तितली/4.4

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तितली - उपन्यास - जयशंकर प्रसाद  (1934) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद
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4.

जेल का जीवन बिताते मधुबन को कितने बरस हो गए हैं। वह अब भावना-शून्य होकर उस ऊंची दीवार की लाल-लाल ईंटों को देखकर उसकी ओर से आंखें फिरा लेता है। बाहर भी कुछ है या नहीं, इसका उसके मन में कभी विचार नहीं होता। हां, एक कुत्सित चित्र उसके दृश्य-पट में कभी-कभी स्वयं उपस्थित होकर उसकी समाधि में विक्षोभ डाल देता था। वह मलिन चित्र था मैना का! उसका स्मरण होते ही मधुबन की मुट्ठियां बंध जातीं। वह कृतप्न हृदय! कितनी स्वार्थी है! उसको यदि एक बार शिक्षा दे सकता!

जंगले में से बैठे-बैठे, सामने की मौलसिरी के पेड़ पर बैठे हुए पक्षियों को चारा बांट कर खाते हुए वह देख रहा था। उसके मन में आज बड़ी करुणा थी। वह अपने अपराध पर आज स्वयं विचार कर रहा था।—यदि मेरे मन में मैना के प्रति थोड़ा-सा भी स्निग्ध भाव न होता, तो क्या घटना की धरा ऐसी ही चल सकती थी! यही तो मेरा एक अपराध है। तो क्या इतना-सा विचलन भी मानवता का ढोंग करने वाला निर्मम संसार या क्रूर नियति नहीं सहन कर सकती? वह अपेक्षा करने के योग्य साधारण-सी बात नहीं थी क्या? मेरे सामने कैसे उच्च आदर्श थे! कैसे उत्साहपूर्ण भविष्य का उज्ज्वल चित्र मैं खींचता था! वह सब सपना हो गया, रह गई यह भीषण बेगारी। परिश्रम से तो मैं कभी डरता न था। तब क्या रामदीन के नोटों का झिटक

लेना मेरे लिए घातक सिद्ध हआ? हां वह भी कछ है तो मैंने क्यों उसे फेंक देने के लिए कहा। और कहता भी कैसे। मैंने तो स्वयं महन्त की शैली ले ली थी। हे भगवान्! मेरे बहुत-से अपराध हैं। मैं तो केवल एक की ही गिनती कर सकता था। सब जैसे साकार रूप धारण करके मेरे सामने उपस्थित हैं। हां, मुझे प्रमाद हो गया था। मैंने अपने मन को निर्विकार समझ लिया था। यह सब उसी का दण्ड है। उसकी आंखों से पश्चाताप के आंसू बहने लगे। वह घंटों अपनी काल-कोठरी में चुपचाप जंगले से टिका हुआ आंसू बहाता रहा। उसे कछ झपकी-सी लग गई। स्वप्न में तितली का शांतिपूर्ण मखमंडल दिखाई पड़ा। वह दिव्य ज्योति से भरा था। जैसे उसके मन में आशा का संचार हुआ। उसका हृदय एक बार उत्साह से पर गया। उसने आंखे खोल दीं। फिर उसके मन में विकार उत्पन्न हुआ। ग्लानि से उसका मन भर गया। उसे जैसे अपने-आप से घृणा होने लगी—क्या तितली मुझसे स्नेह करेगी? मुझ अपराधी से उसका वही संबंध फिर स्थापित हो सकेगा? मैंने उसका ही यदि स्मरण किया होता—जीवन के शून्य अंश को उसी के प्रेम से, केवल उसकी पवित्रता से, भर लिया होता-तो आज यह दिन मुझे न देखना पड़ता। किंतु क्या वही तितली होगी? अब भी वैसी ही पवित्र! इस नीच संसार में, जहां पग-पग प्रलोभन है, खाई है, आनन्द की—सुख की लालसा है। क्या वह वैसी ही बनी होगी?

