चन्द्रकांता सन्तति 3/9.5

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चंद्रकांता संतति भाग 3  (1896) 
द्वारा देवकीनंदन खत्री

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मायारानी के सिपाही जो दोनों नकाबपोशों को गिरफ्तार करने आए थे, धनपत को लिए हुए बाग के पहले दर्जे की तरफ रवाना हुए जहाँ वे रहा करते थे, मगर वे इच्छानुसार अपने ठिकाने न पहुँच सके, क्योंकि बाग के दूसरे दर्जे के बाहर निकलने का रास्ता मायारानी की कारीगरी से बन्द हो गया था। ये दरवाजे तिलिस्मी और बहुत [ २४ ] ही मजबूत थे और इनका खोलना या तोड़ना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव था। पाठकों को याद होगा कि बाग के दूसरे दर्जे और पहले दर्जे के बीच में एक बहुत लम्बी-चौड़ी दीवार थी जिस पर कमन्द लगा कर चढ़ना भी असम्भव था और सीढ़ियों के जरिए उस दीवार पर चढ़ और उसे लाँघ कर ही एक दर्जे से दूसरे दर्जे में जाना होता था। इस समय जो दरवाजा मायारानी ने तिलिस्मी रीति से बन्द किया है इसी के बाद वह दीवार पड़ती थी जिसे लाँघ कर सिपाही लोग पहले दर्जे में जाते थे। उस दीवार पर चढ़ने के लिए जो सीढ़ियाँ थीं वे लोहे की थीं और इस समय दोनों तरफ की सीढ़ियाँ दीवार के अन्दर घुस गई थीं इसलिए दीवार पर चढ़ना एकदम असम्भव हो गया था।

दरवाजे को तिलिस्मी रीति से बन्द देखकर सिपाही लोग समझ गए कि यह मायारानी की कार्रवाई है। इसलिए उन लोगों के दिल में डर पैदा हुआ और वे सोचने लगे कि कहीं ऐसा न हो कि मायारानी हम लोगों को इसी बाग में फँसा कर मार डाले, क्योंकि आखिर वह तिलिस्म की रानी है, मगर यह विचार उन लोगों के दिल में ज्यादा देर तक न रहा क्योंकि राजा गोपालसिंह के साथ दगा किये जाने का जो हाल नकाबपोशों की जुबानी सुना था उस पर उन लोगों को पूरा-पूरा विश्वास हो गया था और इसी सबब से गुस्से के मारे उन सब की अवस्था ही बदली हुई थी।

आखिर धनपत को साथ लिए हुए वे सिपाही यह सोच कर पीछे की तरफ लौटे कि उस चोरदरवाजे की राह से बाहर निकल जायँगे जिस राह से दोनों नकाबपोश बाग के अन्दर घुसे थे, मगर उस ठिकाने पर पहुँचकर भी वे लोग बहुत ही घबराये और ताज्जुब करने लगे क्योंकि उन्हें वह खिड़की कहीं नजर न आई। हाँ एक निशान दीवार में जरूर पाया जाता था, जिससे यह कहा जा सकता था कि शायद इसी जगह वह खिड़की रही होगी। यह निशान भी मामूली न था बल्कि ऐसा मालूम होता था कि दीवार वाले चोरदरवाजे पर फौलादी चादर जड़ दी गई है। अब उन सिपाहियों को पहले से भी ज्यादा तरदुद्द हुआ क्योंकि सिवाय उन दोनों रास्तों के बाहर निकलने का कोई और जरिया न था। एक बार उन सिपाहियों के दिल में यह भी आया कि मायारानी की तरफ चलना चाहिए, मगर खौफ से ऐसा करने की हिम्मत न पड़ी।

