चन्द्रकान्ता सन्तति 6/24.3

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चंद्रकांता संतति भाग 6  (1896) 
द्वारा देवकीनंदन खत्री

[ २११ ]

3

दूसरे दिन मामूली ढंग पर दरबार लगा और दलीपशाह ने इस तरह अपना हाल बयान करना शुरू किया--

"कई दिन बीत गये मगर मुझे गिरिजाकुमार का कुछ पता न लगा और न इस बात का ही खयाल हुआ कि वह भूतनाथ के कब्जे में चला गया होगा। हाँ, जब मैं गिरजाकुमार की खोज में सूरत बदल कर धूम रहा था,तब इस बात का पता लग गया कि भूतनाथ मेरे पीछे पड़ा हुआ है और दारोगा से मिलकर मुझे गिरफ्तार तरफ रवाना हुए। करा देने का बन्दोबस्त कर रहा है ।

"उस मामले के कई सप्ताह बाद एक दिन आधी रात के समय भूतनाथ पागलों [ २१२ ]की सी हालत में मेरे घर आया और उसने मेरा लड़का समझ कर अपने हाथ से खुद अपने लड़के का खून कर दिया जिसका रंज इस जिन्दगी में उसके दिल से नहीं निकल सकता और जिसका खुलासा हाल वह स्वयं अपनी जीवनी में बयान करेगा। इसी के थोड़े दिन बाद भूतनाथ की बदौलत मैं दारोगा के कब्जे में जा फंसा ।

"जब तक मैं स्वतन्त्र रहा मुझे गिरिजाकुमार का हाल कुछ भी मालूम न हुआ,जब मैं पराधीन होकर कैदखाने में गया और वहाँ गिरिजाकुमार से जिसे, भूतनाथ ने दारोगा के सुपुर्द कर दिया था, मुलाकात हुई तब गिरिजाकुमार की जुबानी सब हाल मालूम हुआ।

"भूतनाथ के कब्जे में पड़ जाने के बाद जब गिरिजाकुमार होश में आया तो उसने अपने को एक पत्थर के खंभे के साथ बँधा हुआ पाया जो किसी सुन्दर सजे हुए कमरे के बाहरी दालान में था। वह चौकन्ना होकर चारों तरफ देखने और गौर करने लगा मगर इस बात का निश्चय न कर सका कि यह मकान किसका है, हाँ शक होता था कि यह दारोगा का मकान होगा, क्योंकि अपने सामने भूतनाथ के साथ-ही-साथ बिहारीसिंह और दारोगा साहब को भी बैठे हुए देखा।

गिरिजाकुमार दारोगा, बिहारीसिंह और भूतनाथ में देर तक तरह-तरह की बातें होती रहीं और मिरिजाकुमार ने भी बातों की उलझन में उन्हें ऐसा फंसाया कि किसी तरह असल भेद का वे लोग पता न लगा सके, मगर फिर भी गिरिजाकुमार को उनके हाथों छुट्टी न मिली और वह तिलिस्म के अन्दर वाले कैदखाने में लूंस दिया गया, हाँ, उसे इस बात का विश्वास हो गया कि वास्तव में राजा गोपालसिंह मरे नहीं, बल्कि कैद कर लिए गए हैं।

"राजा गोपालसिंह के जीते रहने का हाल यद्यपि गिरिजाकुमार को मालूम हो गया मगर इसका नतीजा कुछ भी न निकला क्योंकि इस बात का पता लगाने के साथ ही ह गिरफ्तार हो गया और यह हाल किसी से भी बयान न कर सका । अगर हम लोगों में से किसी को भी मालूम हो जाता कि वास्तव में राजा गोपालसिंह जीते हैं और कैद में हैं तो हम लोग उन्हें किसी-न-किसी तरह जरूर छुड़ा ही लेते, मगर अफसोस !

