चन्द्रकांता सन्तति 3/9.2

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चंद्रकांता संतति भाग 3  (1896) 
द्वारा देवकीनंदन खत्री
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ऐयारों को जो कुँँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के साथ थे, बाग के चौथे दर्जे के देवमन्दिर में आने-जाने का रास्ता बताकर कमलिनी ने तेजसिंह को रोहतासगढ़ जाने के लिए कहा और बाकी ऐयारों को अलग-अलग काम सुपुर्द करके दूसरी तरफ बिदा किया।

इस बाग के चौथे दर्जे की इमारत का हाल हम ऊपर लिख आए हैं और यह भी लिख आये हैं कि वहाँ असली फूल-पत्तों का नाम-निशान भी न था। यहाँ की ऐसी अवस्था देखकर कुँँअर इन्द्रजीतसिंह ने कमलिनी से पूछा, “राजा गोपालसिंह ने कहा था कि ‘चौथे दर्जे में मेवे बहुतायत से हैं खाने-पीने की तकलीफ न होगी’, मगर यहाँ तो कुछ भी दिखाई नहीं देता! हम लोगों को यहाँ कई दिनों तक रहना होगा, कैसे काम चलेगा?” इसके जवाब में कमलिनी ने कहा, “आपका कहना ठीक है और राजा गोपालसिंह ने भी गलत नहीं कहा। यहाँ मेवों के पेड़ नहीं हैं मगर (हाथ का इशारा करके) उस तरफ थोड़ी-सी जमीन मजबूत चहारदीवारी से घिरी हुई है जिसे आप मेवों का बाग कह सकते हैं। उसको कोई सींचता या दुरुस्त नहीं करता है, बाहर से एक नहर दीवार तोड़ कर उसके अन्दर पहुँँचाई गई है और उसी की तरावट से वह बाग सूखने नहीं पाता। कई पेड़ पुराने होकर मर जाते है और कई नये पैदा होते रहते हैं। इस तिलिस्मी बाग का राजा दस-पन्द्रह वर्ष पीछे कभी उसकी सफाई करा दिया करता है। मैं वहाँ जाने का रास्ता आपको बता दूँँगी!”

ऐयारों को बिदा करने के बाद ही कमलिनी भी लाड़िली को लेकर दोनों कुमारों से यह कह कर बिदा हुई—“कई जरूरी कामों को पूरा करने के लिए मैं जाती हूँ, परसों यहाँ आऊँगी।”

तीन दिन तक कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह देवमन्दिर में रहे। जब आवश्यकता होती मेवों वाले बाग में चले जाते और पेट भर कर फिर उस देवमन्दिर में चले आते। इस बीच में दोनों भाइयों ने मिल कर 'रिक्तगंथ' (खून से लिखी किताब) भी पढ़ डाली, मगर रिक्तगंथ में जो भी बातें लिखी थीं, वे सब-की-सब बखूबी समझ में न आई क्योंकि उसमें बहुत से शब्द इशारे के तौर पर लिखे थे जिनका भेद जाने बिना असल बात का पता लगाना बहुत ही कठिन था, तथापि तिलिस्म के कई भेदों और रास्तों का पता उन दोनों को मालूम हो गया और बाकी के विषय में निश्चय किया कि कमलिनी से मुलाकात होने पर उन शब्दों का अर्थ पूछेंगे जिनके जाने बिना कोई काम नहीं चलता।

यद्यपि कुँअर इन्द्रजीतसिंह किशोरी के लिए और आनन्दसिंह कामिनी के लिए बेचैन हो रहे थे, मगर कमलिनी और लाड़िली की भोली सूरत के साथ-साथ उनके अहसानों ने भी दोनों कुमारों के दिलों को पूरी तरह से अपने काबू में कर लिया था फिर भी किशोरी और कामिनी की मुहब्बत के खयाल से दोनों कुमार अपने दिलों को [ १० ]
कोशिश के साथ दबाए जाते थे।

