चन्द्रकान्ता सन्तति 5/17.16

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चंद्रकांता संतति भाग 5  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

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तीनों आदमी कमरे के बाहर निकल कर सहन में आये। उस समय कुमार को मालूम हुआ कि यह कमरा बाग के पूरब तरफ वाली इमारत के सब से निचले हिस्से में बना हुआ है, और इस कमरे के ऊपर और भी दो मंजिल की इमारत है, मगर वे दोनों मंजिलें बहुत छोटी थीं और उनके साथ ही दोनों तरफ इमारतों का सिलसिला बराबर चला गया था। दिन चढ़ आया था और नित्यकर्म न किए जाने के कारण कुमारों की तबीयत कुछ भारी हो रही थी।

जिस तरह इस तिलिस्म में पहले दूसरे बाग के अन्दर नहर की बदौलत पानी की कमी न थी उसी तरह इस वाग भी नहर का पानी छोटी नालियों के जरिये चारों ओर घूमता हुआ आता था और दस-पाँच मेवों के पेड़ भी थे जिनमें बहुतायत के साथ [ ५८ ]मेवे लगे हुए थे।

दोनों कुमार और भैरोंसिंह टहलते हुए बाग के बीचोंबीच से उसी कदम्ब के पेड़ तले आए जिसके नीचे पहले-पहले भैरोंसिंह के दर्शन हुए थे। बातचीत करने के बाद तीनों ने जरूरी कामों से छुट्टी पा हाथ-मुँह धोकर स्नान किया और संध्योपासन से छुट्टी पाकर वे बाग के मेवों और नहर के जल से संतोष करने के बाद बैठकर यों बातचीत करने लगे––

इन्द्रजीतसिंह––मैं उम्मीद करता हूँ कि कमलिनी, किशोरी और कामिनी वगैरह से इसी बाग में मुलाकात होगी।

आनन्दसिंह––निःसन्देह ऐसा ही है। इस बाग में अच्छी तरह घूमना और यहाँ की हरएक बात का पूरा-पूरा पता लगाना हम लोगों के लिए जरूरी है।

भैरोंसिंह––मेरा दिल भी यही गवाही देता है कि वे सब जरूर इसी बाग में होंगी मगर कहीं ऐसा न हुआ हो कि मेरी तरह से उन लोगों का दिमाग भी किसी कारणविशेष से बिगड़ गया हो।

इन्द्रजीतसिंह––कोई ताज्जुब नहीं अगर ऐसा ही हुआ हो, मगर तुम्हारी जुबानी मैं सुन चुका हूँ कि राजा गोपालसिंह ने कमलिनी को बहुत-कुछ समझा-बुझाकर एक तिलिस्मी किताब भी दी है।

भैरोंसिंह––हाँ, बेशक मैं कह चुका हूँ और ठीक कह चुका हूँ। इन्द्रजीतसिंह-तो यह भी उम्मीद कर सकता हूँ कि कमलिनी को इस तिलिस्म का कुछ हाल मालूम हो गया हो और वह किसी के फंदे में न फँसे।

भैरोंसिंह––इस तिलिस्म में और है ही कौन जो उन लोगों के साथ दगा करेगा? आनन्दसिंह-बहुत ठीक! शायद आप अपनी नौजवान स्त्री और उसके हिमायती लड़कों को बिल्कुल ही भूल गए, या हम लोगों की जुबानी सब हाल सुनकर भी आपको उसका कुछ खयाल न रहा।

भैरोंसिंह––(मुस्कुराकर) आपका कहना ठीक है मगर उन सभी को···

इतना कहकर भैरोंसिंह चुप हो गया और कुछ सोचने लगा। दोनों कुमार भी किसी बात पर गौर करने लगे और कुछ देर बाद भैरोंसिंह ने इन्द्रजीतसिंह से कहा––

भैरोंसिंह––आपको तो यह याद होगा कि लड़कपन में एक दफा मैंने पागलपन की नकल की थी।

इन्द्रजीतसिंह––हाँ, याद है। तो क्या आज भी तुम जान-बूझ कर पागल बने हुए थे?

