चन्द्रकान्ता सन्तति 6/21.10

विकिस्रोत से
चंद्रकांता संतति भाग 6  (1896) 
द्वारा देवकीनंदन खत्री

[ ५३ ]

10

यह दालान जिसमें इस समय महाराज सुरेद्रसिंह वगैरह आराम कर रहे हैं,बनिस्बत उस दालान के, जिसमें ये लोग पहले-पहल पहुंचे थे, वड़ा और खूबसूरत बना हुआ था। तीन तरफ दीवार थी और बाग की तरफ तेरह खम्भे और महराब लगे हुए थे जिससे इसे वारहदरी भी कह सकते हैं। इसकी कुर्सी लगभग ढाई हाथ के ऊँची थी और इसके ऊपर चढ़ने के लिए पांच सीढ़ियाँ बनी हुई थी। बारहदरी के आगे की तरफ कुछ सहन छूटा हुआ था जिसकी जमीन (फर्श) संगमर्मर और संगमूसा के चौखूटे पत्थरों से बनी हुई थी। बारहदरी की छत में मीनाकारी का काम किया हुआ था और तीनों तरफ की दीवारों में कई आलमारियाँ भी थीं।

रात पहर भर से कुछ ज्यादा जा चुकी थी। इस बारहदरी में, जिसमें सब कोई आराम कर रहे थे, एक आलमारी की कार्निस के ऊपर मोमबत्ती जल रही थी जो देवी-सिंह ने अपने ऐयारी के बटुए में से निकालकर जलाई थी। किसी को नींद नहीं आयी थी बल्कि सब लग बैठे हुए आपस में बातें कर रहे थे। महाराज सुरेन्द्रसिंह बाग की तरफ मुंह किए बैठे थे और उन्हें सामने की पहाड़ी का आधा हिस्सा भी, जिस पर इस समय अन्धकार की बारीक चादर पड़ी हुई थी, दिखाई दे रहा था। उस पहाड़ी पर यकायक मशाल की रोशनी देखकर महाराज चौके और सभी को उस तरफ देखने का इशारा किया।

सभी ने उस रोशनी की तरफ ध्यान दिया और दोनों कुमार ताज्जुब के साथ सोचने लगे कि यह क्या मामला है ? इस तिलिस्म में हमारे सिवाय किसी गैर आदमी का आना कठिन ही नहीं बल्कि एकदम असम्भव है, तब फिर यह मशाल की रोशनी कैसी ! खाली रोशनी ही नहीं, बल्कि उसके पास चार-पांच आदमी भी दिखाई देते हैं। [ ५४ ]हाँ, यह नहीं जान पड़ता कि वे सब औरत हैं या मर्द ।

और लोगों के विचार भी दोनों कुमारों की ही तरह के थे और मशाल के साथ कई आदमियों को देखकर सभी ताज्जुब कर रहे थे। यकायक वह रोणनी गायब हो गई और आदमी दिखाई देने से रह गये, मगर थोड़ी ही देर बाद वह रोशनी फिर दिखाई दी। अबकी दफे रोशनी और भी नीचे की तरफ थी और उसके साथ के आदमी साफ-साफ दिखाई देते थे।

गोपालसिंह--(इन्द्रजीतसिंह से) मैं समझता था कि आप दोनों भाइयों के सिवाय कोई गैर आदमी इस तिलिस्म में नहीं आ सकता।

इन्द्रजीतसिंह--मेरा भी यही खयाल था मगर क्या आप भी यहाँ तक नहीं आ सकते ? आप तो तिलिस्म के राजा हैं।

गोपालसिंह--हाँ मैं आ तो सकता हूँ मगर सीधी राह से और अपने को बचाते हुए, वे काम मैं नहीं कर सकता जो आप कर सकते हैं । परन्तु आश्चर्य तो यह है कि वे लोग पहाड़ पर से आते हुए दिखाई दे रहे हैं जहाँ से आने का कोई रास्ता ही नहीं है । तिलिस्म बनाने वालों ने इस बात को जरूर अच्छी तरह विचार लिया होगा।

इन्द्रजीतसिंह--बेशक ऐसा ही है, मगर यहाँ पर क्या समझा जाय? मेरा खयाल है कि थोड़ी ही देर में वे लोग इस बाग में आ पहुँचेंगे ।