दोनों कुमारों को देवमन्दिर में टिके हुए आज तीसरा दिन है। ओढ़ने और बिछाने का कोई सामान न होने पर भी उन दोनों को किसी तरह की तकलीफ नहीं मालूम होती। रात आधी से ज्यादा जा चुकी है। तिलिस्मी बाग के दूसरे दर्जे से होती और वहाँ के खुशबूदार फूलों से बसी हुई मन्द चलने वाली हवा ने नर्म थपकियाँ लगा-लगाकर दोनों नौजवान, सुन्दर और सुकुमार कुमारों को सुला दिया है। ताज्जुब नहीं कि दिन-रात ध्यान बने रहने के कारण दोनों कुमार इस समय स्वप्न में भी अपनी-अपनी माशूकाओं से लाड़-प्यार की बातें कर रहे हों, और उन्हें इस बात का गुमान भी न हो कि पलक उठते ही रंग बदल जायगा और नर्म कलाइयों का आनन्द लेने वाला हाथ सिर तक पहुँचने का उद्योग करेगा।

यकायक घड़घड़ाहट की आवाज ने दोनों को जगा दिया। वे चौंक कर उठ बैठे और ताज्जुब भरी निगाहों से चारों तरफ देखने और सोचने लगे कि यह आवाज कहाँ से आ रही है। ज्यादा ध्यान देने पर भी यह निश्चय न हो सका कि आवाज किस चीज की है, हाँ, इतनी बात मालूम हो गई कि देवमन्दिर के पूरब तरफ वाले मकान के अन्दर से यह आवाज आ रही है। दोनों राजकुमारों को देवमन्दिर से नीचे उतर कर उस मकान के पास जाना उचित न मालूम न हुआ, इसलिए वे देवमन्दिर की छत पर चढ़ गये और गौर से उस तरफ देखने लगे।

आधे घंटे तक वह आवाज एक रंग से बराबर आती रही और इसके बाद धीरे-धीरे कम होकर बन्द हो गई। उस समय दरवाजा खोलकर अन्दर से आता हुआ एक आदमी उन्हें दिखाई पड़ा। वह आदमी धीरे-धीरे देवमन्दिर के पास आया और थोड़ी देर तक खड़ा रहकर उस कुएँ की तरफ लौटा जो पूरव की तरफ वाले मकान के साथ और उससे थोड़ी ही दूर पर था। कुएँ के पास पहुँचकर थोड़ी देर तक वहाँ भी खड़ा रहा और फिर आगे बढ़ा, यहाँ तक कि घूमता-फिरता छोटे-छोटे मकानों की आड़ में जाकर वह न जाने कहाँ नज़रों से ओझल हो गया और इसके थोड़ी ही देर बाद उस तरफ एक कमसिन औरत के रोने की आवाज आई।

इन्द्रजीतसिंह―जिस तौर से यह आदमी इस चौथे दर्जे में आया है, वह बेशक ताज्जुब की बात है।

आनन्दसिंह―तिस पर इस रोने की आवाज ने और भी ताज्जुब में डाल दिया है। मुझे आज्ञा हो तो जाकर देखूँँ कि क्या मामला है?

इन्द्रजीतसिंह―जाने में कोई हर्ज नहीं है, मगर...खैर, तुम इसी जगह ठहरो, मैं जाता हूँ।

आनन्दसिंह―यदि ऐसा ही है तो चलिये हम दोनों आदमी चलें।

इन्द्रजीतसिंह―नहीं, एक आदमी का यहाँ रहना बहुत जरूरी है। खैर, तुम ही जाओ, कोई हर्ज नहीं, मगर तलवार लेते जाओ।

दोनों भाई छत के नीचे उतर आये। आनन्दसिंह ने खूँँटी से लटकती हुई अपनी तलवार ले ली और कमरे के बीचोंबीच वाले गोल खम्भे के पास पहुँँचे। हम ऊपर लिख [ ११ ]
आये हैं कि उस खम्भे में तरह-तरह की तस्वीरें बनी हुई थीं। आनन्दसिंह ने एक मूरत पर हाथ रख कर जोर से दबाया, साथ ही एक छोटी-सी खिड़की अन्दर जाने के लिए दिखाई दी। छोटे कुमार उसी खिड़की की राह उस गोल खम्भे के अन्दर घुस गये, और थोड़ी ही देर बाद उस नकली बाग में दिखाई देने लगे। खम्भे के अन्दर रास्ता कैसा था और वह नकली बाग के पास क्योंकर पहुँँचे, इसका हाल आगे चलकर दूसरी दफे किसी और के आने या जाने के समय बयान करेंगे, यहाँ मुख्तसिर ही में लिखकर मतलब पूरा करते हैं।

