चन्द्रकान्ता सन्तति 6/23.11

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चंद्रकांता संतति भाग 6  (1896) 
द्वारा देवकीनंदन खत्री

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दूसरे दिन पुनः उसी ढंग का दरबार लगा और सब लोग अपने-अपने ठिकाने पर बैठ गये।

इशारा पाकर दलीपशाह उठ खड़ा हुआ और उसने अपने चेहरे पर नकाब हटाकर दारोगा, जयपाल, बेगम और नागर वगैरह की तरफ देखकर कहा-

दलीपशाह-आप लोगों की खुशकिस्मती का जमाना तो बीत गया, अब वह जमाना आ गया है कि आप लोग अपने किये का फल भोगें और देखें कि आपने जिन लोगों को जहन्नुम में पहुँचाने का बीड़ा उठाया था आज ईश्वर की कृपा से वे ही लोग आपको हँसते-खेलते दिखाई देते हैं । खैर, मुझे इन बातों से कोई मतलब नहीं, इसका निपटारा तो महाराज की आज्ञा से होगा, मुझे अपना किस्सा बयान करने का हुक्म हुआ है सो बयान

1. देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति, बीसवाँ भाग, चौथा बयान । [ १७३ ]करता हूँ। (और लोगों की तरफ देखकर) मेरे किस्से से भूतनाथ का भी बहुत ही बड़ा सम्बन्ध है, मगर इस खयाल से कि महाराज ने भूतनाथ का कसूर माफ करके उसे अपना ऐयार बना लिया है, मैं अपने किस्से में उन बातों का जिक्र छोड़ता जाऊँगा जिनसे भूतनाथ की बदनामी होती है, इसके अतिरिक्त भूतनाथ प्रतिज्ञानुसार महाराज के आगे पेश करने लिए स्वयं अपनी जीवनी लिख रहा है जिससे महाराज को पूरा-पूरा हाल मालूम हो जायगा, अतः अब मुझे कुछ कहने की जरूरत नहीं है।

मैं मिर्जापुर के रहने वाले दीनदयालसिंह ऐयार का लड़का हूँ । मेरे पिता महा- राज धौलपुर के यहां रहते थे और वहाँ उनकी बहुत इज्जत और कदर थी। उन्होंने मुझे ऐयारी सिखाने में किसी तरह की त्रुटि नहीं की। जहाँ तक हो सका, दिल लगाकर मुझे ऐयारी सिखाई और मैं भी इस फन में खूब हो शियार हो गया, परन्तु पिता के मरने के बाद मैंने किसी रियासत में नौकरी नहीं की। मुझे अपने पिता की जगह मिलती थी और महाराज मुझे बहुत चाहते थे, मगर मैंने पिता के मरने के साथ ही रियासत छोड़ दी और अपने जन्म-स्थान मिर्जापुर में चला आया क्योंकि मेरे पिता मेरे लिए बहुत दौलत छोड़ गये थे और मुझे खाने-पीने की कुछ परवाह न थी। पिता के देहान्त के साल भर पहले ही मेरी माँ मर चुकी थी, अतएव केवल मैं और मेरी स्त्री दो आदमी अपने घर के मालिक थे।

जमानिया की रियासत से मुझे किसी तरह का सम्बन्ध नहीं था, परन्तु इसलिए कि मैं एक नामी ऐयार का लड़का और खुद भी ऐयार था तथा बहुत से ऐयारों से गहरी जान-पहचान रखता था, मुझे चारों तरफ की खबरें बराबर मिला करती थीं, इसी तरह जामानिया में जो कुछ चालवाजियाँ हुआ करती थीं, वे भी मुझसे छिपी हुई न थीं। भूतनाथ की और मेरी स्त्री आपस में मौसेरी बहिनें होती हैं और भूतनाथ का जमानिया से बहुत घना संबंध हो गया था, इसलिए जमानिया का हाल जानने के लिए मैं उद्योग भी किया करता था, मगर उसमें किसी तरह का दखल नहीं देता था। (दारोगा की तरफ इशारा करके)इस हरामखोर दारोगा ने रियासत पर अपना दबाव डालने की नीयत से विचित्र ढोंग रच लिया था, शादी नहीं की थी और बाबाजी तथा ब्रह्मचारी के नाम से अपने को प्रसिद्ध कर रखा था, बल्कि मौके मौके पर लोगों को कहा करता था कि मैं तो साधू आदमी हूँ, मुझे रुपये-पैसे की जरूरत ही क्या है, मैं तो रियासत की भलाई और परोपकार में अपना समय बिताना चाहता हूँ, इत्यादि । परन्तु वास्तव में यह परले सिरे का ऐयाश, बदमाश और लालची था जिसके विषय में कुछ विशेष कहना मैं पसन्द नहीं करता।

