चन्द्रकान्ता सन्तति 6/24.2

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चंद्रकांता संतति भाग 6  (1896) 
द्वारा देवकीनंदन खत्री

[ २०३ ]

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दलीपशाह ने फिर इस तरह अपना किस्सा शुरू किया-

"गिरिजाकुमार ने अपनी बातचीत में दारोगा और बिहारीसिंह को ऐसा उल्लू बनाया कि उन दोनों को गिरिजाकुमार पर पूरा-पूरा भरोसा हो गया और वह खुशी के साथ जमानिया में रहकर बेगम का इन्तजार करने लगा, बल्कि दारोगा के साथ जाकर उसने खास बाग का रास्ता और मायारानी को भी देख लिया था। इधर अर्जुनसिंह गिरिजाकुमार की खोज में जमानिया गये और मैं बेगम को गिरफ्तार करने की फिक्र में पड़ा।

"पहले तो मैं अपने घर गया और वहाँ से कई आदमियों का इन्तजाम करके लौटा । फिर ठीक समय पर गंगा के किनारे उस ठिकाने पहुंच गया जहाँ बेगम की किश्ती किनारे लगाकर लूट लेने की बातचीत कही-बदी थी।

"मैं इस घटना का हाल बहुत बढ़ाकर न कहूंगा कि वेगम की किश्ती क्योंकर आई और क्या-क्या हुआ तथा मैंने किसको किस तरह गिरफ्तार किया-संक्षेप में केवल इतना ही कहूँगा कि बेगम पर मैंने कब्जा कर लिया और जो चीजें उसके पास थीं, सब ले ली गयीं। उन्हीं चीजों में ये सब कागज और वह हीरे की अंगूठी भी जो भूतनाथ बेगम के यहाँ से ले आया और जो इस समय दरबार में मौजूद हैं । आगे चलकर मैं इन चीजों का हाल बयान करूँगा और यह भी कहूँगा कि ये सब चीजें मेरे कब्जे में आकर फिर क्योंकर निकल गई। इस समय मैं पुनः गिरिजाकुमार का हाल बयान करूँगा जो उसी की जुबानी मुझे मालूम हुआ था। [ २०४ ]"गिरिजाकुमार जमानिया में बैठा हुआ दारोगा के साथ बेगम का इन्तजार कर रहा था। जब बेगम को लुटवाकर दोनों सिपाही जिनके साथ बेगम के भी दो आदमी थे और जिन्हें मैंने जानबूझकर छोड़ दिया था, रोते-कलपते हुए जमानिया पहुंचे तो सीधे दारोगा के पास चले गये। उस समय वहाँ सूरत बदले हुए असली बिहारीसिंह और गिरिजाकुमार भी बिहारीसिंह बना हुआ बैठा था । दारोगा के सिपाहियों और बेगम के आदमियों ने अपनी बर्बादी और बेगम के लुट जाने का हाल बयान किया जिसे सुनते ही दारोगा को ताज्जुब और रंज हुआ। उसने गिरिजाकुमार की तरफ देखकर कहा,कार्रवाई किसने की होगी?"

गिरजाकुमार--खुद बेगम ने या फिर भूतनाथ ने ! (बेगम के आदमियों की तरफ देखकर) क्यों जी ! मैं समझता हूँ कि शायद महीने-भर के लगभग हुआ होगा जब एक भूतनाथ मेरे साथ बेगम के यहाँ गया था। उस समय तुम भी तो वहाँ थे, क्या तुमने मुझे पहचाना था?

बेगम का आदमी--जी नहीं, मैंने भापको नहीं पहचाना था।

गिरिजाकुमार--(दारोगा की तरफ देख कर) आप ही के कहे मुताबिक मैं दो-तीन दफे भूतनाथ के साथ बेगम के यहां गया था, पर वास्तव में भूतनाथ अच्छा आदमी है और ये लोग भी बड़ी मुस्तैदी के साथ वहाँ रहते हैं। (बेगम के आदमियों की तरफ देखकर) क्यों जी, है न यही बात ?

बेगम का आदमी--(हाथ जोड़ कर) जी हाँ सरकार !