"बहुत दिनों तक खोजने और पता लगाने पर भी जब गिरिजाकुमार का कुछ हाल मालूम न हुआ तब लाचार होकर मैं इन्द्रदेव के पास गया और सब हाल वयान करने के बाद मैंने इनसे सलाह पूछी कि अब क्या करना चाहिए । बहुत गौर करने के बाद इन्द्रदेव ने कहा कि मेरा दिल यही कहता है कि गिरिजाकुमार गिरफ्तार हो गया और इस समय दारोगा के कब्जे में है। इसका पता इस तरह लग सकता है कि तुम किसी तरह दारोगा को गिरफ्तार करके ले आओ और उसकी सूरत बनकर पाँच-दस दिन उसके मकान में रहो । इसी बीच में उसके नौकरों की जुबानी कुछ-न-कुछ हाल गिरिजाकुमार का जरूर मालूम हो जायगा, मगर इसमें कुछ शक नहीं कि दारोगा को गिरफ्तार करना जरा मुश्किल है।

"इन्द्रदेव की राय मुझे बहुत पसन्द आई और मैं दारोगा को गिरफ्तार करने की फिक्र में पड़ा । इन्द्रदेव से बिदा होकर मैं अर्जुनसिंह के घर गया और जो कुछ सलाह [ २१३ ]हुई थी बयान किया। इन्होंने भी यह राय पसन्द की और इस काम के लिए मेरे सा जमानिया चलने को तैयार हो गये, अतः हम दोनों आदमी भेष बदलकर घर से निक और जमानिया की तरफ रवाना हुए।

"संध्या हुआ ही चाहती थी जब हम दोनों आदमी जमानिया शहर के पास पहुँचे, उस समय सामने से दारोगा का एक सिपाही आता हुआ दिखाई पड़ा। हम लोग बहुत खुश हुए और अर्जुनसिंह ने कहा-'लो भाई सगुन तो बहुत अच्छा मिला कि शिकार सामने आ पहुँचा और चारों तरफ सन्नाटा भी छाया हुआ है। इस समय इसे जरूर गिरफ्तार करना चाहिए, इसके बाद इसी की सूरत बनकर दारोगा के पास पहुँचना और उसे धोखा देना चाहिए।'

"हम दो आदमी थे और सिपाही अकेला था, ऐसी अवस्था में किसी तरह की चालबाजी की जरूरत न थी, केवल तकरार कर लेना ही काफी था। हुज्जत और तकरार करने के लिए किसी मसाले की जरूरत नहीं पड़ती, जरा छेड़ देना ही काफी होता है । पास आने पर अर्जुनसिंह ने जान-बूझकर उसे धक्का दे दिया और वह भी दारोगा के घमंड पर फूला हम लोगों से उलझ पड़ा। आखिर हम लोगों ने उसे गिरफ्तार कर लिया और बेहोश करके वहाँ से दूर एक सन्नाटे के जंगल में ले जाकर उसकी तलाशी लेने लगे । उसके पास से भूतनाथ के नाम की एक चिट्ठी निकली जो खास दारोगा के हाथ की लिखी हुई थी और जिसमें यह लिखा हुआ था-प्यारे भूतनाथ,

कई दिनों से हम तुम्हारा इन्तजार कर रहे हैं । अब ठीक-ठीक बताओ कि कब मुलाकात होगी और कब तक काम हो जाने की उम्मीद है।'

"इस चिट्ठी को पढ़कर हम दोनों ने सलाह की कि इस आदमी को छोड़ देना चाहिए और इसके पीछे चलकर देखना चाहिए कि भूतनाथ कहाँ रहता है । उसका पता लग जाने से बहुत काम निकलेगा।

"हम दोनों ने वह चिट्ठी फिर उस आदमी की जेब में रख दी और उसे उठाकर पुनः सड़क पर लाकर डाल दिया जहां उसे गिरफ्तार किया था। इसके बाद लखलखा सुंघाकर हम दोनों दूर हटकर आड़ में खड़े हो गये और देखने लगे कि वह होश में आकर क्या करता है। उस समय रात आधी से ज्यादा जा चुकी थी।

"होश में आने के बाद आदमी ताज्जुब और तरदुद में थोड़ी देर तक इधर-उधर घूमता रहा और इसके बाद आगे की तरफ चल पड़ा। हम लोग भी आड़ देते हुए उसके पीछे-पीछे चल पड़े।