मेरे पिता और इन्द्रदेव के पिता दोनों दिली दोस्त और ऐयारी में एक ही गुरु के शिष्य थे, अत एव मुझमें और इन्द्रदेव में भी उसी प्रकार की दोस्ती और मुहब्बत थी। इसलिए मैं प्रायः इन्द्रदेव से मिलने के लिए उनके घर जाया करता और कभी-कभी वे भी मेरे घर आया करते थे । जरूरत पड़ने पर इन्द्रदेव की इच्छानुसार मैं उनका कुछ काम कर दिया करता और उन्हीं के यहाँ कभी-कभी इस कम्बख्त दारोगा से भी मुलाकात हो जाया करती थी, बल्कि कहना चाहिए कि इन्द्रदेव ही के सबब से दारोगा, जयपाल राजा गोपालसिंह और भरतसिंह तथा जमानिया के और भी कई नामी आदमियों में मेरी [ १७४ ]मुलाकात ओर साहब-सलामत हो गई थी।

जब भूतनाथ के हाथ से बेचारा दयाराम मारा गया, तब से मुझमें और भूतनाथ में एक प्रकार की खिचाखिची हो गई थी और वह खिचाखिंची दिनों-दिन बढ़ती ही गई यहाँ तक कि कुछ दिनों बाद हम दोनों की साहब-सलामत भी छूट गई।

एक दिन मैं इन्द्रदेव के यहाँ बैठा हुआ भूतनाथ के विषय में बातचीत कर रहा था, क्योंकि उन दिनों यह खबर बड़ी तेजी के साथ मशहूर हो रही थी कि 'गदाधरसिंह (भूतनाथ)मर गया।" परन्तु उस समय इन्द्रदेव इस बात पर जोर दे रहे थे कि भूतनाथ मरा नहीं, कहीं छिपकर बैठ गया है, कभी न कभी यकायक प्रकट हो जायगा। इसी समय दारोगा के आने की इत्तिला मिली जो बड़ी शान-शौकत के साथ इन्द्रदेव से मिलने के लिए आया था। इन्द्रदेव बाहर निकल कर बड़ी खातिर के साथ इसे घर के अन्दर ले गये और अपने आदमियों को हुक्म दे गये कि दारोगा के साथ जो आदमी आये हैं उनके खाने-पीने और रहने का उचित प्रबन्ध किया जाय।

दारोगा को साथ लिए हुए इन्द्रदेव उसी कमरे में आये जिसमें मैं पहले ही से बैठा हुआ था, क्योंकि इन्द्रदेव की तरह मैं दारोगा को लेने के लिए मकान के बाहर नहीं गया था और न दारोगा के आ पहुँचने पर मैंने उठकर इसकी इज्जत ही बढ़ाई, हाँ, साहब-सलामत जरूर हुई । यह बात दारोगा को बहुत ही बुरी मालूम हुई, मगर इन्द्रदेव को नहीं, क्योंकि इन्द्रदेव गुरुभाई का सिर्फ नाता निबाहते थे, दिल से दारोगा की खातिर नहीं करते थे।