भैरोंसिंह––नहीं-नहीं, मेरे कहने का मतलब यह नहीं है, बल्कि मैं यह कहता हूँ कि इस समय भी उसी तरह का पागल बन के शायद कोई काम निकाल सकूँ।

आनन्दसिंह––हाँ, ठीक तो है, आप पागल बन के अपनी नौजवान स्त्री को बुलाइए जिस ढंग से मैं बताता हूँ।

कुमार के बताये हुए ढंग से भैरोंसिंह ने पागल बन के अपनी नौजवान स्त्री को कई दफा बुलाया मगर उसका नतीजा कुछ न निकला, न तो कोई उसके पास आया और [ ५९ ]न किसी ने उसकी बात का जवाब ही दिया, आखिर इन्द्रजीतसिंह ने कहा, "बस करो, उसे मालूम हो गया कि तुम्हारा पागलपन जाता रहा, अब हम लोगों को फँसाने के लिए वह जरूर कोई दूसरा ही ढंग काम में लावेगी।"

आखिर भैरोंसिंह चुप हो रहे और थोड़ी देर बाद तीनों आदमी इधर-उधर का तमाशा देखने के लिए यहाँ से रवाना हुए। इस समय दिन बहुत कम बाकी था।

तीनों आदमी बाग के पश्चिम की तरफ गये जिधर संगमरमर की एक बारहदरी थी। उसके दोनों तरफ दो इमारतें और थीं जिनके दरवाजे बन्द रहने के कारण यह नहीं जाना जाता था कि उसके अन्दर क्या है मगर बारहदरो खुले ढंग की बनी हुई थी अर्थात् उसके पीछे की तरफ दीवानखाना और आगे की तरफ केवल तेरह खम्भे लगे हुए थे जिनमें दरवाजा चढ़ाने की जगह न थी।

इस बारहदरी के मध्य में एक सुन्दर चबूतरा बना हुआ था जिस पर कम-से-कम पन्द्रह आदमी बखूबी बैठ सकते थे। उस चबूतरे के ऊपर बीचोंबीच में लोहे का चौखूटा तख्ता था जिसमें उठाने के लिए कड़ी लगी हुई थी और चबूतरे के सामने की दीवार में एक छोटा-सा दरवाजा था जो इस समय खुला हुआ था और उसके अन्दर दो-चार हाथ के बाद अंधकार सा जान पड़ता था। भैरोंसिंह ने कुँअर इन्द्रजीतसिंह से कहा, "यदि आज्ञा हो तो इस छोटे-से दरवाजे के अन्दर जाकर देखू कि इसमें क्या है?"

इन्द्रजीतसिंह––यह तिलिस्म का मुकाम है, खिलवाड़ नहीं है। कहीं ऐसा न हो कि तुम अन्दर जाओ और दरवाजा बन्द हो जाय! फिर तुम्हारी क्या हालत होगी, सो तुम्हीं सोच लो।

आनन्दसिंह––पहले यह तो देखो कि दरवाजा लकड़ी का है या लोहे का?

इन्द्रजीतसिंह––भला तिलिस्म बनाने वाले इमारत के काम में लकड़ी क्यों लगाने लगे जिसके थोड़े ही दिन में बिगड़ जाने का खयाल होता है, मगर शक मिटाने के लिए यदि चाहो तो देख लो।

भैरोंसिंह––(उस दरवाजे को अच्छी तरह जाँचकर) बेशक यह लोहे का बना हुआ है। इसके अन्दर कोई भारी चीज डालकर देखना चाहिए कि बन्द होता है या नहीं, यदि किसी आदमी के जाने से बन्द हो जाता होगा तो मालूम हो जायेगा।

आनन्दसिंह––(चबूतरे की तरफ इशारा करके) पहले इस तख्ते को उठाकर देखो कि इसके अन्दर क्या है!