आनन्दसिंह भी उस तरफ गये, जिधर वह आदमी गया था या जिधर से किसी औरत के रोने की आवाज आई थी। घूमते-फिरते एक छोटे मकान के आगे पहुँँचे जिस का दरवाजा खुला हुआ था। वहाँ औरत तो कोई दिखाई न दी, मगर उस आदमी को दरवाजे पर खड़े हुए जरूर पाया।

आनन्दसिंह को देखते ही वह आदमी झट मकान के अन्दर घुस गया और कुमार भी तेजी के साथ उसका पीछा किए बेखौफ मकान के अन्दर चले गये। वह मकान दो मंजिल का था, उसके अन्दर छोटी-छोटी कई कोठरियाँ थीं और हर एक कोठरी में दो-दो दरवाजे थे, जिससे आदमी एक कोठरी के अन्दर जाकर कुल कोठरियों की सैर कर सकता था।

यद्यपि कुमार तेजी के साथ पीछा किए हुए चले गये, मगर वह आदमी एक कोठरी के अन्दर जाने के बाद कई कोठरियों में घूम-फिर कर कहीं गायब हो गया। रात का समय था और मकान के अन्दर तथा कोठरियों में बिल्कुल अन्धकार छाया हुआ था, ऐसी अवस्था में कोठरियों के अन्दर घूम-घूम कर उस आदमी का पता लगाना बहुत ही मुश्किल था, दूसरे, इसका भी शक था कि वह कहीं हमारा दुश्मन न हो, लाचार होकर कुमार वहाँ से लौटे, मगर मकान के बाहर न निकल सके, क्योंकि वह दरवाजा बन्द हो गया था जिसकी राह से कुमार मकान अन्दर घुसे थे। कुमार ने दरवाजा उतारने का भी उद्योग किया मगर उसकी मजबूती के आगे कुछ बस न चला। आखिर दुखी होकर फिर मकान के अन्दर घुसे और एक कोठरी के दरवाजे पर जाकर खड़े हो गये। थोड़ी देर के बाद ऊपर की छत पर से फिर किसी औरत के रोने की आवाज आई, गौर करने से कुमार को मालूम हुआ कि यह बेशक उसी औरत की आवाज है जिसे सुनकर यहाँ तक आए थे। उस आवाज की सीध पर कुमार ने ऊपर की दूसरी मंजिल पर जाने का इरादा किया, मगर सीढ़ियों का पता न लगा।

इस समय कुमार का दिल कैसा बेचैन था, यह वही जानते होंगे। हमारे पाठकों में भी जो दिलेर और बहादुर होंगे, वह उनके दिल की हालत कुछ समझ सकेंगे। बेचारे आनन्दसिंह हर तरह से उद्योग करके रह गए, पर कुछ भी न बन पड़ा। न तो वे उस आदमी का पता लगा सकते थे, जिसके पीछे-पीछे मकान के अन्दर घुसे थे, न उस औरत का हाल मालूम कर सकते थे, जिसके रोने की आवाज से दिल बेताब हो रहा था, और न उस मकान ही से बाहर होकर अपने भाई इन्द्रजीतसिंह को इन सब बातों की खबर कर सकते थे, बल्कि यों कहना चाहिए कि सिवाय चुपचाप खड़े रहने या बैठ [ १२ ] जाने के और कुछ भी नहीं कर सकते थे।