गोपालसिंह--बेशक ऐसा ही होगा । (रुककर) देखिए, रोशनी फिर गायब हो ग़ई, शायद वे लोग किसी गुफा में घुस गये । कुछ देर तक सन्नाटा रहा और सब कोई बड़े गौर से उसी तरफ देखते रहे । इसके बाद यकायक बाग के पश्चिम तरफ वाले दालान में रोशनी मालूम होने लगी जो उस दालान के ठीक सामने था जिसमें हमारे महाराज तथा ऐयार लोग टिके हुए थे, मगर पेड़ों के सबब से साफ नहीं दिखाई देता था कि दालान में कितने आदमी आए हैं और क्या कर रहे हैं। जब सभी को निश्चय हो गया कि वे लोग धीरे-धीरे पहाड़ों के नीचे उतरकर बाग के दालान या बारहदरी में आ गए हैं तब महाराज सुरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह को हुक्म दिया कि जाकर देखो और पता लगाओ कि वे लोग कौन हैं और वहाँ क्या कर रहे हैं।

गोपालसिंह--(महाराज से) तेजसिंहजी का वहाँ जाना उचित न होगा क्योंकि यह तिलिस्म का मामला है और यहां की बातों से ये बिल्कुल बेखबर है, यदि आज्ञा हो तो कुंअर इन्द्रजीतसिंह को साथ लेकर मैं जाऊँ ।

महाराज–-ठीक है, अच्छा तुम्हीं दोनों आदमी जाकर देखो, क्या मामला है।

कुंअर इन्द्रजीतसिंह और राजा गोपालसिंह वहाँ से उठे और धीरे-धीरे तथा पेड़ों की आड़ में अपने को छिपाते हुए उस दालान की तरफ रवाना हुए जिसमें रोशनी दिखाई दे रही थी, यहाँ तक कि उस दालान अथवा बारहदरी के बहुत पास पहुंच गये और एक पेड़ की आड़ में खड़े होकर गौर से देखने लगे।

इस दालान में उन्हें पन्द्रह आदमी दिखाई दिए, जिनके विषय में यह जानना कठिन था कि वे मर्द हैं या औरत, क्योंकि सभी की पोशाक एक ही रंग-ढंग की तथा [ ५५ ]सभी के चेहरे पर नकाब पड़ी हुई थी। इन्हीं पन्द्रह आदमियों में से दो आदमी मशीन का काम दे रहे थे। जिस तरह उनकी पोशाक खूबसूरत और बेशकीमत थी, उसी मशाल भी सुनहरी तथा जड़ाऊ काम की दिखाई दे रही थी और उसके सिरे की त बिजली की तरह रोशनी हो रही थी, इसके अतिरिक्त उनके हाथ में तेल की कुप्पी न थी और इस बात का कुछ पता नहीं लगता था कि इस मशाल की रोशनी का सबब क्या है।

राजा गोपालसिंह और इन्द्रजीतसिंह ने देखा कि वे लोग शीघ्रता के साथ उस दालान के सजाने और फर्श वगैरह के ठीक करने का इन्तजाम कर रहे हैं । बारहदरी के दाहिनी तरफ एक खुला हुआ दरवाजा है, जिसके अन्दर वे लोग बार-बार जाते हैं और जिस चीज की जरूरत समझते हैं, ले आते हैं। यद्यपि उन सभी की पोशाक एक ही ढंग की है और इसलिए बड़ाई-छुटाई का पता लगाना कठिन है, तथापि उन सभी में से एक आदमी ऐसा है, जो स्वयं कोई काम नहीं करता और एक किनारे कुर्सी पर बैठा हुआ अपने साथियों से काम ले रहा है। उसके हाथ मे एक विचित्र ढंग की छड़ी दिखाई दे रही है जिसके मुठे पर निहायत खूबसूरत और कुछ बड़ा हिरन बना हुआ है। देखते-ही-देखते थोड़ी देर में बारहदरी सज कर तैयार हो गई और कन्दीलों की रोशनी से जगमगाने लगी। उस समय वह नकाबपोश जो कुर्सी पर बैठा था और जिसे हम उस मण्डली का सरदार भी कह सकते हैं, अपने साथियों से कुछ कह-सुन कर बारहदरी के नीचे उतर आया और धीरे-धीरे उधर रवाना हुआ जिधर महाराज सुरेन्द्रसिंह वगैरह टिके हुए थे ।

