चन्द्रकांता सन्तति 3/12.8

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चंद्रकांता संतति भाग 3  (1896) 
द्वारा देवकीनंदन खत्री

[ २२५ ]

8

उन लोगों ने वह बँधी-बँधाई गठरी तो उसी जगह छोड़ दी और बीच वाले कमरे के दरवाजे पर पहुंचे जिसमें ताला बन्द था। एक आदमी ने लोहे की सलाई के सहारे ताला खोला और इसके बाद सब-के-सब उस कमरे के अन्दर जा पहुँचे। यह कमरा इस समय भी हर तरह से सजा और अमीरों के रहने लायक बना हुआ था। पहले तो उन आदमियों ने मशाल की रोशनी में वहाँ की हरएक चीज को अच्छी तरह गौर से देखा और इसके बाद सभी ने मिलकर वहाँ का फर्श जो जमीन पर बिछा हुआ था उठा डाला। यहाँ की जमीन संगमरमर के चौखूटे पत्थर के टुकड़ों से बनी हुई थी जिसे देख एक ने कहा--

एक-अगर हम लोगों का अन्दाज ठीक है और वास्तव में इसी कमरे का पता [ २२६ ] हम लोगों को दिया गया है तो यहाँ की जमीन में सूराख करना कोई बड़ी बात नहीं है दो-चार पत्थर उखाड़ने से सहज ही में काम चल जायेगा।

दूसरा-बेशक ऐसा ही है, मगर मैं समझता हूँ कि थोड़ी देर रुककर बाबाजी की राह देखना उचित होगा।

तीसरा....अजी, अपना काम करो, इस तरह रुकारुकी में रात बीत जायेगी तो मुफ्त में मारे जायेंगे।

पहला—मारे क्यों जायँगे? यहां है ही कौन, जो हम लोगों को गिरफ्तार करेगा!

तीसरा—(कुछ रुककर और बाहर की तरफ कान लगाकर)किसी के आने की आहट मालूम होती है।

चौथा-(ध्यान देकर) ठीक तो है, मगर सिवाय बाबाजी के और होगा ही कौन?

तीसरा-लीजिए, आ ही तो गए।

चौथा-हमने कहा था कि बाबाजी होंगे।

इतने ही में दो आदमियों को साथ लिए बाबाजी भी वहाँ आ पहुंचे, वही बाबाजी जो मायारानी के तिलिस्मी दरोगा थे। उनके साथ में एक तो मायारानी थी और दूसरा आदमी पटने का सूबेदार वही शेरअलीखाँ था जिसकी लड़की गौहर का हाल ऊपर के किसी बयान में लिखा जा चका है। मायारानी इस समय अपने चेहरे पर नकाब डाले हए थी, मगर उसकी पोशाक जनाने ढंग की और उसी शान-शौकत की थी जैसी कि उन दिनों पहना करती थी जब तिलिस्म की रानी कहलाने का उसे हक था और अपने ऊपर किसी तरह को आफत आने का शानो-गुमान भी न था।

हम इस जगह थोड़ा-सा हाल तेजसिंह का लिख देना भी उचित समझते हैं। कमला की जुबानी समाचार पाकर तेजसिंह तुरन्त तैयार हो गये और तारासिंह वगैरह ऐयारों को साथ लिए हुए महल के उस हिस्से में पहुँचे जिसमें ऊपर लिखी कार्रवाई हो रही थी। उन पांचों बदमाशों को कमरे के अन्दर जाते हुए तेजसिंह ने देख लिया था इसलिए वे छिपते हुए पिछली राह से कमरे की छत पर चढ़ गये। छत के बीचोंबीच में जमीन से दो हाथ ऊँचा एक रोशनदान बना हुआ था जिसके जरिये कमरे के अंदर रोशनी और कुछ धूप भी पहुँचा करती थी। उस रोशनदान में चारों तरफ बिल्लौरी शीशे इस ढंग के लगे हुए थे जिन्हें जब चाहे खोल और बन्द कर सकते थे। तारासिंह तो हिफाजत के लिए हाथ में नंगी तलवार लिए सीढ़ी पर खड़े हो गए और तेजसिंह, देवीसिंह तथा भैरोंसिंह उसी रोशनदान की राह से कमरे के अन्दर का हाल देखने और उन शैतानों की लातचीत सुनने लगे।

अब हम फिर कमरे के अन्दर का हाल लिखते हैं। बाबाजी ने आने के साथ ही उन पांचों आदमियों की तरफ देख के कहा--

बाबाजी -अभी तक तुम लोग सोच-विचार में ही पड़े हो?

एक-अनजान जगह में हम लोग कौन काम जल्दी के साथ कर सकते हैं? खैर [ २२७ ] अब यह बताइये कि यही जमीन खोदी जायेगी या कोई और?

बाबाजी-हाँ, यही जमीन खोदी जायेगी, बस, जल्दी करो, रात बहुत कम है। सिर्फ आठ-दस पत्थर उखाड़ डालो, दो हाथ से ज्यादा मोटो छत नहीं है।

दूसरा-बात-की-बात में सब काम ठीक किये देता है, कोई हर्ज नहीं।

इतना कहकर उन लोगों ने जमीन खोदने में हाथ लगा दिया और बाबाजी, मायारानी तथा शेरअलीखाँ में यों बातचीत होने लगी--

मायारानी—जिस राह से हम लोग आये हैं, उसी राह से अपने फौजी सिपाहियों को भी ले आते तो क्या हर्ज था?

