चन्द्रकान्ता सन्तति 6/23.7

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चंद्रकांता संतति भाग 6  (1896) 
द्वारा देवकीनंदन खत्री

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किशोरी, कामिनी, कमलिनी और लाड़िली ये चारों बड़ी मुहब्बत के साथ अपना दिन बिताने लगीं। इनकी मुहब्बत दिखावा नहीं थी, बल्कि दिली और सचाई के साथ थी। चारों ही जमाने के ऊँच-नीच को अच्छी तरह समझ चुकी थीं और खूब जानती थीं कि दुनिया में हर एक के साथ दुःख और सुख का चरखा लगा ही रहता है, खुशी तो मुश्किल से मिलती है, मगर रंज और दुःख के लिए किसी तरह का उद्योग नहीं करना पड़ता, यह आप से आप पहुँचता है, और एक साथ दस को लपेट लेने पर भी जल्दो नहीं छोड़ता, इसलिए बुद्धिमान का काम यही है कि जहाँ तक हो सके खुशी का पल्ला न छोड़े और न कोई काम ऐसा करे, जिसमें दिल को किसी तरह का रंज पहुँचे । इन चार औरतों का दिल उन नादान और कमीनी औरतों का सा नहीं था, जो दूसरों को खुण देखते ही जलभुन कर कोयला हो जाती हैं और दिन-रात कुप्पे की तरह मुंह फुलाये आँखों से पाखण्ड के आंसू बहाया करती हैं अथवा घर की औरतों के साथ मिल-जुलकर रहना अपनी बेइज्जती समझती हैं।

इन चारों का दिल आईने की तरह साफ था । नहीं-नहीं, हम भूल गये, हमें दिल के साथ आईने की उपमा देना पसन्द नहीं । न मालूम लोगों ने इस उपमा को किस लिए पसन्द कर रखा है ! उपमा में उसी वस्तु का व्यवहार करना चाहिए जिसकी प्रकृति में उपमेय से किसी तरह का फर्क न पड़े, मगर आईने (शीशे) में तो यह बात पाई नहीं जाती, हरएक आईना बेऐब. साफ और बिना धब्बे के नहीं होता और वह हर एक की सूरत एक सी भी नहीं दिखाता बल्कि जिसकी जैसी सूरत होती है, उसके मुकाबले में वैसा ही बन जाता है । इसलिए आईना उन लोगों के दिल को कहना उचित है जो नीति- कुशल हैं या जिन्होंने यह बात ठान ली है कि जो जैसा करे उसके साथ वैसा ही करना चाहिए, चाहे वह अपना हो या पराया, छोटा हो या बड़ा । मगर इन चारों में यह बात न थी, ये बड़ों की झिड़की को आशीर्वाद और छोटों की ऐंठ को उनकी नादानी समझती [ १४६ ]थीं। जब कोई हमजोली या आपस वाली क्रोध भरी हुई अपना मुंह बिगाड़े इनके सामने आती तो यदि मौका होता तो ये हँसकर कह देतीं कि 'वाह, ईश्वर ने अच्छी सूरत बनाई है !' या 'बहिन, हमने तो तुम्हारा जो कुछ बिगाड़ा सो बिगाड़ा मगर तुम्हारी सुरत ने तुम्हारा क्या कसूर किया है जो तुन उसे बिगाड़ रही हो ?' बस, इतने ही में उसका रंग बदल जाता । इन बातों को विचार कर हम इनके दिल का आईने के साथ मिलान करना पसन्द नहीं करते वल्कि यह कहना मुनासिब समझते हैं कि 'इनका दिल समुद्र की तरह गम्भीर था।'

