चन्द्रकांता सन्तति 3/12.3

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चंद्रकांता संतति भाग 3  (1896) 
द्वारा देवकीनंदन खत्री

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लगाने के लिए तारासिंह को बाहर भेजा और तारासिंह ने लौटकर खबर दी कि भूतनाथ और बलभद्रसिंह में लड़ाई बल्कि यों कहना चाहिए कि जबरदस्त कुश्ती हो रही है।

यह सुनते ही कमलिनी, लाड़िली, देवीसिंह और तेजसिंह बाहर चले गए और देखा कि वास्तव में वे दोनों लड़ रहे हैं और भैरोंसिंह अलग खड़ा तमाशा देख रहा है। भूतनाथ और बलभद्रसिंह की लड़ाई तेजसिंह पहले ही देख चुके थे और उन्हें मालूम हो चुका था कि बलभद्रसिंह भूतनाथ से बहुत जबरदस्त है मगर इस समय जिस खूबी और बहादुरी के साथ भूतनाथ लड़ रहा था उसे देखकर तेजसिंह को ताज्जुब मालूम हुआ और उन्होंने तारासिंह की तरफ देख के कहा, “इस समय भूतनाथ बड़ी बहादुरी से लड़ रहा है। मैं समझता हूँ कि पहली दफे जब हमने भूतनाथ की लड़ाई देखी थी तो उस समय डर और घबराहट ने भूतनाथ की हिम्मत तोड़ दी थी मगर इस समय क्रोध ने उसकी ताकत दूनी कर दी है, लेकिन भैरों चुपचाप खड़ा तमाशा क्यों देख रहा है?”

देवीसिंह―जो हो, पर इस समय उचित है कि पार चल के इन लोगों को अलग कर देना चाहिए, डोंगी एक ही है जो इस समय उस पार गई हुई है।

कमलिनी―सब्र कीजिए, मैं दूसरी डोंगी ले आती हूँ, यहाँ डोंगियों की कमी नहीं है।

इतना कहकर कमलिनी चली गई और थोड़ी देर में मोटे और रोगनी कपड़े की एक तोशक उठा लाई जिसमें हवा भरने के लिए एक कोने पर सोने का पेंचदार मुँह बना हुआ था और उसी के साथ एक छोटी भाथी भी थी। तेजसिंह ने उसी भाथी से बात-की-बात में हवा भरके उसे तैयार किया और उस पर तेजसिंह और देवीसिंह बैठकर पार जा पहुँचे।

तेजसिंह और देवीसिंह को यह देखकर बड़ा ही ताज्जुब हुआ कि दोनों आदमियों का खंजर और ऐयारी का बटुआ भैरोंसिंह के हाथ में है और वे दोनों बिना हर्बे के लड़ रहे हैं। तेजसिंह ने बलभद्रसिंह को और देवीसिंह ने भूतनाथ को पकड़कर अलग किया।

बलभद्रसिंह―इस नालायक कमीने को इतना करने पर भी शर्म नहीं आती, चूल्लू-भर पानी में डूब नहीं मरता और मुकाबला करने के लिए तैयार होता है!

भूतनाथ―मैं कसम खाकर कहता हूँ कि यह असली बलभद्रसिंह नहीं है। वह बेचारा अभी तक कैद में है और इसी की बदौलत कैद में है। जिसका जी चाहे मेरे साथ चले, मैं दिखाने के लिए तैयार हूँ।

बलभद्रसिंह―साथ ही इसके यह भी क्यों नहीं कह देता कि चिट्ठियाँ भी तेरे हाथ की लिखी हुई नहीं हैं!