"आसमान पर सुबह की सुफेदी फैलना ही चाहती थी जब हम लोग एक घने और सुहावने जंगल में पहुँचे । थोड़ी देर तक चलकर वह आदमी एक पत्थर की चट्टान पर बैठ गया। मालूम होता था कि थक गया है और कुछ देर तक सुस्ताना चाहता है, मगर ऐसा न था। लाचार हम दोनों भी उसके पास ही आड़ देकर बैठ गये और उसी समय पेड़ों की आड़ में से कई आदमियों ने निकलकर हम दोनों को घेर लिया। उन सभी के हाथों में नंगी तलवारें और चेहरे पर नकाबें पड़ी हुई थीं। [ २१४ ]"बिना लड़े-भिड़े यों ही गिरफ्तार होकर दुःख भोगना हम लोगों को मंजूर न था, अस्तु फुर्ती से तलवार खींचकर उन लोगों के मुकाबले में खड़े हो गये । उस समय एक ने अपने चेहरे पर से नकाब उलट दी और मेरे पास आकर खड़ा हो गया। असल में वह भूतनाथ था जिसका चेहरा सुबह की सुफेदी में बहुत साफ दिखाई दे रहा था और मालूम होता था कि वह हम दोनों को देखकर मुस्कुरा रहा है।

"भूतनाथ को सूरत देखते ही हम दोनों चौंक पड़े और मुंह से निकल पड़ा'भूतनाथ' । उसी समय मेरी निगाह उस आदमी पर जा पड़ी जिसके पीछे-पीछे हम लोग वहाँ तक पहुंचे थे, देखा कि दो आदमी खड़े-खड़े उससे बातें कर रहे और हाथ के इशारे से मेरी तरफ कुछ बता रहे हैं ।

"मेरे मुंह से निकली हुई आवाज सुनकर भूतनाथ हँसा और बोला, "हाँ, मैं वास्तव में भूतनाथ हूं, और आप लोग?"

मैं--हम दोनों गरीब मुसाफिर हैं ।

भूतनाथ--(हँसकर) यद्यपि आप लोगों की तरह भूतनाथ अपनी सूरत नहीं बदला करता मगर आप लोगों को पहचानने में किसी तरह की भूल भी नहीं कर सकता।

मै--अगर ऐसा है तो आप ही बताइए कि हम लोग कौन हैं ?

भूतनाथ--आप लोग दलीपशाह और अर्जुनसिंह हैं, जिन्हें मैं कई दिनों से खोज रहा हूँ।

मैं--(ताज्जुब के साथ) ठीक है, जब आपने पहचान ही लिया तो मैं अपने को क्यों छिपाऊँ, मगर यह तो बताइये कि आप मुझे क्यों खोज रहे थे ?

भूतनाथ-—इसलिए कि मैं आपसे अपने कसूरों की माफी मांगू, आरजू नू-मिन्नत और खुशामद के साथ अपने को आपके पैरों पर डाल दूं और कहूं कि अगर जी में आवे तो अपने हाथ से मेरा सिर काट लीजिए मगर एक दफे कह दीजिए कि मैंने तेरा कसूर माफ किया।

मैं--बड़े ताज्जुब की बात है कि तुम्हारे दिल में यह बात कैसे पैदा हुई ? क्या तुम्हारी आँखें खुल गई और मालूम हो गया कि तुम बहुत बुरे रास्ते पर चल रहे हो ?

भूतनाथ जी हाँ, मुझे मालूम हो गया है और मैं समझ गया हूँ कि मैं अपने पैर में आप कुल्हाड़ी मार रहा हूँ।

मैं--बड़ी खुशी की बात है अगर तुम सच्चे दिल से कह रहे हो ।

भूतनाथ–बेशक मैं सच्चे दिल से कह रहा हूँ और अपने किये पर मुझे बड़ा अफसोस है।

मैं-भला कह तो जाओ कि तुम्हें किन-किन बातों का अफसोस है ?

भूतनाथ--सो न पूछिये, सिर से पैर तक मैं कसूरवार हो रहा हूँ। एक-दो हों तो कही जाय, कहाँ तक गिनाऊँ ?

