तितली/1.8

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तितली - उपन्यास - जयशंकर प्रसाद  (1934) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद

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इन्द्रदेव की कचहरी में आज कुछ असाधारण उत्तेजना थी । चिकों के भीतर स्त्रियों का समूह, बाहर पास - पड़ोस के देहातियों का जमाव था । शैला भी अपनी कुर्सी पर अलग बैठी थीं । बनजरिया वाले बाबाजी अपनी कहानी सुनाने वाले थे, क्योंकि गोभी के लिए उसमें खेत बन गया था । उसी को लेकर तहसीलदार ने इन्द्रदेव को समझाया कि बनजरिया में बोने - जोतने का खेत है। उस पर एकरेज — या और भी जो कुछ कानून के वैध उपायों से देन लगाया जा सकता हो — लगाना ही चाहिए । और, इस बाबा को तो यहां से हटाना ही । होगा ; क्योंकि गांव के लोग इससे तंग आ गए हैं । यहसमाजी है, लडुकों को न जाने क्या क्या सिखाता है — ऊंची जाति के लड़के हल चलाने लगे हैं । नीचों को बराबर कलकत्ता बंबई कमाने जाने के लिए उकसाया करता है । इसके कारण लोगों को हलवाहों और मजूरों का मिलना असंभव हो गया है । तिस पर भी यह बनजरिया देवनन्दन के नाम की है। वह मर गया , अब लावारिस कानून के अनुसार यह जमींदार की है — इत्यादि । इन्द्रदेव ने सब सुनकर कहा कि बुड्ढे की बात भी सुन लेनी चाहिए । उससे कह भी दिया गया है। उसको बुलवाया जाए । आज इसीलिए रामनाथ आए हैं , और साथ में लिवाते आए हैं तितली को । तितली इस जन - समूह में संकुचित - सी एक खंभे की आड़ में आधी छिपी हुई बैठी है । इन्द्रदेव का संकेत पाकर रामनाथ ने कहना आरंभ किया बार्टली साहब की नील - कोठी टूट चुकी थी । नील का काम बंद हो चला था । जैसा [ ३६ ]आज भी दिखाई देता है, तब भी उस गोदाम के हौज और पक्की नालियां अपना खाली मुंह खोले पड़ी रहती थीं , जिससे नीम की छाया में गाएं बैठकर विश्राम लेती थीं । पर बार्टली साहब को वह ऊंचे टीले का बंगला, जिसके नीचे बड़ा - सा ताल था , बहुत ही पसंद था । नील गोदाम बंद हो जाने पर भी उनका बहुत - सा रुपया दादनी में फंसा था । किसानों को नील बोना तो बंद कर देना पड़ा , पर रुपया देना ही पड़ता। अन्न की खेती से उतना रुपया कहां निकलता , इसलिए आस- पास के किसानों में बड़ी हलचल मची थी । बार्टली के किसान - आसामियों में एक देवनन्दन भी थे। मैं उनका आश्रित ब्राह्मण था । मुझे अन्न मिलता था और मैं काशी में जाकर पढ़ता था । काशी की उन दिनों की पंडित मंडली में स्वामी दयानन्द के आ जाने से हलचल मची हुई थी । दुर्गाकुंड के उस शास्त्रार्थ में मैं भी अपने गुरुजी के साथ दर्शक - रूप से था ; जिसमें स्वामीजी के साथ बनारसी चाल चली गई थी । ताली तो मैंने भी पीट दी थी । मैं क्वीन्स कॉलेज के एग्लो - संस्कृत -विभाग में पढ़ता था । मुझे वह नाटक अच्छा न लगा । उस निर्भीक संन्यासी की ओर मेरा मन आकर्षित हो गया । वहां से लौटकर गुरुजी से मेरी कहा - सुनी हो गई , और जब मैं स्वामीजी का पक्ष समर्थन करने लगा, तो गुरुजी ने मुझे नास्तिक कहकर फटकारा । देवनन्दन का पत्र भी मुझे मिल चुका था कि कई कारणों से अन्न देना वह बंद करते हैं । मैं अपनी गठरी पीठ पर लादे हुए झुंझलाहट से भरा नील -गोदाम के नीचे से अपने गांव में लौटा जा रहा था । देखा कि देवनन्दन को नील कोठी का पियादा काले खां पकड़े हुए ले जा रहा है । देवनन्दन सिंहपुर के प्रमुख किसान और आप ही लोगों के जाति -बांधव थे। उनकी यह दशा ! रोम - रोम उनके अन्न से पला था । मैं भी उनके साथ बार्टली के सामने जा पहुंचा। _ उस समय कुर्सियों पर बैठे हुए बार्टली और उनकी बहन जेन आपस में कुछ बातें कर रहे थे। जेन ने कहा — भाई! इधर जब से वह चले गए हैं , मेरी चिंता बढ़ रही है । न जाने क्यों , मुझे उन पर संदेह होने लगा है। मैं भी घर जाना चाहती हूं । तुम जानती हो कि मैंने स्मिथ का कभी अपमान नहीं किया , और सच तो यह है कि मैं उसको प्यार करता हूं। किंतु क्या करूं , उसका जैसा उग्र स्वभाव है, वह तो तुम जानती हो । मैं भला अभी काम छोड़कर कैसे चलूंगा! - बार्टली ने कहा । जब यह काम ही बंद हो गया , तब यहां रहने का क्या काम है। देखती हूं कि जो रुपया तुम्हारा निकल भी आता है, उसे यहां जमींदारी में फंसाते जा रहे हो । क्या तुम यहीं बसना चाहते हो ? — जेन ने कहा । तब तुम क्या चाहती हो । — बार्टली ने अन्यमनस्क भाव से पूर्व की धीरे - धीरे सूखने वाली झील को देखते हुए कहा । नील का काम बंद हो गया , पर अब हम लोगों को रुपए की कमी नहीं। जो कुछ हो , यहां से बेचकर इंग्लैंड लौट चलें । मेरा प्रसव- काल समीप है । मैं गांव के घर में ही जाकर रहना चाहती हूं । समझा न ? — जेन ने सरलता से कहा। इतनी जल्दी! असंभव, अभी बहुत रुपया बाकी पड़ा है। ठहरो, मैं पहले इन लोगों से बात कर लूं । — बार्टली ने रूखे स्वर से कहा । देवनन्दन ने सलाम करते हुए कुछ कहना चाहा कि बीच ही में बात काटकर काले खां [ ३७ ]________________

