चन्द्रकान्ता सन्तति 5/17.14

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चंद्रकांता संतति भाग 5  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री
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जिस कमरे में दोनों कुमारों की बेहोशी दूर हो जाने के कारण आँख खुली थी वह लम्बाई में बीस और चौड़ाई में पन्द्रह गज से कम न था। इस कमरे की सजावट कुछ विचित्र ढंग की थी और दीवारों में भी एक तरह का अनूठापन था। रोशनी के शीशों (हाँडी और कन्दीलों) की जगह उसमें दो-दो हाथ लम्बी तरह-तरह की खूबसूरत पुतलियाँ लटक रही थीं और दीवारगीरों की जगह पचासों किस्म के जानवरों के चेहरे दीवारों में लगे हुए थे। दीवारें इस कमरे की लहरदार बनी हुई थीं और उन पर तरह- तरह की चित्रकारी की हुई थी। ऊपर की तरफ छत से कुछ नीचे हट कर चारों तरफ छोटी-छोटी खिड़कियाँ थीं जिससे जान पड़ता था कि ऊपर की तरफ कोई गुलामगदिश या मकान है मगर इस समय सब खिड़कियाँ बन्द थीं और इस कमरे में से कोई रास्ता ऊपर जाने का नहीं दिखाई देता था।

कुँअर आनन्दसिंह ने इन्द्रजीतसिंह से कहा, "भैया, वह बुढ़िया तो अजब आफत की पुड़िया मालूम होती है। और उन लड़कों की तेजी भी भूलने योग्य नहीं है।"

इन्द्रजीतसिंह––बेशक ऐसा ही है! ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए कि उन्होंने हम लोगों को जीता छोड़ दिया। मगर हमें भैरोंसिंह की बातों पर आश्चर्य मालूम होता है! क्या हम उसे वास्तव में कोई ऐयार समझें?

आनन्दसिंह––यदि वह ऐयार होता तो निःसन्देह हम लोगों को धोखा देने के लिए भैरोंसिंह बना होता और साथ ही इसके पोशाक भी वैसी ही रखता जैसी भैरोंसिंह पहना करता है, इसके सिवाय वह स्वयं अपने को भैरोंसिंह प्रकट करके हम लोगों का साथी बनता, ऐसा न कहता कि मैं भैरोंसिंह नहीं हूँ। मगर उसकी नौजवान औरत (बुढ़िया) के विषय में...

इन्द्रजीतसिंह––उस बुढ़िया बात जाने दो, अगर वह वास्तव में भैरोंसिंह है तो ताज्जुब नहीं कि मसखरापन करता है या पागल हो गया है। और अगर वह पागल हो गया है तो निःसन्देह उस बुढ़िया की बदौलत जो उसकी आँखों में अभी तक नौजवान बनी हुई है।

आनन्दसिंह––उस बुढ़िया को जिस तरह हो गिरफ्तार करना चाहिए।

इन्द्रजीतसिंह––मगर उसके पहले अपने को बेहोशी से बचाने का बन्दोबस्त कर लेना चाहिए क्योंकि लड़ाई-दंगे से तो हम लोग डरते ही नहीं।

आनन्दसिंह––जी हाँ, जरूर ऐसा करना चाहिए। दवा तो हम लोगों के पास मौजूद ही है और ईश्वर की कृपा से कमरे का दरवाजा भी खुला है।

दोनों भाइयों ने कमर से एक डिबिया निकाली जिसमें किसी तरह की दवा थी और उसे खाने के बाद कमरे के बाहर निकलना ही चाहते थे कि ऊपर वाले छोटे-छोटे दरवाजों में से एक दरवाजा खुला और पुनः उसी नौजवान बुढ़िया के खसम भैरोंसिंह की सूरत दिखाई दी। दोनों भाई रुक गये और आनन्दसिंह ने उसकी तरफ देखकर कहा,

च॰ स॰-5-3

[ ५३ ]"अब आप यहाँ क्यों आ पहुँचे?"

