चन्द्रकान्ता सन्तति 6/23.2

विकिस्रोत से
चंद्रकांता संतति भाग 6  (1896) 
द्वारा देवकीनंदन खत्री

[ १३० ]

2

रात पहर भर से ज्यादा जा चुकी है। महल के अन्दर एक सजे हुए कमरे में एक तरफ रानी चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा बैठी हुई हैं और उनसे थोड़ी ही दूर पर राजा वीरेन्द्रसिंह, गोपालसिंह और भैरोंसिंह बैठे आपस में कुछ बातचीत कर रहे हैं।

चन्द्रकान्ता––(वीरेन्द्रसिंह से) सच्चा-सच्चा हाल मालूम होना तो दूर रहा मुझे इस बात का किसी तरह कुछ गुमान भी न गुआ। इस समय मैं दुल्हिनों की सोहागरात का इन्तजाम देख-सुनकर यहाँ आई और दिन भर की थकावट से सुस्त होकर पड़ रही, जी में आया कि घंटे दो घंटे सो रहूँ, मगर इसी बीच में चपला बहिन आ पहुँची और बोली, "लो बहिन, मैं तुम्हें एक अनूठा हाल सुनाती हूँ जिसकी अब तक हम लोगों को [ १३१ ]कुछ खबर ही न थी!" बस इतना कहकर बैठ गईं और कहने लगी कि 'कमलिनी और लाड़िली की शादी तिलिस्म के अन्दर ही इन्द्रजीत और आनन्द के साथ भी हो चुकी है जिसके बारे में अब तक हम लोगों को किसी ने कुछ भी नहीं कहा। इसी समय लड़के (भैरोंसिंह) ने मुझसे कहा है।' सुनते ही मैं सन्न हो गई कि हे राम, यह कौन-सी बात थी जिसे अभी तक सब कोई छिपाये बैठे रहे!

चपला––(भैरोंसिंह की तरफ इशारा करके) सामने तो बैठा हुआ है, पूछिये कि इस समय के पहले ही कभी कुछ कहा था। यद्यपि दोनों की शादियाँ इसके सामने ही तिलिस्म के अन्दर हुई थीं।

वीरेन्द्रसिंह––मुझे भी इस विषय में किसी ने कुछ नहीं कहा था, अभी थोड़ी देर हुई कि गोपालसिंह ने यह सब हाल पिताजी से बयान किया तब मालूम हुआ।

चन्द्रकान्ता––यही सुन के तो मैंने आपको तकलीफ दी, क्योंकि आपकी जुबानी सुने बिना मेरी दिलजमई नहीं हो सकती।

वीरेन्द्रसिंह––जो कुछ तुमने सुना, सब ठीक है।

चन्द्रकान्ता––मजा तो यह है कि लड़कों ने भी मुझसे इस बात की कुछ चर्चा नहीं की।

वीरेन्द्रसिंह––लड़कों को तो खुद ही इस बात की खबर नहीं है कि उनकी शादी कमलिनी और लाड़िली के साथ हुई थी।

चन्द्रकान्ता––यह तो आप और भी ताज्जुब की बात कहते हैं। यह भला कैसे हो सकता है कि उनकी शादी हो, उन्हीं को पता न लगे कि हमारी शादी हो गई है? इस पर कौन किश्वास करेगा!

वीरेन्द्रसिंह––बात ही कुछ ऐसी हो गई थी और यह शादी जान-बूझकर किसी मतलब से छिपाई गई थी। (गोपालसिंह की तरफ इशारा करके) अब ये खुलासा हाल तुमसे बयान करेंगे, तब तुम समझ जाओगी कि ऐसा क्यों हुआ।

गोपालसिंह––मैं सब हाल आपसे खुलासा बयान करता हूँ और आशा करता हूँ कि आप मेरा कसूर माफ करेंगी, क्योंकि यह सब मेरी ही करतूत है और मैंने ही यह शादी कराई है।

चन्द्रकान्ता––अगर तुमने ऐसा किया तो छिपाने की क्या जरूरत थी? क्या हम लोग तुमसे रंज हो जाते? या हम लोग इस बात को नहीं समझते कि जो कुछ भी तुम करोगे, अच्छा ही समझ के करोगे!