बाबाजी-तुम बाज दफे बच्चों की सी बात करती हो। एक तो वह तिलिस्मी रास्ता इस लायक नहीं कि उस राह से हम सैकड़ों फौजी आदमियों को ला सके। क्या जाये या कैसी आफत आ पड़े, सिवाय इसके सैकड़ों बल्कि हजारों आदमियों पर तिलिस्मी गुप्त भेदों का प्रकट कर देना क्या मामुली बात है? अगर ऐसा होता तो बुजुर्ग लोग जिन्होंने इस किले और तिलिस्म को तैयार किया है यह रास्ता क्यों बनाते जिसे इस समय हम लोग खोद रहे हैं? इसे भी जाने दो, सबसे भारी बात सोचने की यह है कि इस तिलिस्मी रास्ते से जिधर से हम लोग आये हैं, हमारी फ़ौज इस किले में तब पहुँच सकती है जब वह इस पहाड़ के ऊपर चढ़ आये मगर यह कब हो सकता कि हजारों आदमी इस पहाड़ पर चढ़ आवें और किले वालों को खबर तक न हो। ऐसा होना बिल्कुल असम्भव है, मगर जब हम इस रास्ते को खोल देगे तो हमारे फौजी सिपाहियों को पहाड पर चढ़ने की जरूरत न रहेगी, क्योंकि इसका दुसरा मुहाना 'जस' नदी के किनारे पड़ता है जो इस पहाड़ के नीचे कुछ हटकर बहती है।

मायाराती-तो क्या यहाँ से उस नदी तक जाने के लिए पहाड़ के अन्दर हो अन्दर सीढियां बनी हुई हैं?

बाबाजी-बेशक ऐसा ही है। रास्ते के बारे में इस किले की अवस्था ठीक 'देवगढ़' की तरह समझनी चाहिए। मैं जहाँ तक खयाल करता हूँ यह रोहतासगढ़ का किला

1. देवगढ़' का किला हैदराबाद (दक्षिण) लगभग तीन सौ मील के उत्तर और पश्चिम के कोने में है। यह किला बहुत ऊँची पहाड़ी के ऊपर विचित्र ढंग का बना हुआ है जिसके देखने से आश्चर्य होता है। पहाड़ का बहुत बड़ा भाग छील-छालकर दीवार की जगह पर कायम किया गया है। पहाड़ के चारों तरफ एक खाई है, उसके बाद तिहरी दीवार है। अन्दर जाने का रास्ता किसी तरफ से मालूम नहीं होता। शहर उन तीनों दीवारों के बाहर बसा हुआ है और बाहर के शहरपनाह की बड़ी मजबूत दीवार है। पहाड़ काटकर अन्दर किले में जाने के लिए उसी तरह की सीढ़ियाँ बनी हुई हैं जैसे किसी बजं या धरहरे के ऊपर चढ़ने के लिए होती हैं। उस राह से जानकार आदमी का भी बिना मशाल की रोशनी के सीढ़ियां चढ़कर किले के अन्दर जाना बहुत मुश्किल है। किले के अन्दर जहाँ वह रास्ता समाप्त हुआ है उसके मुह पर भारी लोहे का तवा इसलिए रखा हुआ है कि यदि कदाचित् दुश्मन इस रास्ते से घुस भी आवे तो तवे के ऊपर सैकड़ों मन लकड़ियां रखकर आग जला दी जाय जिसमें उसकी गर्मी से दुश्मन अन्दर-ही-अन्दर जल मरें। इस किले में पानी के कई हौज हैं और एक सौ साठ

(शेष पृष्ठ 328 पर देखें)

[ २२८ ]और वह देवगढ़ का किला एक ही आदमी का बनवाया हुआ है।

मायारानी―तो क्या फौज के सिपाही भीतर-ही-भीतर इस छत को नहीं तोड़ सकते थे जो दूसरी राह से आकर हम लोगों को यह काम करना पड़ा?

बाबाजी―नहीं, इसका एक खास सबब और भी है जो इस समय छत के नीचे जाने ही से तुम्हें मालूम हो जायेगा। (शेरअलीखाँ की तरफ देख के) मैं समझता हूँ आपकी फौज उस नदी के किनारे नियत स्थान पर पहुँच गई होगी?

शेरअलीखाँ―जरूर पहुँच गई होगी, केवल हम लोगों के जाने की देर है, मगर अफसोस यही है कि अब रात बहुत कम रह गई है।

बाबाजी―कोई हर्ज नहीं, आजकल इस बाग में बिल्कुल सन्नाटा रहता है, कोई झाँकने के लिए भी नहीं आता, मगर पहर दिन चढ़े तक भी हमारी फौज यहाँ तक आ पहुँचे तो किसी को पता न लगेगा और बात-की-बात में यह किला अपने कब्जे में आ जायेगा। बड़ी खुशी की बात तो यह है कि आजकल किशोरी, कामिनी, लाड़िली और तारा भी इस किले में मौजूद हैं।

इतने ही में बाहर की तरफ से आवाज आई, "तारा मत कहो, लक्ष्मीदेवी कहो, क्योंकि अब तारा और लक्ष्मीदेवी में कोई भेद नहीं रहा।"