बेगम के आदमियों की जुबान से गिरिजाकुमार ने बड़ी खूबी के साथ 'जी हाँ सरकार' कहलवा लिया। इसमें कोई शक नहीं कि भूतनाथ बेगम के यहाँ जाया करता था और गिरिजाकुमार को यह हाल मालूम था, मगर ऐसे मौके पर उसके आदमियों की जुबान से 'हाँ' कहला लेना मामूली बात न थी। उन खुशामदी आदमियों ने कर कि जब खुद बिहारीसिंह भूतनाथ के साथ अपना जाना कबूल करते हैं तो हाँ कहना ही अच्छा है-'जी हाँ सरकार' कह दिया और गिरिजाकुमार दारोगा तथा बिहारीसिंह की निगाह में सच्चा बन बैठा । साथ ही इसके गिरिजाकुमार दारोगा से पहले ही कह चुका था कि बेगम आवेगी तो मैं बात-ही-बात में किसी तरह साबित करा दूंगा कि भूतनाथ उसके यहां आता-जाता है, वह बात भी दारोगा को खूब याद थी, अत: दारोगा को गिरिजाकुमार पर और भी विश्वास हो गया। उसने गिरिजाकुमार का इशारा पाकर बेगम के दोनों आदमियों को बिना कुछ कहे थोड़ी देर के लिए बिदा किया और फिर आपस में इस तरह बातचीत करने लगा-

दारोगा--कुछ समझ में नहीं आता कि क्या मामला है !

गिरिजाकुमार--अजी, यह उसी कम्बख्त भूतनाथ की बदमाशी और दोनों की मिली-जुली सांठ-गांठ है । बेगम जान-बूझ कर यहाँ नहीं आई । अगर वह आती तो उसके आदमियों की तरह खास उसकी जुबान से भी मैं इस बात को साबित करा देता कि उससे और भूतनाथ से ताल्लुक है और इसीलिए मैं अभी तक बिहारी सिंह बना हुआ था, मगर खैर कोई चिन्ता नहीं, मैं बहुत जल्द इन सव भेदों का पूरा-पूरा पता लगा लूंगा और सोच [ २०५ ]भूतनाथ को भी गिरफ्तार कर लूंगा !

दारोगा--तो अब देर क्यों करते हो ?

गिरिजाकुमार--कुछ नहीं, कल मेरे साथ चलने के लिए बिहारीसिंह तैयार हो जायें।

बिहारीसिंह--अच्छी बात है । यह बताओ कि किस सुरत-शक्ल में सफर किया जायगा?

गिरिजाकुमार--मैं तो एक ज्योतिषी की सूरत बनूंगा, और आप...

बिहारीसिंह--मैं वैद्य बनूंगा।

गिरिजाकुमार--बस-बस, यही ठीक है, मगर एक बात मैं अभी से कहे देता हूँ कि दो घण्टे के लिए मैं गुरुजी से मिलने जरूर जाऊँगा।

बिहारीसिंह--क्या हर्ज है, अगर कहोगे तो मैं भी तुम्हारे साथ चला चलूंगा या कहीं अटक जाऊँगा।

"मुख्तसिर यह है कि दूसरे दिन दोनों ऐयार ज्योतिषी और वैद्य बने हुए जमानिया के बाहर निकले ।

“मजा तो यह है कि गिरिजाकुमार ने चालाकी से उस समय तक किसी को अपनी असली सूरत देखने नहीं दी। जब तक वहाँ रहा बिहारीसिंह ही बना रहा, जब वाहर निकला तो ज्योतिषी बन कर निकला। खैर दारोगा का तो कहना ही क्या है, खुद बिहारी सिंह और हरनामसिंह व्यर्थ ही ऐयार कहलाये, असल में कोई अच्छा काम इन दोनों के हाथ से होते देखा-सुना नहीं गया।