मैं--खैर न सही, अच्छा अब यह बताओ कि मुझसे किस कसूर की माफी चाहते हो ? मेरा तो तुमने कुछ भी नहीं बिगाड़ा।

भूतनाथ--यह आपका बड़प्पन है जो आप ऐसा कहते हैं । मगर वास्तव में मैंने [ २१५ ]आपका बहुत बड़ा कसुर किया है। और बातों के अतिरिक्त मैंने आपके सामने आपरं लड़के को मार डाला है यह कहाँ का

मैं--(बात काटकर) नहीं नहीं भूतनाथ ! तुम भूलते हो, अथवा तुम्हें मालूम नहीं है कि तुमने मेरे लड़के का खून नहीं किया, बल्कि अपने लड़के का खून किया है।

भूतनाथ--(चौंककर बेचैनी के साथ) यह आप क्या कह रहे हैं ?

मैं--बेशक मैं सच ही कह रहा हूँ। इस काम में तुमने धोखा खाया और अपने लड़के को अपने हाथ से मार डाला । उन दिनों तुम्हारी स्त्री बीमार होकर मेरे यहाँ आई हुई थी और अपनी आँखों से तुम्हारी इस कार्रवाई को देख रही थी।

भूतनाथ--(घबराहट के साथ) तो क्या अब भी मेरी स्त्री आप ही के मकान में हैं ?

मैं--नहीं वह मर गई क्योंकि बीमारी में वह इस दुःख को बर्दाश्त न कर सकी।

भूतनाथ--(कुछ देर चुप रहने और सोचने के बाद) नहीं-नहीं, वह बात नहीं है । ऐसा मालूम होता है कि तुमने खुद मेरे लड़के को मारकर अपने लड़के का बदला चुकाया !

अर्जुनसिंह--नहीं-नहीं भूतनाथ, वास्तव में तुमने खद अपने लड़के को मारा है और मैं इस बात को खूब जानता हूँ।

भूतनाथ--(भारी आवाज में) खैर अगर मैंने अपने लड़के का खून किया है तब भी दलीपशाह का कसूरवार हूँ। इसके अतिरिक्त और भी कई कसूर मुझसे हुए हैं,अच्छा हुआ कि मेरी स्त्री मर गई नहीं तो उसके सामने...

मैं--मगर हरनामसिंह और कमला को ईश्वर कुशलपूर्वक रखें।

भूतनाथ--(लम्बी सांस लेकर) बेशक भूतनाथ बड़ा ही बदनसीब है।

मैं--अब भी सम्हल जाओ तो कोई चिन्ता नहीं।

भूतनाथ-–बेशक मैं अपने को सम्हालूंगा और जो कुछ आप कहेंगे वही करूंगा।अच्छा मुझे थोड़ी देर के लिए आज्ञा दीजिए तो मैं उस आदमी से दो बातें कर आऊँ जिसके पीछे आप यहाँ तक आए हैं ।

"इतना कहकर भूतनाथ उस आदमी के पास चला गया मगर उसके साथी लोग हमें घेरे खड़े ही रहे। इस समय मेरे दिल का विचित्र ही हाल था। मैं निश्चय नहीं कर सकता था कि भूतनाथ की बातें किस ढंग पर जा रही हैं और इसका नतीजा क्या होगा, तथापि मैं इस बात के लिए तैयार था कि जिस तरह भीहो सके मेहनत करके भूतनाथ को अच्छे ढर्रे पर ले जाऊँगा। मगर मैं वास्तव मैं ठगा गया और जो कुछ सोचता था वह मेरी नादानी थी।

"उस आदमी से बातचीत करने में भूतनाथ ने बहुत देर की और उसे झटपट बिदा करके वह पुनः मेरे पास आकर बोला, कम्बख्त दारोगा मुझसे चालबाजी करता है और मेरे ही हाथों से मेरे दोस्तों को गिरफ्तार कराना चाहता है।"

मैं--दारोगा बड़ा ही शैतान है और उसके फेर में पड़कर तुम बर्बाद हो जाओगे। अच्छा अब हम लोग भी बिदा होना चाहते हैं। यह बताओ कि तुमसे किस तरह की [ २१६ ]उम्मीद अपने साथ लेते जायँ?

भूतनाथ––मुझसे आप हर तरह की उम्मीद कर सकते हैं। जो आप कहेंगे मैं वही करूँगा बल्कि आपके घर चलूँगा।

मैं––अगर ऐसा करो तो मेरी खुशी का कोई ठिकाना न रहे।

भूतनाथ––बेशक मैं ऐसा ही करूँगा मगर पहले आप यह बता दें कि आपने मेरा कसूर माफ किया या नहीं?

