चन्द्रकान्ता सन्तति 6/22.7

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चंद्रकांता संतति भाग 6  (1896) 
द्वारा देवकीनंदन खत्री
[ ९८ ]

7

इन्द्रदेव का यह स्थान बहुत बड़ा था। इस समय यहां जितने आदमी आए हुए हैं उनमें से किसी को किसी तरह की भी तकलीफ नहीं हो सकती थी और इसके लिए प्रबन्ध भी ब अच्छा कर रक्खा गया था। औरतों के लिए एक खास कमरा मुकर्रर किया गया था मगर रामदेई (नानक की माँ) की निगरानी की जाती थी और इस बात का भी बन्दोबस्त कर रक्खा गया था कि कोई किसी के साथ दुश्मनी का बर्ताव न कर सके । महाराज सुरेन्द्रसिंह, वीरेन्द्रसिंह और दोनों कुमारों के कमरे के आगे पहरे का पूरा-पूरा इन्तजाम था और हमारे ऐयार लोग भी बराबर चौकन्ने रहा करते ये ।

यद्यपि भूतनाथ एकान्त में बैठा हुआ अपनी स्त्री से बातें कर रहा था, मगर यह बात इन्द्रदेव और देवीसिंह से छि हुई न थी जो इस समय बगीचे में टहलते हुए बातें कर रहे थे । इन दोनों के देखते ही देखते नानक भूतनाथ की तरफ गया और लौट आया इसके बाद भूतनाथ की स्त्री अपने डेरे पर चली गई और फिर रामदेई, अर्थात् नानक की मां, भूतनाथ की तरफ जाती हुई दिखाई पड़ी। उस समय इन्द्रदेव ने देवीसिंह से कहा, "सिंहजी, देखिये भूतनाथ अपनी पहली स्त्री से बातचीत कर चुका है, अब उसने नानक की मां को अपने पास बुलाया है । शान्ता की जुबानी उसकी खुटाई का सारा हाल तो उसे जरूर मालूम हो ही गया होगा, इसलिए ताज्जुब नहीं कि वह गुस्से में आकर रामदेई के हाथ-पैर तोड़ डाले !"

देवीसिंह-ऐसा हो तो कोई ताज्जुब की बात नहीं है, मगर उस औरत ने भी तो सजा पाने के ही लायक काम किया है।

इन्द्रदेव--ठीक है, मगर इस समय उसे बचाना चाहिए ।

देवीसिंह--तो जाइए वहां छिप कर तमाशा देखिए और मौका पड़ने पर उसकी सहायता कीजिए । (मुस्कुराकर) आप ही आग लगाते हैं फिर आप ही बुझाने दौड़ते हैं ।

इन्द्रदेव--(हंस कर) आप तो दिल्लगी करते हैं ।

देवीसिंह--दिल्लगी काहे की? क्या आपने उसे गिरफ्तार नहीं कराया है और अगर गिरफ्तार कराया है तो क्या इनाम देने के लिए ?

इन्द्रदेव--(मुस्कुराते हुए) तो आपकी राय है कि इसी समय उसकी मरम्मत की जाय !

देवीसिंह–-चाहिए तो ऐसा ही ! जी में आवे तो तमाशा देखने चलिए । कहिए तो मैं आपके साथ चलूं।

इन्द्रदेव--नहीं-नहीं, ऐसा न होना चाहिए । भूतनाथ आपका दोस्त है और अब तो नातेदार भी । आप ऐसे मौके पर उसके सामने जा सकते हैं । जाइए और उसे बचाइए, मेरा जाना मुनासिब न होगा।

देवीसिंह--(हँस कर) तो आप चाहते हैं कि मैं भी भूतनाथ के हाथ से दो-एक घूमे खा लूं ? अच्छा साहब जाता हूँ, आपका हुक्म कैसे टालूं, आज आपने बड़ी-बड़ी बातें [ ९९ ]मुझे सुनाई हैं इसलिए आपका अहसान भी तो मानना होगा।

इतना कहते हुए देवीसिंह पेड़ों की आड़ लेते हुए भूतनाथ की तरफ रवास हुए और जब ऐसी जगह पहुंचे जहां से उन दोनों की बातें बखूबी सुन सकते थे, तब एक चट्टान पर बैठ गये और सुनने लगे कि वे दोनों क्या बातें करते हैं !

भूतनाथ--खैर, अच्छा ही हुआ जो तुम यहाँ तक आ गईं, मुझसे मुलाकात भी हो गई और मैं 'लामाघाटी' तक जाने से बच गया। मगर अब यह तो बताओ कि अपनी सहेली 'नन्हीं' को यहाँ तक क्यों न लेती आई, मैं भी जरा उससे मिल के अपना कलेजा ठण्डा कर लेता?

रामदेई--नन्हीं बेचारी पर क्यों आक्षेप करते हो, उसने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? और वह यहाँ आती ही काहे को? क्या तुम्हारी लौंडी थी ! व्यर्थ ही एक आदमी को बदनाम और दिक करने के लिए टूटे पड़ते हैं !