इन चारों को इस का खयाल ही न था कि हम अमीर हैं, हाथ-पैर हिलाना या घर का कामकाज करना हमारे लिए पाप है । ये खुशी से घर का काम जो इनके लायक होता करतीं औरी खाने-पीने क चीजों पर विशेष ध्यान रखतीं। सबसे बड़ा खयाल इन्हें इस बात का रहता था कि इनके पति इनसे किसी तरह रंज न होने पावें और घर के किसी बड़े बुजुर्ग को इन्हें बेअदब कहने का मौका न मिले । महारानी चन्द्र- कान्ता की तो बात ही दूसरी है, ये चपला और चम्पा को भी सास की तरह समझती और इज्जत करती थीं । घर की लौंडियां तक इनसे प्रसन्न रहतीं और जब किसी लौंडी से कोई कसूर हो जाता तो झिड़की और गालियों के बदले नसीहत के साथ समझाकर ये उसे कायल और शर्मिन्दा कर देती और उसके मुंह से कहला देतीं कि 'बेशक मुझसे भूल हुई, आइन्दा कभी ऐसा न होगा !' सबसे विचित्र बात तो यह थी कि इनके चेहरे पर रंज क्रोध या उदासी कभी दिखाई देती ही न थी और जब कभी ऐसा होता तो किसी भारी घटना का अनुमान किया जाता था। हां, उस समय इनके दुःख और चिन्ता कोई ठिकाना नहीं रहता था जब ये अपने पति को किसी कारण दुःखी देखतीं । ऐसी अवस्था में इनकी सच्ची भक्ति के कारण इनके पति को अपनी उदासी छिपानी पड़ती या इन्हें प्रसन्न करने और हंसाने के लिए और किसी तरह का उद्योग करना पड़ता । मतलब यह है कि इन्होंने घ भर का दिल अपने हाथ में कर रखा था और ये घर भर की प्रसन्नता का कारण समझी जाती थीं।

भूतनाथ की स्त्री शान्ता का इन्हें बहुत बड़ा खयाल रहता और ये उसकी पिछली घटनाओं को याद करके उसकी पति-भक्ति की सराहना किया करतीं।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि इन्हें अपनी जिन्दगी में दुःखों के बड़े-बड़े समुद्र पार करने पड़े थे परन्तु ईश्वर की कृपा से जब ये किनारे लगी, तब इन्हें कल्पवृक्ष की छाया मिली और किसी बात की परवाह न रही।

इस समय संध्या होने में घण्टे भर की देर है । सूर्य भगवान् अस्ताचल की तरफ तेजी के साथ झुके चले जा रहे हैं और उनकी लाल-लाल पिछली किरणों से बड़ी-बड़ी अटारियां तथा ऊँचे-ऊँचे वृक्षों के ऊपरी हिस्सों पर ठहरा हुआ सुनहरा रंग बड़ा ही सुहा- वना मालूम पड़ता है । ऐसा जान पड़ता है मानो प्रकृति ने प्रसन्न होकर अपना गौरव बढ़ाने के लिए अपनी सहचरियों और सहायकों को सुनहरा ताज पहना दिया है।

ऐसे समय में किशोरी, कामिनी, लाड़िली और कमला अटारी पर एक सजे हुए बंगले के अन्दर बैठी जालीदार खिड़कियों से उस जंगल की शोभा देख रही हैं जो इस [ १४७ ]तिलिस्मी मकान से थोड़ी दूर पर है और साथ ही इसके मीठी बातें भी करती जाती हैं।

कमलिनी--(किशोरी से) बहिन एक दिन वह था कि हमें अपनी इच्छा के विरुद्ध ऐसे बल्कि इससे भी बढ़कर भयानक जंगलों में घूमना पड़ता था और उस समय यह सोचकर डर मालूम पड़ता था कि कोई शेर इधर-उधर से निकलकर हम पर हमला न करे, और एक आज का दिन है कि इस जंगल की शोभा भली मालूम पड़ती है और इसमें घूमने को जी चाहता है।

किशोरी--ठीक है, जो काम लाचारी के साथ करना पड़ता है वह चाहे अच्छा ही क्यों न हो परन्तु चित्त को बुरा लगता है, फिर भयानक तथा कठिन कामों का तो कहना ही क्या ! मुझे तो जंगल में शेर और भेड़ियों का इतना खयाल न होता था जितना दुश्मनों का, मगर वह समय और ही था ईश्वर न करे किसी दुश्मन को दिखे । उस समय हम लोगों की किस्मत बिगड़ी हुई थी और अपने साथी लोग भी दुश्मन बनकर सताने के लिए तैयार हो जाते थे। (कमला की तरफ देखकर) भला तुम्ही बताओ कि उस चमेला छोकरी का मैंने क्या बिगाड़ा था जिसने मुझे हर तरह से तबाह कर दिया ? अगर वह मेरी मुहब्बत का हाल मेरे पिता से न कह देती तो मुझ पर वैसी भयानक मुसीबत क्यों आ जाती?