मैं––हाँ, मैंने माफ किया।

भूतनाथ––अच्छा तो अब मेरे डेरे पर चलिये।

मैं––तुम्हारा डेरा कहाँ पर है?

भूतनाथ––यहाँ से थोड़ी ही दूर पर।

मैं––खैर, चलो मैं तैयार हूँ, मगर पहले इस बात का वायदा कर दो कि लौटते समय मेरे साथ चलोगे।

भूतनाथ––जरूर चलूँगा।

"कहकर भूतनाथ चल पड़ा हम दोनों भी उसके पीछे-पीछे रवाना हुए।

"आप लोग खयाल करते होंगे कि भूतनाथ ने हम दोनों को उसी जगह क्यों नहीं गिरफ्तार कर लिया मगर यह बात भूतनाथ के किए नहीं हो सकती थी। यद्यपि उसके साथ कई सिपाही या नौकर भी मौजूद थे मगर फिर भी वह इस बात को खूब समझता था कि इस खुले मैदान में दलीपशाह और अर्जुनसिंह को एक साथ गिरफ्तार कर लेना उसकी सामर्थ्य के बाहर है। साथ ही इसके यह भी कह देना जरूरी है कि उस समय तक भूतनाथ को इस बात की खबर न थी उसके बटुए को चुरा लेने वाला यही अर्जुनसिंह है। उस समय तक क्या बल्कि अब तक भूतनाथ को इस बात की खबर न थी। उस दिन जब स्वयं अर्जुनसिंह ने अपनी जुबान से कहा तब मालूम हुआ।

"कोस-भर से ज्यादा हम लोग भूतनाथ के पीछे-पीछे चले गये और इसके बाद एक भयानक सुनसान और उजाड़ घाटी में पहुँचे जो दो पहाड़ियों के बीच में थी। वहाँ से कुछ दूर तक घूम-घुमौवे रास्ते पर चलकर भूतनाथ के डेरे पर पहुँचे। वह एक ऐसा स्थान था जहाँ किसी मुसाफिर का पहुँचना कठिन ही नहीं, बल्कि असम्भव था। जिस खोह में भूतनाथ का डेरा था वह बहुत बड़ी और बीस-पचीस आदमियों के रहने लायक थी और वास्तव में इतने ही आदमियों साथ वह वहाँ रहता था।

"वहाँ भूतनाथ ने हन दोनों की बड़ी खातिर की और बार-बार आजिजी करता और माफी माँगता रहा। खाने-पीने का सब सामान वहाँ मौजूद था, अतः इशारा पाकर भूतनाथ के आदमियों ने तरह-तरह का खाना बनाना आरम्भ कर दिया और कई आदमी नहाने-धोने का सामान दुरुस्त करने लगे।"

"हम दोनों बहुत प्रसन्न थे और समझते थे कि अब भूतनाथ ठीक रास्ते पर आ जायेगा, अतः हम लोग जब तक संध्या-पूजन से निश्चिन्त हुए, तव तक भोजन भी तैयार हुआ और से।फिक्री के साथ हम तीनों आदमियों ने एक साथ भोजन किया। इसके बाद निश्चिन्ती से बैठकर बातचीत करने लगे। [ २१७ ]भूतनाथ––दिलीपशाह, मुझे इस बात का दुःख है कि मेरी स्त्री का देहान्त हो गया और मेरे हाथ से एक बहुत ही बुरा काम हो गया

मैं––बेशक, अफसोस की जगह है, मगर खैर, जो कुछ होना था हो गया, अब तुम घर पर चलो और नेकनीयती के साथ दुनिया में काम करों।

भूतनाथ––ठीक है, मगर मैं यह सोचता हूँ कि अब घर पर जाने से फायदा ही क्या है? मेरी स्त्रो मर गई और अब दूसरी शादी मैं कर ही नहीं सकता, फिर किस सुख के लिए शहर में चलकर बसूँ?

मैं––हरनामसिंह और कमला का भी तो कुछ खयाल करना चाहिये। इसके अतिरिक्त क्या विधुर लोग शहर में रहकर नेकनीयती के साथ रोजगार नहीं करते?