इन्द्रदेव से और दारोगा से देर तक तरह-तरह की बातें होती रहीं, जिसमें मौके- मौके पर दारोगा अपनी होशियारी और बुद्धिमानी की तस्वीर खींचता रहा। जब ऐयारों की कहानी छिड़ी तो वह यकायक मेरी तरफ पलट पड़ा और बोला, "आप इतने बड़े ऐयार के लड़के होकर घर में बेकार क्यों बैठे हैं ? और नहीं तो मेरी ही रियासत में काम कीजिए, यहां आपको बहुत आराम मिलेगा, देखिये बिहारीसिंह और हरनामसिंह कैसी इज्जत और खुशी के साथ रहते हैं, आप तो उनसे ज्यादा इज्जत के लायक हैं।"

मैं--मैं बेकार तो बैठा रहता हूँ, मगर अभी तक अपने को महाराज धौलपुर का नौकर समझता हूँ, क्योंकि रियासत का काम छोड़ देने पर भी वहाँ से मुझे खाने को बरा- बर मिल रहा है।

दारोगा--(मुंह बनाकर)अजी, मिलता भी होगा तो आखिर क्या, एक छोटी-सी रकम से आपका क्या काम चल सकता है ? आखिर अपने पल्ले की जमा तो खर्च करते ही होंगे।

मैं--यह भी तो महाराज का ही दिया हुआ है!

दारोगा--नहीं, वह आपके पिता का दिया हुआ है। खैर, मेरा मतलब यह है कि वहाँ से अगर कुछ मिलता है तो उसे भी ऑप रखिये और मेरी रियासत से भी फायदा उठाइए।

मैं--ऐसा करना बेईमानी और नमकहरामी कहा जायगा और यह मुझसे न हो सकेगा। [ १७५ ]दारोगा--(हँसकर) वाह याह ! ऐयार लोग दिन-रात ईमानदारी की हँडिया ही तो चढ़ाए रहते हैं!

मैं--(तेजी के साथ) बेशक ! अगर ऐसा नहीं तो वह ऐयार नहीं, रियासत का कोई ओहदेदार कहा जायगा!

दारोगा--(तनकर) ठीक है ! गदाधरसिंह आप ही का नातेदार तो है, जरा उसकी तस्वीर तो खींचिये!

मैं--गदाधरसिंह किसी रियासत का ऐयार नहीं है और न मैं उसे ऐयार समझता हूँ इतना होने पर भी आप यह नहीं साबित कर सकते कि उसने अपने मालिक के साथ किसी तरह की बेईमानी की।

दारीगा—(और भी तुनक के) बस-बस-बस, रहने दीजिये। हमारे यहां भी बिहारीसिंह और हरनामसिंह ऐयार ही तो हैं।

मैं—इसी से तो मैं आपकी रियासत में जाना बेइज्जती समझता हूं।

दारोगा--(भौंह सिकोड़कर) तो इसका यह मतलब कि हम लोग बेईमान और नमकहराम हैं!

मैं-(मुस्कराकर) इस बात को तो आप ही सोचिये!

दारोगा--देखिये, जुबान संभालकर बात कीजिए, नहीं तो समझ लीजिए कि मैं मामूली आदमी नहीं हूँ।

मैं--(क्रोध से) यह तो मैं खुद कहता हूँ कि आप मामूली आदमी नहीं हैं क्योंकि आदमी में शर्म होती है और वह जानता है कि ईश्वर भी कोई चीज है।

दारोगा--(क्रोध-भरी आँखें दिखाकर) फिर वही बात!

मैं--हाँ वही बात ! गोपालसिंह के पिता वाली बात ! गुप्त कमेटी वाली बात, गदाधरसिंह की दोस्ती वाली बात ! लक्ष्मीदेवी की शादी वाली बात और जो बात कि आपके गुरुभाई साहब को नहीं मालूम है वह बात!

दारोगा--(दांत पीसकर और कुछ देर मेरी तरफ देखकर) खैर, अब इस बहुत- सी बात का जवाब लात ही से दिया जायगा।

मैं--बेशक, और साथ ही इसके यह भी समझ रखिए कि जवाब देने वाले भी एक-दो नहीं हैं, लातों की गिनती भी आप न सम्हाल सकेंगे । दारोगा साहब, जरा होश में आइए और सोच-विचार कर बातें कीजिए । अपने को आप ईश्वर न समझिए, बल्कि यह समझकर बातें कीजिए कि आप आदमी हैं और रियासत धौलपुर के किसी ऐयार से बातें कर रहे हैं।

दारोगा--(इन्द्रदेव की तरफ आँखें तरेरकर)क्या आप चुपचाप बैठे तमाशा देखेंगे और अपने मकान में मुझे बेइज्जत करावेंगे?