"अब हम थोड़ा-सा हाल अर्जुनसिंह का बयान करते हैं, जो गिरिजाकुमार व पता लगाने लिए हमसे जुदा होकर जमानिया गये थे। जमानिया में सेठ रामसरन नामक एक गलाजन अर्जुनसिंह का दोस्त था, अतः ये सूरत बदले हुए सीधे उसी के मकान पर चले गये और मौका पाकर उससे मुलाकात करने के बाद सब हाल बयान किया और उससे मदद चाही। पहले तो वह दारोगा और मायारानी के खिलाफ कार्रवाई करने के नाम से बहुत डरा, मगर अर्जुनसिंह ने उसे बहुत भरोसा दिलाया और कहा कि जो कुछ हम करेंगे, वह ऐसे ढंग से करेंगे कि तुम पर किसी को किसी तरह का शक न होगा, इसके अतिरिक्त हम तुमसे और किसी तरह की मदद नहीं चाहते केवल एक गुप्त कोठरी ऐसे ढंग की चाहते हैं जिसमें अगर हम किसी को गिरफ्तार करके यहाँ लावें तो दो-चार दिन के लिए कैद करके रख सके और यह काम भी ऐसी खूबी के साथ किया जायगा कि कैदी को इस बात का गुमान भी न होगा कि वह कहाँ और किसके मकान में कैद किया गया था।

"खैर, रामसरन ने किसी तरह अर्जुनसिंह की बात मंजूर कर ली और तब अर्जुनसिंह उसके मकान से बाहर निकल कर हरनामसिंह को फंसाने की फिक्र करने लगे क्योंकि इन्होंने निश्चय कर लिया था कि बिना किसी को फंसाये हुए गिरिजाकुमार का पता लगाना कठिन ही नहीं, बल्कि असम्भव है।

"मुख्तसिर यह कि दो दिन की कोशिश में अर्जुन सिंह ने भुलावा दे हरनामसिंह [ २०६ ]को गिरफ्तार कर लिया, उसे रामसरन के मकान की एक अँधेरी कोठरी में ले जाकर कैद किया तथा खाने-पीने का भी प्रबन्ध कर दिया । हरनामसिंह को यह मालूम न हुआ कि उसे किसने कैद किया है और वह किस स्थान पर रखा गया है, तथा उसे खाने-पीने को कौन देता है । इस काम से छुट्टी पाकर हरनामसिंह की सूरत बन अर्जुनसिंह दारोगा के दरबार में जा घुसे और इस तरकीब से बहुत जल्द गिरिजाकुमार को पहचान लिया और उसका पता लगा लिया। गिरिजाकुमार ने जिस चालाकी से अपने को बचा लिया था, उसे जानकर उसकी बुद्धिमानी पर अर्जुनसिंह को आश्चर्य हुआ, मगर भण्डा फूटने के डर से वे अपने को बहुत ही बचाये हुए थे और दारोगा तथा असली बिहारीसिंह से सिर-दर्द का बहाना करके बातचीत कम करते थे।

"जब बिहारीसिंह को साथ लेकर गिरिजाकुमार शहर के बाहर निकला तो अर्जुनसिंह ने भी सूरत बदल कर उसका पीछा किया। जब दोनों मुसाफिर एक मंजिल रास्ता तय कर चुके तो दूसरे दिन सफर में एक जगह मौका पाकर कुछ देर के लिए गिरिजाकुमार को अकेला देख कर अर्जुनसिंह उसके पास चले गये और उन्होंने अपने को उस पर प्रकट कर दिया। जल्दी-जल्दी बातचीत करके इन्होंने उसे यह बता दिया कि उसके जमानिया चले जाने के बाद क्या हुआ तथा अब उसे क्या और किस-किस ढंग पर कार्रवाई करनी चाहिए और हमसे-तुमसे कहाँ-कहाँ किस-किस मौके पर या कैसी सूरत में मुलाकात होगी।

अर्जुनसिंह ने गिरिजाकुमार को जो कुछ समझाया उसका हाल आगे चल कर मालूम होगा। इस जगह केवल इतना ही कहना काफी है कि गिरिजाकुमार को समझा कर अर्जुनसिंह फिर जमानिया चले गए और रात के समय हरनामसिंह को बेहोश करके कैदखाने से निकाल, शहर के बाहर बहुत दूर मैदान में ले जाकर छोड़ दिया और अपना रास्ता पकड़ा, जिसमें होश में आकर वह अपने घर चला जाय और उसे मालूम न हो कि उसके साथ किसने क्या सलूक किया, बल्कि यह बात उसे स्वप्न की तरह याद रहे ।