जंगले के द्वार पर कुछ खड़खड़ाहट हुई। प्रधान कर्मचारी ने भीतर आकर कहा- मधुबन, तुम्हारे अच्छे चाल-चलन से संतुष्ट होकर तुमको दो बरस की छट मिली है। तुम छोड़ दिए गए।

मधुबन ने अवाक् होकर कर्मचारी को देखा। वह उठ खड़ा हुआ। बेड़िया झनझना उठीं। उसे आश्चर्य हुआ अपने शघ्रि छूटने पर। वह अभी विश्वास नहीं कर सका था। उसने [ १५० ]पूछा तो मैं छूट कर क्या करूंगा।

फिर डाके न डालना, और जो चाहे करना।—कहकर वह कोठरी के बाहर हो गया। मधुबन भी निकल गया। फाटक पर उसका पुराना कोट और कुछ पैसे मिले। उस कोट को देखते ही जैसे उसके सामने आठ बरस पहले की घटना का चित्र खिंच गया। वह उसे उठाकर पहन न सका। और पैसे? उन्हें कैसे छोड़ सकता था। उसने लौटकर देखा तो जेल का जंगलेदार फाटक बंद हो गया था। उसके सामने खुला संसार एक विस्तृत कारागार के सदृश झांय-झांय कर रहा था।

उसकी हताश आंखों के सामने उस उजले दिन में भी चारों ओर अंधेरा था। जैसे संध्या चारों ओर से घिरती चली आ रही थी। जीवन के विश्राम के लिए शीतल छाया की आवश्यकता थी। किंतु वह जेल से छूटा हुआ अपराधी! उसे कौन आश्रय देगा? वह धीरेधीरे बीरू बाबू के अड्डे की ओर बढ़ा। किंतु वहां जाकर उसने देखा कि घर में ताला बंद है। वह उन पैसों से कुछ पूरियां लेकर पानी की कल के पास बैठकर खा ही रहा था कि एक अपरिचित व्यक्ति ने पुकारा मधुबन!

उसने पहचानने की चेष्टा की; किंतु वह असफल रहा। फिर उदास भाव से उसने पूछा—क्या है भाई, तुम कौन हो?

अरे! तुम ननीगोपाल को मूल गए क्या? बीरू बाबू के साथ!

अरे हां ननी तुम हो? मैं तो पहचान ही न सका। इस साहबी ठाट में कौन तुमको ननीगोपाल कहकर पुकारेगा? कहो बीरू बाबू कहां हैं?

क्या फिर रिक्शा खींचने का मन है? बीरू बाबू तो बड़े घर की हवा खा रहे हैं। उनका परोपकार का संघ पूरा जाल था। उन्होंने भर पेट पैसा कमाकर अपनी प्रियतमा मालती दासी का संदूक भर दिया। फिर क्या, लगे गुलछर्रे उड़ाने एक दिन मालती दासी से उनकी कुछ अनबन हुई। वह मार-पीट कर बैठे। उस दिन वह मदिरा में उन्मत्त थे। तुम आश्चर्य करोगे न? हां वही बीरू जो हम लोगों को कभी अच्छी साक-भाजी भी न खाने का, सादा भोजन करने का उपदेश देते थे; मालती के संग में भारी पियक्कड़ बन गए! दूसरों को सदुपदेश देने में मनुष्य बड़े चतुर होते हैं। हां तो वह उसी मार-पीट के कारण जेल भेज दिए गए हैं!

अच्छा भाई! तुम क्या करते हो?—मधुबन ने जल के सहारे बासी और सूखी पूरियां गले में ठेलते हुए पूछा।

तुम्हारे लिए बीरू से एक बार फिर लड़ाई हुई। मैंने उनसे जाकर कहा कि मधुबन के मुकदमे में कोई वकील खड़ा कीजिए। इतना रुपया उसने छाती का हाड़ तोड़कर अपने लिए कमाया है। उन्होंने कहा, मुझसे चोरों-डकैतों का कोई संबंध नहीं! मैं भी दूसरी जगह नौकरी करने लगा।

कहां काम करते हो ननी कोई नौकरी मुझे भी दिला सकोगे?

नौकरी की तो अभी नहीं कह सकता। हां, तुम चाहो तो मेरे साबुन के कारखाने की दूकान हरिहरक्षेत्र के मेले में जा रही है, मेरे साथ वहां चल सकते हो। फिर वहां से लौटने पर देखा जाएगा। पर भाई वहां भी कोई गड़बड़ न कर बैठना।

तो क्या तुमको विश्वास है कि मैंने उस पियक्कड़ को लूटा था और रिक्शा से घसीटकर [ १५१ ]पीटा भी था?