उस समय दिन घण्टे भर से कुछ ज्यादा चढ़ चुका था। सिपाही लोग क्रोध की अवस्था में भी तरदुद्द और घबराहट से खाली न थे और खड़े-खड़े सोच ही रहे थे कि किधर जाना और क्या करना चाहिए कि इतने ही में सामने से लीला आती हुई दिखाई पड़ी। जब वह पास पहुंची तो सिपाहियों की तरफ देख कर ऊँची आवाज में बोली, "तुम लोग अपनी जान के दुश्मन क्यों हो रहे हो? क्या तुम जमानिया राज्य के नौकर हो कर भी इस बात को भूल गए कि मायारानी एक भारी तिलिस्म की रानी है और जो चाहे कर सकती है? दो-चार सौ आदमियों को बरबाद कर डालना उसके लिए एक अदना काम है। अफसोस, ऐसे मालिक के खिलाफ होकर तुम अपनी जान बचाना चाहते हो? याद रक्खो कि इस बाग में भूखे-प्यासे मर जाओगे, तुम्हारे किए कुछ भा न होगा। मैं तुम लोगों को समझाती हूँ और कहती हैं कि अपने मालिक के पास चलो और उससे माफी मांग कर अपनी जान बचाओ।" [ २५ ]इसी तरह की ऊँच-नीच की बहुत-सी बातें लीला उन सिपाहियों से देर तक कहती रही और सिपाही लोग भी लीला की बात पर गौर कर ही रहे थे कि यकायक बाईं तरफ से एक शंख के बजने की आवाज आई, घूम कर देखा तो वे ही दोनों नकाबपोश दिखाई पड़े जो हाथ के इशारे से उन सिपाहियों को अपनी तरफ बुला रहे थे। उन्हें देखते ही सिपाहियों की अवस्था बदल गई और उनके दिल के अन्दर उम्मीद, रंज, डर और तरदुद्द का चर्खा तेजी के साथ घूमने लगा। लीला की बातों पर जो कुछ सोच कर रहे थे उसे छोड़ दिया और धनपत को साथ लिए हुए इस तरह दोनों नकाबपोशों की तरफ बढ़े जैसे प्यासे पंसाले (पौसारे) की तरफ लपकते हैं।

जब उन दोनों नकाबपोशों के पास पहुंचे तो एक नकाबपोश ने पुकार कर कहा, "इस बात से मत घबराओ कि मायारानी ने तुम लोगों को मजबूर कर दिया और इस बाग से बाहर जाने लायक नहीं रक्खा। आओ हम तुम सभी को इस बाग से बाहर कर देते हैं मगर इसके पहले तुम्हें एक ऐसा तमाशा दिखाना चाहते हैं जिसे देख कर तुम बहुत ही खुश हो जाओगे और हद से ज्यादा बेफिक्री तुम लोगों के भाग में पड़ेगी, मगर वह तमाशा हम एकदम से सभी को नहीं दिखाना चाहते। मैं एक कोठरी में (हाथ का इशारा करके) जाता हूँ, तुम लोग बारी-बारी से पांच-पाँच आदमी आओ और अद्भुत, अद्वितीय, अनूठा तथा आश्चर्यजनक तमाशा देखो।"

इस समय दोनों नकाबपोश जिस जगह खड़े थे, उसके पीछे की तरफ एक दीवार थी जो बाग के दूसरे और तीसरे दर्जे की हद को अलग कर रही थी और उसी जगह पर एक मामूली कोठरी भी थी। बात पूरी होते ही दोनों नकाबपोश पाँच सिपाहियों को अपने साथ आने के लिए कहकर उस कोठरी के अन्दर घुस गए। इस समय इन सिपाहियों की अवस्था कैसी थी, इसे दिखाना जरा कठिन है। न तो इन लोगों का दिल उन दोनों नकाबपोशों के साथ दुश्मनी करने की आज्ञा देता था और न यही कहता था कि उन दोनों को छोड़ दो और जिधर जाएँ जाने दो।