इन्द्रदेव--आप तो खुद ही अपनी अनोखी मिलनसारी से अपने को बेइज्जत करा रहे हैं, इनसे बात बढ़ाने की आपको जरूरत ही क्या थी ? मैं आप दोनों के बीच में नहीं क्योंकि दलीपशाह को भी अपना भाई समझता और इज्जत की निगाह से बोल सकता, देखता हूँ। [ १७६ ]दारोगा तो फिर जैसे बने, हम इनसे निपट लें! इन्द्रदेव--हाँ-हाँ !

दारोगा--पीछे उलाहना न देना, क्योंकि आप इन्हें अपना भाई समझते हैं!

इन्द्रदेव--मैं कभी उलाहना न दूंगा।

दारोगा--अच्छा तो अब मैं जाता हूँ, फिर कभी मिलूंगा तो बातें करूंगा!

इन्द्रदेव ने इस बात का कुछ भी जवाब न दिया। हां, जब दारोगा साहब वहाँ से बिदा हुए तो उन्हें दरवाजे तक पहुंचा आये । जब लौटकर कमरे में मेरे पास आये तो मुस्कुराते हुए बोले, “आज तो तुमने इसकी खूब खबर ली। 'जो बात तुम्हारे गुरुभाई साहब को नहीं मालूम है, वही बात' इन शब्दों ने तो उसका कलेजा छेद दिया होगा। मगर तुमसे बेहतर रंज होकर गया है, इस बात का खूब खयाल रखना।"

मैं--आप इस बात की चिन्ता न कीजिए, देखिए मैं इन्हें कैसे छकाता हूँ। मगर वाह रे आपका कलेजा ! इतना कुछ हो जाने पर भी आपने अपनी जुबान से कुछ न कहा, बल्कि पुराने बर्ताव में बल तक न पड़ने दिया !

इन्द्रदेव--मैंने तो अपना मामला ईश्वर के हवाले कर दिया है।

मैं-खैर, ईश्वर अवश्य इन्साफ करेगा। अच्छा तो अब मुझे भी बिदा कीजिए, क्योंकि अब इसके मुकाबले का बन्दोबस्त शीघ्र करना पड़ेगा।

इन्द्रदेव--यह तो मैं फिर कहूँगा कि आप बेफिक्र न रहिए । थोड़ी देर तक और बातचीत करने के बाद मैं इन्द्रदेव से बिदा होकर अपने घर आया और उसी समय से दारोगा के मुकाबले का ध्यान मेरे दिमाग में चक्कर लगाने लगा।

घर पहुँचकर मैंने सब हाल अपनी स्त्री से बयान किया और ताकीद की कि हरदम होशियार रहा करना। उन दिनों मेरे यहाँ कई शागिर्द भी रहा करते थे, जिन्हें मैं ऐयारी सिखाता था। उनसे भी यह सब हाल कहा और होशियार रहने की ताकीद की। उन शागिर्दो में गिरिजाकुमार नाम का एक लड़का बड़ा ही तेज और चंचल था, लोगों को धोखे में डाल देना तो उसके लिए मामूली बात थी। बातचीत के समय वह अपना चेहरा ऐसा बना लेता था कि अच्छे-अच्छे उसकी बातों में फंसकर बेवकूफ बन जाते थे। यह गुण उसे ईश्वर का दिया हुआ था जो बहुत कम ऐयारों में पाया जाता है । अतः गिरिजाकुमार ने मुझसे कहा कि "गुरुजी, यदि दारोगा वाला मामला आप मेरे सुपुर्द कर दीजिए, तो मैं बहुत ही प्रसन्न होऊँगा और उसे ऐसा छकाऊँगा कि वह भी याद करे । जमानिया में मुझे कोई पहचानता भी नहीं है, अतएव मैं अपना काम बड़े मजे में निकाल लूंगा।"