आश्चर्य से बाबाजी, मायारानी शेरअलीखाँ और उन पाँचों आदमियों की निगाह जो जमीन खोदने में लगे हुए थे, दरवाजे की तरफ घूम गई और उन्होंने एक विचित्र आदमी को कमरे के अन्दर आते देखा। हमारे ऐयार लोग भी जो छत के ऊपर रोशनदान की राह से झाँककर देख रहे थे, ताज्जुब के साथ उस आदमी तरफ देखने लगे।

इस विचित्र आदमी का तमाम बदन बेशकीमत स्याह पोशाक और फौलादी जर्रः मोजे और जाली इत्यादि से ढका हुआ था, केवल चेहरे का हिस्सा फौलादी जालीदार बारीक नकाब के अन्दर से झलक रहा था मगर वह इतना ज्यादा काला था और लाल तथा बड़ी-बड़ी आँखें ऐसी चमक रही थीं कि देखने से डर मालूम होता था। यह आदमी बहुत ही ताकतवर है इसका अन्दाज तो केवल इतने ही से मिल सकता था कि उसके बदन पर कम-से-कम दो मन लोहे का सामान था और उसकी चाल बहुत गम्भीर तथा निडर बहादुरों की सी थी। ढाल, तलवार और खंजर के सिवाय और कोई हरबा उसके पास दिखाई न देता था।

इस विचित्र आदमी के आते ही ताज्जुब के साथ-ही-साथ डर भी सभी के दिल पर

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फुट ऊँचा एक बुर्ज भी है जिस पर से दूर-दूर तक की छटा दिखाई देती है। यह किला अभी तक देखने लायक है, देखने से अक्ल दंग होती है, मुमकिन नहीं कि कोई इसे लड़कर फतह कर सके। चौदहवीं सदी में दिल्ली का बादशाह 'मुहम्मद तुगलक' दिल्ली उजाड़ के वहाँ की रिआया को इसी देवगढ़ में बसाने के लिए ले गया था और देवगढ़ का नाम दौलताबाद रखकर इसे अपनी राजधानी कायम किया था, परन्तु अन्त में उसे पुन: लौटकर दिल्ली आना पड़ा। देवगढ़ के इर्दगिर्द कई स्थान अब भी देखने योग्य हैं, जैसे कि एलोरा की गफा इत्यादि, जिसका आनन्द देशाटन करने वालों को ही मिल सकता है।

च॰स॰-3-14
 
[ २२९ ]

छा गया और बाबाजी ने घबराई आवाज में इस आदमी से पूछा, "आप कौन हैं?"

आदमी-हम जिन्न हैं।

बाबाजी-मैं समझता हूँ कि जिन्न किसे कहते हैं।

आदमी-जिन्न उसको कहते हैं जो सब जगह पहुँच सके, भूत भविष्य वर्तमान तीनों कालों का हाल जाने, कोई हरबा उस पर असर न करे और जो किसी के मारने से न मरे।

बाबाजी-(ताज्जुब से) तो क्या ये सब गुण आप में हैं

जिन्न–बेशक!

बाबाजी-मैं कैसे समझूं?

जिन्न-आजमा के देख लो!

बाबाजी तो उस जिन्न से बातें कर रहे थे, मगर मायारानी और शेरअलीखाँ का डर के मारे कलेजा सूख रहा था। मायारानी तो औरत ही थी मगर शेरअलीखां बहादुर होकर डर के मारे काँप रहा था। इसका सबब शायद यह हो कि मुसलमान लोग जिन्न का होना वास्तविक और सच मानते हैं। जो हो मगर बाबाजी अर्थात् दारोगा को जिन्न की बात का विश्वास नहीं हो रहा था, फिर भी जिस समय उसने कहा कि 'आजमा के देख लो' तो उस समय दारोगा भी बेचैन हो गया और सोचने लगा कि इसे किस तरह आजमावें?

जिन्न - शायद तुम सोच रहे हो कि इस जिन्न को किस तरह आजमावें क्योंकि तुम्हारे पास कोई जरिया आजमाने का नहीं है। अच्छा, हम खुद अपनी बात का सबूत देते हैं, लो, सम्हल जाओ!

इतना कहकर उस जिन्न ने अपना बदन झाड़ा और अंगड़ाई ली, इसके बाद ही उसके तमाम बदन में से आग की चिनगारियां निकलने लगी और इतनी ज्यादा चमक पैदा हई कि सभी की आँखें चौंधियाने लगीं। यह चिनगारियां और चमक उस फौलादी जर्र: और जाल में से निकल रही थी जो वह अपने बदन में पहने हुए था। यह हाल देखकर मायारानी, शेरअलोखाँ और पांचों आदमी घबरा गये मगर दारोगा को फिर भी विश्वास न हुआ, तिलिस्मी खंजर की तरह उसके जर्र: और जाल में भी किसी प्रकार का तिलिस्मी असर खयाल करके उसने अपने दिल को समझा लिया और कहा।

दारोगा-खैर, इससे हमें कोई मतलब नहीं, आप यह कहिये कि यहाँ किस काम से आये हैं?