"इसके बाद अर्जुनसिंह बहुत जल्द मेरे पास पहुंचे और जो कुछ हो चुका था उसे बयान किया। गिरिजाकुमार का हाल सुन कर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई और मैंने बेगम के साथ जो कुछ सलूक किया था, उसका हाल अर्जुनसिंह से बयान किया तथा जो कुछ चीजें उसकी मेरे हाथ लगी थीं दिखाकर यह भी कहा कि बेगम अभी तक मेरे यहाँ कैद है। अतः सोचना चाहिए कि अब उसके साथ क्या कार्रवाई की जाय ?

"उन दिनों असल में मुझे तीन बातों की फिक्र लगी थी। एक तो यह कि यद्यपि भूतनाथ से और मुझसे रंज चला आता था और भूतनाथ ने अपना मरना मशहूर कर दिया था, मगर भूतनाथ की स्त्री मेरे यहाँ आई हुई थी और उसकी अवस्था पर मुझे दुःख होता था, इसलिए मैं चाहता था कि किसी तरह भूतनाथ से मुलाकात हो और मैं उसे समझा-बुझा कर ठीक रास्ते पर लाऊँ, दूसरे यह कि राजा गोपालसिंह के मरने का असली सबब दरियाफ्त करूँ और तीसरे बलभद्र सिंह तथा लक्ष्मीदेवी को दारोगा की कैद से छुड़ाऊँ, जिनका कुछ-कुछ हाल मुझे मालूम हो चुका था। बस, इन्हीं कामों के लिए हमलोगों ने इतनी मेहनत अपने सिर उठाई थी, नहीं तो जमानिया के बारे में हम लोगों के [ २०७ ]लिए अब किसी तरह की दिलचस्पी नहीं रह गई थी।

"बेगम की जो चीजें मेरे हाथ लगी थीं, उनमें से कई कागज और एक हीरे की अँगूठी ऐसी थी, जिस पर ध्यान देने से हम लोगों को मालूम हो गया कि बेगम भी कोई साधारण औरत नहीं थी। उन कागजों में से कई चिट्ठियाँ ऐसी थीं जो भूतनाथ के विषय में जयपाल ने बेगम को लिखी थीं और कई चिट्ठियाँ ऐसी थीं जिनके पढ़ने से मालूम होता था कि मायारानी के बाप को इसी जयपाल ने मायारानी और दारोगा की इच्छानुसार मार कर जहन्नुम में पहुंचा दिया है और बलभद्रसिंह अभी तक जीता है, मगर साथ ही इसके उन चिट्ठियों से यह भी जाहिर होता था कि असली लक्ष्मीदेवी निकल कर भाग गई, जिसका पता लगाने के लिए दारोगा बहुत उद्योग कर रहा है, मगर पता नहीं लगता । वह जो हीरे की अंगूठी थी वह वास्तव में हेलासिंह (मायारानी के बाप) की थी जो उसके मरने के बाद जयपाल के हाथ लगी थी। उस अंगूठी के साथ एक कागज का पुर्जा बंधा हुआ था जिस पर बलभद्रसिंह को कैद में रखने और हेलासिंह को मार डालने की आज्ञा थी और उस पर मायारानी तथा दारोगा दोनों के हस्ताक्षर थे।