मधुबन उत्तेजित हो उठा। उसने फिर कहा—तो भाई तुम मुझे न लिवा जाओ। यह लो तुम तो बिगड़ गए। अरे मैंने तो हंसी की थी। लो वह मेरा सामान भी आ गया। चलो तुम भी, पर ऐसे नंगधडंग कहां चलोगे! पहले एक कुरता तो तुम्हें पहना दूं। अच्छा लारी पर बैठकर चलो हबड़ा, मैं करता लिये आता है।

ननी ने सामान से लदी हुई लारी पर उसे बैठा दिया।

मधुबन नियति के अंधड़ में उड़ते हुए सूखे पत्ते की तरह निरुपाय था। उसके पास स्वतत्रं रूप से अपना पथ निर्धारित करने के लिए कोई साधन न था। वह जेल से छूटकर हरिहरक्षेत्र चला।

कई कोस का वह मेला न जाने भारतवर्ष के किस अतीत के प्रसन्न युग का स्मरणचिन्ह है। सम्भव है, मगध के साम्राज्य की वह कभी प्रदर्शनी रहा हो। किंतु आज भी उसमें क्या नहीं बिकता। लोग तो यहां तक कहते हैं कि अब इस युग में भी वहां भूत-प्रेत बिकते

मधुबन ने अपनी दाढ़ी नहीं बनवाई थी। उसके बाल भी वैसे ही बढ़े थे। वह दूकान की चौकीदारी पर नियुक्त था।

साबुन की दुकान सजी थी। मधुबन मोटा-सा डंडा लिये एक तिपाई पर बैठा रहता। वह केवल ननी से ही बोलता। उसका स्वभाव शांत हो गया था, या अत्यधिक क्रुद्ध, यह नहीं ज्ञात होता था। ननी के बहुत कहने-सुनने पर एक दिन वह गंगा-स्नान करने गया। वहां से लौटकर हाथियों के झुंडों को देखता हुआ वह धीरे-धीरे आ रहा था।

वहां उसने दो-तीन बड़े सुंदर हाथी के बच्चों को खेलते हुए देखा। वह अनमना-सा होकर मेले में घूमने लगा। मनुष्य के बच्चे भी कितने सुंदर होते होंगे जब पशुओं के ऐसे आकर्षक हैं। यही सोचते-सोचते उसे अपनी गृहस्थी का स्मरण हो आया। उड़ती हुई रेत में वह धूसरित होकर उन्मत्त की तरह पालकी, घोड़े, बैल, ऊंट और गायों की पंक्ति को देखता रहा। देखता था, पर उसकी समझ में यह बात नहीं आती थी कि मनुष्य क्यों अपने लिए इतना संसार जुटाता है। वह सोचने के लिए मस्तिष्क पर बोझ डालता था, फिर विरक्त हो जाता था। केवल घूमने के लिए वह घूमता रहा।

संध्या हो आई। दूकानों पर आलोक-माला जगमगा उठी। डेरों में नृत्य होने लगा। गाने की एक मधुर तान उसके कानों में पड़ी। वह बहुत दिनों पर ऐसा गाना सुन सका था। डेरे के बहुत-से लोग खड़े थे। वह भी जाकर खड़ा हो गया।

मैना ही तो है, वही...अरे कितना मादक स्वर है।

एक मनचले ने कहा—वाह, महंतजी बड़े आनन्दी पुरुष हैं।

मधुबन ने पूछा-कौन महंतजी?

धामपुर के महंत को तुम नहीं जानते? अभी कल ही तो उन्होंने तीन हाथी खरीदे हैं। राजा साहब मुंह देखते रह गए। हजार-हजार रुपये दाम बढ़ाकर लगा दिया। राजसी ठाट है। एक-से-एक पंडित और गवैये उनके साथ हैं। यह मैना भी तो उन्हीं के साथ आई है। लोग कहते हैं, वह सिद्ध महात्मा है। जिधर आंख उठा दे, लक्ष्मी बरस पड़े। मधुबन को थप्पड़-सा लगा। मैना और महन्त। तब वह यहां क्यों खड़ा है? उस बड़े-से-डेरे के दूसरी ओर वह चला। [ १५२ ] आस-पास छोटी-छोटी छोलदारियां खड़ी थीं। मधुबन उन्हीं में घूमने लगा। वह अपने हृदय को दबाना चाहता था। पर विवश होकर जैसे उस डेरे के आस-पास चक्कर काटने लगा।