भूतनाथ―हाँ-हाँ, तेरे हाथ की लिखी वे चिट्ठियाँ भी मेरे पास मौजूद हैं, जिनकी बदौलत बेचारा बलभद्रसिंह अभी तक मुसीबत झेल रहा है।

यह कहकर भूतनाथ ने अपना ऐयारी का बटुआ लेने के लिए भैरोंसिंह की तरफ हाथ बढ़ाया। [ २०५ ]
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जिस समय भूतनाथ ने बलभद्रसिंह से यह कहकर कि 'तेरे हाथ की लिखी हुई वे। चिट्ठियां भी पास मौजूद हैं जिनकी बदौलत बेचारा बलभद्रसिंह अभी तक मुसीबत झेल रहा है' भैरोंसिंह की तरफ ऐयारी का बटुआ लेने को हाथ बढ़ाया। उस समय तेजसिंह को विश्वास हो गया कि बेशक भूतनाथ बलभद्रसिंह को दोषी ठहरावेगा मगर भैरोंसिंह के हाथ से ऐयारी का बटुआ लेने के बाद भूतनाथ ने कुछ सोचा और फिर तेजसिंह की तरफ देखकर कहा


भूतनाथ-- नहीं, इस समय मैं उन चिट्ठियों को नहीं निकालूंगा, क्योंकि यह झट इनकार कर जायगा और कह देगा कि ये चिट्टियाँ मेरे हाथ की लिखी नहीं। आप लोगों को इसके हाथ की लिखावट देखने का मौका अभी तक नहीं मिला है।

बलभद्रसिंह-नही-नहीं, मैं इनकार न करूँगा, तू कोई चिट्ठी निकाल के दिखा तो सही।

भूतनाथ-हाँ-हाँ, मैं चिट्ठियाँ निकालूंगा, मगर इस थोड़ी देर में मैं इस बात को सोच चुका हूँ कि तेरे हाथ की लिखी हुई चिट्टियों को निकालना इस समय की अपेक्षा उस समय विशेष लाभदायक होगा जब मैं तेजसिंह या किसी को ले जाकर असली बलभद्रसिंह का सामना करा दूंगा। (तेजसिंह से)कहिए आप मेरे साथ चलने के लिए तैयार हैं या किसी को साथ भेजेंगे?

तेजसिंह-इस बात का फैसला कमलिनी या लक्ष्मीदेवी करेंगी। मैं तुमको पुनः इस मकान में चलने की आज्ञा देता हूँ, मगर साथ-ही-साथ यह भी कह देता हूँ कि देखो भूतनाथ, तुम बड़े-बड़े जुर्म कर चुके हो और इस समय भी अपने हाथ की लिखी हुई चिठ्टीयों से इनकार नहीं करते, मगर अब मैं देखता हूँ कि तुम पुनः कोई नया पातक किया चाहते हो!

इतना कहकर तेजसिंह ने बलभद्रसिंह का हाथ पकड़ लिया और देवीसिंह तथा भैरोंसिंह को यह कहकर मकान की तरफ रवाना हए कि "हम दोनों के जाने के बाद थोड़ी देर में जब हम कहला भेजें तो भूतनाथ को लेकर मकान में आना।"

बलभद्रसिंह को साथ लिए हुए तेजसिंह मकान के अन्दर आए और कमलिनी, किशोरी तथा तारा इत्यादि से सब हाल कहा।

तारा—इसमें कोई शक नहीं कि भूतनाथ झूठा, दगाबाज और परले सिरे का बेईमान हो चुका है।

कमलिनी-ठीक है (बलभद्रसिंह की तरफ देखके) आप बहुत सुस्त और पसीनेपसीने हो रहे हैं अतएव कपड़े उतारकर आराम कीजिए और ठण्डे होइए।

बलभद्रसिंह-हाँ, मैं भी यही चाहता हूँ।

इतना कहकर बलभद्रसिंह ने कपड़े उतार डाले। उस समय लोगों का ध्यान बलभद्रसिंह के मोढ़े की तरफ गया और सभी ने उस निशान को बहुत अच्छी तरह देखा [ २०६ ]जिसे लक्ष्मीदेवी ने याद दिलाया था।

कमलिनी―(खुशी से बलभद्रसिंह का हाथ पकड़ के और लक्ष्मीदेवी की तरफ करके) देखो बहिन, यह पुराना निशान अभी तक मौजूद है। ऐसी अवस्था में मुझे कोई धोखा दे सकता है? कभी नहीं।

बलभद्रसिंह―(हँसकर) इस निशान को लाड़िली अच्छी तरह पहचानती होगी क्योंकि इसी ने बीमारी की अवस्था में दाँत काटा था।(लम्बी साँस लेकर)अफसोस, आज और उस जमाने के बीच में जमीन-आसमान का फर्क पड़ गया है। ईश्वर, तेरी महिमा कुछ कही नहीं जाती।