जिन्न-(चिनगारियों और चमक को बन्द करके)तुम लोगों की हरामजदगी का तमाशा देखने और तुम लोगों के कामों में विघ्न डालने के लिए।

दारोगा-यह तो मैं खूब जानता हूँ कि तुम न तो जिन्न हो और न शैतान ही बल्कि कोई धूर्त ऐयार हो। यह सामान जो तुम्हारे बदन पर है, तिलिस्मी है और सहज में तुम्हें कोई गिरफ्तार नहीं कर सकता। मगर साथ ही इसके यह भी समझ रखो कि मैं तिलिस्म का दारोगा हूँ और चालीस वर्ष तक तिलिस्म का इन्तजाम करता रहा हूँ।

जिन्न-(जोर से हँसकर) बेईमान, हरामखोर, उल्लू का पट्ठा कहीं का! [ २३० ]दारोगा-(गुस्से से) बस, जुबान सम्हालकर बातें करो।

जिन्न-अबे जा दूर हो सामने से। चालीस वर्ष तक तिलिस्म का इन्तजाम करता रहा! तेरे ऐसे बेईमान और मालिक की जान लेने वाले भी अगर तिलिस्मी कारखाने को जानने की डींग हाँके तो बस हो चुका। बस, अब बेहतरी इसी में है कि तुम यहाँ से चले जाओ और जो किया चाहते हो उसका ध्यान छोड़ो नहीं तो अच्छा न होगा।

इतना कहकर उसने शेरअलीखाँ, मायारानी और उन पांचों आदमियों की तरफ भी देखा जो इस मकान में पहले आये थे।

दारोगा ने क्षण-भर तो कुछ सोचा और फिर शेरअलीखाँ की तरफ देख के बोला, "क्या एक अदना ऐयार मक्कारी करके हम लोगों का बना-बनाया खेल चौपट कर देगा? देख क्या रहे हो! मारो इस कम्बख्त को, बचकर जाने न पावे।"

शेरअलीखाँ पहले तो कुछ सहमा हुआ था, मगर दारोगा की बातचीत ने उसे निडर कर दिया और जिन्न का खयाल छोड़ उसने भी कुछ-कुछ यकीन कर लिया कि यह कोई ऐयार है। आखिर उसने म्यान से तलवार निकाल ली और उन पांचों आदमियों की तरफ जो जमीन खोदने के लिए आये थे कुछ इशारा करके जिन्न के ऊपर हमला किया। जिन्न ने इसकी कुछ भी परवाह न की और बड़े गम्भीर भाव से चुपचाप खड़ा रहा तथा शेरअलीखाँ के हमले को बरदाश्त कर गया, मगर शेरअलीखाँ के हमले का नतीजा कुछ भी न निकला क्योंकि उसकी तलवार आवाज देती हुई जमीन पर गिर पड़ी। इसके साथ ही उन पांचों आदमियों ने भी जिन्न पर हमला किया, मगर जिन्न ने इसकी भी कुछ परवाह न की, बल्कि शेरअलीखाँ के गले में हाथ डाल तथा पैर की आड़ लगाकर ऐसा झटका दिया कि वह किसी तरह सम्हल न सका और जमीन पर गिर पड़ा। जिन्न उसकी छाती पर सवार हो गया और जोर से बोला, "खबरदार, मुझ पर कोई हमला न करे। कोई मेरी तरफ बढ़ा और मैंने शेरअलीखाँ का सिर काटकर अलग किया।"

मालूम होता है कि वे पांचों आदमी शेरअलीखाँ के ही नौकर थे क्योंकि उसी के उशारे से जिन्न पर हमला करने के लिए तैयार हो गये थे और जब उसी को जिन्न के नीचे मजबूर देखा तो यह सोचकर कि कदाचित् हम लोगों के हमला करने से नाराज होकर जिन्न उसका सिर काट ही न ले हमला करने से रुक गये और पीछे हटकर ताज्जुब की निगाहों से उस विचित्र व्यक्ति को देखने लगे जिसने अपना नाम जिन्न रखा था, साथ ही इसके डर और आश्चर्य ने मायारानी और दारोगा के पैर भी वही चिपका दिये।

जब हमला करने वाले अलग हो गये तो जिन्न ने नर्मी के साथ शेरअलीखाँ से कहा जो उसके नीचे दबा हुआ मजबूर पड़ा था और जीवन की आशा छोड़ चुका था

जिन्न-मुझे आपसे किसी तरह की दुश्मनी नहीं और न मैं आपकी जान ही लिया चाहता हूँ, सिर्फ दो बात आपसे पूछा चाहता हूँ, लेकिन अगर इसमें किसी तरह के हीले और हुज्जत को जगह मिलेगी तो लाचार रहम भी न कर सकूँगा।

शेरअलीखाँ-वे कौन-सी दो बातें हैं?

जिन्न-एक तो जो कुछ मैं इस समय आपने पूर्वी, उसका जवाव एकदम सचसच दीजिये। [ २३१ ]शेरअलीखाँ ने सिर हिला दिया, मानो स्वीकार किया।

जिन्न—दूसरी बात मैं अपने सवालों के अन्त में कहूंगा।

शेरअलीखाँ-बहुत अच्छा, इन्हें भी पूछ डालिये।

जिन्न--आपने इस कम्बख्त 'मुन्दर' का साथ क्यों दिया, जिसने अपने को मायारानी के नाम से मशहूर कर रखा है?