इतने में एक दूसरा परिचित कंठस्वर सुनाई पड़ा। हां, चौबे ही तो थे। किसी से कह रहे थे। तहसीलदार साहब! महंतजी से जाकर कहिए कि पूजा का समय हो गया। ठाकुरजी के पास भी आवें। मैना तो कहीं जा नहीं रही है।

मरे महंतजी, यह जितना ही बूढ़ा होता जा रहा है उतना ही पागल होने लगा है। रुपया बरस रहा है, और कोई रोकने वाला नहीं। तहसीलदार ने उत्तर दिया। मधुबन के अंग से चिनगारियां छूटने लगीं। उसके जीवन को विषाक्त करने वाले सब विषैले मच्छर एक जगह। उसके शरीर में जैसे भूला हुआ बल चैतन्य होने लगा।

उसने सोचा-मैं तो संसार के लिए लिए मतप्राय हं ही। फिर प्रेतात्मा की तरह मेरे अदृश्य जीवन का क्या उद्देश्य है? तो एक बार इन सबों को...।

फिर ऐंठनेवाले हृदय पर अधिकार किया। वह प्रकृतिस्थ होकर ध्यान से उसकी बातों को सुनने लगा।

अभी अफसर लोग डेरे में हैं। महंतजी नहीं आ सकते।—एक नौकर ने आकर चौबे से कहा।

तहसीलदार ने कहा—महाराज! क्यों आप घबराते हैं, कुछ काम तो करना नहीं है। इसके साथ हम लोगों के रहने का यह तात्पर्य तो है नहीं कि यह सुधारा जाए। खाओ-पीओ, मौज लो। देखते नहीं, मैं चला था धामपुर के जमींदार को सुधारने, क्या दशा हुई! आज वही मेम सर्वस्व की स्वामिनी है। और मैं निकाल बाहर किया गया। गांव में किसी की दाल नहीं गलती। किसान लोगों के पास लम्बी-चौड़ी खेती हो गई। वे अब भला काननगो और तहसीलदारों की बात क्यों सुनेंगे! अमीरों के यहां तो यह सब होता ही रहता है। हम लोग मंदिर के सेवक हैं। चलने दो।

चलने दें, ठीक तो है। पर कुछ नियम संसार में हैं अवश्य। उनको तोड़कर चलने का क्या फल होता है, यह आपने अभी नहीं देखा क्या? देखिये, हम लोगों ने अधिकार रहने पर धामपुर में कैसा अंधेर मचाया था। अब किसी तरह रोटी के टुकड़ों पर जी रहे हैं। कहां वह इंद्रदेव की सरलता और कहां इसकी पिशाचलीला आपने देखा नहीं मुंशीजी, वह लड़की, देहाती बालिका, तितली जिसकी गृहस्थी हम लोगों ने सत्यानाश कर देने का संकल्प कर लिया था, आज कितने सुख से और सुख भी नहीं, गौरव से—जी रही है। उसकी गोद में एक सुंदर बच्चा है, और गांव भर की स्त्रियों में उसका सम्मान है!

मधुबन और भी कान लगाकर सुनने लगा।

बच्चा! अरे वह न जाने किसका है। उसकी टीम-टाम से कोई बोलता नहीं। पहले का समय होता तो कभी गांव के बाहर कर दी गई होती, और तुम आज उसकी बड़ी प्रशंसा कर रहे हो। उसी के पति मधुबन ने तो तुम्हारी यह दुर्दशा की थी। बुरा हो चांडाल मधुबन का! उसने भाई तुम्हारा बायां हाथ ही झूठा कर दिया। यह तो कहो, किसी तरह काम चला लेते हो।

हां जी, अपने लोगों को क्या। [ १५३ ] तो चलो, हम लोग भी वहीं बैठकर गाना सुनें। यहां क्या कर रहे हैं।

तहसीलदार ने चौबे का हाथ पकड़कर उठाया। दोनों बड़े डेरे की ओर चले। मधुबन अंधकार में हट गया। उसका मन उव्दिग्न था। वह किसी तरह उसको शांत कर रहा था।

मैना की स्वर-लहरी वायु-मण्डल में गूंज रही थी। किंतु मधुबन के मन में तितली और उसके लड़के के विषय में विकट द्वंद चलने लगा था। वह पागल की तरह लड़खड़ाता हुआ ननीगोपाल के पास पहुंचा।

कहा-ननी बाबू! छुट्टी दीजिए। मैं अब जाता हूं।

क्यों मधुबन! क्या तुमको यहां कोई कष्ट है?