मैंने उसे समझाया और कहा कि "कुछ दिन सब्र करो, जल्दी क्यों करते हो, फिर जैसा मौका होगा किया जायेगा।" मगर उसने एक न मानी । हाथ जोड़कर और खुशामद करके, गिड़गिड़ा करके, जिस तरह हो सका, उसने आज्ञा ले ही ली और उसी दिन सब सामान दुरुस्त करके मेरे यहां से चला गया।

अब मैं थोड़ा-सा हाल गिरिजाकुमार का बयान करूंगा कि इसने दारोगा के साथ क्या किया। [ १७७ ]आप लोगों को यह बात सुनकर ताज्जुब होगा कि मनोरमा असल में दारोगा साहब की रण्डी है। इन्हीं की बदौलत मायारानी के दरबार में उसकी इज्जत बढ़ी और इन्हीं की बदौलत उसने मायारानी को अपने फन्दे में फंसाकर बे-हिसाब दौलत पैदा की। पहले-पहल गिरिजाकुमार ने मनोरमा के मकान पर ही दारोगा से मुलाकात की थी।

दारोगा साहब मनोरमा से प्रेम रखते थे सही, मगर इसमें कोई शक नहीं कि इस प्रेम और ऐयाशी को इन्होंने बहुत अच्छे ढंग से छिपाया और बहुत आदमियों को मालूम न होने दिया तथा लोगों की निगाहों में साधु और ब्रह्मचारी ही बने रहे। स्वयं तो जमानिया में रहते थे, मगर मनोरमा के लिए इन्होंने काशी में एक मकान भी बनवा दिया था, दसवें-बारहवें दिन अथवा जब कभी समय मिलता, तेज घोड़े पर या रथ पर सवार होकर काशी चले जाते और दस-बारह घण्टे मनोरमा के मेहमान रहकर लौट जाते।

एक दिन दारोगा साहब आधी रात के समय मनोरमा के खास कमरे में बैठे हुए उसके साथ शराब पी रहे थे और साथ-ही-साथ हँसी-दिल्लगी का आनन्द भी लूट रहे थे। उन समय इन दोनों में इस तरह की बातें हो रही थीं-

दारोगा-जो कुछ मेरे पास है, सब तुम्हारा है । रुपये-पैसे के बारे में तुम्हें कभी तकलीफ न होने दूंगा! तुम बेशक अमीराना ठाठ के साथ रहो और खुशी से जिन्दगी विताओ, गोपालसिंह अगर तिलिस्म का राजा है तो क्या हुआ, मैं भी तिलिस्म का दारोगा हूँ, उसमें दो-चार स्थान ऐसे हैं कि जिनकी खबर राजा साहब को भी नहीं, मगर मैं वहाँ बखूबी जा सकता हूँ और वहाँ की दौलत को अपनी मिल्कियत समझता हूँ। इसके अति- रिक्त मायारानी से भी मैंने तुम्हारी मुलाकात करा दी है और वह भी हर तरह से तुम्हारी खातिर करती ही है, फिर तुम्हें परवाह किस बात की है?

मनोरमा--बेशक मुझे किसी बात की परवाह नहीं है और आपकी बदौलत मैं बहुत खुश रहती हूँ, मगर मैं यह चाहती हूँ कि मायाराती के पास खुल्लम-खुल्ला मेरी आमद-रफ्त हो जाये । अभी गोपालसिंह के डर से बहुत लुक-छिपकर और नखरे-तिल्ले के साथ जाना पड़ता है।

दारोगा--फिर यह तो जरा मुश्किल बात है।

मनोरमा--मुश्किल क्या है ? लक्ष्मीदेवी की जगह दूसरी औरत को राजरानी बना देना क्या साधारण काम था? सो तो आपने सहज ही में कर दिखाया और इस एक सहज काम के लिए कहते हैं कि मुश्किल है!