'मुन्दर' के शब्द में जादू का असर था जिसने मायारानी और दारोगा के कलेजे को दहला दिया। यह एक ऐसी गुप्त और भेद की बात थी जिसके सुनने के लिए दोनों तैयार न थे और न यहाँ सुनने की उन दोनों की आशा ही थी।

शेरअलीखाँ–(ताज्जुब से) मुन्दर!

जिन्न-हाँ मुन्दर, आप यह न समझिये कि यह आपके दोस्त बलभद्रसिंह की लड़की है।

शेरअलीखाँ–तो क्या यह हमारे दोस्त के दुश्मन हेलासिंह की लड़की मुन्दर है?

जिन्न--जी हाँ।

शेरअलीखां--(जोश के साथ)बस आप मेहरबानी करके मुझे छोड़ दीजिए। अगर आप बहादुर हैं और आपको बहादुरी का दावा है तो मुझे छोड़िये, मैं कसम खाकर कहता हूँ कि अगर आपकी यह बात सच निकली तो आपकी गुलामी अपनी इज्जत का सबब समझूंगा।"

जिन्न तुरन्त उसकी छाती पर से उठकर अलग खड़ा हो गया और मायारानी तथा दारोगा की सुरत गौर से देखने लगा, जिनके चेहरे का रंग गिरगिट की तरह बदल रहा था।

शेरअलीखाँ उठकर खड़ा हो गया और गुस्से-भरी आँखों से मायारानी की तरफ देखकर बोला, "इस बहादुर ने (जिन्न की तरफ इशारा करके) जो कुछ कहा, क्या वह ठीक है?"

मायारानी-झूठ, बिल्कुल झूठ!

जिन्न–शायद मुन्दर को इस बात की खबर नहीं कि असली मायारानी अर्थात् लक्ष्मीदेवी का बाप प्रकट हो गया है और वीरेन्द्रसिंह के ऐयारों के सामने ही वह अपनी लड़की लक्ष्मीदेवी से मिला जो तारा के नाम से कमलिनी के मकान में इस तरह रहती थी कि कमलिनी को भी अब तक उसका हाल मालूम न होने पाया था और इस समय बलभद्रसिंह और लक्ष्मीदेवी इस रोहतासगढ़ किले के अन्दर मौजद भी हैं। (शेरअलीखाँ से) मैं समझता हूँ कि तुम उनसे मिलना खुशी से पसन्द करोगे और मुलाकात होने पर सच-झूठ का शक भी न रहेगा, अच्छा, अब मैं जाता हूँ। तुम जो मुनासिब समझो, करो।

शेरअलीखाँ-सुनिये, वह दूसरी बात तो आपने कही ही नहीं।

जिन्न-अब इस समय उसके कहने की कोई जरूरत नहीं मालूम पड़ती है, फिर देखा जायेगा!

इतना कह जिन्न तो वहाँ से रवाना हो गया और इन सभी को परेशानी की हालत में छोड़ गया। मायारानी और दारोगा की इस समय अजब हालत थी। मौत की भयानक [ २३२ ]
सूरत उनकी आँखों के सामने दिखाई दे रही थी, तमाम बदन सनसना रहा था, सिर में चक्कर आ रहे थे, पैरों में इतनी कमजोरी आ गई थी कि खड़ा रहना मुश्किल हो गया था, यहाँ तक कि दोनों जमीन पर बैठ गये और अपनी बदकिस्मती का इन्तजार करने लगे।

जिन्न के चले जाने के बाद शेरअलीखाँँ ने मायारानी की तरफ देख के कहा―

शेरअलीखाँ―तूने तो केवल एक ही कलंक का टीका अपने माथे पर दिखाया था जिस पर मैंने इसलिये विशेष ध्यान नहीं दिया कि तू मेरे दोस्त की लड़की है, मगर अब तो एक ऐसी बात मालूम हुई है जिसने मुझे तड़पा दिया, मेरे कलेजे में दर्द पैदा कर दिया, रंजोगम का पहाड़ मेरे ऊपर डाल दिया। अफसोस, बलभद्रसिंह मेरा लँगोटिया दोस्त और लक्ष्मीदेवी मेरी मुँह बोली लड़की! हाँ राजा गोपालसिंह से मुझे कोई ऐसा सरोकार न था सिवाय इसके कि वह मेरे दोस्त का दामाद था। निःसन्देह यह सब काम इसी कम्बख्त दारोगा की मदद से किया गया होगा!

मुन्दर—(खड़ी होकर) बड़े अफसोस की बात है कि तुमने एक मामूली आदमी की झूठी बातों पर विश्वास करके मेरी तरफ कुछ भी ध्यान न दिया और न अपनी तथा उसकी बर्बादी का ही कुछ खयाल किया जिसके साथ तुमने कई काम करने के लिए कसमें खाई थीं।

शेरअली―खैर, मैं थोड़ी देर के लिए तेरी बात माने लेता हूँ कि वह एक झूठा और मामूली आदमी था, मगर इस बात का पता लगाना कौन कठिन है कि इस वक्त इस किले के अन्दर बलभद्रसिंह है या नहीं।

मुन्दर—उस बनावटी जिन्न ने तुम्हें धोखा दिया, जब उसने देखा कि वह अकेले हम लोगों को गिरफ्तार नहीं कर सकता तो यह चालबाजी खेली जिसमे तुम मेरे बाप बलभद्रसिंह का पता लगाने के लिए जिसे मरे हुए एक जमाना बीत गया है, इस किले वालों से मिलकर गिरफ्तार हो जाओ और अपने साथ हम लोगों को भी बरबाद करो। अगर तुमको उसकी सचाई पर ऐसा ही दृढ़ विश्वास है तो हम लोगों को इस किले के बाहर पहुँचा दो और तब जो जी में आवे सो करो।

शेरअली―जब मुझे उसकी बातों पर विश्वास ही है तो तुझे यहाँ से राजी-खुशी के साथ क्यों जाने दूँगा जिसने हजारों आदमियों को धोखे में डालकर बर्बाद किया और मुझे प्रतापी राजा वीरेन्द्रसिंह के साथ दुश्मनी करने के लिए तैयार किया?