ने कहा—सरकार, बहुत कहने पर यह आया है। देवनन्दन ने रोष-भरे नेत्रों से काले को देखा। बार्टली ने कहा—रुपया देते हो कि तुम्हारा दूसरा... जेन उठकर जाने लगी थी। बीच ही में देवनन्दन ने उसे हाथ जोड़ते हुए कहा- मेरी स्त्री को लड़का होने वाला है, और लड़की... जेन आगे न सुन सकी। उसने कहा—बार्टली, जाने दो उसे, उसकी स्त्री का... ___ तुम चलो चाय के कमरे में, मैं अभी आता हूं।—कहते हुए बार्टली ने जेन को तीखी आखों से देखा। दुखी होकर जेन चली गई। देवनन्दन की कोई विनती नहीं सुनी गई! बार्टली ने कहा—काले खां, इसको यहीं कोठरी में बंद करो और तीन घंटे में रुपए न मिलें, तो बीस हंटर लगाकर तब मुझसे कहना। बार्टली की ठोकर से जब देवनन्दन पृथ्वी चूमने लगा, तब वह चाय पीने चला गया। मेरे हृदय में वह देवनन्दन का अपमान घाव कर गया। मैं अब तक तो केवल वह दृश्य देख रहा था। किंतु क्षण-भर में मैंने अपना कर्तव्य निर्धारित कर लिया। मैंने कहा—काले खां, भूलना मत, मेरा नाम है रामनाथ। आज तुमने यदि देवनन्दन को मारा-पीटा, तो मैं तुम्हें जीता न छोडूंगा। मैं रुपए ले आता हूं। क्रोध और आवेश में कहने को तो मैं यह कहकर गांव में चला आया: पर रुपए कहां से आते! मैं उन्हीं के पट्टीदार के पास पहुंचा; पर सूद का मोल-भाव होने लगा। उनकी स्थावर संपत्ति पर्याप्त न थी। हिंदुओं में परस्पर तनिक भी सहानुभूति नहीं! मैं जल उठा। मनुष्य, मनुष्य के दुख-सुख से सौदा करने लगता है और उसका मापदंड बन जाता है रुपया। मैंने कहा—अच्छा, अच्छा, धामपुर में मेरी कृष्णार्पण माफी है, उसे भी मैं रेहन कर दूंगा। तहसीलदार साहब ने कहा कि इस बनजरिया के नंबर पर पहले देवनन्दन का नाम था, सो ठीक है। मैंने ही उसके संबंध में रेहन करके फिर इसी माफी को देवनन्दन के नाम बेच दिया। अब मेरे मन में गांव से घोर धृणा हो गई थी। मैं भ्रमण के लिए निकला। गांव पर मेरे लिए कोई बंधन नहीं रह गया। तीर्थों, नगरों और पहाड़ों में मैं घूमता था और गली, चौमुहानी, कुओं पर, तालाबों और घाटों के किनारे, मैं व्याख्यान देने लगा। मेरा विषय था हिंद-जाति का उदबोधन। मैं प्रायः उनकी धनलिप्सा: गह-प्रेम और छोटे-से-छोटे हिंद गृहस्थ की राजमनोवृत्ति की निंदा किया करता! आप देखते नहीं कि हिंदू की छोटी-सी गृहस्थी में कड़ा-करकट तक जुटा रखने की चाल है, और उन पर प्राण से बढ़कर मोह! दसपांच गहने, दो-चार बर्तन, उनको बीसों बार बंधक करना और घर में कलह करना, यही हिंदू-घरों में आए दिन के दृश्य हैं। जीवन का जैसे कोई लक्ष्य नहीं! पद-दलित रहते-रहते उनकी सामूहिक चेतना जैसे नष्ट हो गई है। अन्य जाति के लोग मिट्टी या चीनी के बरतन में उत्तम स्निग्ध भोजन करते हैं। हिंदू चांदी की थाली में भी सतू घोलकर पीता है। मेरी कटुता उत्तेजित हो जाती, तो और भी इसी तरह की बातें बकता। कभी तो पैसे मिलते और कहींकहीं धक्के भी। पर मेरे लिए दूसरा काम नहीं। इसी धुन में मैं कितने बरसों तक घूमता रहा। नर्मदा के तट से घूमकर मैं उज्जैन जा रहा था। अकस्मात् बिना किसी स्टेशन के गाड़ी खड़ी हो गई। मैंने पूछा-क्या है? [ ३८ ]________________