भूतनाथ––कमला और हरनामसिंह होशियार हैं और एक अच्छे रईस के यहाँ परवरिश पा रहे हैं, इसके अतिरिक्त किशोरी उन दोनों की ही सहायक है, अतएव उनके लिए मुझे किसी तरह की चिन्ता नहीं है। बाकी रही आपकी दूसरी बात, उसका जवाब यह हो सकता है कि शहर में नेकनीयती के साथ अब मैं कर ही क्या सकता हूँ, क्योंकि मैं तो किसी को मुँह दिखलाने लायक ही नहीं रहा। एक दयाराम वाली वारदात ने मुझे बेकाम कर ही दिया था, दूसरे इस लड़के के खून ने मुझे और भी बर्बाद और बेकाम कर दिया। अब मैं कौन-सा मुँह लेकर भले आदमियों में बैठूँगा?

मैं––ठीक है, मगर इन दोनों मामलों की खबर हम लोग या दो-तीन खास-खास आदमियों के सिवाय और किसी को नहीं है और हम लोग तुम्हारे साथ कदापि बुराई नहीं कर सकते।

भूतनाथ––तुम्हारी इन बातों पर मुझे विश्वास नहीं हो सकता, क्योंकि मैं इस बात को खूब जानता हूँ कि आजकल तुम मेरे साथ दुश्मनी का बर्ताव कर रहे हो और मुझे दारोगा के हाथ में फँसाना चाहते हो, ऐसी अवस्था में तुमने मेरा भेद जरूर कई आदमियों से कह दिया होगा।

मैं––नहीं भूतनाथ, यह तुम्हारी भूल है कि तुम ऐसा सोच रहे हो! मैंने तुम्हारा भेद किसी को नहीं कहा और न मैं तुम्हें दारोगा के हवाले करना चाहता हूँ। बेशक, दारोगा ने मुझे इस काम के लिए लिखा था, मगर मैंने इस बारे में उसे धोखा दिया। दारोगा के हाथ की लिखी चिट्ठियाँ मेरे पास मौजूद हैं, घर चलकर मैं तुम्हें दिखाऊँगा, और उनसे तुम्हें मेरी बातों का पूरा सबूत मिल जायेगा।

"इसी समय बात करते-करते मुझे कुछ नशा गालूम हुआ और मेरे दिल में एक प्रकार का खुटका हो गया। मैंने घूमकर अर्जुनसिंह की तरफ देखा तो उनको भी आँखें लाल अंगारे की तरह दिखाई पड़ीं। उसी समय भूतनाथ मेरे पास से उठकर दूर जा बैठा गौर बोला––

भूतनाथ––जब मैं तुम्हारे घर जाऊँगा, तब मुझे इस बात का सबूत मिलेगा, मगर मैं इसी समय तुम्हें इस बात का सबूत दे सकता हूँ कि तुम मेरे साथ दुश्मनी कर रहे हो।

"इतना कहकर भूतनाथ ने अपनी जेब से निकालकर मेरे हाथ की लिखी वे [ २१८ ]चिट्ठियाँ मेरे सामने फेंक दीं, जो मैंने दारोगा को लिखी थीं और जिनमें भूतनाथ के गिरफ्तार करा देने का वादा किया था।"

"मैं सरकार में बयान कर चुका हूँ, कि उस समय दारोगा से इस ढंग का पत्र-व्यवहार करने से मेरा मतलब क्या था और मैंने भूतनाथ को दिखाने के लिए दारोगा के हाथ की चिट्ठियाँ बटोरकर किस तरह दारोगा से साफ इनकार कर दिया था, मगर उस मौके पर मेरे पास वे चिट्ठियाँ मौजूद न थीं कि मैं उन्हें भूतनाथ को दिखाता और भूतनाथ के पास वे चिट्ठियाँ मौजूद थीं जो दारोगा ने उसे दी थीं और जिनके सबब से दारोगा का मन्त्र चला था।" अतः उन चिट्ठियों को देखकर मैंने भूतनाथ से कहा––