गोपालसिंह––ठीक है, मगर किया क्या जाय! इस बात को छिपाये बिना काम नहीं चलता था, यही तो सबब हुआ कि खुद दोनों कुमारों को भी इस बात का पता न लगा कि उनकी शादी फलां के साथ हो गई है।

चन्द्रकान्ता––आखिर ऐसा क्यों किया गया, सो तो कहो!

गोपालसिंह––इसका सबब यह है कि एक दिन कमला मेरे पास आई और बोली कि 'मैं आपसे एक जरूरी बात कहती हूँ जिस पर आपको विशेष ध्यान देना होगा।' मैंने पूछा––'क्या?' इस पर उसने जवाब दिया कि 'कमलिनी ने जो कुछ अहसान हम लोगों [ १३२ ]पर, खास करके दोनों कुमारों तथा किशोरी और कामिनी पर किये हैं, वह किसी से छिपे नहीं हैं। किशोरी का खयाल है कि इसका बदला किसी तरह अदा हो ही नहीं सकता, और बात भी ऐसी ही है, अब किशोरी ने बात-ही-बात में अपने दिल का हाल मुझसे भी कह दिया और इस बारे में जो कुछ उसने सोच रखा था, वह भी बयान किया, किशोरी कहती है कि अगर मैं शादी न करूँ या शादी होने के पहले ही इस दुनिया से उठ जाऊँ तो उसके अहसान और ताने से कुछ बच सकती हूँ। इस विषय पर जब मैंने किशोरी को बहुत-कुछ समझाया तो बोली कि खैर, अगर मेरी शादी के पहले कमलिनी की शादी कुँअर इन्द्रजीतसिंह के साथ हो जायेगी तब मैं सुख से जिंदगी बिता सकूँगी और उसके अहसान से भी हलकी हो जाऊँगी, क्योंकि ऐसा होने से कमलिनी को पटरानी की पदवी मिलेगी और उसी का लड़का गद्दी का मालिक समझा जायेगा। मैं छोटी और कमलिनी की लौंडी होकर रहूँगी; तभी मेरे दिल को तस्कीन होगा और मैं समझूगी कि कमलिनी के अहसान का बोझ मेरे सिर से उतर गया।'

चन्द्रकान्ता––शाबाश! शाबाश!

वीरेन्द्रसिंह––बेशक, किशोरी ने बड़े हौसले की और लासानी बात सोची!

चपला––बेशक, यह साधारण बात नहीं है, यह बड़े कलेजे वाली औरतों का काम है, और इससे बढ़कर किशोरी कुछ कर ही नहीं सकती थी।

गोपालसिंह––मैंने जब कमला की जुबानी यह बात सुनी तो दंग हो गया और मन में किशोरी की तारीफ करने लगा। सच तो यों है कि यह बात मेरे दिल में भी जम गई। अब मैंने कमला से वादा तो कर दिया कि 'ऐसा ही होगा', मगर तरद्दुद में पड़ गया कि यह काम क्योंकर पूरा होगा, क्योंकि यह बात बड़ी ही कठिन बल्कि असम्भव थी कि इन्द्रजीतसिंह और कमलिनी इस राय को मंजूर करें। इसके अतिरिक्त यह भी मंजूरी नहीं हो सकती थी कि हमारे महाराज इस बात को स्वीकार कर लेंगे।