साथ के यात्री लोग भी चकित थे। इतने में रेल के गार्ड ने कहा-भुखमरों की भीड़ रेलवे-लाइन पर खड़ी है। मैं गाड़ी से उतरकर वह भीषण दृश्य देखने लगा। संसार का नग्न चित्र, जिसमें पीड़ा का, दुःख का, तांडव नृत्य था। बिना वस्त्र के सैकड़ों नर-कंकाल, इंजिन के सामने लाइन पर खड़े-खड़े और गिरे हए, मुत्य की आशा में टक लगाए थे। मैं रो उठा। मेरे हृदय में अभाव की भीषणता, जो चिनगारी के रूप में थी, अब ज्वाला-सी धधकने लगी। चतुर गार्ड ने झोली में चंदा के पैसे एकत्र करके कंगलों में बांट दिया और वे समीप के बाजार की ओर दौड़ पड़े। हां, दौड़े। उन अभागों को अन्न की आशा ने बल दिया। वे गिरतेपड़ते चले। मैं भी चला। उनके पीछे-पीछे यह देखते जाता था कि पेड़ों में पत्तियां नहीं बची हैं। टिड्डियां भी इस तरह उन्हें नहीं खा सकतीं; वे तो नस छोड़ देती हैं। मैंने देखा कि वे भुखमरे बाजार में घुसे; किंतु मैं नहीं जा सका। बाजार के बाहर ही एक वृक्ष के बिना पत्तों वाली डालों के नीचे एक व्यक्ति पड़ा हुआ अपना हाथ मुंह तक ले जाता है और उसे चाटकर हटा लेता है। पास ही एक छोटा-सा जीव और भी निस्तब्ध पड़ा है। मैं दौड़कर अपने लोटे में दूध मोल ले आया। उसके गले में धीरे-धीरे टपकाने लगा। वह आख खोलकर पास ही पड़े हुए शिशु को देखने लगा। शिशु की ओर मेरा ध्यान नहीं गया था। मैं उसे दूध पिलाने लगा। कहकर बुड्ढा रामनाथ एक बार ठहर गया। उसने चारों ओर देखकर अपनी आखों को उस खंभे की आड़ में ठहरा दिया, जहां तितली बैठी थी। शैला रूमाल से अपनी औखें पोंछ रही थी, और सुनने वाली जनता चुपचाप स्तब्ध थी। बुड्ढे ने फिर कहना आरंभ किया—आप लोगों को कष्ट होता है। दुख और दर्द की कहानी सुनाकर मैंने अवश्य आप लोगों का समय नष्ट किया। किंतु करता क्या! अच्छा, जाने दीजिए, मैं अब बहुत संक्षेप में कहता हूं हां, तो वह व्यक्ति थे देवनन्दन जिनकी समस्त भू-संपत्ति नीलाम हो गई। धूर-धूर बिक गई। दो संतानों का शरीरांत हो गया। तब उस बची हुई कन्या को लेकर स्त्री के साथ वह परदेश में भीख मांगने चले थे। उस अभागे को नहीं मालूम था कि वह किधर जा रहा था। उस समय अकाल था। कौन भीख देता? जिनके पास रुपया था, उन्हें अपनी चिंता थी। अस्तु, कुलीन वंश की सुकुमारी कुलवधू अधिक कष्ट न सह सकी, वह मर गई। तब देवनन्दन इस शिशु को लेकर घूमने लगे। वह भी मुमूर्ष हो रहा था। उन्होंने बड़े कष्ट से मुझे पहचानकर केवल इतना कहा—रामनाथ, मैंने सब कुछ बेच दिया; पर तुम्हारा धामपुर का खेत नहीं बेचा है, और यह तितली तुम्हारी शरण में है। मैं तो चला। हां, वह चल बसे। मैंने तितली को गोद में उठा लिया। आगे बुड्ढा कुछ न कह सका; क्योंकि तितली सचमुच चीत्कार करती हुई मुर्छित हो गई थी और शैला उसके पास पहुंचकर उसे प्रफुल्लित करने में लग गई थी। [ ३९ ]________________

इन्द्रदेव आराम कुर्सी पर लेट गए थे, और सुनने वाले धीरे-धीरे खिसकने लगे।