जो कुछ रात थी खड़े-खड़े बीत गई। सुबह की सुफेदी ने जिधर से रास्ता पाया मकान के अन्दर घुसकर उजाला कर दिया, जिससे कुंअर आनन्दसिंह को वहाँ की हर एक चीज साफ-साफ दिखाई देने लगी। यकायक पीछे की तरफ से दरवाजा खुलने की आवाज कुमार के कान में पड़ी। कुमार ने घूमकर देखा तो एक कोठरी का दरवाजा, जो इसके पहले बन्द था, खुला हुआ पाया। वे बेधड़क उसके अन्दर घुस गए और वहां ऊपर की तरफ गई हुई छोटी-छोटी खूबसूरत सीढ़ियाँ देखीं। धडधडाते हए दूसरी मंजिल पर चढ़ गए और हर तरफ गौर करके देखने लगे। इस मंजिल में बारह कोठरियाँ एक ही रंग-ढंग की देखने में आईं। हर एक कोठरी में दो दरवाजे थे। एक दरवाजा कोठरी के अन्दर घुसने के लिए और दूसरा अन्दर की तरफ से दूसरी कोठरी में जाने के लिए था। इस तरह पर किसी एक कोठरी के अन्दर घुसकर कुल कोठरियों में आदमी घूम आ सकता था। धीरे-धीरे अच्छी तरह उजाला हो गया और वहां की हर एक चीज बखूबी देखने का मौका कुमार को मिला। छोटे कुमार एक कोठरी के अन्दर घुसे और देखा कि वहां सिवाय एक चबूतरे के और कुछ भी नहीं है। यह चबूतरा स्याह पत्थर का बना हआ था और उसके ऊपर एक कमान और पाँच तीर रखे हए थे। कूमार ने तीर और कमान पर हाथ रखा, मालूम हुआ कि सब पत्थर का बना हआ है और किसी काम में आने योग्य नहीं है। दूसरे दरवाजे से दूसरी कोठरी में घुसे तो वहाँ एक लाश पड़ी देखी जिसका कटा हुआ सिर पास ही पड़ा हुआ था और वह लाश भी पत्थर ही की थी। उसे अच्छी तरह देखभाल कर तीसरी कोठरी में पहुँचे।

इसके चारों तरफ दीवार में कई खूटियाँ थीं और हर एक खंटी से एक-एक नंगी तलवार लटक रही थी। ये तलवारें नकली न थीं, बल्कि असली लोहे की थीं मगर हर एक पर जंग चढा हआ था। जब चौथा कोठरी में पहुंचे तो वहाँ चाँदी के सिंहासन पर बैठी हई एक मूरत दिखाई पड़ी। वह मूरत किसी प्रकार की धातु की बहुत ही खूबसूरत और ठीक-ठीक बनी हई थी, जिसे देखने के साथ ही कुमार ने पहचान लिया कि यह मायारानी की छोटी बहन लाडिला का मूरत है। कुमार मुहब्बत भरी निगाहें उस मूरत पर डालने लगे। निराली जगह अपन माशूक को देखने का उन्हें अच्छा मौका मिला, यदापि वर माशक असली नहीं, बल्कि कवल उसका एक छवि मात्र थी तथापि इस सबब से कि यहां पर कोई ऐसा आदमी न था जिसका लिहाज या खयाल होता, उन्हें एक निराले ढंग की खुशी हुई और वे देर तक उसक हर एक अंग की खूबसूरती को देखते रहे। इसी बीच बगल वाली कोठरी में से यकायक एक, एक खटके की आवाज आई। कुमार चौंकपड़े और यह सोचते हुए उस कोठारी का तरफ बढ़े कि शायद वर आदमी उसमें मिले जिसके पीछे-पीछे इस मकान के अन्दर आए हैं, मगर इस कोठरी में भी किसी की सूरत दिखाई न दी।

इस कोठरी में, जिसमें कुमार पहुँचे हैं, चाँदी का का केवल एक सन्दूक था, जिसके बीच में हाथ डालने के लायक एक छेद भी बना हुआ था हुआ था और छेद के ऊपर सुनहले हर्को में यह लिखा हुआ था-[ १३ ] "इस छेद में हाथ डाल के देखो, क्या अनूठी चीज है।"

कुँवर आनन्दसिंह ने बिना सोचे-विचारे उस छेद में हाथ डाल दिया, मगर फिर हा निकाल न सके। सन्दूक के अन्दर हाथ जाते ही मानो लोहे की हथकड़ी पड़ गई जो किसी तरह हाथ बाहर निकालने की इजाजत नहीं देती थी। कुमार ने झक कर सन्दूक नीचे की तरफ देखा तो मालूम हुआ कि सन्दूक जमीन से अलग नहीं है और इसलिए उसे किसी तरह खिसका भी नहीं सकते थे।