नहीं, अब मैं यहां नहीं रह सकता।

तो भी रात को कहां जाओगे? कल सवेरे जहां जाना हो, वहां के लिए टिकट दिला दूंगा! -ननी ने पचकारते हए कहा।

मधुबन ने रात किसी तरह काट लेना ही मन में स्थिर किया। वह चुपचाप लेट रहा।

मेले का कोलाहल धीरे-धीरे शांत हो गया था। रात गम्भीर हो चली थी। मधुबन की आंखो में नींद नहीं थी। प्रतिशोध लेने के लिए उसका पशु सांकल तुड़ा रहा था, और वह बार-बार उसे शांत करना चाहता था। भयानक द्वंद चल रहा था। सहसा अब उसे झपकी आने लगी थी, एक हल्ला-सा मचा-हाथी! हाथी!! रात की अंधियारी में चारों ओर हलचल मच गई। साटे-बर्दार दौड़े। पुलिस का दल कमर बांधने लगा। लोग घबराकर इधर-उधर भागने लगे।

मधुबन चौंककर उठ बैठा। उसके मस्तक में एक पुरानी घटना दौड़धूप मचाने लगीमैना भी उसमें थी और हाथी भी बिगड़ा था, और तब मधुबन ने उसकी रक्षा की थी; वहीं से उसके जीवन में परिवर्तन का आरंभ हुआ था।

तो आज क्या होगा? ऊंह! जो होना हो, वह होकर रहे। मधुबन को ही क्यों न हाथी कुचल दे। सारा झगड़ा मिट जाए, सारी मनोवेदना की इतिश्री हो जाए। वह अविचल बैठा रहा।

घंटों में कोलाहल शांत हुआ। कोई कहता था, बीसों मनुष्य कुचल गए। कोई कहता, नहीं कल दस ही तो। इस पर वाद-विवाद चलने लगा।

किंतु मधुबन स्थिर था। उसने सोचा, जिसकी मृत्यु आई उसे संसार से छुट्टी मिली। चलो उतने तो जीवन-दंड से मुक्त हो गए।

सवेरे जब वह जाने के लिए प्रस्तुत था, ननीगोपाल से एक ग्राहक कहने लगा-भाई, मैं तो इस मेले से भागना चाहता हूं। यहां पशु और मनुष्य में भेद नहीं। सब एक जगह बुरी तरह एकत्र किए गए हैं। कब किसकी बारी आवेगी, कौन कह सकता है। सुना है तुमने महंत का समाचार? उनकी वेश्या, पुजारी और तहसीलदार नाम का एक कर्मचारी तो हाथी से कुचल कर मर गए। महंत के सिर में चोट आई है। उसके भी बचने के लक्षण नहीं हैं। उसी के हाथी बिगड़े, तीनों-के-तीनों पागल हो गए। कुछ लोग तो कहते हैं, जो राजा इन हाथियों को लेना चाहता था उसी ने कुछ इन्हें खिलवा दिया।

ननी ने कहा-मरें भी ये पापी। हां, तो तुमको तीन दर्जन चाहिए? बांध दो जी! नौकर साबुन बांधने लगे। मधुबन स्तब्ध खड़ा था। ननी ने उससे पूछा-तो तुम जाना ही चाहते [ १५४ ]हो?

हां।

कुछ चाहिए?

नहीं, अब मुझे कुछ नहीं चाहिए। मैं चला!

मधुबन सिर झुकाकर धीरे-धीरे मेले से बाहर हो गया। उसके मन में यही बात रह-रह कर उठती थी। -मरते तो सभी हैं, फिर भगवान् उन्हें पाप करने के लिए उत्पन्न क्यों करता है; जो मरने पर भी पाप ही छोड़ जाते हैं! और तितली।! उसके लड़का कैसा! कब हुआ! हे भगवान! मरते-मरते भी ये सब मन में संदेह का विष उड़ेल गए।

वह निरुद्देश्य चल पड़ा।