यह कैफियत देख कर राजा गोपालसिंह और इन्द्रजीतसिंह जो छिपे सब तमाशा देख रहे थे वहाँ से लौटे और शीघ्र ही महाराज के पास पहुंच कर जो कुछ देखा था,संक्षेप में सब वयान किया । उसी समय एक आदमी आता हुआ दिखाई दिया। सभी का ध्यान उसी तरफ चला गया और इन्द्रजीतसिंह तथा राजा गोपालसिंह ने समझा कि यहवही नकाबपोशों का सरदार होगा जिसे अभी हम उस बारहदरी में देख आये हैं और जो हमारे देखते-देखते वहाँ से रवाना हो गया था। मगर जब पास आया तो सभी का भ्रम जाता रहा और एकाएक इन्द्रदेव पर निगाह पड़ते ही सब कोई चौंक पड़े । राजा गोपाल-सिंह और इन्द्रजीत सिंह को इस बात का भी शक हुआ कि वह नकाबपोशों का सरदार शायद इन्द्रदेव ही हो, मगर यह देख कर उन्हें ताज्जुब मालूम हुआ कि इन्द्र देव उस (नकाबपोशों की-सी) पोशाक में न था, जैसा कि उस बारहदरी में देखा था, बल्कि वह अपनी मामूली दरबारी पोशाक में था।

इन्द्रदेव ने वहाँ पहुँचकर महाराज सुरेन्द्र सिंह, वीरेन्द्र सिंह, जीतसिंह, तेजसिंह,राजा गोपालसिंह तथा दोनों कुमारों को अदब के साथ झुक कर सलाम किया और इसके बाद बाकी ऐयारों से भी "जय माया की" कहा ।

सुरेन्द्र सिंह--इन्द्रदेव, जब से हमने इन्द्रजीतसिंह की जुबानी यह सुना है कि इस तिलिस्म के दारोगा तुम हो, तब से हम बहुत ही खुश हैं । मगर ताज्जुब होता था कि तुमने इस बात की हमें कुछ भी खबर नहीं की और न हमारे साथ ग्रहां आये हो। अब यकायक इस समय यहाँ पर तुम्हें देख कर हमारी खुशी और भी ज्यादा हो गई । आओ, हमारे पास बैठ जाओ और यह कहो कि हम लोगों के साथ तुम यहाँ क्यों नहीं आये ? [ ५६ ]इन्द्रदेव--(बैठ कर) आशा है कि महाराज मेरा वह कसूर माफ करेंगे। मुझे कई जरूरी काम करने थे, जिनके लिए अपने ढंग पर अकेले आना पड़ा। बेशक मैं इस तिलिस्म का दरोगा हूँ और इसीलिए अपने को बड़ा ही खुशकिस्मत समझता हूँ कि ईश्वर ने इस तिलिस्म को आप ऐसे प्रतापी राजा के हाथ में सौंपा है। यद्यपि आपके फर्मा-बर्दार और होनहार पोतों ने इस तिलिस्म को फतह किया है और इस सवब से वे इसके मालिक हुए हैं, तथापि इस तिलिस्म का सच्चा आनन्द और तमाशा दिखाना मेरा ही काम है, यह मेरे सिवाय किसी दूसरे के किए नहीं हो सकता जो काम कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह का था, उसे ये कर चुके अर्थात् तिलिस्म तोड़ चुके और जो कुछ इन्हें मालूम होना था, हो चुका । परन्तु उन बातों, भेदों और स्थानों का पता इन्हें नहीं लग सकता, जो मेरे हाथ में हैं और जिसके सबब से मैं इस तिलिस्म का दारोगा कहलाता हूँ। तिलिस्म बनाने वालों ने तिलिस्म के सम्बन्ध में दो किताबें लिखी थीं जिनमें से वे एक तो दारोगा के सुपुर्द कर गये और दूसरी तिलिस्म तोड़ने वाले के लिए छिपा कर रख गये जो कि अब दोनों कुमारों के हाथ लगी या कदाचित इनके अतिरिक्त और भी कोई किताब उन्होंने लिखी हो तो उसका हाल मैं नहीं जानता। हाँ, जो किताव दारोगा के सुपुर्द कर गये थे, वह वसीयतनामे के तौर पर पुश्त-दर-पुश्त से हमारे कब्जे में चली आ रही है और आजकल मेरे पास मौजूद है। यह मैं जरूर कहूँगा कि तिलिस्म में बहुत से मुकाम ऐसे हैं जहां दोनों कुमारों का जाना तो असम्भव ही है, परन्तु तिलिस्म टूटने के पहले मैं भी नहीं जा सकता था। हाँ, अब मैं वहाँ बखूबी जा सकता हूँ। आज मैं इसीलिए इस तिलिस्म के अन्दर-ही-अन्दर आपके पास आया हूँ कि इस तिलिस्म का पूरा-पूरा तमाशा आपको दिखाऊँ । जिसे कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह नहीं दिखा सकते । परन्तु इन कामों के पहले मैं महाराज से एक चीज मांगता हूँ जिसके बिना मेरा काम नहीं चल सकता।

