चन्द्रकान्ता सन्तति 6/22.2

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चंद्रकांता संतति भाग 6  (1896) 
द्वारा देवकीनंदन खत्री
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जब मेरी आँख खुली, मैंने खुद को अपने आदमियों से घिरा हुआ पाया। मशालों की रोशनी बखूबी हो रही थी। जांच करने पर मालूम हुआ कि मैं आधी घड़ी से ज्यादा देर त बेहोश नहीं रहा । जब मैंने दुश्मन के बारे में दरियाफ्त किया, तो मालूम हुआ कि वे दोनों भी भाग गये, मगर मेरे आदमियों के सबब से उस गठरी को नहीं ले जा सके। मैंने अपनी हिम्मत और ताकत पर खयाल किया तो मालूम हुआ कि मैं इस समय उनका पीछा करने लायक नहीं हूँ। आखिर लाचार हो और पहरे का इन्तजाम करके मैं गठरी लिए हुए अपने कमरे में चला आया, मगर अपने मित्र की तरफ से मेरा दिल बड़ा ही बेचैन रहा और तरह-तरह के शक पैदा होते रहे।

मेरे कमरे में रोशनी बखूबी हो रही थी। दरवाजा बन्द करके मैंने गठरी खोली और उसके अन्दर की चीजों को बड़े गौर से देखने लगा।

गठरी में दो जोड़ तो कपड़े निकले जिन्हें मैं पहचानता न था, मगर वे कपड़े पहने हुए और मैले थे। कागजों का एक मुट्ठा निकला, जिसे देखते ही मैं पहचान गया कि यह रणधीरसिंहजी के खास सन्दूक के कागज हैं। मोम का एक सांचा कई कपड़ों की तह में लपेटा हुआ निकला, जो खास रणधीरसिंहजी की मोहर पर से उठाया गया था। इन चीजों के अतिरिक्त मोतियों की एक माला एक कण्ठा और तीन जड़ाऊ अंगूठियाँ निकलीं। ये चीजें मेरे मित्र दयारामसिंह की थीं। इन सब चीजों को पहने हुए ही आज वे मेरे यहाँ से गायब हुए थे।

इन सब चीजों को देखकर मैं बड़ी देर तक सोच-विचार में पड़ा रहा । उसी समय कमरे का वह दरवाजा खुला, जो जनाने मकान में जाने के लिए था और मेरी स्त्री कमला की माँ आती हुई दिखाई पड़ी। उस समय वह एक बच्चे की माँ हो चुकी थी और अपने बच्चे को भी गोद में लिए हुए थी। इसमें कोई शक नहीं कि मेरी वह स्त्री बुद्धिमान थी और छोटे-मोटे कामों में मैं उसकी राय भी लिया करता था ।

उसकी सूरत देखते ही मैं पहचान गया कि तरद्दुद और घबड़ाहाट ने उसे अपना शिकार बना लिया है अतः मैंने उसे बुलाकर अपने पास बैठाया और सब हाल कह सुनाया साथ ही इसके यह भी कहा कि मैं इसी समय अपने दोस्त का पता लगाने के लिए जाना चाहता हूँ । मगर उसने इस आखिरी बात को कबूल न किया और कहा कि मेरी राय में पहले रणधीरसिंहजी से मिल लेना चाहिए।"

कई बातों को सोचकर मैंने उसकी राय कबूल कर ली और उस गठरी को लेकर रणधीरसिंहजी से मिलने के लिए रवाना हुआ। मुझे इस बात का भी धोखा लगा हुआ था कि रास्ते में कहीं दुश्मनों से मुलाकात न हो जाये, जो जरूर इस गठरी को छीन लेने की धुन में लगे हुए होंगे, इसलिए मैंने अपने दो शागिर्दो को भी साथ में ले लिया ।

रणधीरसिंहजी बेफिक्री और आराम की नींद सो रहे थे जब मैंने पहुँचकर उन्हें उठाया। जागने के साथ ही वे मुझे देखकर चौंके और बोले, "क्यों, क्या मामला है जो [ ७३ ]इस समय ऐसे ढंग से यहाँ आये हो ? दयाराम कुशल से तो है?"

मेरी सूरत देखते ही उन्होंने दयाराम का कुशल पूछा, इससे मुझे बड़ा ही ताज्जुब हुआ । खैर, मैं उनके पास बैठ गया और जो कुछ मामला हुआ था, साफ-साफ कह सुनाया।

मैं इस किस्से को मुख्तसिर ही में बयान करूँगा। रणधीरसिंहजी इस हाल को सुनकर बहुत ही दुःखी और उदास हुए । बहुत कुछ बातचीत करने के बाद अन्त में बोले,"दयाराम मेरा एक ही वारिस है और तुम्हारा दिली दोस्त है, ऐसी अवस्था में उसके लिए क्या करना चाहिए, सो तुम ही सोच लो ! मैं क्या कहूँ ! मैं तो समझ चुका था कि दुश्मनों की तरफ से अब निश्चिन्त हुआ, मगर नहीं।"

इतना कहकर वे कपड़े से अपना मुंह ढांप कर रोने लगे । मैं उन्हें बहुत-कुछ समझा बुझाकर विदां हुआ और अपने घर चला आया । अपनी स्त्री से मिलकर सब हाल कहने और समझाने-बुझाने के बाद मैं अपने शागिों को साथ लेकर घर से बाहर निकला। बस यहीं से मेरी बदकिस्मती का जमाना शुरू हुआ।

इतना कहकर भूतनाथ अटक गया और सिर नीचा करके कुछ सोचने लगा।सब कोई बेचैनी के साथ उसकी तरफ देख रहे थे और भूतनाथ की अवस्था से मालूम होता था कि वह इस बात को सोच रहा है कि मैं अपना किस्सा आगे बयान करूं या नहीं। उसी समय दो आदमी और कमरे के अन्दर चले आये और महाराज को सलाम करके खड़े हो गये । इनकी सूरत देखते ही भूतनाथ के चेहरे का रंग उड़ गया और वह डरे हुए ढंग से उन दोनों की तरफ देखने लगा।

दोनों आदमी, जो अभी-अभी कमरे में आये, वे ही थे जिन्होंने भूतनाथ को अपना नाम 'दलीपशाह' बतलाया था। इन्द्रदेव की आज्ञा पाकर वे दोनों भूतनाथ के पास ही बैठ गये।


3

प्रेमी पाठक भूले न होंगे कि दो आदमियों ने भूतनाथ से अपना नाम दलीपशाह बतलाया, जिनमें से एक को पहला दलीप और दूसरे को दूसरा दलीप समझना चाहिए।

भूतनाथ तो पहले ही सोच में पड़ गया था कि अपना हाल आगे बयान करे या नहीं, अब दोनों दलीपशाह को देखकर वह और भी घबड़ा गया। ऐयार लोग समझ रहे थे कि अब उसमें बात करने की भी ताकत नहीं रही। उसी समय इन्द्रदेव ने भूतनाथ से कहा, "क्यों भूतनाथ, चुप क्यों हो गये ? कहो हाँ, तब आगे क्या हुआ ?"

इसका जवाब भूतनाथ ने कुछ न दिया और सिर झुकाकर जमीन की तरफ देखने लगा। उस समय पहले दलीपशाह ने हाथ जोड़ कर महाराज की तरफ देखा और कहा,"कृपानाथ, भूतनाथ को अपना हाल बयान करने में बड़ा कष्ट हो रहा है, और वास्तव में बात भी ऐसी ही है। कोई भला आदमी अपनी उन बातों को जिन्हें वह ऐब समझता है,