कमला--बेशक ऐसा ही है, मगर उसने जैसी नमकहरामी की, वैसी ही सजा पाई । मेरे हाथ के कोड़े वह जन्म भर न भूलेगी!

किशोरी--मगर इतना होने पर भी उसने मेरे पिता के जी का ठीक-ठीक भेद न बताया।

कमला--बेशक वह बहुत ही जिद्दी निकली, मगर तुमने भी यह बड़ी लायकी दिखाई कि अन्त में उसे छोड़ देने का हुक्म दे दिया। अब भी वह जहाँ जायगी, दुःख ही भोगेगी।

किशोरी--इसके अतिरिक्त उस जमाने में धनपत के भाई ने क्या मुझे कम तकलीफ दी थी जब मैं नागर के यहां कैद थी ! उस कम्बख्त की तो सूरत देखने से मेरा खून खुश्क हो जाता था!

लाड़िली-वही जिसे भूतनाथ ने जहन्नुम में पहुंचा दिया ? मगर नागर इस मामले को बिल्कुल ही छिपा गई, मायारानी से उसने कुछ भी न कहा और इसी में उसका भला भी था।

किशोरी--(लाड़िली से) बहिन, तुम तो बड़ी नेक हो और तुम्हारा ध्यान भी धर्म-विषयक कामों में विशेष रहता है, मगर उन दिनों तुम्हें क्या हो गया था कि माया- रानी के साथ बुरे कामों में अपना दिन बिताती थीं और हम लोगों की जान लेने के लिए तैयार रहती थीं?

लाड़िली--(लज्जा और उदासी के साथ) फिर तुमने वही चर्चा छेड़ी ! मैं कई दफे हाथ जोड़कर तुमसे कह चुकी हूँ कि अब उन बातों की याद दिलाकर मुझे शर्मिन्दा


1.देखिए चन्द्रकान्ता सन्तंति, पहला भाग, ग्यारहवें बयान का अन्त। 2. " " आठवा भाग, नौवां बयान। [ १४८ ]करो, दुःख न दो, मेरे मुंह में बार-बार स्याही न लगाओ। उन दिनों मैं पराधीन थी मेरा कोई सहायक न था, मेरे लिए कोई और ठिकाना न था, और उस दुष्टा का साथ छोड़कर मैं अपने को कहीं छिपा भी नहीं सकती थी और डरती थी कि वहां से निकल भागने पर कहीं मेरी इज्जत पर न आ बने ! मगर बहिन, तुम जान-बूझकर बार-बार उन बातों की याद दिलाकर मुझे सताती हो, कहो बैलूं या यहां से उठ जाऊँ?

किशोरी--अच्छा-अच्छा जाने दो, माफ करो, मुझसे भूल गई, मगर मेरा मत- लब वह न था जो तुमने समझा है, मैं दो-चार बातें नानक के विषय में पूछना चाहती थी जिसका पता अभी तक नहीं लगा और जो भेद की तरह हम लोगों

लाड़िली--(बात काटकर) वे बातें भी तो मेरे लिए वैसी ही दुःखदायी हैं।

किशोरी--नहीं-नहीं, मैं यह न पूडूंगी कि तुमने नानक के साथ रामभोली बन- कर क्या-क्या किया, बल्कि यह पूडूंगी कि उस टोन के डिब्बे में क्या था जो नानक ने चुरा लाकर तुम्हें बजरे में दिया था ? कुएं में से हाथ कैसे निकला था ? नहर के किनारे वाले बंगले में पहुंचकर वह क्योंकर फंसा लिया गया ? उस बंगले में वह तस्वीरें कैसी थों ? असली रामभोली कहाँ गई और क्या हुई ? रोहतासगढ़ तहखाने के अन्दर तुम्हारी तस्वीर किसने लटकाई और तुम्हें वहाँ का भेद कैसे मालूम हुआ था इत्यादि बातें मैं कई दफे कई तरह से सुन चुकी हूँ मगर उनका असल भेअभी तक कुछ मालूम न हुआ।