मैं––हाँ-हाँ, इन चिट्ठियों को मैं जानता हूँ और बेशक ये मेरे हाथ की लिखी हुई हैं, मगर मेरे इस लिखने का मतलब क्या था और इन चिट्ठियों से मैंने क्या काम निकाला सो तुम्हें मालूम नहीं हो सकता, जब तक कि बस, दारोगा के हाथ की लिखी हुई चिट्टियाँ तुम न पढ़ लो, जो मेरे पास मौजूद हैं।

भूतनाथ––(मुस्कराकर) बस-बस-बस, ये सब धोखेबाजी के ढर्रे रहने दीजिए। भूतनाथ से यह चालाकी न चलेगी, सच तो यह है कि मैं खुद कई दिनों से तुम्हारी खोज में हूँ। इत्तिफाक से तुम स्वयं मेरे पंजे में आकर फँस गये और अब किसी तरह नहीं निकल सकते। उस जंगल में मैं तुम दोनों को काबू में नहीं कर सकता था, इसलिए सब्जबाग दिखाता हुआ यहाँ तक ले आया और भोजन में बेहोशी की दवा खिलाकर बेकाम कर दिया। अब तुम लोग मेरा कुछ भी नहीं कर सकते। समझ लो कि तुम दोनों जहन्नुम में भेजे जाओगे, जहाँ से लौटकर आना मुश्किल है।

"भूतनाथ की ऐसी बातें सुनकर हम दोनों को क्रोध चढ़ आया, मगर उठने की कोशिश करने पर कुछ भी न कर सके, क्योंकि नशे का पूरा-पूरा असर हो गया था और तमाम बदन में कमजोरी आ गई थी।"

"थोड़ी ही देर बाद हम लोग बेहोश हो गये और तन-बदन की सुध न रही। जब आँखें खुलीं, तो अपने को दारोगा के मकान में कैद पाया और सामने दारोगा जयपाल हरनामसिंह और बिहारीसिंह को बैठे हुए देखा। रात का समय था और मेरे हाथ-पैर एक खम्भे के साथ बंधे हुए थे। अर्जुनसिंह न मालूम कहाँ थे और उन पर न जाने क्या बीत रही थी।"

"दारोगा ने मुझसे कहा––कहो, दिलीपशाह, तुमने तो मुझ पर बड़ा भारी जाल फैलाया था, मगर नतीजा कुछ नहीं निकला।"

मैं––मैंने क्या जाल फैलाया था?

दारोगा––क्या इसके कहने की भी जरूरत है? नहीं, बस, इस समय हम इतना ही कहेंगे कि तुम्हारा शागिर्द हमारी कैद में है और तुमने मेरे लिए जो कुछ किया है, उसका हाल हम उसकी जुबानी सुन चुके हैं। अब अगर वह चिट्ठी मुझे दे दो जो गोपालसिंह के बारे में मनोरमा का नाम लेकर जबरदस्ती मुझसे लिखवाई गई थी तो मैं तुम्हारा सब कसूर माफ कर दूँ।

मैं––मेरी समझ में नहीं आता आप किस चिट्ठी के बारे में मुझसे कह रहे हैं। [ २१९ ]दारोगा--(चिढ़कर) ठीक है, मैं पहले ही समझे हुए था कि तुम बिना लात खाये नाकं पर मक्खी. नहीं बैठने दोगे । खैर, देखो, मैं तुम्हारी क्या दुर्दशा करता हूँ।

"इतना कहकर दारोगा ने मुझे सताना शुरू किया। मैं नहीं कह सकता कि इसने मुझे किस-किस तरह की तकलीफें दी और सो भी एक-दो दि तक नहीं, बल्कि महीने भर तक, इसके बाद बेहोश करके मुझे तिलिस्म के अन्दर पहुंचा दिया। जब मैं होश में आया तो अपने सामने अर्जुनसिंह और गिरिजाकुमार को बैठे हुए पाया। बस, यही तो मेरा किस्सा है और यही मेरा बयान !"

दिलीपशाह का हाल सुनकर सबको बड़ा ही दुःख हुआ और सभी कोई लाल-लाल आँखें करके दारोगा तथा जयपाल वगैरह की तरफ देखने लगे। दरबार बर्खास्त करने का इशारा करके महाराज उठ खड़े हुए, कैदी जेलखाने में भेज दिए गए और बाकी सब अपने डेरों की तरफ रवाना हुए।