जब दोनों नकाबपोश कोठरी के अन्दर घुस गए तो उसके बाद पाँच सिपाही जो दिलावर और ताकतवर थे कोठरी में घुसे और चौथाई घड़ी तक उसके अन्दर रहे। इसके बाद जब वे उस कोठरी के बाहर निकले तो उनके साथियों ने देखा कि उन पाँचों के चेहरे से उदासी झलक रही है, आँखों से आँसू की बूंदें टपक रही हैं और वे सिर झुकाए अपने साथियों की तरफ आ रहे हैं। जब पास आए तो उन पाँचों की अवस्था एकदम बदल जाने का सबब सिपाहियों ने पूछा जिसके जवाब में उन पांचों ने कहा, "पूछने की कोई आवश्यकता नहीं है, तुम लोग पाँच-पाँच आदमी बारी-बारी से जाओ और जो कुछ है अपनी आँखों से देख लो, हम लोगों से पूछोगे तो कुछ भी न बतायेंगे, हां इतना अवश्य कहेंगे कि वहाँ जाने में किसी तरह का हर्ज नहीं है।"

आपस में ताज्जुब से भरी बातें करने के बाद और पाँच सिपाही उस कोठरी के अन्दर घुसे जिसमें दोनों नकाबपोश थे और पहले पाँचों की तरह ये पांचों भी चौथाई घड़ी तक उस कोठरी के अन्दर रहे। इसके बाद जब बाहर निकले तो इन पाँचों की भी वही अवस्था थी जैसी उन पाँचों की जो इनके पहले कोठरी के अन्दर से हो कर आए [ २६ ] थे। इसके बाद फिर पांच सिपाही कोठरी के अन्दर घुसे और इनकी भी वही अवस्था हुई, यहाँ तक कि जितने सिपाही वहाँ मौजूद थे पाँच-पाँच करके सभी कोठरी के अन्दर से हो आए और सब ही की वही अवस्था हुई जैसी पहले गये हुए पाँचों सिपाहियों की हुई थी। धनपत ताज्जुब-भरी निगाहों से यह तमाशा देख और असल भेद जानने के लिए बेचैन हो रहा था मगर इतनी हिम्मत न पड़ती थी कि किसी से कुछ पूछता, क्योंकि नकाबपोशों की आज्ञानुसार सिपाहियों की तरह वह उस कोठरी के अन्दर जाने नहीं पाया था जिसमें दोनों नकाबपोश थे। अन्त में सब सिपाहियों ने आपस में बातें करके इशारे में इस बात का निश्चय कर लिया कि कोठरी के अन्दर उन सभी ने एक ही रंगढंग का तमाशा देखा था।

थोड़ी देर बाद दोनों नकाबपोश उस कोठरी के बाहर निकल आए और उनमें से नाटे नकाबपोश ने सिपाहियों की तरफ देख कर कहा, "धनपत को मेरे हवाले करो।" सिपाहियों ने कुछ भी उज्र न किया बल्कि बहुत अदब के साथ आगे बढ़कर धनपत को नकाबपोश के हवाले कर दिया। दोनों नकाबपोश उसे साथ लिये हुए फिर उस कोठरी के अन्दर घुस गये और आधे घंटे तक वहाँ रहे, इसके बाद जब कोठरी के बाहर निकले तो नाटे नकाबपोश ने सिपाहियों से कहा, "धनपत को हमने ठिकाने पहुंचा दिया है, अब आओ, तुम लोगों को भी इस बाग के बाहर कर दें।" सिपाहियों ने कुछ भी उज्र न किया और दो-तीन झुण्डों में होकर नकाबपोश के साथ-साथ उस कोठरी के अन्दर गए और गायब हो गए। दोनों नकाबपोश भी उसी कोठरी के अन्दर जाकर गायब हो गये और उस कोठरी का दरवाजा भीतर से बन्द हो गया।

इस पचड़े में दो पहर दिन चढ़ आया, लीला दूर से खड़ी यह तमाशा देख रही थी, जब सन्नाटा हो गया तो वह भी लौटी और उसने इन बातों की खबर मायारानी तक पहुंचाई।