चन्द्रकान्ता सन्तति 6/22.8

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चंद्रकांता संतति भाग 6  (1896) 
द्वारा देवकीनंदन खत्री

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रात पहर भर से ज्यादा जा चुकी है, एक सुन्दर सजे हुए कमरे में राजा गोपाल- सिंह और इन्द्रदेव बैठे हैं और उनके सामने नानक हाथ जोड़े बैठा दिखाई देता है।

गोपालसिंह--(नानक से) ठीक है, यद्यपि इन बातों में तुमने अपनी तरफ से कुछ नमक--मिर्च जरूर लगाया होगा, मगर फिर भी मुझे कोई ऐसी बात नहीं जान पड़ती जिससे भूतनाथ को दोषी ठहराऊँ। उसने जो कुछ तुम्हारी माँ से कहा सच कहा और उसके साथ जैसा बर्ताव किया वह उचित ही था। इस विषय में मैं भूतनाथ को कुछ भी नहीं कह सकता और न अब तुम्हारी बातों पर भरोसा ही कर सकता हूँ। बड़े अफसोस की बात है कि मेरी नसीहत ने तुम्हारे दिल पर कुछ भी असर न किया और अगर कुछ किया भी तो वह दो-चार दिन बाद जाता रहा। अगर तुम अपनी मां के साथ नन्हीं के मकान में गिरफ्तार न हुए होते तो कदाचित् मैं तम्हारे धोखे में आ जाता, मगर अब मैं किसी तरह भी तुम्हारा साथ नहीं दे सकता।

नानक--मगर आप मेरा कसूर माफ कर चुके हैं और

इन्द्रदेव--(नानक से) अगर तुम उस माफी को पाकर खुश हुए थे तो फिर पुराने रास्ते पर क्यों गये और पुनः अपनी को लेकर नन्हीं के पास क्यों पहुंचे ? तुम्हें बात करते शर्म नहीं आती!


1. देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति, उन्नीसवाँ भाग, तीसरा क्यान। [ १०२ ]गोपालसिंह--फिर भी मैं अपनी जबान (माफी) का खयाल करूँगा और तुम्हें किसी तरह की तकलीफ न दूंगा, मगर अब भूतनाथ की तरह मैं भी तुम्हारी गूरत देखना पसन्द नहीं करता और न भूतनाथ को इस विषय में कुछ कहना चाहता हूँ । इन्द्रदेव ने तुम्हारे साथ इतनी ही रियायत की सो बहुत किया कि तुमको यहाँ से निकल जाने की आज्ञा दे दी, नहीं तो तुम इस लायक थे कि जन्म-भर कैद में पड़े सड़ा करते।

नानक--जो आज्ञा, मगर मेरे पिता से इतना तो दिला दीजिए कि मेरी माँ जन्म भर खाने-पीने की तरफ से बेफिक्र रहे।

इन्द्रदेव--अबे कमीने, तुझे यह कहते शर्म नहीं मालूम होती ! इतना बड़ा हो के भी तू अपनी मां के लायक दाना-पानी नहीं जुटा सकता ? खैर, अब तुझे आखिरी मर्तबे कहा जाता है कि अब हम लोगों से किसी तरह की उम्मीद न रख और अपनी माँ को साथ लेकर यहाँ से जा। भूतनाथ ने भी मुझे यही कहने के लिए कहला भेजा है।

इतना कहकर इन्द्रदेव ने ताली बजाई और साथ ही अपने ऐयार सरयूसिंह को कमरे के अन्दर आते देखा।

इन्द्रदेव--(सरयू से) भूतनाथ कहाँ है?

सरयू--नम्बर पांच के कमरे में देवीसिंहजी से बातें कर रहे हैं । वे दोनों यहाँ आए भी थे मगर यह सुनकर कि नानक यहां बैठा हुआ है, पिछले पैर लौट गए।

इन्द्रदेव--अच्छा, तुम जाओ और उन्हें यहाँ बुला लाओ।

सरयूसिंह--जो आज्ञा ! परन्तु मुझे आशा नहीं है कि वे लोग नानक के रहते यहाँ आवेंगे।

इन्द्रदेव--अच्छा, तो मैं खुद जाता हूँ।

गोपालसिंह–--हाँ तुम्हारा ही जाना ठीक होगा, देवीसिंह को भी बुलाते आना ।

इन्द्रदेव उठकर चले गए और थोड़ी ही देर में भूतनाथ तथा देवीसिंह को साथ लिए हुए आ पहुंचे।

गोपालसिंह---(भूतनाथ से) क्यों साहब, आप यहाँ तक आकर लौट क्यों गए?