दारोगा--(मुस्कराकर) सो तो ठीक है, गोपालसिंह को मैं सहज में वैकुण्ठ पहुंचा सकता हूँ, मगर यह काम मेरे करने पर भी न हो सकेगा, उसके ऊपर मेरा हाथ सहज ही न उठेगा।

मनोरमा--(तिनककर)अब इतनी रहम-दिली से तो काम नहीं चलेगा ! उसके मौजूद रहने से बहुत बड़ा हर्ज हो रहा है । अगर वह न रहें, तो बेशक आप खुद ही जमानिया और तिलिस्म का राज्य कर सकते हैं, मायारानी तो अपने को आपका तावे- दार समझती है।

दारोगा--बेशक ऐसा ही है, मगर [ १७८ ]मनोरमा--और इसमें आपको कुछ करना भी न पड़ेगा, सब काम मायारानी ठीक कर लेंगी।

दारोगा-(चौंककर) क्या मायारानी का भी ऐसा इरादा है?

मनोरमा—जी हाँ, वह इस काम के लिए तैयार हैं, मगर आपसे डरती हैं, आप आज्ञा दें, तो सब-कुछ ठीक हो जाये।

दारोगा--तो तुम उसी की तरफ से इस बात की कोशिश कर रही हो?

मनोरमा--बेशक ! साथ ही इसमें आपका और अपना भी फायदा समझती हूँ, तब ऐसा कहती हूँ। (दारोगा के गले में हाथ डालकर) बस, आप आज्ञा दे दीजिए।

दारोगा--(मुस्कराकर) खैर, तुम्हारी खातिर मुझे मंजूर है, मगर एक काम करना कि मायारानी से और मुझसे इस बारे में बातचीत न कराना, जिसमें मौका पड़े तो मैं यह कहने के लायक रह जाऊँ कि मुझे इसकी कुछ भी खबर नहीं । तुम मायारानी की दिलजमई करा दो कि दारोगा साहब इस बारे में कुछ भी न बोलेंगे, तुम जो कुछ चाहो कर गुजरो, मगर साथ ही इसके इस बात का खयाल रखो कि सर्वसाधारण को किसी तरह का शक न होने पाये और लोग ये समझें कि गोपालसिंह अपनी मौत ही मरा है। मैं भी जहां तक हो सकेगा, छिपाने की कोशिश करूँगा।

मनोरमा--(खुश होकर) बस, अब मुझे पूरा विश्वास हो गया कि तुम मुझसे सच्चा प्रेम रखते हो।

इसके बाद दोनों में बहुत ही धीरे-धीरे कुछ बातें होने लगीं, जिन्हें गिरिजाकुमार सुन न सका। गिरिजाकुमार चोरों की तरह उस मकान में घुस गया था और छिपकर ये बातें सुन रहा था। जब मनोरमा ने कमरे का दरवाजा बन्द कर लिया, तब वह कमन्द लगाकर मकान के पीछे की तरफ उतर गया और धीरे-धीरे मनोरमा के अस्तबल में जा पहुँचा । अबकी दफे दारोगा यहाँ रथ पर सवार होकर आया था, वह रथ अस्तबल में था, घोड़े बंधे हुए थे और सारथी रथ के अन्दर सो रहा था। इससे कुछ दूर पर मनोरमा के और सब साईस तथा घसियारे वगैरह पड़े खर्राटे ले रहे थे।

बहुत होशियारी से गिरिजाकुमार ने दारोगा के सारथी को बेहोशी की दवा सुंघाकर बेहोश किया और उठाकर बाग के एक कोने में घनी झाड़ी के अन्दर छिपाकर रख आया, उसके कपड़े पहन लिए और चुपचाप रथ के अन्दर घुसकर सो रहा।