"बहुत अच्छा" कहकर भैरोंसिंह चबूतरे के ऊपर चढ़ गया और कड़ी में हाथ डाल के उस तख्ते को उठाने लगा। तख्ता किसी कब्जे या पेंच के सहारे उसमें जड़ा हुआ न था बल्कि चारों तरफ से अलग था, इसलिए भैरोंसिंह ने उसे उठाकर चबूतरे के नीचे रख दिया, इसके बाद झाँककर देखने से मालूम हुआ कि नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं।

भैरोंसिंह ने नीचे उतरने के लिए आज्ञा माँगी मगर कुँअर इन्द्रजीतसिंह उसे रोककर स्वयं नीचे उतर गये और भैरोंसिंह तथा आनन्दसिंह को ऊपर मुस्तैद रहने के लिए ताकीद कर गये। [ ६० ]नीचे उतरने के लिए चक्करदार सीढ़ियाँ बनी हुई थीं और हर एक सीढ़ी के दोनों तरफ गेंदे के बनावटी पेड़ बने हुए थे जो सीढ़ी पर पैर रखने के साथ ही झुक जाते और पैर (या बोझ) हट जाने से पुनः ज्यों-के-त्यों खड़े हो जाते थे। इस तमाशे को देखते हुए इन्द्रजीतसिंह कई सीढ़ियाँ नीचे उतर गये और जब अंधेरे में पहुँचे तो बन्द दरवाजा मिला जिसे उस समय कुमार ने कुछ खुला हुआ देखा था जब तक वहाँ तक पहुँचने में तीन-चार सीढ़ियाँ बाकी थी अर्थात् कुमार के देखते-देखते वह दरवाजा बन्द हो गया था।

कुमार को ताज्जुब मालूम हुआ और जब उद्योग करने पर भी दरवाजा न खुला तो कुमार ऊपर की तरफ लौटे। तीन सीढ़ियाँ ऊपर चढ़ने के बाद घूमकर देखा तो दरवाजे को पुनः कुछ खुला हुआ देखा मगर जब नीचे उतरे तो फिर बन्द हो गया।

इन्द्रजीतिसिंह को विश्वास हो गया कि इस दरवाजे का खुलना और बन्द होना भी इन्हीं सीढ़ियों के अधीन है। आखिर लाचार होकर कुछ सोचते-विचारते चले आए। ऊपर आते समय भी सीढ़ियों के दोनों तरफ वाले पेड़ों की वही दशा हुई अर्थात् जिस सीढ़ी पर पैर रखा जाता, उसके दोनों तरफ वाले पेड़ झुक जाते और जब उस पर से पैर हट जाता तो फिर ज्यों-के-त्यों हो जाते।

ऊपर आकर इन्द्रजीतसिंह ने कुल हाल आनन्दसिंह और भैरोंसिंह से कहा और इस बात का विचार करने की आज्ञा दी कि 'हम नीचे उतरकर किस तरह उस दरवाजे को खुला हुआ पा सकते हैं।'

थोड़ी देर बाद भैरोंसिंह ने कहा, "मैं पेड़ों का मतलब समझ गया, यदि आप मुझे अपने साथ ले चलें तो मैं ऐसी तरकीब कर सकता हूँ कि वह दरवाजा आपको खुला मिले।"

इस समय संध्या हो चुकी थी इसलिए सब लोगों की राय नीचे उतरने को न हुई। कुमार की आज्ञानुसार भैरोंसिंह ने उस गड्ढे का मुँह ज्यों-का-त्यों ढाँक दिया और उस बारहदरी में निश्चिन्ती के साथ बैठ बातचीत करने लगे क्योंकि आज की रात इसी बारहदरी में होशियारी के साथ रहकर बिताने का निश्चय कर लिया था और भैरोंसिंह के जिद करने से यह बात भी तय पाई थी कि इन्द्रजीतसिंह आराम के साथ सोवें और भैरोंसिंह तथा आनन्दसिंह बारी-बारी से जागकर पहरा