मुन्दर―तुमने मुफ्त में मेरा साथ देना स्वीकार नहीं किया, तुमने मेरे बाप बलभद्रसिंह की दोस्ती का खयाल नहीं किया बल्कि तुमने उस दौलत की लालच में पड़ कर मेरा साथ दिया जिसने तुम्हें अमीर ही नहीं बल्कि जिन्दगी भर के लिए लापरवाह कर दिया―मेरे बाप बलभद्रसिंह के साथ तुमको मुहब्बत थी यह बात तो मैं तब समझूँ जब सब मेरी दौलत मुझे वापस कर दो। यह भला कौन भलमनसी की बात है कि मेरी कुल जमा-पूँजी लेकर मुझे कंगाल बना दो और अन्त में यों धोखा देकर बर्बाद करो!

शेरअली―(हँसकर) यह किसी बड़े भारी बेवकूफ का काम है कि अपने घर में आई दौलत को फिर निकाल बाहर करे तिस पर भी ऐसे नालायक की दौलत जिसने एक नहीं बल्कि सैकड़ों खून किये हों! [ २३३ ]मुन्दर—(क्रोध में आकर) तो क्या तुम अपने मन की ही करोगे?

शेरअली-बेशक!

मुन्दर—अच्छा तो मैं जाती हूँ, जो तुम्हारे जी में आवे, करो।

शेरअली-ऐसा नहीं हो सकता।

इतना मानते ही मायारानी ने तिलिस्मी खञ्जर कमर से निकाल लिया और शेरअलीखाँ की तरफ बढ़ा ही चाहती थी कि सामने के दस्ताव से आता हुआ वही जिन्न दिखाई पड़ा।

जिन्न-(मायारानी की तरफ इशारा करके) इसके कब्जे से तिलिस्मी खञ्जर ले लेना मैं भूल गया था क्योंकि जब तक यह खञ्जर इसके पास रहेगा, यह किसी के काबू में न आएगी।

यह कहकर उसने मायारानी की तरफ हाथ बढ़ाया और मायारानी ने वह खंजर उसके बदन के साथ लगा दिया, मगर उस पर इसका असर कुछ भी न हुआ। जिन्न ने मायारानी के हाथ से खंजर छीन लिया तथा अँगूठी भी निकाल ली और इसके बाद फिर बाहर का रास्ता लिया।

दरोगा और जितने आदमी वहाँ मौजूद थे, सब आश्चर्य और डर के साथ मुंह देखते ही रह गये, कोई एक शब्द भी मुँह से न निकाल सका।

अब इस जगह हम पुनः थोड़ा-सा हाल उन ऐयारों का लिखना चाहते हैं जो इस कमरे की छत पर बैठे सब तमाशा देख और सभी की बातें सुन रहे थे।

शेरअलीखाँ को छोड़कर जब वह जिन्न कमरे के बाहर निकला तो उसी समय तेजसिंह छत के नीचे उतरे और इस फिक्र में आगे की तरफ बढ़े कि जिन्न का पीछा करें मगर जब ये छिपते हुए सदर दरवाजे के पास पहुँचे, जिधर से वह जिन्न आया और फिर गया था तो उन्होंने और भी कई बातें ताज्जूब की देखीं। एक तो यह कि वह जिन लौट कर चला नहीं गया, बल्कि अभी तक दरवाजे की बगल में छिपा हुआ खड़ा के और कान लगाकर सब बातें सुन रहा है। दूसरे यह कि जिन्न अकेला नहीं है, बल्कि उसके साथ एक आदमी और भी है जो स्याह नकाब से अपने को छिपाये हुए और हाथ में एक नंगी तलवार लिए है। जब यह जिन्न दोहरा कर कमरे के अन्दर गया और मायारानी से तिलिस्मी खंजर छीन कर फिर बाहर चला आया तो अपने साथी को लिए हए बाग की तरफ चला और कुछ दूर जाने के बाद अपने साथी से बोला, "आओ भूतनाथ, अब तुमको फिर उसी कैदखाने में छोड़ आवें जिसमें राजा वीरेन्द्रसिंह के ऐयारों ने तम्हें कैद किया था और उसी तरह हथकड़ी-बेड़ी तुम्हें पहना दें जिसमें उन लोगों को इस बात का गुमान भी न हो कि भूतनाथ को कोई छुड़ा ले गया था!"

भूतनाथ-बहुत अच्छा, मगर यह तो कहिये कि अब मेरी क्या दशा होगी?

