चन्द्रकान्ता सन्तति 5/18.1

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चंद्रकांता संतति भाग 5  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री
[ ६४ ]

अठारहवाँ भाग

1

कह सकते हैं कि तारासिंह के हाथ में नानक का मुकदमा दे ही दिया गया। राजा वीरेन्द्रसिंह ने तारासिंह को इस काम पर मुकर्रर किया था कि वह नानक के घर जाय और उसकी चालचलन तथा उसके घर के सच्चे-सच्चे हाल की तहकीकात करके लौट आवे मगर इसके पहले कि तारासिंह नानक की चालचलन और उसकी नीयत का हाल जाने, उसने नानक के घर ही की तहकीकात शुरू कर दी और उसकी स्त्री का भेद जानने के लिए उद्योग किया। जब नानक की स्त्री सहज ही में तारासिंह के पास आ गई तो उसे उसकी बदचलनी का विश्वास हो गया और उसने चाहा कि किसी तरह नानक की स्त्री को टाल दे और इसके बाद नानक की नीयत का अन्दाजा करे मगर उसकी कार्रवाई में उस समय विघ्न पड़ गया जब नानक की स्त्री तारासिंह के सामने जा बैठी और उसी समय बाहर से किसी के चिल्लाने की आवाज आई।


हम कह चुके हैं कि नानक के यहाँ एक मजदूरनी थी। वह नानक के काम की चाहे न हो मगर उसकी स्त्री के लिए उपयुक्त पात्र थी और उसके द्वारा नानक की स्त्री का सब काम चलता था। मगर इस तारासिंह वाले मामले में नानक की स्त्री श्यामा की बातचीत हनुमान छोकरे की मार्फत हुई थी, इसलिए बीच वाले मुनाफे की रकम में उस मजदूरनी के हाथ झंझी कौड़ी भी न लगी थी जिसका उसे बहुत रंज हुआ और वह दोस्ती के बदले में दुश्मनी करने पर उतारू हो गई। इसलिए कि श्यामारानी को उससे किसी तरह का पर्दा तो था ही नहीं, उसने मजदूरनी से अपना भेद तो सब कह दिया मगर उसके हानि-लाभ पर ध्यान न दिया। इसलिए वह मजदूरनी चुपचाप सब कार्रवाई देखती-सुनती और समझती रही, मगर जब श्यामारानी तारासिंह के यहाँ चली गई और कुछ देर बाद नानक घर में आया तो उसने अपना नाम प्रकट न करने का वादा कराके सब हाल नानक से कह दिया और तारासिंह का मकान दिखा देने के लिए भी तैयार हो गई क्योंकि उसे पता-ठिकाना तो मालूम हो ही चुका था।

नानक ने जब सुना कि उसकी स्त्री किसी परदेशी के घर गई है, तब उसे बड़ा [ ६५ ]ही क्रोध आया और उसने ऐयारी के सामान से लैस होकर अकेले ही अपनी स्त्री का पीछा किया।

नानक ने यद्यपि किसी कारण से लोकलाज को तिलांजलि दे दी थी मगर ऐयारी को नहीं। उसे अपनी ऐयारी पर बहुत भरोसा था और वह दस-पाँच आदमियों में अकेला घुस कर लड़ने की हिम्मत भी रखता था। यही सबब था कि उसने किसी संगी-साथी का खयाल न करके अकेले ही श्यामारानी का पीछा किया, हाँ यदि उसे यह मालूम होता कि श्यामारानी का उपपति तारासिंह है तो कदापि अकेला न जाता।

नानक औरत के वेष में घर से बाहर निकला और जब उस मकान के पास पहुँचा जिसमें तारासिंह ने डेरा डाला था, तो कमन्द लगा कर मकान के ऊपर चढ़ गया और धीरे-धीरे उस कोठरी के पास जा पहुँचा जिसके अन्दर तारासिंह और श्यामारानी थी और बाहर तारासिंह का चेला और नानक का नौकर हनुमान हिफाजत कर रहा था। वहाँ पहुँचते ही उसने एक लात अपने नौकर की कमर में ऐसी जमाई कि वह तिलमिला गया और जब वह चिल्लाया तो उसे चिढ़ाने की नीयत से नानक स्वयं भी औरतों ही की तरह चिल्ला उठा।

यही वह चिल्लाने की आवाज थी जिसे कोठरी के अन्दर बैठे हुए तारासिंह और श्यामा ने सुना था। चिल्लाने की आवाज सुनते ही तारासिंह उठ खड़ा हुआ और हाथ में खंजर लिए कोठरी के बाहर निकला। वहाँ अपने चेले और हनुमान के अतिरिक्त एक औरत को खड़ा देख वह ताज्जुब करने लगा और उसने औरत अर्थात् नानक से पूछा, "तू कौन है?"