भैरोंसिंह––बेशक, यह कठिन काम था, इन्द्रजीतसिंह इस बात को कभी मंजूर न करते।

गोपालसिंह––कई दिन के सोच-विचार के बाद मैंने और भैरोंसिंह ने मिलकर एक तरकीब निकाल ली और किसी न किसी तरह कमलिनी और लाड़िली को इन्द्रानी और आनन्दी बनाकर दोनों की शादी इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के साथ करा दी। उन दिनों कमलिनी के पिता बलभद्रसिंहजी, भूतनाथ की मदद से छूटकर यहाँ (अर्थात् बगुले वाले तिलिस्मी मकान में) आ चुके थे। अब मैं तिलिस्म के अन्दर ही अन्दर यहाँ आया और बलभद्रहिंजी को कन्यादान करने के लिए समझा-बुझाकर जमानिया ले गया। उस दिन भूतनाथ बहुत परेशान हुआ था और भैरोंसिंह मेरे साथ था। हम लोग पहले जब इस मकान में आये थे, तो भूतनाथ और बलभद्रसिंहजी के नाम की एक-एक चिट्ठी दोनों की चारपाई पर रख के चले गये थे। बलद्रसिंहजी की चिट्ठी में उनकी दिलजमई के लिए एक अँगूठी भी रखी थी जो उन्होंने ब्याह के पहले मुझे बतौर सगुन के दी थी। इसके बाद दूसरे दिन फिर पहुँचे और भूतनाथ को अपना पूरा-पूरा निश्चय देकर बलभद्र[ १३३ ]सिंहजी को ले गये। उनके जाने का सबब भूतनाथ को ठीक-ठीक कह दिया था। मगर साथ इसके इस बात की भी ताकीद कर दी थी कि यह हाल किसी को मालूम न होवे। इतना कहते-कहते गोपालसिंह कुछ देर के लिए रुके और फिर इस तरह कहने लगे––

"पहले तो मुझे इस बात की चिन्ता थी कि बलभद्रसिंह मेरा कहना मानेंगे या नहीं, मगर उन्होंने इस बात को बड़ी खुशी से मंजूर कर लिया। अपनी लड़कियों से मिल कर वे बहुत ही प्रसन्न हुए और हम लोगों पर जो कुछ आफतें बीत चुकी थीं, उन्हें सुन-सुनाकर अफसोस करते रहे, फिर अपनी बीती सुनाकर प्रसन्नतापूर्वक हम लोगों के काम में शरीक हुए, अर्थात् हँसी-खुशी के साथ उन्होंने कमलिनी और लाड़िली का कन्यादान कर दिया।[१] इस काम में भैरोंसिंह को भी कम तरद्दुद नहीं उठाना पड़ा, बल्कि दोनों कुमार इनसे रंज भी हो गये थे, क्योंकि इनकी जुबानी असल बातों का पता उन्हें नहीं लगता था, अतः शादी हो जाने के बाद इस बात का बन्दोबस्त किया गया कि इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह इस अनूठे ब्याह को भूल जायें तथा इन्द्रानी और आनन्दी से मिलने की उम्मीद न रखें।

इसके बाद राजा गोपालसिंह ने भी बहुत-सा हाल बयान किया जो हम सन्तति के अठारहवें भाग में लिख आये हैं और सब बातें सुनकर अन्त में चन्द्रकान्ता ने कहा, "खैर, जो हुआ अच्छा हुआ, हम लोगों के लिए तो जैसे किशोरी और कामिनी हैं, वैसे ही कमलिनी और लाड़िली हैं। मगर किशोरी के नाना को यदि इस बात का कुछ रंज हो तो ताज्जुब नहीं।"

वीरेन्द्रसिंह––पिताजी भी यही कहते थे। मगर इसमें कोई शक नहीं कि किशोरी ने परले सिरे की हिम्मत दिखलाई!

गोपालसिंह––साथ ही इसके यह भी समझ लीजिए कि कमलिनी ने भी इस बात को सहज ही में स्वीकार नहीं कर लिया, इसके लिए भी हम लोगों को बहुत-कुछ उद्योग करना पड़ा। बात यह है कि कमलिनी भी किशोरी को जान से ज्यादा चाहती है और मानती है।

चन्द्रकान्ता––मगर मुझे इस बात का अफसोस जरूर है कि इन दोनों की शादी में किसी तरह की तैयारी नहीं की गई और न कुछ धूमधाम ही हुई।

इसके बाद बहुत देर तक इन सभी में बातचीत होती रही।

  1. देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति, अठारहवाँ भाग, बारहवाँ बयान।