महाराज--वह क्या?

इन्द्रदेव--जब तक इस तिलिस्म में आप लोगों के साथ हूँ, तब तक अदब-लिहाज और कायदे की पाबन्दी से माफ रखा जाऊँ !

महाराज--इन्द्रदेव, हम तुमसे बहुत प्रसन्न हैं । जब तक तिलिस्म में हम लोगों के साथ हो, तभी तक के लिए नहीं, बल्कि हमेशा के लिए हमने इन बातों से तुम्हें छुट्टी दी । तुम विश्वास रखो कि हमारे बाल-बच्चे और सच्चे साथी भी हमारी इस बात का पूरा-पूरा लिहाज रखेंगे।

यह सुनते ही इन्द्रदेव ने उठकर महाराज को सलाम किया और फिर बैठ कर कहा, "अब आज्ञा हो तो खाने-पीने का सामान जो आप लोगों के लिए लाया हूँ, हाजिर करूँ।"

महाराज-अच्छी बात है लाओ, क्योंकि हमारे साथियों में से कई ऐसे हैं जो भूख के मारे बेताब हो रहे होंगे।

तेजसिंह--मगर इन्द्रदेव, तुमने इस बात का परिचय तो दिया ही नहीं कि तुम वास्तव में इन्द्रदेव ही हो या कोई और ? [ ५७ ]इन्द्रदेव-(मुस्करा कर) मेरे सिवाय कोई गैर यहाँ आ नहीं सकता।

तेजसिंह-तथापि-'चिलेण्डोला'।

इन्द्रदेव-'चक्रधर'।

वीरेन्द्र सिंह-मैं एक बात और पूछना चाहता हूँ।

इन्द्रदेव -आज्ञा !

वीरेन्द्रसिंह-वह स्थान कैसा है, जहाँ तुम रहा करते हो और जहाँ मायारानी अपने दारोगा को लेकर तुम्हारे पास गई थी ?

इन्द्रदेव-वह स्थान तिलिस्म से सम्बन्ध रखता है और यहाँ से थोड़ी ही दूर पर है । मैं स्वयं आप लोगों को ले चल कर वहां की सैर कराऊँगा। इसके अतिरिक्त अभी मुझे बहुत-सी बातें कहनी हैं, पहले आप लोग भोजन इत्यादि से छुट्टी पा लें।

तेजसिंह-हम लोग अभी मशाल की रोशनी में क्या आप ही लोगों को पहाड़ से उतरते देख रहे थे?

इन्द्रदेव--जी हाँ, मैं एक निराले ही रास्ते से यहाँ आया हूँ। आप लोग बेशक ताज्जुब करते होंगे कि पहाड़ से कौन उतर रहा है । परन्तु मैं अकेला ही नहीं आया हूँ। बल्कि कई तमाशे भी अपने साथ लाया हूँ, मगर उनके जिक्र का अभी मौका नहीं है।

इतना कह कर इन्द्रदेव उठ खड़ा हुआ और देखते-देखते दूसरी तरफ चला गया,मगर अपनी इस बात से कि-"कई तमाशे भी अपने साथ लाया हूँ" कइयों को ताज्जुब और घबराहट में डाल गया ।