जिन्न-दशा क्या होगी? मैं तो कह ही चुका कि तुम हर तरह से बेफिक्र रहो ठीक समय पर मैं तुम्हारे पास पहुँच जाऊँगा।

भूतनाथ-जैसे आपकी मर्जी, मगर मैं समझता हूँ कि राजा वीरेन्द्रसिंह के आने में अब विलम्ब नहीं और उनके आने के साथ ही मेरा मुकदमा पेश हो जायगा। [ २३४ ]जिन्न–क्या हर्ज है, मुझे तुम हर वक्त अपने पास समझो और बेफिक्र रहो।

भूतनाथ-जो मर्जी।

तेजसिंह ने जो छिपे हुए उन दोनों के पीछे जा रहे थे, ये बातें भी सुन ली और उन्हें हद से ज्यदा आश्चर्य हुआ। जिन्न और भूत दोनों उस मकान के पास पहुँचे जिसकी छत फोड़ी गई थी और जो तिलिस्मी तहखाने के अन्दर जाने का दरवाजा था। भूतनाथ ने कमन्द लगाई और उसी के सहारे जिन्न तथा भूतनाथ उसके ऊपर चढ़ गए और टूटी हुई छत की राह से अन्दर उतर गए। तेजसिंह ने भी उसके अन्दर जाने का इरादा किया मगर फिर कुछ सोचकर लौट आए और उसी कमरे की छत पर चले गए जहां अपने साथियों को छोड़ा था।

अब हम पुनः कमरे के अन्दर का हाल लिखते हैं। जब मायारानी से तिलिस्मी खंजर छीन कर वह जिन्न कमरे के बाहर चला गया तो मायारानी बहत ही डरी और जिन्दगी से नाउम्मीद होकर सोचने लगी कि अब जान बचना मुश्किल है, बड़ी नादानी की जो यहाँ आई, भाग निकलने पर भी धनपत वाली करोड़ों रुपये की जमा मेरे हाथ में थी। अगर चाहती या आज के दिन की खबर होती तो किसी और मुल्क में चली जाती और जिन्दगी भर अमीरी के साथ आनन्द करती। मगर दुमश्नी की डाह में वह भी न होने पाया, असंभव बातों के लालच में पड़ कर शेरअलीखाँ के घर में वह सब माल रख दिया और उस स्वार्थी और मतलबी ने ऐसे समय में मेरे साथ दगा की। अब क्या किया जाय? मैं कहीं की भी न रही। एक तो अब मुझे बचने की आशा ही नहीं रही, फिर अगर मान भी लिया जाय कि पहले की तरह यदि अब भी राजा गोपालसिंह मुझे छोड़ देंगे तो मैं कहाँ जाकर रहूँगी और किस तरह अपनी जिन्दगी बिताऊँगी? हाय, इस समय मेरा मददगार कोई भी नहीं दिखाई देता!

मायारानी इन सब बातों को सोच रही थी और शेरअलीखाँ क्रोध में भरा हआ लाल आँखों से उसे देख रहा था कि यकायक कई आदमियों के आने की आहट पाकर वे दोनों चौंके और दरवाजे की तरफ घूम गये। हमारे बहादुर ऐयारों पर नजर पड़ी और सब के सघ आश्चर्य से उनकी तरफ देखने लगे।

सूबह की सफेदी ने रात की स्याही को धोकर अपना रंग इतमा जमा लिया था कि बाग का हरएक गुलबूटा साफ-साफ दिखाई देने लग गया था जब तेजसिंह, देवीसिंह, भैरोंसिंह और तारासिंह कमरे की छत पर से नीचे उतरे और शेरअलीखाँ, मायारानी और उनके आदमियों के सामने जा खड़े हुए।

तेजसिंह ने मुस्कराते हए मायारानी की तरफ देखा और आगे बढ़कर कहा

तेजसिंह केवल राजा गोपालसिंह ही ने नहीं, बल्कि हम लोगों ने भी उनकी आज्ञा पाकर इसलिए कई दफे तुझे छोड़ दिया था कि देखें न्यायी ईश्वर तुझे तेरे पापों का फल क्या देता है मगर ईश्वर की मर्जी का पता लग गया। वह नहीं चाहता कि तू एक दिन भी आराम के साथ कहीं रह सके और हम लोगों के सिवाय किसी दूसरे या गैर पर अपनी जिन्दगी की आखिरी नजर डाले। केवल तू ही नहीं (दारोगा की तरफ देखकर) इस नकटे की बदकिस्मती भी इसे किसी दूसरी जगह जाने नहीं देती और घुमा [ २३५ ]फिरा कर घर-बैठे हम लोगों के सामने ले आती है। हाँ, यह (शेरअलीखाँ) एक नये बहादुर हैं जो हम लोगों के साथ दुश्मनी करने के लिए तैयार हुए हैं।

शेरअलीखाँ―(हाथ जोड़कर) नहीं-नहीं, मैं खुदा की कसम खाकर कहता हूँ कि मैं आप लोगों के साथ दुश्मनी का वर्ताव नहीं रक्खा चाहता और न मुझमें इतनी सामर्थ्य है। मुझे तो इस बदकार ने धोखा दिया। मुझे इसका असल हाल मालूम न था। मैं सुन चुका हूँ कि आप लोग बड़े बहादुर और दिल खोल के खैरात देनेवाले हैं इसलिए भीख के ढंग पर अपने उन कसूरों की माफी माँगता हूँ जो इस वक्त तक कर चुका हूँ।

तेजसिंह―अगर तुम्हारा दिल साफ है और आगे कसूर करने का इरादा नहीं है तो हमने माफ किया। अच्छा आओ और इन दोनों बदकारों को लेकर हमारे साथ चलो। हाँ, यह तो बताओ कि ये पाँचों आदमी तुम्हारे हैं या इस दरोगा के हैं?