नानक––पहले तू ही बता कि तू कौन है जिसमें तुझे मार डालने के बाद यह तो मालूम रहे कि मैंने फलाने को मारा था।

तारासिंह––तेरी ढिठाई पर मुझे ताज्जुब ही नहीं होता, बल्कि यह भी मालूम होता है कि तू औरत नहीं, कोई ऐयार है!

नानक––(गम्भीरता के साथ) बेशक मैं ऐयार हूँ तभी तो अकेले तेरे घर में घुस आया हूँ! शैतान, तू नहीं जानता कि बुरे कर्मों का फल क्योंकर मिलता है और वह कितना बड़ा ऐयार है जिसकी स्त्री को तूने धोखा देकर बुला लिया है!

तारासिंह––(जोर से हँस कर) अ ह ह ह! अब मुझे पूरा विश्वास हो गया कि बेहया नानक तू ही है और शायद अपनी पतिव्रता की आमदनी गिनने के लिए यहाँ आ पहुँचा है। अच्छा तो अब तुझे यह भी जान लेना चाहिए कि जिसका तू मुकाबला कर रहा है उसका नाम तारासिंह है और वह राजा वीरेन्द्रसिंह की आज्ञानुसार तेरे चालचलन की तहकीकात करने आया है।

तारासिंह और राजा वीरेन्द्रसिंह का नाम सुनते ही नानक सन्न हो गया। उधर उसकी स्त्री ने जब यह जाना कि इस कोठरी के बाहर उसका पति खड़ा है, तो वह नखरे से रोने और पीटने लगी तथा यह कहती हुई कोठरी के बाहर निकल कर नानक के पैरों पर गिर पड़ी कि मुझे तो तुम्हारा नाम लेकर हनुमान यहाँ ले आया है। [ ६६ ]नानक थोड़ी देर तक तो सन्नाटे में रहा, इसके बाद तारासिंह की तरफ देख के बोला।

नानक––क्या ऐयारों का यही धर्म है कि दूसरों की औरतों को खराब करें और बदकारी का धब्बा अपने नाम के साथ लगावें!

तारासिंह––नहीं-नहीं, ऐयारों का यह काम नहीं है, और ऐयारों को यह भी उचित नहीं है कि सब तरफ का खयाल छोड़ केवल औरत की कमाई पर गुजारा करें। मैंने तेरी औरत को किसी बुरी नीयत से नहीं बुलाया बल्कि चालचलन का हाल जानने के लिए ऐसा किया है। जो बातें तेरे बारे में सुनी गई हैं और जो कुछ यहाँ आने पर मैंने मालूम की हैं उनसे जाना जाता है कि तू बड़ा ही कमीना और नमकहराम है। नमकहराम इसलिए कि मालिक के काम की तुझे कुछ भी फिक्र नहीं है और इसका सबूत केवल मनोरमा ही बहुत है जिसके साथ तू शादी किया चाहता था और जिसने जूतियों से तेरी पूजा ही नहीं की बल्कि तिलिस्मी खंजर भी तुझसे ले लिया।

नानक––यह कोई आवश्यक नहीं है कि ऐयारों का काम सदैव पूरा ही उतरा करे, कभी धोखा खाने में न आवे! यदि मनोरमा की ऐयारी मुझ पर चल गई तो इसके बदले में कमीना और नमकहराम कहे जाने लायक मैं नहीं हो सकता। क्या तुमने और तुम्हारे बाप ने कभी धोखा नहीं खाया? और मेरी स्त्री को जो तुम बदनाम कर रहे हो, वह तुम्हारी भूल है। वह तो खुद कह रही है कि 'मुझे तो तुम्हारा नाम लेकर हनुमान यहाँ ले आया है।' मेरी स्त्री बदकार नहीं है बल्कि वह साध्वी और सती है, असल में बदमाश तू है जो इस तरह धोखा देकर पराई स्त्री को अपने घर में बुलाता है और मुझे यहाँ पर अकेला जान कर गालियाँ देता है, नहीं तो मैं तुझसे किसी बात में कम नहीं हूँ।

तारासिंह––नहीं-नहीं, तू बहुत बातों में मुझसे बढ़ के है, और मैं भी अकेला समझ तुझे गालियाँ नहीं देता बल्कि दोषी जान कर गालियाँ देता हूँ। तू अपनी स्त्री को साध्वी सती छोड़ के चाहे माता से भी बढ़ कर समझ ले, मेरी कोई हानि नहीं है। मैं वास्तव में जिस काम के लिए आया था उसे कर चुका, अब यहाँ से जाकर मालिक से सब कह दूँगा और तेरे गम्भीर स्वभाव की प्रशंसा भी करूँगा, जिसे सुनकर तेरा बाप बहुत ही प्रसन्न होगा जो अपनी एक भूल के कारण हद से ज्यादे पछता रहा है और बदनामी का टीका मिटाने के लिए जी-जान से उद्योग कर रहा है मगर तुझ कपूत के मारे कुछ भी करने नहीं पाता। (हँस कर) ऐसी कुलटा स्त्री को सती और साध्वी समझने वाला अपने को ऐयार कहे, यही आश्चर्य है।

नानक––मेरे ऐयार होने में तुम्हें कुछ शक है?