भूतनाथ---यों ही, मैंने समझा कि आप लोग किसी खास बात में लगे हुए हैं।

गोपालसिंह---अच्छा, बैठिए और एक बात का जवाब दीजिए।

भूतनाथ---कहिए!

गोपालसिंह---रामदेई और नानक के बारे में आप क्या हुक्म देते हैं?

भूतनाथ---महाराज ने क्या आज्ञा दी है?

गोपालसिंह---उन्होंने इसका फैसला आप ही के ऊपर छोड़ा है।

भूतनाथ---फिर जो राय आप लोगों की हो, मैंने तो इन दोनों के बारे में इसकी माँ को हुक्म सुना ही दिया है।

गोपालसिंह---इनके कसूर तो आप सुन ही चुके होंगे।

भूतनाथ---पिछले कसुरों को तो मैं सुन ही चुका हूँ, हाँ नया कसूर सिर्फ इतना ही मालूम हुआ है कि ये दोनों नन्हीं के यहां गिरफ्तार हुए हैं।

गोपालसिंह---इसके अतिरिक्त एक बात और है । [ १०३ ]भूतनाथ--वह क्या?

गोपालसिंह--यही कि ये दोनों अगर खाली हाथ न होते तो बेचारी शान्ता को जान से मार डालते।

इतने ही में नानक बोल उठा, "नही-नहीं, यह आपके जासूसों ने हमारे ऊपर झूठा इलजाम लगाया है!"

भूतनाथ--अगर यह बात है तो मैं इसे हथकड़ी से खाली क्यों देखता हूँ?

इन्द्रदेव--इसीलिए कि हमारे हाते के अन्दर ये लोग कुछ कर नहीं सकते । जब ये लोग यहाँ गिरफ्तार होकर आये तो कुछ दिन तक तो भलमनसी के साथ रहे, मगर आज इनकी नीयत बिगड़ी हुई मालूम पड़ी।

भूतनाथ--खैर, अब आप ही इनके लिए हुक्म सुनाइए । मगर इन्द्रदेव, आप यह न समझियेगा कि इन लोगों के बारे में मुझे किसी तरह का रंज है । मैं सच कहता हूँ कि इन दोनों का यहाँ आना मेरे लिए बहुत अच्छा हुआ ! मैं इन लोगों के फेर में बेतरह फंसा हुआ था । आज मालूम हुआ कि ये लोग जहरी हलाहल से भी बढ़े हुए हैं, अतः आज इन लोगों से पीछा छुड़ाकर मैं बहुत ही प्रसन्न हुआ। मेरे सिर से बोझा उतर गया और अब मेरी जिन्दगी खुशी के साथ बीतेगी। आपका कहना सच निकला अर्थात् इनका यहाँ आना मेरे लिए खुशी का सबब हुआ

इन्द्रदेव--अच्छा यह बताइए कि ये अगर इसी तरह छोड़ दिये जायें तो आपके खजाने को तो किसी तरह का नुकसान नहीं पहुंचा सकते जो 'लामाघाटी' के अन्दर है?

भूतन--कुछ भी नहीं, और 'लामाघाटी' के अन्दर जेवरों के अतिरिक्त और कुछ है भी नहीं, सो जेवरों को मैं वहाँ से मँगवा ले सकता हूँ।

इन्द्रदेव--अगर सिर्फ नानक की माँ के जेवरों से आपका मतलब है तो वह अब मेरे कब्जे में हैं क्योंकि नन्हीं के यहां वह बिना जेवरों के नहीं गई थी।

भूतनाथ--बस, तो मैं उस तरफ से बेफिक्र हो गया, यद्यपि उन जेवरों की मुझे कोई परवाह नहीं है मगर उसके पास मैं एक कौड़ी भी नहीं छोड़ना चाहता। इसके अतिरिक्त यह भी जरूर कहूँगा कि अब ये लोग सूखे छोड़ देने लायक नहीं रहे।

इन्द्रदेव--खैर, जैसी राय होगी, वैसा ही किया जायगा।

इतना कहकर इन्द्रदेव ने पुनः सरयूसिंह को बुलाया और जब वह कमरे के अन्दर आ गया तो कहा--"थोड़ी देर के लिए नानक को बाहर ले जाओ।"