शेरअलीखाँ―जी हाँ, ये पाँचों आदमी मेरे ही हैं।

तेजसिंह―और भी तुम्हारा कोई आदमी इस वाग में आया या आने वाला है?

शेरअलीखाँ―जी नहीं, मगर थोड़ी-सी फौज इस पहाड़ी के नीचे नदी-किनार मौजूद है जिसका...

तेजसिंह―(बात काट कर) उसका हाल हमें मालूम है, खैर देखा जायगा, तुम हमारे साथ आओ।

तेजसिंह की आज्ञानुसार सब के सब कमरे के बाहर निकले। मायारानी और दरोगा के लिए इस वक्त मौत का सामान था, मगर लाचार कोई वस नहीं चल सकता था और न वे दोनों यहाँ से भाग ही सकते थे। तेजसिंह ने भैरोंसिंह को कुछ समझाकर उसी बाग में छोड़ दिया। और बाकी सभी को साथ लिए हुए अपने स्थान का रास्ता लिया। रास्ते में शेरअलीखाँ से यों बातचीत होने लगी―

तेजसिंह―आज की रात केवल हम लोगों के लिए नहीं बल्कि तुम्हारे लिए भी अनूठी ही रही।

शेरअलीखाँ―बेशक ऐसा ही है, जिस राह से मैं इस बाग में आया हूँ और यहाँ आकर जो कुछ देखा जन्म भर याद रहेगा। मैं निश्चिन्त होने पर सब हाल आपसे कहूँगा तो आप भी सुनकर आश्चर्य करेंगे।

तेजसिंह―हमें सब हाल मालूम है। रास्ते के बारे में हम लोगों के लिए कोई नई बात नहीं है क्योंकि जिस तहखाने की राह तुम लोग आये हो, उसी राह से हम लोग कई दफे आ चुके हैं। रही जिन्न वाली बात, सो वह भी हम लोगों से छिपी नहीं है।

शेरअलीखाँ―(ताज्जुब से) क्या आप लोग बहुत देर से यहाँ आये हुए थे?

तेजसिंह―देरी से! बल्कि हमारे सामने तुम इस बाग में आये हो। हाँ, तुम्हारे पाँचों नौकर पहले आ चुके थे, बल्कि यों कहना चाहिए कि उन्हीं के आने की खबर पाकर हम लोग आए थे।

शेरअलीखाँ―आप लोग हम लोगों को कहाँ से देख रहे थे?

तेजसिंह―सो नहीं कह सकते, मगर कोई मामला ऐसा नहीं हुआ जिसे हम लोगों ने न देखा हो या जिसे हम लोग न जानते हों। (मायारानी और दारोगा की [ २३६ ]
तरफ इशारा करके) हम लोगों का साममा होने के पहले तक ये दोनों कम्बख्त सोचते होंगे कि जिन्न ने पहुँच कर काम में बाधा डाल दी, नहीं तो कमरे की जमीन खुद जाती और सुरंग की राह से तुम्हारी फौज यहाँ पहुँच कर किले को दखल कर लेती।

शेरअलीखाँ―बेशक ऐसा ही है और मैं भी इसका पक्ष लिए ही जाता अगर उन जिन्न ने, चाहे वह कोई भी हो, मुझे कह न दिया होता कि “यह मायारानी असल में तुम्हारे दोस्त की लड़की लक्ष्मीदेवी नहीं है बल्कि तुम्हारे दोस्त के दुश्मन हेलासिंह की लड़की मुन्दर है।”

तेजसिंह―मगर यह खयाल झूठा था क्योंकि तुम्हारी फौज के आने की खबर हम लोगों को मिल चुकी थी और हम लोग उसके रोकने का बन्दोबस्त कर चुके थे केवल इतना ही नहीं बल्कि तुम्हारी फौज के सेनापति महबूबखाँ को हमारे एक ऐयार ने गिरफ्तार करके पहर रात जाने के पहले ही इस किले में पहुँचा भी दिया था।

शेरअलीखाँ―(आश्चर्य से) तो क्या महबूबखाँ यहाँ कैद है?

तेजसिंह―बेशक!

शेरअलीखाँ―ओफ, आप लोगों के साथ दुश्मनी करना आप ही अपनी मौत को बुलाना है!

तेजसिंह―(मायारानी की तरफ देख के) बड़ी खुशी की बात है कि आज तुम अपनी दोनों नालायक बहिनों को भी इसी महल के अन्दर देखोगी।

मायारानी ने इसका जवाब कुछ भी न दिया और सिर झुका लिया मगर भीतर से उसका रंज और भी बढ़ गया क्योंकि कमलिनी तथा लाड़िली के यहाँ होने की खबर उसे बहुत बुरी मालूम हुई।

तेजसिंह सभी को लिए अपने कमरे में पहुँचे। शेरअलीखाँ के लिए एक मकान दिया गया, दारोगा को कैदखाने की अँधेरी कोठरी नसीब हुई, और कमलिनी की इच्छानुसार मायारानी कैदियों की सूरत में महल के अन्दर पहुँचाई गई!