"वे कागज पुर्जे और अंगूठी इस समय महाराज के दरबार में मौजूद हैं जी भूतनाथ बेगम के यहाँ से उस समय ले आया था, जब वह असली बलभद्रसिंह को छुड़ाने लिए गया था। आप लोगों को इस बात आश्चर्य होगा कि जब ये सब चीजें बेगम के गिरफ्तार करने पर मेरे कब्जे में आ ही चुकी थीं तो पुनः बेगम के कब्जे में कैसे चली गई ? इसके जवाब में केवल इतना ही कह देना काफी है कि जब बेगम मेरे कब्जे से निकल गई तो वे चीजें भी उसी के साथ जाती रहीं और फिर मैं भी बेगम तथा दारोगा के कब्जे में चला गया और इन सब बातों का कर्ता-धर्ता भूतनाथ ही है जिसने उस समय बहुत धोखा खाया और जिसके सबब से कुछ दिन बाद उसे भी तकलीफ उठानी पड़ी। मैंने यह भी सुना था कि अपनी इस भूल से शर्मिन्दा होकर भूतनाथ ने बेगम और जमपाल को बड़ी तकलीफें दीं, मगर उसका नतीजा उस समय कुछ भी न निकला। खैर अब मैं पुनः अपने किस्से की तरफ झुकता हूँ।"

दलीपशाह की इस बात को सुनकर महाराज ने पुनः उन हीरे की अंगूठी और उन चिट्ठियों के देखने की इच्छा प्रकट की जो भूतनाथ बेगम के यहाँ से उठा लाया था। तेजसिंह ने पहले महाराज को फिर और लोगों को भी वे चीजें दिखाई और इसके बाद फिर दलीपशाह ने इस तरह अपना हाल बयान करना शुरू किया

"अर्जुनसिंह ज्यादा देर तक मेरे पास नहीं ठहरे, उस समय जो कुछ हम लोगों को करना चाहिए था, बहुत जल्द निश्चय कर लिया गया और इसके बाद अर्जुनसिंह के साथ मैं घर से वाहर निकला और हम दोनों मित्र गिरिजाकुमार की तरफ रवाना हुए।

"अब गिरिजाकुमार का हाल सुनिये कि अर्जुनसिंह से मिलने के बाद फिर क्या हुआ।

"बिहारीसिंह और गिरिजाकुमार दोनों आदमी सफर करते हुए एक ऐसे स्थान में पहुंचे जहाँ से बेगम का मकान केवल पाँच कोस की दूरी पर था। यहां पर एक छोटा गाँव था, जहाँ मुसाफिरों के लिए खाने-पीने की मामूली चीजें मिल सकती थीं और जिसमें [ २०८ ]हलवाई की एक छोटी-सी दुकान भी थी। गांव के बाहरी प्रान्त में जमींदारों के देहाती ढंग के बगीचे थे और पास ही में पलाश का छोटा-सा जंगल भी था। संध्या होने में घण्टे भर की देर थी और बिहारीसिंह चाहता था हम लोग बराबर चले जायं, दो-तीन घण्टे रात जाते बेगम के मकान तक पहुँच ही जायेंगे, मगर गिरिजाकुमार को यह बात मंजूर न थी । उसने कहा कि मैं बहुत थक गया हूँ और अब एक कोस भी आगे नहीं चल सकता, इसलिए यही अच्छा होगा कि आज की रात इसी गांव के बाहर किसी बगीचे अथवा जंगल में बिता दी जाय ।

"यद्यपि दोनों की राय दो तरह की थी, मगर बिहारीसिंह को लाचार हो गिरिजा-कुमार की बात माननी पड़ी और यह निश्चय करना ही पड़ा कि आज की रात अमुक बगीचे में बिताई जायगी।अस्तु संध्या हो जाने पर दोनों आदमी गाँव में हलवाई की दुकान पर गये और वहां पूरी-तरकारी बनवाकर पुनः गांव के बाहर चले आए।

चाँदनी निकली हुई थी और चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। बिहारीसिंह और गिरिजाकुमार एक पेड़ के नीचे बैठे हुए धीरे-धीरे भोजन और निम्नलिखित बातें करते जाते थे-

गिरिजाकुमार--आज की भूख में ये पूरियाँ बड़ा ही मजा दे रही हैं।

बिहारीसिंह--यह के भूख ही कारण नहीं, बल्कि बनी भी अच्छी हैं, इसके अतिरिक्त तुमने आज बूटी (भांग) भी गहरी पिला दी है।

गिरिजाकुमार--अजी, इसी बूटी की बदौलत तो सफर की हरारत मिटेगी।

बिहारीसिंह--मगर नशा तो तेज हो रहा है और अभी तक बढ़ता ही जाता है ।

गिरिजाकुमार--तो हम लोगों को करना ही क्या है ?