भैरोंसिंह––आपके हालचाल की खबर लेने और साथ ही इसके अपनी नौजवान औरत की तरफ से आपको ज्याफत का न्यौता देने आया हूँ। मालूम होता है कि वह तुम लोगों पर आशिक हो गई है तभी खातिरदारी का बन्दोबस्त कर रही है। उसने तुम लोगों के लिए कितनी अच्छी-अच्छी चीजें खाने को तैयार की हैं और अभी तक बनाती ही जाती है।

आनन्दसिंह––(हँसकर) और उन चीजों में जहर कितना मिलाया है?

भैरोंसिंह––केवल डेढ़ छटांक! मैं उम्मीद करता हूँ कि इतने से तुम लोगों की जान न जायगी।

आनन्दसिंह––आपकी इस कृपा के लिए मैं धन्यवाद देता हूँ और आपसे बहुत ही प्रसन्न होकर आपको कुछ इनाम भी देना चाहता हूँ। आप मेहरबानी करके जरा यहाँ आइये तो अच्छी बात है।

भैरोंसिंह––बहुत अच्छा, इनाम लेने में देर करना भले आदमियों का काम नहीं है।

इतना कहकर भैरोंसिंह वहाँ से हट गया और थोड़ी ही देर बाद सदर दरवाजे की राह से कमरे के अन्दर आता हुआ दिखाई दिया। जब कुँअर आनन्दसिंह के पास आया तो बोला "लाइए, क्या इनाम देते हैं।"

आनन्दसिंह ने फुर्ती से तिलिस्मी खंजर उसके हाथ पर रख दिया जिसके असर से वह एक दफा काँपा और बेहोश होकर जमीन पर लम्बा हो गया। तब आनन्दसिंह ने अपने भाई से कहा, "अब इसे अच्छी तरह जाँच कर देख लेना चाहिए कि यह भैरोंसिंह ही है या कोई और?"

इन्द्रजीतसिंह––हाँ, अब बखूबी पता लग जायगा, पहले इसका दाहिनी बगल वाला मस्सा देखो।

आनन्दसिंह––(भैरोंसिंह की बगल देखकर) देखिये मस्सा मौजूद है। अब कमर वाला दाग देखिये––लीजिए यह भी मौजूद है। इसके भैरोंसिंह होने में अब मुझे तो किसी तरह का सन्देह नहीं रहा।

इन्द्रजीतसिंह––अब सन्देह हो ही नहीं सकता। मैंने इस मस्से को अच्छी तरह खींच कर भी देख लिया, अच्छा अब इसे होश में लाना चाहिए।

इतना कहकर इन्द्रजीतसिंह ने अपना वह हाथ जिसमें तिलिस्मी खंजर के जोड़ की अँगूठी थी, भैरोंसिंह के बदन पर फेरा। भैरोंसिंह तुरन्त होश में आकर उठ बैठा और ताज्जुब से चारों तरफ देखता हुआ बोला, "वाह-वाह! मैं यहाँ क्योंकर आ गया और आप लोगों ने मुझे कहाँ पाया?"

आनन्दसिंह––मालूम होता है अब आपका पागलपन उतर गया?

भैरोंसिंह––(ताज्जुब से) पागलपन कैसा?

इन्द्रजीतसिंह––इसके पहले तुम किस अवस्था में थे और क्या करते थे, कुछ याद है? [ ५४ ]भैरोंसिंह––मुझे कुछ भी याद नहीं।

इन्द्रजीतसिंह––अच्छा बताओ कि तुम इस तिलिस्म के अन्दर कैसे आ पहुँचे?