जब रात घण्टा--भर के लगभग बाकी रह गई, तब दारोगा साहब जमानिया जाने के लिए बिदा हुए और एक लौंडी ने अस्तबल में आकर रथ जोतने की आज्ञा सुनाई। नये सारथी अर्थात् गिरिजाकुमार ने रथ जोतकर तैयार किया और फाटक पर लाकर दारोगा साहब का इन्तजार करने लगा। शराब के नशे में चूर झूमते हुए एक लौंडी का हाथ थामे हुए दारोगा साहब भी आ पहुंचे। उनके रथ पर सवार होने के साथ ही रथ तेजी के साथ रवाना हुआ। सुबह की ठण्ठी हवा ने दारोगा साहब के दिमाग में खुनकी पैदा कर दी और वे रथ के अन्दर लेटकर बेखबर सो गये। गिरिजाकुमार ने जिधर चाहा, घोड़ों का मुंह फेर दिया और दारोगा साहब को लेकर रवाना हो गया। इस तौर पर उसे सूरत बदलने की भी जरूरत न पड़ी। [ १७९ ]नहीं कह सकते कि मनोरमा के बाग में दारोगा का असली सारथी जब होश में आया होगा तो वहाँ कैसी खलबली मची होगी, मगर गिरिजाकुमार को इस बात की कुछ भी परवाह न थी, उसने रथ को रोहतासगढ़ की सड़क पर रवाना किया और चलते-चलते अपने बटुए में से मसाला निकालकर अपनी सूरत साधारण ढंग पर बदल ली, जिसमें होश आने पर दारोगा उसकी सूरत से जानकार न हो सके। इसके बाद उसने तेज दवा सुंघाकर दारोगा को और भी बेहोश कर दिया।

जब रथ एक घने जंगल में पहुंचा और सुबह की सफेदी भी निकल आई, तब गिरिजाकुमार रथ को सड़क पर से हटाकर जंगल में ले आया, जहां सड़क पर चलने वाले मुसाफिरों की निगाह न पड़े। घोड़ों को खोल लम्बी बागडोर के सहारे एक पेड़ के साथ बाँध दिया और दारोगा को पीठ पर लाद वहाँ से थोड़ी दूर पर एक घनी झाड़ी के अन्दर ले गया, जिसके पास ही एक पानी का झरना भी बह रहा था। घोड़े की रास से दारोगा साहब को एक पेड़ के साथ बांध दिया और बेहोशी दूर करने की दवा सुंघाने के बाद थोड़ा पानी भी चेहरे पर डाला, जिसमें शराब का नशा ठण्डा हो जाये और तब हाथ में कोड़ा लेक र सामने खड़ा हो गया।

दारोगा साहब जब होश में आये तो बड़ी परेशानी के साथ चारों तरफ निगाह दौड़ाने लगे। अपने को मजबूर और एक अनजान आदमी को हाथ में कोड़ा लिए सामने खड़ा देख काँप उठे और बोले, "भाई, तुम कौन हो और मुझे इस तरह क्यों सता रखा है ? मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?"

गिरिजाकुमार--क्या करूँ, लाचार हूँ । मालिक का हुक्म ही ऐसा है।

दारोगा--तुम्हारा मालिक कौन है और उसने ऐसी आज्ञा तुम्हें क्यों दी?

गिरिजाकुमार--मैं मनोरमाजी का नौकर हूँ, और उन्होंने अपना काम ठीक करने के लिए मुझे ऐसी आज्ञा दी है।

दारोगा--(ताज्जुब से) तुम मनोरमा के नौकर हो ! नहीं-नहीं, ऐसा नहीं हो सकता, मैं उसके सब नौकरों को अच्छी तरह पहचानता हूँ।

गिरिजाकुमार--मगर आप मुझे नहीं पहचानते, क्योंकि मैं गुप्त रीति पर उनका काम किया करता हूँ और उनके मकान पर बराबर नहीं रहता!

दारोगा--शायद ऐसा ही हो, मगर विश्वास नहीं होता। खैर, यह बताओ कि उन्होंने किस काम के लिए ऐसा करने को कहा है?

