं देखता और दिल को तुम्हारी मदद के लिए व्याकुल पाता हूँ और इससे भी निश्चय होता है कि मैं तुम्हारी सहायता कर सकता हूँ और यही ईश्वर की इच्छा है। तुम एकदम हताश मत हो जाओ और जान-बूझ के अपनी जान के दुश्मन मत बनो, असल-असल हाल कहो, फिर देखो कि मैं क्या करता हूँ।

भूतनाथ—तुम्हारा कहना बहुत ठीक है, परन्तु मुझे निश्चय है कि जब मैं अपना असल भेद तुमसे कह दूंगा तो तुम स्वयं मुझसे घृणा करोगे और चाहोगे कि यह दुष्ट किसी तरह मेरे सामने से दूर हो जाय! प्यारे दोस्त, जबसे मैंने अपनी प्रकृति बदलने का उद्योग किया है और ईश्वर के सामने कसम खाई है कि अपने माथे से बदनामी का टीका दर करके नेक, ईमानदार, सच्चा और सुयोग्य बनूंगा तब से मेरे हृदय की विचित्र अवस्था हो गई है। जब मुझे यह मालूम होता है कि मेरी पिछली बातें अब प्रकट हुआ चाहती हैं तब मुझे मौत से है बढ़ के कष्ट होता है, और जब मैं यह चाहता हूँ कि अपनी जान देकर भी किसी तरह इन बातों से छुटकारा पाऊँ तो उसी समय मुझे मालूम होता है कि मेरे अन्दर दिल के पास ही बैठा हुआ कोई कह रहा है कि खबरदार ऐसा न करना। तू कसम खा चुका है कि अपने सिर से बदनामी का टीका दूर करेगा। यदि ऐसा किये बिना मर जायगा तो ईश्वर के सामने झूठा होने के कारण नरक का भागी होगा, अर्थात् तेरी आत्मा जो कभी मरने वाली नहीं है, बड़ा कष्ट भोगेगी और हजारों वर्ष तक बिना पानी के मछली की तरह तड़पा करेगी। हाय, ये बातें ऐसी हैं कि मुझे बेचैन किए देती हैं। ऐसी अवस्था में तुम स्वयं सोच सकते हो कि अपनी बुराइयों को मैं अपने ही मुंह से कैसे प्रकट करूं और तमसे क्या कहें। यदि जी कड़ा करके कुछ कहूंगा भी तो निःसन्देह तुम मुझसे घृणा करोग जैसाकि तुमसे कह चुका हूँ।

देवीसिंह-नहीं-नहीं, कदापि नहीं! मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि यदि मुझे यह भी मालूम हो जायगा कि तुम मेरे पिता के घातक हो, जिन पर मेरा बड़ा ही स्नेह था तो भी मैं तुम्हें इसी तरह मुहब्बत की निगाह से देखूँगा, जैसाकि अब देख रहा हूँ! कहो, अब इससे ज्यादा मैं क्या कह सकता हूँ!

इतना सुनते ही भूतनाथ जिसने अपनी पीठ विचित्र मनुष्य की सरफ इसलिए कर रखी थी कि चेहरे के उतार-चढ़ाव से वह उसकी बातों का कुछ भेद न पा सके, देवीसिंह के पैरों पर गिर पड़ा और रोने लगा। देवीसिंह ने उसे उठाकर गले से लगा लिया और [ १७८ ]कहा―“देखो, जी कड़ा करो, घबड़ाओ मत, ईश्वर जो कुछ करेगा, अच्छा ही करेगा, क्योंकि नेकी की राह चलने वालों की वह सहायता किया ही करता है और उनके पिछले ऐबों पर ध्यान नहीं देता, यदि वह जान जाय कि यह व्यक्ति भविष्य में नेक और सच्चा निकलेगा।”

विचित्र मनुष्य जो दूर खड़ा यह तमाशा देख रहा था, जी में बहुत ही कुढ़ा और उसने भूतनाथ से ललकार के कहा, “भूतनाथ, यह क्या बात है? तुम राह-चलते हर एक ऐरे-गैरे के सामने खड़े होकर घण्टों कलपा करोगे और मैं खड़ा पहरा दिया करूँगा? यह नहीं हो सकता। मैं तुम्हारा ताबेदार नहीं हूँ बल्कि तुम मेरे ताबेदार हो, चलो, जल्दी करो, अब मैं नहीं रुक सकता!”

भूतनाथ ने लाचारी और मजबूरी की निगाह देवीसिंह पर डाली और सिर नीचा करके चुप हो रहा। देवीसिंह ने पहिले तो भूतनाथ के कान में धीरे से कुछ कहा और इसके बाद विचित्र मनुष्य की तरफ बढ़कर बोले―

देवीसिंह―क्यों बे, क्या तूने मुझे ऐरे-गैरों में समझ लिया? जुबान सँभाल के नहीं बोलता! क्या तू नहीं जानता कि मैं कौन हूँ?