भैरोंसिंह––केवल मुझी को नहीं बल्कि किशोरी, कामिनी, कमला, लक्ष्मीदेवी, लाड़िली, कमलिनी और इन्दिरा को भी राजा गोपालसिंह ने इस तिलिस्म के अन्दर पहुँचा दिया है, बल्कि मुझे तो सबके आखिर में पहुँचाया है। आपके नाम की एक चिट्ठी भी दी थी मगर अफसोस! आपसे मुलाकात होने न पाई और मेरी अवस्था बदल गई।

इन्द्रजीतसिंह––वह चिट्ठी कहाँ है?

भैरोंसिंह––(इधर-उधर देखकर) जब मेरे बटुए ही का पता नहीं तो चिट्ठी के बारे में क्या कह सकता हूँ?

आनन्दसिंह––मगर यह तो तुम्हें याद होगा कि उस चिट्ठी में क्या लिखा हुआ था?

भैरोंसिंह––क्यों नहीं, मेरे सामने ही तो वह लिखी गई थी। उसमें कोई विशेष बात न थी, केवल इतना ही लिखा था कि "उस गुप्त स्थान से किशोरी, कामिनी इत्यादि को लेकर मैं जमानिया जा रहा था मगर मायारानी की कुटिलता के कारण अपने इरादे में बहुत कुछ उलट-फेर करना पड़ा। जब यह मालूम हुआ हुआ कि मायारानी तिलिस्मी बाग के अन्दर घुस गई है तब लाचार सब औरतों को तिलिस्म के अन्दर पहुँचाता हूँ। बाकी हाल भैरोंसिंह से सुन लेना"––बस इतना लिखा था। मालूम होता है कि पहले का हाल वह आपसे कह चुके हैं।

इन्द्रजीतसिंह––हाँ, पहले का बहुत-कुछ हाल वह हमसे कह चुके हैं।

भैरोंसिंह––क्या यह भी कहा था कि कृष्ण जिन्न का रूप भी उन्हीं कृपानिधान ने धारण किया था?

आनन्दसिंह––नहीं सो तो साफ नहीं कहा था, मगर उनकी बातों से हम लोग कुछ-कुछ समझ गये थे कि कृष्ण जिन्न वही बने थे। खैर, अब तुम खुलासा बताओ कि क्या हुआ?

भैरोंसिंह ने वह सब हाल दोनों कुमारों से कहा जो ऊपर के बयानों में लिखा जा चुका है और जिसमें का बहुत-कुछ हाल राजा गोपालसिंह की जुबानी दोनों कुमार सुन चुके थे। इसके बाद भैरोंसिंह ने कहा––"जब राजा गोपालसिंह को मालूम हो गया कि मायारानी बहुत से आदमियों को लेकर तिलिस्मी बाग के अन्दर जा छिपी है तब वे एक गुप्त राह से छिप कर सब औरतों को साथ लिए हुए उस मकान में पहुँचे जिसमें से कमन्द के सहारे सभी को लटकाते हुए शायद आपने देखा होगा।"

इन्द्रजीतसिंह––हाँ, देखा था, तो क्या उस समय वे औरतें बेहोश थी?

भैरोंसिंह––जी हाँ, न मालूम किस खयाल से उन्होंने सब औरतों को बेहोश कर दिया था मगर इसके पहले यह कह दिया था तुम्हें तिलिस्म के अन्दर पहुँचा देते हैं जहाँ दोनों कुमार हैं, यद्यपि वहाँ पहुँचना बहुत कठिन था मगर अब एक दीवार वाले तिलिस्म को दोनों कुमार तोड़ चुके हैं इसलिए वहाँ तक पहुँचा देने में कोई कठिनता न रही!

इन्द्रजीतसिंह––तो क्या तुम भी उन सातों औरतों के साथ ही उस बाग में उतारे [ ५५ ]गये थे?