भूतनाथ--(उभड़ते हुए गुस्से को दबा कर) छी-छी, वह बेचारी हमारी लौंडी क्यों होने लगी, लौंडी तो तुम उसकी थीं जो झख मारने के लिए उसके घर गई थीं।

रामदेई--(आंचल से आँसू पोंछती हुई) अगर मैं उसके यहाँ गई तो क्या पाप किया ? मैं पहले ही नानक से कहती कि जाकर पूछ आओ तब मैं नन्हीं के यहाँ जाऊँ नहीं तो कहीं व्यर्थ ही बात का बतंगड़ न बन जाय । मगर लड़के ने न माना और आखिर वही नतीजा निकला। बदमाशों ने वहां पहुंच कर उसे भी बेइज्जत किया और मुझे भी बेइज्जत करके यहाँ तक घसीट लाये । उसके सिर झूठे ही कलंक थोप दिया कि वह बेगम की सहेली है।

इतना कहकर रामदेई नखरे के साथ रोने लगी।

भूतनाथ--तुमने पहले भी कभी उसका जिक्र मुझसे किया था कि वह तुम्हारी नातेदार है, या मुझसे पूछ कर कभी उसके यहाँ गई थीं?

रामदेई--एक दफा गई सो तो यह गति हुई, यदि और जाती तो न मालूम क्या होता!

भूतनाथ--जो लोग तुझे यहाँ ले आये हैं वे बदमाश थे ?

रामदेई--बदमाश तो कहे ही जाएँगे ! जो व्यर्थ दूसरों को दुःख दें वेही बदमाश होते हैं और क्या बदमाशों के सिर पर सींग होते हैं! तुम्हारी अक्ल पर तो पत्थर पड़ गया है कि जो लोग तुम्हारी बेइज्जती किये ही जाते हैं, उन्हीं के लिए तुम जान दे रहे हो । न मालूम तुम्हें ऐसी क्या गरज पड़ी हुई है ?

भूतनाथ-–ठीक है, यही राय लेने के लिए तो मैंने तुम्हें यहाँ एकान्त में बुलाया है । अगर तुम्हारी राय होगी तो मैं बते-देखते इन लोगों से बदला ले लूंगा, क्या मैं कमजोर या दब्बू हूँ !

रामदेई--जरूर बदला लेना चाहिए, अगर तुम ऐसा नहीं करोगे तो मैं समझूगी कि तुमसे बढ़कर कमीना कोई नहीं है ।

इतना सुनकर भूतनाथ को बेहिसाब गुस्सा चढ़ आया मगर फिर भी उसने अपने क्रोध को दबाया और कहा[ १०० ]भूतनाथ--अच्छा, तो अब मैं ऐसा ही करूंगा, मगर यह तो बताओ कि शेर की लड़की 'गौहर' से तुमसे क्या नाता है?

रामदेई--उस मुसलमानिन से मुझसे क्या नाता होगा ! मैंने तो उसकी सुरत भी नहीं देखी।

भूतनाथ--लोग तो कहते हैं कि तुम उसके यहाँ भी आती-जाती हो और मेरे बहुत से भेद तुमने उसे बता दिये हैं।

रामदेई--सब झूठ है । ये लोग बात लगाने वाले जैसे ही धूर्त और पाजी हैं वैसे ही तुम सीधे और बेवकूफ हो।

अब भूतनाथ अपने गुस्से को बर्दाश्त न कर सका और उसने एक चपत रामदेई के गाल पर ऐसी जमाई कि वह तिलमिला कर जमीन पर लेट गई, मगर उसे चिल्लाने का साहस न हुआ । कुछ देर बाद वह उठ बैठी और भूतनाथ का मुंह देखने लगी।