बिहारीसिंह--और नहीं तो अपने कपड़े-लत्ते और बटुए का खयाल तो है ही।

गिरिजाकुमार--(हँसकर) मजा तो तब हो जो इस समय भूतनाथ से सामना हो जाय।

बिहारीसिंह--हर्ज ही क्या है ? मैं इस समय भी लड़ने को तैयार हूँ। मगर वह बड़ा ही ताकतवर और काइयाँ ऐयार है।

गिरिजाकुमार--उसकी कदर तो राजा गोपालसिंह जानते थे।

बिहारीसिंह--मेरे खयाल से तो यह बात नहीं है ।

गिरिजाकुमार--तुम्हें खबर नहीं है, अगर कभी मौका मिला तो मैं इस बात को साबित कर दूंगा।

बिहारीसिंह--किस ढंग से साबित करोगे?

गिरिजाकुमार--खुद राजा गोपालसिंह की जबान से ।

बिहारीसिंह--(हँसकर) क्या भंग के नशे में पागल हो गये हो ? राजा गोपाल-सिंह अब कहाँ हैं ?

गिरिजाकुमार--असल बात तो यह है कि मुझे राजा गोपालसिंह के मरने का विश्वास ही नहीं है।

बिहारीसिंह--(चौकन्ना होकर) सो क्यों ? तुम्हारे पास उनके जीते रहने का [ २०९ ]क्या सबूत है ?

गिरिजाकुमार--बहुत-कुछ सबूत है मगर इस विषय पर मैं हुज्जत या बहस करना पसन्द नहीं करता । जो कुछ असल बात है तुम स्वयं जानते हो, अपने दिल से पूछ लो।

बिहारीसिंह--मैं तो यही जानता हूँ कि राजा साहब मर गये।

गिरिजाकुमार--खैर यह तो मैं कही चुका हूँ कि इस विषय पर बहस न करूंगा।

बिहारीसिंह--मगर बताओ तो सही कि तुमने क्या समझ के ऐसा कहा?

गिरिजाकुमार-मैं कुछ भी न बताऊंगा।

बिहारीसिंह--फिर हमारी-तुम्हारी दोस्ती ही क्या ठहरी जो एक जरा सी बात छिपा रहे हो और पूछने पर भी नहीं बताते ।

गिरिजाकुमार--(हँसकर) तुम्हें ऐसा कहने का हक नहीं है । जब तुम खुद दोस्ती का खयाल न करके ये बातें छिपा रहे हो तो मैं क्यों बताऊँ ?

विहारीसिंह--(संकोच के साथ) मैं तो कुछ भी नहीं छिपाता।

गिरिजाकुमार---अच्छा मेरे सिर पर हाथ रखके कह तो दो कि वास्तव में राजा साहब मर गये, मैं अभी साबित कर देता हूँ कि तुम छिपाते हो या नहीं। अगर तुम सच कह दोगे तो मैं भी बता दूंगा कि इसमें कौन सी नई बात पैदा हो गई और क्या रंग खिला चाहता है !