भैरोंसिंह––पहले तो उन्होंने इन्द्रदेव को बहुत सी बातें समझाई-बुझाई, जिन्हें मैं समझ न सका। इसके बाद इन्द्रदेव को तो गोपालसिंह बनाया और इन्द्रदेव के एक ऐयार को भैरोंसिंह बनाकर दोनों को खास बाग के अन्दर भेजा। इस काम से छुट्टी पाकर सब औरतों को और मुझे साथ-साथ लिए उस मकान में आये। सभी को तो उस कमरे में बैठा दिया जिसमें से कमन्द के सहारे सबको लटकाया था और फिर मुझे उनकी हिफाजत के लिए छोड़ने के बाद कमलिनी को साथ लिए हुए कहीं चले गये और घण्टे भर के बाद वापस आये। उस समय कमलिनी के हाथ में एक छोटी-सी किताब थी जिसे उन्होंने कई दफा तिलिस्मी किताब के नाम से सम्बोधन किया था। इसके बाद उन्होंने सभी को बेहोश करके नीचे लटका दिया। इस काम से छुट्टी पाकर उन्होंने आपके नाम की दो चिट्ठियाँ लिखीं, एक तो उस कमरे में रक्खी और दूसरी चिट्ठी जिसका मैं अभी जिक्र कर चुका हूँ मुझे देकर कहा कि "जब कुमारों से तुम्हारी मुलाकात हो तो यह चिट्ठी उन्हें देना और सब काम कमलिनी की आज्ञानुसार करना, यहाँ तक कि यदि कमलिनी तुम्हें सामना हो जाने पर भी कुमारों से मिलने के लिए मना करे तो तुम कदापि न मिलना" इत्यादि कहकर मुझे नीचे उतर जाने के लिए कहा। (कुछ रुक कर) नहीं-नहीं, मैं भूलता हूँ, मुझे उन्होंने पहले ही नीचे उतार दिया था, क्योंकि सभी की गठरी मैंने ही नीचे से थामी थी, सभी को नीचे उतार देने के बाद जब मैं उनकी आज्ञानुसार पुनः ऊपर गया तब उन्होंने ये सब बातें मुझे समझाईं और आपके मित्र इन्द्रदेव भी वहाँ आ पहुँचे जो गोपालसिंह की सूरत बने हुए थे। इन्द्रदेव ने राजा गोपालसिंह से कुछ कहना चाहा, मगर उन्होंने रोक दिया और मुझसे कहा कि अब तुम भी कमंद के सहारे नीचे उतर जाओ और इन्द्रदेव के आने का इन्तजार करो। मैं उनकी आज्ञानुसार नीचे उतर आया। मैं अन्दाज से कहता हूँ कि उन बेहोशों में आप या छोटे कुमार छिपे थे और आप ही दोनों में से किसी ने मेरे बदन के साथ तिलिस्मी खंजर लगाया था जिससे मैं बेहोश हो गया।

इन्द्रजीतसिंह––हाँ, ठीक है ऐसा ही हुआ था।

भैरोंसिंह––फिर तो मैं बेहोश हो ही गया, मुझे कुछ भी नहीं मालूम कि इन्द्रदेव, जो गोपालसिंह की सूरत में थे, कब नीचे आये, क्या हुआ।

आनन्दसिंह––ठीक है, वह भी थोडी ही देर बाद नीचे उतरे और तुम्हारी तरह से वह भी बेहोश किए गए। (इन्द्रजीतसिंह से) अब मालूम हुआ कि इन्द्रदेव ही के कहे मुताबिक मैं आपको बुलाने के लिए ऊपर गया था।

भैरोंसिंह––हाँ, जब हम लोगों को उन्होंने चैतन्य किया तो कहा था कि दोनों कुमार ऊपर गए हैं। आखिर इन्द्रदेव ने कमन्द खींच ली और हम लोगों को लिए हुए दूसरी दीवार की तरफ गये। वहाँ कमलिनी ने जमीन खोद कर एक दरवाजा पैदा किया। ताज्जुब नहीं कि उसी दरवाजे की राह से आप लोग भी यहाँ तक आये हों, और अगर ऐसा है तो उस कोठरी में भी अवश्य पहुँचे होंगे जहाँ की जमीन लोगों को बेहोश करके तिलिस्म के अन्दर पहुँचा देती है?