लाड़िली--हां, इन सब बातों का जवाब देने के लिए मैं तैयार हूँ। तुम जानती हो और अच्छी तरह सुन और समझ भी चुकी हो कि वह तिलिस्मी बाग तरह-तरह के अजायबातों से भरा हुआ है, विशेष नहीं तो भी वहाँ का बहुत-कुछ हाल मायारानी और दारोगा को मालूम था। वहां या उसकी सरहद में ले जाकर किसी को हराने, धमकाने या तकलीफ देने के लिए कोई ताज्जुब का तमाशा दिखाना कौन बड़ी बात थी!

किशोरी--हां, सो तो ठीक ही है।

लाड़िली--और फिर नानक जान-बूझकर काम निकालने के लिए ही तो गिर- फ्तार किया गया था। इसके अतिरिक्त तुम पहले यह भी सुन चुकी हो कि दारोगा के बँगले या अजायबघर से खास बाग तक नीचे-नीचे रास्ता बना हुआ है, ऐसी अवस्था में नानक के साथ वैसा बर्ताव करना कौन-सी बड़ी बात थी!

किशोरी--बेशक ऐसा ही है, अच्छा उस डिब्बे वगैरह का भेद तो बताओ!

लाड़िली--उस गठरी में जो कलमदान था, वह तो हमारे विशेष काम का न था मगर उस डिब्बे में वही इन्दिरा वाला कलमदान था जिसके लिए दारोगा साहब बेताब हो रहे थे और चाहते थे कि वह किसी तरह पुनः उनके कब्जे में आ जाय । असल में उसी कलमदान के लिए मुझे रामभोली बनना पड़ा था । दारोगा ने असली रामभोली को तो गिरफ्तार करवा के इस तरह मरवा डाला कि किसी को कानों-कान खबर भी न हुई और मुझे रामभोली बनकर यह काम निकालने की आज्ञा दी । लाचार मैं रामभोली बनकर नानक से मिली और उसे अपने वश में करने के बाद इन्द्रदेव जी के मकान में से वह कलमदान तथा उसके साथ और भी कई तरह के कागज नानक की मार्फत चुरा


1. देखिये चन्द्रकान्ता सन्तति, चौथा भाग, नानक का बयान ।

च०स०-6-9

[ १४९ ]मंगवाये । मुझे तो उस कलमदान की सूरत देखने से भी डर मालूम होता था क्योंकि म