बलभद्रसिंह के मोढ़े का निशान देखकर कमलिनी, लाड़िली और लक्ष्मी देवी का शक जाता रहा और इसके साथ-ही-साथ तेजसिंह इत्यादि ऐयारों को भी निश्चय हो गया कि यह बेशक कमलिनी, लक्ष्मीदेवी और लाड़िली का बाप है और भूतनाथ अपनी बदमाशी और हरामजदगी से हम लोगों को धोखे में डालकर दुःख दिया चाहता है।

थोड़ी देर तक बाप-बेटियों के बीच में वैसी ही मुहब्बत-भरी बातें होती रहीं जैसी कि बाप-बेटियों में होनी चाहिये और बीच-ही-बीच में ऐयार लोग भी हाँ, नहीं, ठीक है, बेशक इत्यादि करते रहे। इसके बाद इस विषय पर विचार होने लगा कि भूतनाथ के साथ इस समय क्या सलूक करना चाहिए। बहुत देर तक वाद-विवाद होने पर यह निश्चय ठहरा कि भूतनाथ को कैद कर रोहतासगढ़ भेज देना चाहिए, जहाँ उसके किए हुए दोषों की पूरी-पूरी तहकीकात समय मिलने पर हो जायगी, हाँ लगे हाथ उस कागज के मुट्ठ को अवश्य पढ़कर समाप्त कर देना चाहिए जिससे भूतनाथ की वदमाशियों तथा पुरानी घटनाओं का पता लगता है―तथा इन सब बातों से छुट्टी पाकर किशोरी, कामिनी लक्ष्मी देवी, कमलिनी और लाड़िली को रोहतासगढ़ में चलकर आराम के साथ रहना चाहिए।

ऊपर लिखी बातों में जो तै हो चुकी थीं, कई बातें कमलिनी की इच्छानुसार न थीं मगर तेजसिंह की जिद से, जिन्हें सब लोग बड़ा बुजुर्ग और बुद्धिमान मानते थे, लाचार होकर उसे भी मानना ही पड़ा।

तेजसिंह उसी समय कमरे के बाहर चले गए और जफील बजाकर देवीसिंह तथा भैरोंसिंह का अपनी तरफ ध्यान दिलाया। जब दोनों ऐयारों ने इधर देखा तो तेज सिंह ने कुछ इशारा किया जिससे वे दोनों समझ गए कि भूतनाथ को कैदियों की तरह बेबस करके मकान के अन्दर ले जाने की आज्ञा हुई है। देवीसिंह ने यह बात भूतनाथ से कही, भूतनाथ ने सोचकर सिर झुका लिया और तब हथकड़ी पहनने के लिए अपने दोनों हाथ देवीसिंह की तरफ बढ़ाए। देवीसिंह ने हथकड़ी और बेड़ी से भूतनाथ को दुरुस्त किया और इसके बाद दोनों ऐयार उसे डोंगी पर चढ़ाकर मकान के अन्दर ले आए। इस समय भूतनाथ की निगाह फिर उस कागज के मुट्ठे और पीतल की सन्दूकड़ी पर पड़ी और पुनः उसके चेहरे पर मुर्दनी छा गई।

तेजसिंह―भूतनाथ, तुम्हारा कमूर अब हम सब लोगों को मालूम हो चुका है। यद्यपि यह कागज का मुट्ठा अभी पूरा-पूरा पढ़ा नहीं गया, केवल चार-पाँच चिट्ठियाँ ही [ २०७ ]
इसमें की पढ़ी गई परन्तु इतने ही में सभी का कलेजा काँप गया है। निःसन्देह तुम बहुत कड़ी सजा पाने के अधिकारी हो, अतएव तुम्हें इस समय कैद करने का हुक्म दिया जाता है, फिर जो होगा देखा जायगा।

भूतनाथ―(कुछ सोचकर) मालूम होता है कि मेरी अर्जी पर किसी ने ध्यान नहीं दिया और इस बलभद्रसिंह को सभी ने सच्चा समझ लिया है।