बिहारीसिंह--(कुछ सोचकर) पहले तुम बताओ, फिर मैं बताऊँगा।

"इस समय बिहारासिंह नशे में मस्त था, एक तो गिरिजाकुमार ने उसे भंग पिला दी थी, दूसरे उसने जो पूरियाँ खाई थीं उसमें भी एक प्रकार का बेढब नशा मिला हुआ था, क्योंकि वास्तव में उस हलवाई के यहाँ अर्जुनसिंह ने पहले ही से प्रबंध कर लिया था और ये बातें गिरिजाकुमार से कही-बदी थीं जैसा कि ऊपर के बयान से आपको मालूम हो चुका है, अतः गिरिजाकुमार ने पहले ही से एक दवा खा ली थी जिससे उन पूरियों का असर उस पर कुछ भी न हुआ, मगर बिहारीसिंह धीरे-धीरे अलमस्त हो गया और थोड़ी ही देर में बेहोश होने वाला था। वह ऐसा मस्त और दिल खुश करने वाला नशा था जिसके वश में होकर बिहारीसिंह ने अपने दिल का भेद खोल दिया, मगर अफसोस भूतनाथ ने हमारी कुल मेहनत पर मिट्टी डाल दी और हम लोगों को बबाँद कर दिया। उस भेद का पता लग जाने पर भी हम लोग कुछ न कर सके जिसका सबब आगे चल कर आपको मालूम होगा। जब गिरिजाकुमार और बिहारीसिंह से बातें हो रही थीं उस समय हम दोनों मित्र भी वहाँ से थोड़ी ही दूर पर छिपे हुए खड़े थे और इन्तजार कर रहे थे कि बिहारीसिंह बेहोश हो जाय और गिरिजाकुमार बुलाये तो हम दोनों भी वहाँ जा पहुँचें।

"गिरिजाकुमार ने पुनः जोर देकर कहा, ऐसा नहीं हो सकता, पहले तुम्हा को दिल का परदा खोल के और सच्चा-सच्चा हाल कहके दोती का परिचर और यह बात मुझसे छिपी नहीं रह सकती कि तुमने सच कहा यः सूट क्योंकि जो कुछ भेद है उसे मैं खूब जानता हूँ। [ २१० ]बिहारीसिंह--मुझे भी ऐसा ही मालूम होता है । खैर अब मैं कोई बात तुमसे न छिपाऊँगा, सब भेद साफ कह दूंगा। मगर इस समय मैं केवल इतना ही कहूँगा कि वास्तव में राजा साहब मरे नहीं बल्कि अभी तक जीते हैं ।

गिरिजाकुमार--इतना तो मैं खुद कह चुका हूँ, इससे ज्यादा कुछ कहो तो मुझे विश्वास हो।

"गिरिजाकुमार की बात का बिहारीसिंह कुछ जवाब दिया ही चाहता था कि सामने से एक आदमी आता हुआ दिखाई पड़ा जो पास आते ही चाँदनी के सबब से बहुत जल्द पहचान लिया गया कि भूतनाथ है । बिहारी सिंह ने, जो भूतनाथ को देख कर घबड़ा गया था गिरिजाकुमार से कहा, "लो सम्हल जाओ, भूतनाथ आ पहुँचा !" दोनों आदमी सम्हल कर खड़े हो गये और भूतनाथ भी वहाँ पहुँच कर दिलेराना ढंग पर उन दोनों के सामने अकड़ कर खड़ा हो गया और बोला, "तुम दोनों को मैं खूब पहचानता हूँ और मुझे यकीन है कि तुम लोगों ने भी मुझे पहचान लिया होगा कि यह भूतनाथ है।"

बिहारीसिंह--बेशक मैंने तुमको पहचान लिया, मगर तुमको हम लोगों के बारे में धोखा हुआ है।

भूतनाथ--(हँसकर) मैं तो कभी धोखा खाता ही नहीं ! मुझे खूब मालूम है कि तुम दोनों बिहारीसिंह और गिरिजाकुमार हो और साथ ही इसके मुझे यह भी मालूम है कि तुम लोग मुझे गिरफ्तार करने के लिए जमानिया से बाहर निकले हो ! मुझे तुम अपने ऐसा बेवकूफ न समझो। (गिरिजाकुमार की तरफ बताकर) जिसे तुम लोगों ने आज तक नहीं पहचाना और जिसे तुम अभी तक शिवशंकर समझे हुए हो उसे मैं खूब जानता हूँ कि यह दलीपशाह का शागिर्द गिरिजाकुमार है। जरा सोचो तो सही कि तुम्हारे ऐसा बेवकूफ आदमी मुझे क्या गिरफ्तार करेगा जिसे एक लौंडे (गिरिजाकुमार) ने धोखे में डालकर उल्लू बना दिया और जो इतने दिनों तक साथ रहने पर भी गिरिजा कुमार को पहचान न सका । खैर, इसे जाने दो, पहले अपनी हिम्मत और बहादुरी का अन्दाज कर लो, देखो, मैं तुम्हारे सामने खड़ा हूँ, मुझे गिरफ्तार करो तो सही !