विचित्र―मैं खूब जानता हूँ कि तुम्हारा नाम देवीसिंह है और तुम राजा वीरेन्द्रसिंह के ऐयार हो, मगर मुझे इससे क्या मतलब? तुमने मेरे आसामी को इतनी देर तक क्यों रोक रखा हैं?

देवीसिंह―भूतनाथ तेरा आसामी नहीं है बल्कि मेरा साथी ऐयार है। कदाचित् अपने पागलपन में तूने इसे अपना आसामी समझ लिया हो तो भी जो कुछ कहना हो भूतनाथ से कह, तुझे पागल समझकर मैं कुछ न कहूँगा छोड़ दूँगा, मगर तू इतना हौसला नहीं कर सकता कि राजा वीरेन्द्रसिंह के ऐयारों को 'ऐरे-गैरे' कहकर सम्बोधन करे! क्या तू नहीं जानता कि ऐयार की इज्जत राजदीवान से कम नहीं होती? मैं बेशक तुझे इस बेअदबी की सजा दूँगा।

विचित्र मनुष्य―तुम मुझे क्या सजा दोगे, मैं तुम्हें समझता ही क्या हूँ!

देवीसिंह―तो मैं दिखाऊँ तमाशा तुझे और बता दूँ कि राजा वीरेन्द्रसिंह के ऐयार लोग कैसे होते हैं?

विचित्र मनुष्य―जो कुछ करते बने करो, मैं तैयार हूँ, तुमसे डरता नहीं।

इतना कहकर विचित्र मनुष्य ने म्यान से तलवार निकाल ली और देवीसिंह ने भी जमीन पर से पत्थर का एक टुकड़ा उठा लिया। विचित्र मनुष्य ने झपटकर देवीसिंह पर तलवार का वार किया। देवीसिंह उछलकर दूर जा खड़े हुए और उस पत्थर के टुकड़े से अपने बैरी पर वार किया, मगर उसने पैंतरा बदलकर अपने को बचा लिया और देवीसिंह पर झपटा। अब की दफे देवीसिंह ने फुर्ती के साथ पत्थर के दो टुकड़े दोनों हाथों में उठा लिये और दुश्मन के वार को खाली देकर एक पत्थर चलाया। जब तक विचित्र मनुष्य उस वार को बचाए तब तक देवीसिंह ने दूसरा टुकड़ा चलाया जो उसके घुटने पर बैठा और उसे सख्त चोट लगी। देवीसिंह ने विलम्ब न किया, फिर एक पत्थर उठा लिया और अपने वैरी को दूर से ही मारा। पैर में चोट लग जाने के कारण वह उछलकर अलग [ १७९ ] न हो सका और देवीसिंह का चलाया हुआ दूसरा पत्थर उसके दूसरे घुटने पर इस जोर से लगा कि वह चलने लायक न रहा, इसके बाद देवीसिंह का चलाया हुआ फिर एक पत्थर उसकी दाहिनी कलाई पर बैठा और तलवार उसके हाथ से छटकर जमीन पर गिर पड़ी। विचित्र मनुष्य की कलाई नकाबपोश की लड़ाई में पहले ही चोट खा चुकी थी, अबकी दफे तो वह ऐसी बेकाम हुई कि उसे विश्वास हो गया कि कई महीने तक तलवार का कब्जा न थाम सकेगी। वह घबराहट के साथ देवीसिंह की तरफ देख ही रहा था कि देवीसिंह का चलाया हुआ एक और पत्थर आया जिसने उसका सिर तोड़ दिया और उसने भहरा कर जमीन पर गिरते-गिरते यह सुना, "देखी राजा वीरेन्द्रसिंह के ऐयार की करामात!"

देवीसिंह तुरन्त उस विचित्र मनुष्य के पास पहुंचे जो जमीन पर बेहोश पड़ा हुआ था। अपने बटुए में से बेहोशी की दवा निकालकर उसे संघाई और उसके हाथ-पैर बांधने के बाद पुनः भूतनाथ के पास आये और बोले, "तुम मेरी इस कार्रवाई से किसी तरह की चिन्ता मत करो और देखो कि मैं इस कम्बख्त को कैसा छकाता हूँ।"

भूतनाथ-मैं आपकी जितनी तारीफ करूँ थोड़ी है। कोई जमाना ऐसा था कि ऐसे दुष्ट लोग मेरे नाम से कांपा करते ते परन्तु अब तो बात ही उल्टी हो गई। अब यह जब मेरे सामने आता है तो 'बालि' बन कर आता है अर्थात् इसकी सूरत देखते ही मेरी ताकत, फुर्ती और चालाकी हवा खाने चली जाती है या इसी दुष्ट का साथ देती है। अच्छा तो अब मुझे क्या करना चाहिए? हाँ इस बात पर भी विचार कर लेना कि मेरी इज्जत अर्थात मेरी स्त्री इसके कब्जे में है, न मालूम इसने उसे कहाँ कैद कर रखा है!

देवीसिंह- (आश्चर्य से भूतनाथ का मुंह देख के) खैर, पहले यह बताओ कि यह कौन है, इससे तुमसे कब मुलाकात हुई और क्या हुआ?