तेजसिंह―बेशक बलभद्रसिंह सच्चे हैं और इस विषय में अब तुम हम लोगों को धोखा देने का उद्योग मत करो, हाँ यदि कुछ कहना है तो इन चिट्ठियों के बारे में कहो जो बेशक तुम्हारे हाथ की लिखी हुई हैं और तुम्हारे दोषों को आईने की तरफ साफ खोल रही हैं।

भूतनाथ―हाँ इन चिट्ठियों के विषय में भी मुझे बहुत-कुछ कहना है, परन्तु सभी लोगों के सामने कुछ कहना उचित नहीं समझता क्योंकि आप लोग मेरा फैसला नहीं कर सकते। - तेजसिंह―सो क्यों, क्या हम लोग तुम्हें सजा नहीं दे सकते?

भूतनाथ―यदि आप धर्म की लकीर को बेपरवाही के साथ लाँघने से कुछ भी संकोच कर सकते हैं तो मेरा कहना सही है, क्योंकि आप लोगों के मालिक राजा वीरेन्द्रसिंह मेरे पिछले कसूरों को माफ कर चुके हैं और इधर राजा वीरेन्द्रसिंह का जो-जो काम मैं कर चुका हूँ उस पर ध्यान देने योग्य भी वे ही हैं। इसी से मैं कहता हूँ कि बिना मालिक के कोई दूसरा मेरे मुकद्दमे को नहीं देख सकता।

तेजसिंह―(कुछ देर तक सोचने के बाद) तुम्हारा यह कहना सही है। खैर जैसा तुम चाहते हो वैसा ही होगा और राजा साहब ही तुम्हारे मामले का फैसला करेंगे मगर मुजरिम को गिरफ्तार और कैद करना तो हम लोगों का काम है।

भूतनाथ―बेशक, कैद करके जहाँ तक जल्द हो सके, मालिक के पास ले जाना जरूर आप लोगों का काम है, मगर कैद में बहुत दिनों तक रखकर किसी को कष्ट देना आपका काम नहीं क्योंकि कदाचित् वह निर्दोष ठहरे जिसे आपने दोषी समझ लिया हो।

तेजसिंह―क्या तुम फिर भी अपने की बेकसूर साबित करने का उद्योग करोगे?

भूतनाथ―बेशक मैं बेकसूर बल्कि इनाम पाने के योग्य हूँ परन्तु आप लोगों के सामने जिन पर अक्ल की परछाईं तक नहीं पड़ी है मैं अब कुछ भी न कहूँगा। आप यह न समझिए मैं केवल इसी बुनियाद पर अपने को छुड़ा लूँगा कि महाराज ने मेरा कसूर माफ कर दिया है। नहीं, बल्कि मेरा मुकदमा कोई अनूठा रंग पैदा करके मेरे बदले में किसी दूसरे ही को कैदखाने की कोठरी का मेहमान बनावेगा।

तेजसिंह―खैर, मैं भी तुम्हें बहुत जल्द राजा वीरेन्द्रसिह के सामने हाजिर करने का उद्योग करूँगा।

इतना कहकर तेजसिंह ने देवीसिंह तरफ देखा और देवीसिंह ने भूतनाथ को तहखाने की कोठरी में ले जाकर बन्द कर दिया।

इस काम से छुट्टी पाकर तेजसिंह ने चाहा कि किसी ऐयार के साथ भूतनाथ और भगवनिया को आज ही रोहतासगढ़ रवाना करें और इसके बाद कागज के मुट्ठे [ २०८ ]को पुनः पढ़ना आरम्भ करें मगर उन्हें शीघ्र ही मालूम हो गया कि कोई ऐयार तब तक भूतनाथ को लेकर रोहतासगढ़ जाना खुशी से पसन्द न करेगा जब तक भूतनाथ की जन्मपत्री पढ़ या सुन न लेगा। अस्तु तेजसिंह की यही इच्छा हुई कि लगे हाथ सब कोई रोहतासगढ़ चले चलें और जो कुछ हो वहाँ ही हो। अन्त में ऐसा ही हुआ अर्थात् तेजसिंह की आज्ञा सभी को माननी पड़ी।