आनन्दसिंह––हम लोग भी उसी रास्ते से यहाँ तक आये हैं, अच्छा तो क्या इन्द्र–– [ ५६ ]देव भी तुम लोगों के साथ यहाँ आये हैं?

भैरोंसिंह––जी नहीं, वह तो ऊपर ही रह गये, बोले कि मुझे तिलिस्म के अन्दर जाने की आज्ञा नहीं है। तुम लोग जाओ। मैं अब इसी बाग में छिप कर रहूँगा। जब दोनों कुमार यहाँ आ जायेंगे तब उनसे छिप कर पुनः कमन्द के सहारे ऊपर जाऊँगा और राजा गोपालसिंह के साथ मिलकर काम करूँगा।

आनन्दसिंह––(इन्द्रजीतसिंह से) तब ताज्जुब नहीं कि इन्द्रदेव ने ही सरयू को बेहोश किया हो?

इन्द्रजीतसिंह––जरूर ऐसा ही है। (भैरों से) अच्छा तब क्या हुआ?

भैरोंसिंह––नीचे उतर कर जब हम लोग उस कोठरी में पहुँचे जहाँ की जमीन थोड़ी ही देर में लोगों को बेहोश कर देती है तब नियमानुसार सभी के साथ मैं भी बेहोश हो गया। उस समय से इस समय तक का हाल मुझे कुछ भी मालूम नहीं है, मैं बिल्कुल नहीं जानता कि उसके बाद क्या हुआ और मैं किस अवस्था में होकर क्यों इस तरह अपने को यहाँ पाता हूँ।


15

भैरोंसिंह की बातें सुनकर दोनों कुमार देर तक तरह-तरह की बातें सोचते रहे और तब उन्होंने अपना किस्सा भैरोंसिंह से कह सुनाया। बुढ़िया वाली बात को सुनकर भैरोंसिंह हँस पड़ा और बोला, "मुझे कुछ भी ज्ञान नहीं है कि वह बुढ़िया कौन है और कहाँ है, यदि अब मैं उसे पाऊँ तो जरूर उसकी बदमाशी का मजा उसे चखाऊँ। मगर अफसोस तो यह है कि मेरा ऐयारी का बटुआ मेरे पास नहीं है जिसमें बड़ी-बड़ी अनमोल चीजें थीं। हाय, वे तिलिस्मी फूल भी उसी बटुए में थे जिसके देने से मेरा बाप भी मुझे टाल बताना चाहता था मगर महाराज ने दिलवा दिया। इस समय बटुए का न होना मेरे लिए बड़ा दुखदायी है क्योंकि आप कह रहे हैं कि 'उन लड़कों ने एक तरह की बुकनी उड़ाकर हमें बेहोश कर दिया।' कहिए, अब मैं क्योंकर अपने दिल का हौसला निकाल सकता हूँ?"

इन्द्रजीतसिंह––निःसन्देह उस बटुए का जाना बहुत ही बुरा हुआ। वास्तव में उसमें बड़ी अनूठी चीजें थीं, मगर इस समय उनके लिए अफसोस जाहिर करना फिजूल है। हाँ, इस समय मैं दो चीजों से तुम्हारी मदद कर सकता हूँ।

भैरोंसिंह––वह क्या?

इन्द्रदेव––एक तो वह दवा हम दोनों के पास मौजूद है जिसके खाने से बेहोशी असर नहीं करती और वह मैं तुम्हें खिला सकता हूँ। दूसरे हम लोगों के पास दो-दो हर्बे मौजूद हैं, बल्कि यदि तुम चाहो तो तिलिस्मी खंजर भी दे सकता हूँ।

भैरोंसिंह––जी नहीं, तिलिस्मी खंजर मैं न लूँगा, क्योंकि आपके पास उसका