भूतनाथ ने यह तो नहीं बताया कि वह विचित्र मनुष्य कौन है मगर जिस समय से वह मिला और उसके बाद जो-जो हुआ, सब पूरा-पूरा कह सुनाया और देवीसिंह आश्चर्य के साथ सुनते रहे।

देवीसिंह कुछ देर तक सोचते रहे। भगवनिया के छूट जाने का उन्हें बहुत रंज था क्योंकि उन्हें या भूतनाथ को इस बात की खबर नहीं थी कि भगवनिया भूतनाथ के कब्जे से निकल कर नकाबपोश के कब्जे में फंसी है। देवीसिंह इस बात पर देर तक गौर करते रहे कि नकाबपोश कौन होगा, तारा की किस्मत क्या चीज होगी जो गठरी में थी, और वह घूमती-फिरती नकाबपोश के कब्जे में कैसे जा पहुंची? देवीसिंह को विश्वास तो था कि तारा की किस्मत के विषय में भूतनाथ से बढ़कर साफ कोई नहीं समझा सकता मगर साथ ही इसके यह भी निश्चय था कि भूतनाथ अपने मुंह से इन भेदों को इस समय कदापि न खोलेगा और ऐसा करने के लिए जोर देने से उसे कष्ट होगा।

देवीसिंह-अच्छा भूतनाथ, यह बताओ कि तुम मुझ पर विश्वास कर सकते हो? मैं इस दुष्ट के पंजे से तुम्हें छुड़ाने का उद्योग करूंगा। तुम इस बात की चिन्ता न करो कि मैं इसे मार डालूंगा या बहुत दिनों तक कैद कर रक्खूंगा क्योंकि ऐसा करने से तुम्हारी स्त्री को कष्ट होगा और यह बात मुझे मंजूर नहीं है!

भूतनाथ-मैं शपथ-पूर्वक कहता हूँ कि अपनी जिन्दगी का सबसे नाजुक और [ १८० ]कीमती हिस्सा आपके हवाले करता हूँ, आप जैसा चाहें उसके साथ बर्ताव करें, मगर मेरी एक प्रार्थना अवश्य स्वीकार करें।

देवीसिंह―वह क्या?

भूतनाथ―यही कि इस भेद के विषय में मेरी जुबान से कुछ कहलाने का उद्योग न करें और तहकीकात करने पर जो कुछ भेद आपको मालूम हों उन भेदों को भी बिना मेरी इच्छा के राजा वीरेन्द्रसिंह, उनके दोनों कुमार, राजा गोपालसिंह, तारा और कमलिनी पर प्रकट न करें। बस इससे ज्यादा कुछ न कहकर आशा करता हूँ कि मुझे अपना कनिष्ठ भ्राता समझ कर इस दुष्ट के पंजे से छुटकारा दिलावेंगे। हाँ, एक बात कहना भूल गया, वह यह है कि इस दुष्ट को कैद करके आप बेफिक्र न रहियेगा, इसके मददगार लोग बड़े ही शैतान और पाजी हैं।

देवीसिंह―जो कुछ तुमने कहा, मुझे मंजूर है। मैं वादा करता हूँ कि जब तक तुम आज्ञा न दोगे तुम्हारे भेद अपने दिल के अन्दर रक्खूँगा और उद्योग करूँगा जिसमें तुम्हारी आत्मा निरोग हो और तुम स्वतन्त्र होकर विचार कर सको―अच्छा एक काम करो।

भूतनाथ―कहिये।

देवीसिंह―इस दुष्ट को तो मैं अपने कब्जे में करता हूँ, जहाँ मुनासिब समझूँगा ले जाऊँगा, तुम यहाँ से जाओ, कल सवेरे तालाब वाले तिलिस्मी मकान में जिसे दुश्मनों ने खराब कर डाला है मुझसे और कमलिनी से मुलाकात करो। इस बीच अगर हो सके तो श्यामसुन्दरसिंह को खोज निकालो और उसे भी अपने साथ उसी जगह लेते आओ। फिर जो कुछ मुनासिब होगा किया जायगा।

भूतनाथ―(चौंक कर) तो क्या ये सब बातें आप कमलिनी से कहेंगे?

देवीसिंह―हाँ यदि आवश्यकता होगी तो कहूँगा और इसमें तुम्हारा कुछ हर्ज नहीं है, परन्तु विश्वास रक्खो कि इन बातों का असल भेद, जिनका मैं पता भविष्य में लगाऊँगा, अपनी प्रतिज्ञानुसार किसी न कहूँगा।

भूतनाथ—(मजबूरी के ढंग से) बहुत अच्छा, मैं जाता हूँ।

भूतनाथ वहाँ से चला गया। देवी सिंह ने उस विचित्र मनुष्य की गठरी बाँधी और उस जगह आये जहाँ दोनों घोड़ों को छोड़ा था। घोड़ों पर जीन कसने के बाद एक पर उस आदमी को लादा और दूसरे पर आप सवार होकर उस तरफ रवाना हुए जहाँ कमलिनी, किशोरी, कामिनी इत्यादि को छोड़ा था।