जानती थी कि वह कलमदान हम लोगों के खून का प्यासा और दारोगा के बड़े-बड़े भेदों से भरा हुआ है । इसके अतिरिक्त उस पर इन्दिरा की बचपन की तस्वीर भी बनी हुई थी और सुन्दर अक्षरों में इन्दिरा का नाम लिखा हुआ था. जिसके विषय में मैं उन दिनों जानती थी कि वे माँ-बेटी बड़ी बेदर्दी के साथ मारी गई । यही सबब था कि उस कलम- दान की सूरत देखते ही मुझे तरह-तरह की बातें याद आ गईं, मेरा कलेजा दहल गया और मैं डर के मारे काँपने लगी। खैर, जब मैं नानक को लिए हुए जमानिया की सर- हद में पहुंची तो उसे धनपत के हवाले करके खास बाग में चली गई, अपना दुपट्टा नहर में फेंकती गई। दूसरी राह से उस तिलिस्मी कुएं के नीचे पहुँच कर पानी का प्याला और बनावटी हाथ निकालने के बाद मायारानी से जा मिली और फिर बचा हुआ काम धनपत और दारोगा ने पूरा किया। दारोगा वाले बंगले में जो तस्वीर रक्खी हुई थी वह केवल नानक को धोखा देने के लिए थी, उसका और कोई मतलब न था, और रोहतासगढ़ के तहखाने में जो मेरी तस्वीर आप लोगों ने देखी थी, वह वास्तव में दिग्विजयसिंह की बुआ ने मेरे सुभीते के लिए लटकाई थी और तहखाने की बहुत-सी बातें समझाकर बता दिया था कि 'जहाँ तू अपनी तस्वीर देखना समझ लेना कि उसके फला तरफ फलां बात है' इत्यादि । बस, वह तस्वीर इतने ही काम के लिए लटकाई गई, थी । वह बुढ़िया बड़ी नेक थी, और उस तहखाने का हाल बनिस्बत दिग्विजयसिंह के बहुत ज्यादा जानती थी, मैं पहले भी महाराज के सामने बयान कर चुकी हूं कि उसने मेरी मदद की थी। वह कई दफे मेरे डेरे पर आई थी और तरह-तरह की बातें समझा गई थी। मगर न तो दिग्विजयसिंह उसकी कदर करता था और न वही दिग्विजयसिंह को चाहती थी। इसके अतिरिक्त यह भी कह देना आवश्यक है कि मैं तो उस बुढ़िया की मदद से तहखाने के अन्दर चली गई थी मगर कुन्दन अर्थात् धनपत ने वहां जो कुछ किया वह मायारानी के दारोगा की बदौलत था। घर लौटने पर मुझे मालूम हुआ कि दारोगा वहाँ कई दफे छिपकर गया और कुन्दन से मिला था मगर उसे मेरे बारे में कुछ खबर न थी, अगर खबर होती तो मेरे और कुन्दन के बीच जुदाई न रहती। मगर मुझे इस बात का ताज्जुब जरूर है कि वापस घर पहुंचने पर भी धनपत ने वहां की बहुत- सी बातें मुझसे छिपा रक्खीं।

किशोरी--अच्छा, यह तो बताओ कि रोहतासगढ़ में जो तस्वीर तुमने कुन्दन को दिखाने के लिए मुझे दी थी, वह तुम्हें कहाँ से मिली थी और तुम्हें तथा कुन्दन को उसका असली हाल क्योंकर मालूम हुआ था?

लाड़िली--उन दिनों मैं यह जानने के लिए बेताब हो रही थी कि कुन्दन असल में कौन हैं । मुझे इस बात का भी शक हुआ था कि वह राजा साहब (वीरेन्द्रसिंह) की कोई ऐयारा होगी और यही शक मिटाने के लिए मैंने वह तस्वीर खुद बनाकर उसे दिखाने के लिए तुम्हें दी थी । असल में उस तस्वीर का भेद हम लोगों को मनोरमा की


1. देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति, चौथा भाग, दसवां बयान। [ १५० ]जुबानी मालूम हुआ था और मनोरमा ने इन्दिरा से उस समय सुना था जब मनोरमा को माँ समझ के वह उसके फेर में पेड़ गई थी।

किशोरी–-ठीक है मगर इसमें भी कोई शक नहीं कि इन सब बखेड़ों की जड़ वही कम्बख्त दारोगा है। यदि जमानिया के राज्य में दारोगा न होता तो इन सब बाटों में से एक भी न सुनाई देती और न हम लोगों की दुःखमय कहानी का कोई अंश लोगों के कहने सुनने के लिए पैदा होता । (कमलिनी से) मगर बहिन, यह तो बताओ कि इस हरामी के पिल्ले (दारोगा) का कोई वारिस या रिश्तेदार भी दुनिया में है या नहीं?