तारासिंह––कुछ? अजी, बिल्कुल शक है!

नानक––यदि तुम ऐसा समझ भी लो तो इसमें मेरी कुछ हानि नहीं है, इससे ज्यादा तुम और कुछ भी नहीं कर सकते कि यहाँ से जाकर राजा वीरेन्द्रसिंह से मेरी झूठी शिकायतें करो मगर इस बात को भी समझ लो कि मैं किसी का ताबेदार नहीं हूँ।

तारासिंह––(क्रोध से) तू किसी का ताबेदार नहीं है?

तारासिंह को क्रोधित देखकर नानक डर गया, केवल इसलिए कि इस जगह [ ६७ ]वह अकेला था और अकेले ही इस मकान में तारासिंह का मुकाबला करना अपनी ताकत से बाहर समझता था जिसके दो चेले भी यहाँ मौजूद थे, अस्तु, समय पर ध्यान देकर वह चुप हो गया मगर दिल में वह तारासिंह का जानी दुश्मन हो गया। उसने मन में निश्चय कर लिया कि तारासिंह को किसी-न-किसी ढंग से अवश्य नीचा दिखाना बल्कि मार डालना चाहिए।

नानक ने और भी न मालूम क्या सोचकर अपनी जुबान को रोका और सिर नीचा करके चुपचाप खड़ा रह गया। तारासिंह ने कहा, "बस, अब तू जा और अपनी सती-साध्वी स्त्री तथा नौकर को भी अपने साथ लेता जा!"

नानक ने इस आज्ञा को गनीमत समझा और चुपचाप वहाँ से रवाना हो गया। उसकी स्त्री और नौकर भी उसके पीछे चल पड़े।

उसी समय तारासिंह ने भी अपना डेरा कूच कर दिया और शहर के बाहर हो चुनार का रास्ता लिया, मगर दिल में सोच लिया कि कम्बख्त नानक अवश्य मेरा पीछा करेगा, बल्कि ताज्जुब नहीं कि धोखा देकर जान लेने की फिक्र भी करे।


2

संध्या होना ही चाहती है। पटने की बहुत बड़ी सराय के दरवाजे पर मुसाफिरों की भीड़ हो रही है। कई भटियारे भी मौजूद हैं जो तरह-तरह के आराम की लालच दे अपनी-अपनी तरफ मुसाफिरों को ले जाने का उद्योग कर रहे हैं, और मुसाफिर लोग भी अपनी-अपनी इच्छानुसार उनके साथ जाकर डेरा डाल रहे हैं। मुसाफिरों को भटियारी के सुपुर्द करके भटियारे पुनः सराय के फाटक पर लौट आते और नये मुसाफिरों को अपनी तरफ ले जाने का उद्योग करते हैं।

यह सराय बहुत बड़ी और इसका फाटक मजबूत तथा बड़ा था। फाटक के दोनों तरफ (मगर दरवाजे के अन्दर) बारह सिपाही और एक जमादार का डेरा था जो इस सराय में रहने वाले मुसाफिरों की हिफाजत के लिए राजा की तरफ से मुकर्रर थे, उनकी तनखाह सराय के भटियारों से वसूल की जाती थी। ये ही सिपाही बारी-बारी से घूमकर सराय के अन्दर पहरा दिया करते थे और जब मुसाफिरों को किसी तरह की तकलीफ होती तो सीधे राजदीवान के पास जाकर रपट किया करते थे।

थोड़ी देर बाद जब सब मुसाफिरों के टिकने का बन्दोबस्त हो गया और सराय के फाटक पर कुछ सन्नाटा हुआ तो उन सिपाहियों का जमादार अपनी जगह से उठकर सराय के अन्दर इसलिए घूमने लगा कि देखें सब मुसाफिरों का ठीक-ठीक बन्दोबस्त हो गया या नहीं। वह जमादार केवल घूमता ही न था, बल्कि भटियारों से भी तरह-तरह के सवाल करके मुसाफिरों का हाल दरियाफ्त करता जाता था।

जमादार घूमता हुआ जब उत्तर की तरफ वाले उस कमरे के पास पहुँचा जो