भूतनाथ--कमीनी हरामजादी ! जिनके लिए मैं जान तक देने को तैयार हूँ उन्हीं लोगों की शान में तू ऐसी बातें कह रही है जो एक पराये को भी कहना उचित नहीं है और जिसे मैं एक सायत के लिए भी बर्दाश्त नहीं कर सकता ! ले समझ ले और कान खोल कर सुन ले कि तेरे हाथ की लिखी वह चिट्ठी मुझे मिल गई है जो तूने चाँद वाले दिन गौहर के यहाँ मिलने के लिए नन्हीं के पास भेजी थी और जिसमें तूने अपना परिचय 'करौंदा की ये-छैये' दिया था। बस, इसीसे समझ ले कि तेरी सब कलई खुल गई और तेरी बेईमानी लोगों को मालूम हो गई । अब तेरा नखरे के साथ रोना बातें बना कर अपने को बेकसूर साबित करना व्यर्थ है। अब तेरी मुहब्बत, एक रत्ती बराबर मेरे दिल में नहीं रह गई और तुझे उस जहरीली नागिन से भी हजार दर्जे बढ़ के समझने लग गया जिसे खूबसूरत होने पर भी कोई हाथ से छूने तक का साहस नहीं कर सकता । मुझे आज इस बात का सख्त रंज है कि मैंने तुझे इतने दिन तक प्यार किया और इस बात की सरफ कुछ भी ध्यान न दिया कि उस मुहब्बत, ऐयाशी और शौक का नतीजा एक-न- एक दिन जरूर भयानक होता है जिसे छिपाने की जरूरत समझी जाती है और जिसका जाहिर होना मिन्दगी और बेहयाई का सबब समझा जाता है। मुझे इस बात का भारी अफसोस है कि तुझसे अनुचित सम्बन्ध रखकर मैंने उस उचित सम्बन्ध वाली का साथ छोड़ दिया जिसकी जूतियों की बराबरी भी तू नहीं कर सकती या यों कहना चाहिए कि तेरे शरीर का चमड़ा जिसकी जूतियों में भी देखना मैं पसन्द नहीं कर सकता। मुझे इस बात का दुःख है कि नागर या मायारानी के कब्जे से तुझे छुड़ाने के लिए मैंने तरह-तरह के ढोंग रचे और इसका दम भर के लिए भी विचार न किया कि मैं उस क्षयी रोग को अपनी छाती से लगाने का प्रबन्ध कर रहा हूँ जिसे पहली ही अवस्था में ईश्वर की कृपा ने मुझसे अलग कर दिया था। ये बातें तू अपने ही लिए न समझ, बल्कि अपने जाए नानक के लिए भी समझ कर मेरे सामने से उठ जा और उससे भी कह दे कि आज से मेरे सामने आकर मेरी जूतियों का शिकार न बने । यदि मेरे पुराने विचार न बदल गये होते और उन दिनों की तरह आज भी मैं पाप को पाप न समझता होता तो आज तेरी खाल खिचवा कर नमक और मिर्च का उबटन लगवा देता, मगर खैर, अब इतना ही

च०स०-6-6

[ १०१ ]कहता हूँ कि मेरे सामने से उठ जा और फिर कभी अपना काला मुंह मुझे मत दिखाना।

जिस कुल को तू पहले कलंक लगा चुकी है अब भी उसी कुल की बदनामी का सबब बन कर दुनिया की हवा खा ।

रामदेई के पास भूतनाथ की बातों का जवाब न था । वह अपनी पुरानी चिट्ठी का सच्चा परिचय सुन कर ददहवास हो गई और समझ गई कि उसके अच्छे नसीब के पहिए की धुरी टूट गई जिसे अब किसी तरह भी नहीं बना सकती। वह अपने धड़कते हुए कलेजे और कांपते गए बदन के साथ भूतनाथ की बातें सुनती रही और अन्त में उठने का साहस करने पर भी अपनी जगह से न हिल सकी। मगर भूतनाथ वहाँ से उठ खड़ा हुआ और बँगले की तरफ चल पड़ा। थोड़ी ही दूर गया होगा कि देवीसिंह से मुलाकात हुई जिसने उसका हाथ पकड़ लिया और कहा, "भूतनाथ, शाबाश ! शाबाश ! जो कुछ नेक और बहादुर आदमियों को करना चाहिए, इस समय तुमने वही किया। मैं छिप कर तुम्हारी सब बातें सुन रहा था । अगर तुम कुछ बेजा काम करना चाहते तो मैं तुम्हें जरूर रोकता, मगर ऐसा करने का मौका न हुआ, जिससे मैं बहुत ही खुश हूँ। अच्छा जाओ, अपने कमरे में जाकर आराम करो, मैं अब इन्द्रदेव के पास जाता हूँ।"


8

रात पहर भर से ज्यादा जा चुकी है, एक सुन्दर सजे हुए कमरे में राजा गोपाल- सिंह और इन्द्रदेव बैठे हैं और उनके सामने नानक हाथ जोड़े बैठा दिखाई देता है।

गोपालसिंह--(नानक से) ठीक है, यद्यपि इन बातों में तुमने अपनी तरफ से कुछ नमक--मिर्च जरूर लगाया होगा, मगर फिर भी मुझे कोई ऐसी बात नहीं जान पड़ती जिससे भूतनाथ को दोषी ठहराऊँ। उसने जो कुछ तुम्हारी माँ से कहा सच कहा और उसके साथ जैसा बर्ताव किया वह उचित ही था। इस विषय में मैं भूतनाथ को कुछ भी नहीं कह सकता और न अब तुम्हारी बातों पर भरोसा ही कर सकता हूँ। बड़े अफसोस की बात है कि मेरी नसीहत ने तुम्हारे दिल पर कुछ भी असर न किया और अगर कुछ किया भी तो वह दो-चार दिन बाद जाता रहा। अगर तुम अपनी मां के साथ नन्हीं के मकान में गिरफ्तार न हुए होते तो कदाचित् मैं तम्हारे धोखे में आ जाता, मगर अब मैं किसी तरह भी तुम्हारा साथ नहीं दे सकता।

नानक--मगर आप मेरा कसूर माफ कर चुके हैं और

इन्द्रदेव--(नानक से) अगर तुम उस माफी को पाकर खुश हुए थे तो फिर पुराने रास्ते पर क्यों गये और पुनः अपनी को लेकर नन्हीं के पास क्यों पहुंचे ? तुम्हें बात करते शर्म नहीं आती!


1. देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति, उन्नीसवाँ भाग, तीसरा क्यान।