"भूतनाथ की बातें सुनकर बिहारीसिंह हैरान बल्कि बदहवास हो गया क्योंकि वह भूतनाथ की जीवट और उसकी ताकत को खूब जानता था और उसे विश्वास था कि इस तरह खुले मैदान भूतनाथ को गिरफ्तार करना दो-चार आदमियों का काम नहीं है। साथ ही वह यह सुनकर और भी घबड़ा गया कि हमारा साथी वास्तव में शिवशंकर या हमारा मददगार नहीं है बल्कि हमें धोखे में डालकर उल्लू बनाने और भेद ले लेने वाला एक चालाक ऐयार है। इससे मैंने जो गोपालसिंह के जीते रहने का भेद बता दिया सो अच्छा नहीं किया।

इसी घबराहट में बिहारीसिंह का नशा पूरे दर्जे पर पहुँच गया और सिर नीचा करके सोचता-ही-सोचता वह बेहोश होकर जमीन पर लम्बा हो गया। उस समय गिरिजाकुमार की तरफ देख के भूतनाथ ने कहा, "तुम इस बात का खयाल छोड़ दो कि मेरे सामने से भाग जाओगे या चिल्लाकर लोगों को इकट्ठा कर लोगे।" [ २११ ]गिरिजाकुमार--मगर मुझसे आपको किसी तरह की दुश्मनी न होनी चाहिए, क्योंकि मैंने आपका कुछ नुकसान नहीं किया है ।

भूतनाथ--सिवाय इसके कि मुझे गिरफ्तार करने की फिक्र में थे ।

गिरिजाकुमार--कदापि नहीं, यह तो एक तरकीब थी जिससे कि मैंने अपने को कैद होने से बचा लिया, यही सबब था कि इस समय मैंने इसे (बिहारीसिंह को) धोखा देकर बेहोशी का दवा दी और इसे बाँधकर अपने घर ले जाने वाला था।

भूतनाथ--तुम्हारी बातें मान लेने के योग्य हैं मगर मैं इस बात को भी खूब जानता हूँ कि तुम बड़े बातूनी हो और बातों के जाल में बड़े-बड़े चालाकों को फंसाकर उल्लू बना सकते हो।

"इतना कहकर भूतनाथ ने अपनी जेब में से कपड़े का एक टुकड़ा निकालकर गिरिजाकुमार के मुंह पर रख दिया और फिर गिरिजाकुमार को दीन-दुनिया की कुछ भी खबर न रही। इसके बाद क्या हुआ सो उसे मालूम नहीं और न मैं ही जानता हूँ, क्योंकि इस विषय में मैं वही बयान करूंगा जो गिरिजाकुमार ने मुझसे कहा था ।

"हम दोनों मित्र जो उस समय छिपे हुए थे बैठे-बैठे घबड़ा गये और जब लाचार होकर उस बाग में गये तो न गिरिजाकुमार को देखा न बिहारीसिंह को पाया। कुछ पता न लगा कि दोनों कहाँ गये क्या हुए या उन पर कैसी बीती । बहुत खोजा, पता लगाया, कई दिन तक उस इलाके में घूमते रहे, मगर नतीजा कुछ न निकला। लाचार अफसोस करते हुए अपने घर की तरफ लौट आए ।

"अब बहुत विलम्ब हो गया, महाराज भी घबड़ा गये होंगे । (जीतसिंह की तरफ देखकर) यदि आज्ञा हो तो मैं अपनी राम-कहानी यहीं पर रोक दूं और जो कुछ बाकी है उसे कल के दरबार में बयान करूँ।"

इतना कहकर दलीपशाह चुप हो गया और महाराज का इशारा पाकर जीत-सिंह ने उसकी बात मंजूर कर ली। दरबार बर्खास्त हुआ और लोग अपने-अपने डेरे की तरफ रवाना हुए