गिरिजाकुमार--आपको विश्वास हो चाहे न हो, इसके लिए मैं लाचार हूँ, हाँ, उनके हुक्म की तामील किए बिना नहीं रह सकता। उन्होंने मुझे यह कहा है कि "दारोगा साहब मायारानी के लिए इस बात की इजाजत दे गये हैं कि वह जिस तरह हो सके, राजा गोपालसिंह को मार डाले, हम इस मामले में कुछ दखल न देंगे, मगर यह बात वह नशे में कह गये हैं, कहीं ऐसा न हो कि भूल जायें । अतः जिस तरह हो सके, तुम इस बात की एक चिट्ठी उनसे लिखाकर मेरे पास आओ, जिसमें उन्हें अपना वादा अच्छी तरह याद रहे।" अब आप कृपाकर इस मजमून की एक चिट्ठी लिख दीजिये कि मैं गोपालसिंह को मार डालने के लिए मायारानी को इजाजत देता हूँ। [ १८० ]दारोगा--(ताज्जुब का चेहरा बनाकर) न मालूम तुम क्या कह रहे हो! मैंने मनोरमा से ऐसा कोई वादा नहीं किया!

गिरिजाकुमार--तो शायद मनोरमाजी ने मुझसे झूठ कहा होगा। मैं इस बात को तो नहीं जानता, हाँ, उन्होंने जो आज्ञा दी है सो आपसे कह रहा हूँ।

इतना सुनकर दारोगा कुछ सोच में पड़ गया। मालूम होता था कि उसे गिरिजा- कुमार की बातों पर विश्वास हो रहा है, मगर फिर भी बात को टालना चाहता है।

दारोगा--मगर ताज्जुब है कि मनोरमा ने मेरे साथ बुरा ऐसा बर्ताव क्यों किय और उसे जो कुछ कहना था वह स्वयं मुझसे क्यों नहीं कहा?

गिरिजाकुमा--मैं इस बात का जवाब क्योंकर दे सकता हूँ?

दारोगा--अगर मैं तुम्हारे कहे मुताबिक चिट्ठी लिखकर न दूं तो?

गिरिजाकुमार--तब इस कोड़े से आपकी खबर ली जायेगी और जिस तरह हो सकेगा, आपसे चिट्ठी लिखाई जायेगी। आप खुद समझ सकते हैं कि यहाँ आपका कोई मददगार नहीं पहुंच सकता।

दारोगा--क्या तुमको या मनोरमा को इस बात का कुछ भी खयाल नहीं है कि चिट्ठी लिखकर भी छूट जाने के बाद मैं क्या कर सकता हूँ?

गिरिजाकुमार--अब ये सब बातें तो आप उन्हीं से पूछियेगा ! मुझे जवाब देने की कोई जरूरत नहीं। मैं सिर्फ उनके हुक्म की तामील करना जानता हूँ । बताइए आप जल्दी चिट्ठी लिख देते हैं या नहीं, मैं ज्यादा देर तक इन्तजार नहीं कर सकता।

दारोगा--(झुंझलाकर और यह समझकर कि यह मुझ पर हाथ नहीं उठायेगा, केवल धमकाता है)अबे, मैं चिट्ठी किस बात की लिख दूं!तूनेयहव्यर्थ की बकवक लगा रखी है!

इतना सुनते ही गिरिजाकुमार ने कोड़े जमाने शुरू किए । पाँच-सात ही कोड़े खाकर दारोगा बिलबिला उठा और हाथ जोड़कर बोला, "बस-बस, माफ करो, जो कुछ कहो, मैं लिख देने को तैयार हूं!"

गिरिजाकुमार ने झट कलम-दवात और कागज अपने बटुए में से निकालकर दारोगा के सामने रख दिया और उसके हाथ की रस्सी ढीली कर दी। दारोगा ने उसकी इच्छानुसार चिट्ठी लिख दी। चिट्ठी को अपने कब्जे में कर लेने के बाद उसने दारोगा की तलाशी ली, कमर में खंजर और कुछ अशर्फियाँ निकलीं, वह भी ले लेने के बाद दारोगा के हाथ-पैर खोल दिए और बता दिया कि फलां जगह आपके रथ और घोड़े खड़े हैं, जाइए, सीधे कस-कसाकर अपने घर का रास्ता लीजिए।

इतना कहकर गिरिजाकुमार चला गया और फिर दारोगा को मालूम न हुआ कि वह कहाँ गया और क्या हुआ।

च० स०-6-11