नानक को लिए हुए सरयूसिंह कमरे के बाहर चला गया और इसके बाद चारों आदमी विचार करने लगे कि नानक और उसकी मां के साथ क्या बर्ताव करना चाहिए। देर तक सोच-विचार कर यही निश्चय किया कि उन दोनों को देश से निकाल दिया जाय और कह दिया जाय कि जिस दिन हमारे महाराज की अमलदारी में दिखाई दोगे, उसी दिन मार डाले जाओगे।

इस हुक्म पर महाराज से आज्ञा लेने की इन लोगों को कोई जरूरत नहीं थी, क्योंकि उन्होंने सब बातें सुन-सुनाकर पहले ही हुक्म दे दिया था कि भूतनाथ की आज्ञा- नुसार काम किया जाय, अतः नानक कमरे के अन्दर बुलाया गया और इसके बाद राम[ १०४ ]देई भी बुलाई गई। जब दोनों इकट्ठे हो गए तो उन्हें हुक्म सुना दिया गया।

यह हुक्म यद्यपि साधारण मालूम होता है मगर उन दोनों के लिए ऐसा न था जिन्हें भूतनाथ की बदौलत शाहखर्ची की आदत पड़ गई थी। नानक और रामदेई की आँखों से आँसू जारी थे, जब इन्द्रदेव ने सरयूसिंह को हुक्म दिया कि चार आदमी इन दोनों को ले जायँ और महाराज की सरहद के बाहर कर आवें । सरयूसिंह दोनों को लिए हुए कमरे के बाहर निकल गया।

भूतनाथ--सिर से वोझ उतरा और कम्बख्तों से पीछा छूटा। अच्छा, अब बत- लाइये कि कल क्या-क्या होगा?

गोपालसिंह–-महाराज ने तो यही हुक्म किया है कि कल यहाँ से डेरा कूच किया जाये और तिलिस्म की सैर करते हुए चुनारगढ़ पहुँचें, चम्पा, शान्ता, हरनामसिंह, भरतसिंह और दलीपशाह वगैरह बाहर की राह से चुनार भेज दिये जायें। यदि हमारे किसी ऐयार की भी इच्छा हो तो उनके साथ चला जाये।

भूतनाथ--ऐसा कौन बेवकूफ होगा, जो तिलिस्म की सैर छोड़कर उनके साथ जायेगा!

देवीसिंह--सभी कोई ऐसा ही कहते हैं।

भूतनाथ–-हाँ, यह तो बताइये कि मैंने नानक को जब दरबार में देखा था, तो उसके हाथ में एक लपेटी तस्वीर थी, अब वह तस्वीर कहाँ है और उसमें क्या बात थी?

इन्द्रदेव--वह कागज जिसे आप तस्वीर समझे हुए हैं मेरे पास है, आपको दिखाऊंगा । असल में वह तस्वीर नहीं है, बल्कि नानक ने उसमें एक बहुत बड़ी दर्खास्त लिखकर तैयार की थी, जो दरबार में आकर पेश करना चाहता था, मगर ऐसा कर न सका।

भूतनाथ--उसमें लिखा क्या था?

इन्द्रदेव--जो लोग उसे गिरफ्तार कर लाये हैं, उनकी शिकायत के सिवाय और कुछ भी नहीं। साथ ही इसके उस दर्खास्त में इस बात पर बहुत जोर दिया गया था कि कमला की माँ वास्तव में मर गई है और आज जिस शान्ता को सब कोई देख रहे हैं, वह वास्तव में नकली है।

भूतनाथ--वाह रे शैतान ! (कुछ सोचकर) तो शायद वह दर्खास्त महाराज के हाथ तक नहीं पहुँची?

इन्द्रदेव--क्यों नहीं, मैंने जान-बूझकर उसे ऐसा करने का मौका दिया। वह रात को पहरे वालों से इत्तिला कराकर खुद महाराज के पास पहुँचा और उनके सामने वह दर्खास्त रख दी। उस समय महाराज ने मुझे बुलाया और मुझी को वह दर्खास्त पढ़ने के लिए दी गई। उसे सुनकर महाराज ने मुस्कुरा दिया और इशारा किया कि वह कमरे के बाहर निकाल दिया जाये, क्योंकि इसके पहले मैं शान्ता और हरनामसिंह का पूरा-पूरा हाल महाराज से अर्ज कर चुका था।

भूतनाथ---अच्छा, मुझे भी वह दर्खास्त दिखाइयेगा।

इन्द्रदेव--(उँगली से इशारा करके) वहाँ कारनिस के ऊपर पड़ी हुई है, देख [ १०५ ]लीजिये।

भूतनाथ ने दर्खास्त उतार कर पढ़ी और उसके बाद कुछ देर तक उन लोगों में बातचीत होती रही।