कमलिनी--सिवाय एक के और कोई नहीं ! दुनिया का कायदा है कि जब आदमी भलाई या बुराई कुछ सीखता है तो पहले अपने घर ही से उसे आरम्भ करता है । मां-बाप के अनुचित लाड़-प्यार और उनकी असावधानी से बुरी राह पर चलने वाले लड़के घर ही में श्रीगणेश करते हैं और तब कुछ दिन के बाद वे दुनिया में मशहूर होने योग्य होते हैं । यही बात इस हरामखोर की भी थी, इसने पहले अपने नाते-रिश्तेदार ही पर सफाई का हाथ फेरा और उन्हें जहन्नुम पहुँचाकर समय के पहले घर का मालिक बन बैठा । साधु का भेष धरना इसने लड़कपन ही से सीखा है और विशेष करके इसके इसी भेष की बदौलत लोग धोखे में भी पड़े । हमारे राजा गोपालसिंह ने भी (मुस्कुराती हुई) इसे वशिष्ठ मुनि ही समझकर अपने यहाँ रक्खा था। हाँ, इसका एक चचेरा भाई जरूर बच गया था जो इसके हत्थे नहीं चढ़ा था, क्योंकि वह खुद भी परले सिरे का बदमाश था और इसकी करतूतों को खूब समझता था जिससे लाचार होकर इसे उसकी खुशामद करनी ही पड़ी और उसे अपना साथी बनाना ही पड़ा।

किशोरी--क्या वह मर गया? उसका क्या नाम था?

कमलिनी--नहीं वह मरा नहीं, मगर मरने के ही बराबर है, क्योंकि वह हमारे यहां कैद है । उसने अपना नाम शिखण्डी रख लिया था। तुम जानती ही हो कि जब मैं जमानिया के खास बाग के तहखाने और सुरंग की राह से दोनों कुमारों तथा बाकी कैदियों को लेकर बाहर निकल रही थी तो हाथी वाले दरवाजे पर उसने इनके (इन्द्र- जीतसिंह) के ऊपर वार किया था।

किशोरी-–हाँ-हाँ, तो क्या वह वही कम्बख्त था?

कमलिनी–-हाँ वही था। उसे मैं अपना पक्षपाती समझती थी मगर बेईमान ने मुझे धोखा दिया । ईश्वर की कृपा थी कि पहले ही वार में वह उसी जगह गिरफ्तार हो गया, नहीं तो शायद मुझे धोखे में पड़कर बहुत तकलीफें उठानी पड़ती और

कमलिनी ने इतना कहा ही था कि उसका ध्यान सामने के जंगल की तरफ जा पड़ा। उसने देखा कि कुंअर आनन्दसिंह एक सब्ज घोड़े पर सवार सामने की तरफ से आ रहे हैं, साथ में केवल तारासिंह एक छोटे टटू पर सवार बातें करते आ रहे हैं, और दूसरा कोई आदमी नहीं है । साथ ही इसके कमलिनी को एक और अद्भुत दृश्य दिखाई दिया जिससे वह यकायक चौंक पड़ी और इसलिए उसका तथा और सभी का


1. देखिये चन्द्रकान्ता सन्तति, तीसरा भाग, दसवाँ बयान, और उन्नीसवाँ भाग, छठवां बयान। 2. देखिए। " " आठवाँ भाग, दूसरा बयान। [ १५१ ]ध्यान भी उसी तरफ जा पड़ा।

उसने देखा कि आनन्दसिंह और तारासिंह जंगल में से निकलकर कुछ ही दूर मैदान में आये थे कि यकायक एक बार पुनः पीछे की तरफ घूमे और गौर के साथ कुछ देखने लगे। कुछ ही देर बाद और भी दस-बारह नकाबपोश आदमी हाथ में तीर-कमान लिए दिखाई पड़े जो जंगल से बाहर निकलते ही इन दोनों पर फुर्ती के साथ तीर चलाने लगे। ये दोनों भी म्यान से तलवार निकालकर उन लोगों की तरफ झपटे और देखते ही देखते सब लड़ते-भिड़ते पुनः जंगल में घुसकर देखने वालों की नजरों से गायब हो गए।कमलिनी, किशोरी और कामिनी वगैरह इस घटना को देखकर घबरा गयीं, सभी की इच्छानुसार कमला दौड़ी हुई गई और एक लौंडी को इस मामले की खबर करने के लिए नीचे कुंअर इन्द्रजीतसिंह के पास भेजा।