चन्द्रकान्ता सन्तति 6/21.8

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चंद्रकांता संतति भाग 6  (1896) 
द्वारा देवकीनंदन खत्री
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अब हम पीछे की तरफ लौटते हैं और पुनः उस दिन का हाल लिखते हैं जिस दिन महाराज सुरेन्द्रसिंह और वीरेन्द्रसिंह वगैरह तिलिस्मी तमाशा देखने के लिए रवाना हुए हैं । हम ऊपर के बयान में लिख आये हैं कि उस समय महाराज और कुमार लोगों के साथ भैरोंसिंह और तारासिंह न थे, अर्थात् वे दोनों घर पर ही रह गए थे, अतः इस समय उन्हीं दोनों का हाल लिखना बहुत जरूरी हो गया है ।

महाराज सुरेन्द्र सिंह, वीरेन्द्रसिंह, कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह वगैरह के पचले जाने के बाद भैरोंसिंह अपनी मां से मिलने के लिए तारासिंह को साथ लिए हुए महल में गये । उस समय चपला अपनी प्यारी सखी चम्पा के कमरे में बैठी हुई धीरे-धीरे कुछ बातें कर रही थी जो भैरोंसिंह और तारासिंह को आते देख चुप हो गई और इन दोनों की तरफ देखकर वोली, "क्या महाराज तिलिस्मी तमाशा देखने के लिए गए ?"

भैरोंसिंह -- हाँ, अभी थोड़ी ही देर हुई है कि वे लोग उसी पहाड़ी की तरफ रवाना हो गए।

चपला-(चम्पा से) तो अब तुम्हें भी तैयार हो जाना पड़ेगा।

चम्पा-जरूर, मगर तुम भी क्यों नहीं चलती ?

चपला- जी तो मेरा यही चाहता है मगर मामा साहब की आज्ञा हो तब तो !

चम्पा -जहाँ तक मैं खयाल करती हूँ, वे कभी इनकार न करेंगे।बहिन, जब से मुझे यह मालूम हुआ कि इन्द्रदेव तुम्हारे मामा होते हैं तब से मैं बहुत प्रसन्न हूँ।

चपला--मगर मेरी खुशी का तुम अन्दाजा नहीं कर सकती, खैर, इस समय असल काम की तरफ ध्यान देना चाहिए। (भैरोंसिंह और तारासिंह की तरफ देखकर) कहो, तुम लोग इस समय यहाँ कैसे आये ?तारासिंह-(चपला के हाथ में एक पुर्जा देकर) जो कुछ है, इसी से मालूम हो जायगा।

चपला ने तारासिंह के हाथ से पुर्जा लेकर पढ़ा और फिर चम्पा के हाथ में देकर कहा, "अच्छा, जाओ कह दो कि हम लोगों के लिए किसी तरह का तर दुद न करें, मैं अभी जाकर कमलिनी और लक्ष्मीदेवी से मुलाकात करके सब वातें तय कर लेती हूँ।" "बहुत अच्छा" कहकर भैरोंसिंह और तारासिंह वहाँ से रवाना हुए और इन्द्रदेव डरे की तरफ चले गये ।

जिस समय महाराज सुरेन्द्रसिंह वगैहर तिलिस्मी कैफियत देखने के लिए रवाना हुए हैं उसके दो या तीन घड़ी बाद घोड़े पर सवार इन्द्रदेव भी अपने चेहरे पर नकाब डाले उसी पहाड़ी की तरफ रवाना हुए मगर वे अकेले न थे, बल्कि और भी तीन नकाबपोश उनके साथ थे। जब ये चारों आदमी उस पहाड़ी के पास पहुंच गए तो कुछ देर के लिए रुके और आपस में यों बातचीत करने लगे-

इन्द्रदेव-ताज्जुब है कि अभी तक हमारे आदमी लोग यहां नहीं पहुंचे। [ ४८ ]दूसरा-और जब तक वे लोग न आवेंगे तब तक हमें यहाँ अटकना पड़ेगा।

इन्द्रदेव-बेशक !

तीसरा-व्यर्थ यहाँ अटके रहना तो अच्छा न होगा।

इन्द्रदेव-तब क्या किया जाय?

तीसरा-आप लोग जल्दी से वहाँ पहुँचकर अपना काम कीजिये और मुझे अकेले इसी जगह छोड़ दीजिए, मैं आपके आदमियों का इन्तजार करूँगा और जब वे आ जायेंगे तो सब चीजें लिए आपके पास पहुँच जाऊँगा ।

इन्द्रदेव-अच्छी बात है, मगर उन सब चीजों को क्या तुम अकेले उठा लोगे?

तीसरा-उन सब चीजों की क्या हकीकत है, कहिए तो आपके आदमियों को भी उन चीजों के साथ पीठ पर लाद कर लेता आऊँ ।

इन्द्रदेव-शाबाश ! अच्छा रास्ता तो न भूलोगे ?

तीसरा-कदापि नहीं, अगर मेरी आँखों पर पट्टी बाँध कर भी आप वहाँ तक ले गये होते तब भी मैं रास्ता न भूलता और टटोलता हुआ वहाँ तक पहुंच ही जाता ।

इन्द्रदेव-(हँस कर) बेशक तुम्हारी चालाकी के आगे यह कोई कठिन काम नहीं है । अच्छा हम लोग जाते हैं, तुम सब चीजें लेकर हमारे आदमियों को फौरन वापस कर देना।

इतना कह कर इन्द्रदेव ने उस तीसरे नकाबपोश को उसी जगह छोड़ा और दो नकाबपोशों को साथ लिए हुए आगे की तरफ बढ़े।

जिस सुरंग की राह से राजा वीरेन्द्रसिंह वगैरह उस तिलिस्मी बँगले में गये थे उससे लगभग आध कोस उत्तर को हटकर और भी एक सुरंग का छोटा सा मुहाना था जिसका बाहरी हिस्सा जंगली लताओं और बेलों से बहुत ही छिपा हुआ था। इन्द्रदेव दोनों नकाबपोशों को साथ लिए तथा पेड़ों की आड़ देकर चलते हुए इसी दूसरी सुरंग के मुहाने पर पहुंचे और जंगली लताओं को हटा कर बड़ी होशियारी से इस सुरंग के अन्दर घुस गये।


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देवीसिंह को चम्पा की सचाई पर भरोसा था और वह उसे बहुत ही नेक तथा पतिव्रता भी समझते थे, जिस पर चम्पा ने देवीसिंह के चरणों की कसम खाकर विश्वास दिला दिया था कि वह नकाबपोशों के घर में नहीं गई और कोई सबब न था कि देवीसिंह चम्पा की बात झूठ समझते । इस जगह यद्यपि देवीसिंह पुनः चम्पा को देखकर क्रोध में आ गये थे, मगर तुरन्त ही नीचे लिखी बातें विचार कर ठण्डे हो गये और सोचने लगे-

"क्या मुझे पहचानने में धोखा हुआ ? नहीं-नहीं, मेरी आँखें ऐसी गन्दी नहीं है । तो क्या वास्तव में वह चम्पा ही थी जिसे अभी मैंने देखा या पहले भी देखा था !