नव-निधि/मर्यादा की वेदी

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[ ३६ ]यह वह समय था जब चित्तौड़ में मृदुभाषिणी मीरा प्यासी आत्माओं को ईश्वर-प्रेम के प्याले पिलाती थी। रणछोड़जी के मन्दिर में जब भक्ति से विह्वल होकर वह अपने मधुर स्वरों में अपने पियूष-पूरित पदों को गाती, तो श्रोतागण प्रेमानुराग से उन्मत्त हो जाते। प्रतिदिन यह स्वर्गीय आनन्द उठाने के लिए सारे चित्तौड़ के लोग ऐसे उत्सुक होकर दौड़ते, जैसे दिन-भर की प्यासी गायें दूर से किसी सरोवर को देखकर उसकी ओर दौड़ती है। इस प्रेम-सुधा-सागर से केवल चित्तौड़वासियों ही कि तृप्ति न होती थी, बल्कि समस्त राजपूताना की मरूभूमि प्लावित हो जाती थी।

एक बार ऐसा संयोग हुश्रा कि झालावाड़ के रावसाहन और मन्दार राज्य के कुमार दोनों ही लाव-लश्कर के साथ चित्तौड़ आये। रायसाहब के साथ राज-कुमारी प्रभा भी थी, जिसके रूप और गुण की दूर तक चर्चा थी। यहीं रण-छोड़नी के मन्दिर में दोनों की आँखें मिलीं। प्रेम ने बाण चलाया।

राजकुमार सारे दिन उदासीन भाव से शहर की गलियों में घूमा करता। राजकुमारी विरह से व्यथित अपने महल के झरोखों से झाँका करती। दोनों व्याकुल होकर सन्ध्या समय मन्दिर में आते और यहाँ चन्द्र को देखकर कुमुदिनी खिल जाती।

प्रेम-प्रवीण मीरा ने कई बार इन दोनों प्रेमियों को सतृष्ण नेत्रों से परस्पर देखते हुए पाकर उनके मन के भावों को ताड़ लिया। एक दिन कीर्त्तन के पश्चात् जब झालावाड़ के रावसाहब चलने लगे तो उसने मन्दार के राजकुमार को बुलाकर उसके सामने खड़ा कर दिया और कहा –- रावसाहब, मैं प्रभा के लिए यह वर लाई हूँ, आप इसे स्वीकार कीजिए।

प्रभा लज्जा से गड़-सी गई। राजकुमार के गुण-शील पर रावसाहब पहले ही से मोहित हो रहे थे, उन्होंने तुरन्त उसे छाती से लगा लिया।

उसी अवसर पर चित्तौड़ के राणा भोजराज भी मन्दिर में आये। उन्होंने प्रभा का मुख चन्द्र देखा। उनकी छाती पर साँप लोटने लगा। [ ३७ ]झालावाड़ में बड़ी धूम थी। राजकुमारी प्रभा का आज विवाह होगा। मन्दार से बारात आयेगी। मेहमानों के सेवा-सम्मान की तैयारियाँ हो रही थीं। दुकानें सजी हुई थीं। नौबतखाने आमोदालाप से गूँजते थे। सड़कों पर सुगन्धि छिड़की जाती थी। अट्टालिकाएँ पुष्प लताओं से शोभायमान थीं। पर जिसके लिए ये सब तैयारियाँ हो रही थीं, वह अपनी बाटिका के एक वृक्ष के नीचे उदास बैठी हुई रो रही थी।

रनिवास में डोमिनियाँ आनन्दोत्सव के गीत गा रही थी। कहीं सुन्दरियों के हाव-भाव थे, कहीं आभूषणों की चमक-दमक, कहीं हास परिहास की बहार। नाइन बात-बात पर तेज़ होती थी। मालिन गर्व से फूली न समाती थी। धोबिन आँखें दिखाती थी। कुम्हारिन मटके के सदृश्य फूली हुई थी। मण्डप के नीचे पुरोहितजी बात-बात पर सुवर्ण मुद्राओं के लिए ठुनकते थे। रानी सिर के बाल खोले भूखी-प्यासी चारों ओर दौड़ती थी। सबकी बौछारें सहती थी और अपने भाग्य को सराहती थी। दिल खोलकर हीरे-जवाहिर लुटा रही थी। आज प्रभा का विवाह है, बड़े भाग्य से ऐसी बातें सुनने में आती है। सब-के-सब अपनी-अपनी धुन में मस्त हैं। किसी को प्रभा की फ़िक्र नहीं है, जो वृक्ष के नीचे अकेली बैठी रो रही है।

एक रमणी ने आकर नाइन से कहा -- बहुत बढ़-बढ़कर बातें न कर, कुछ राजकुमारी का भी ध्यान है ? चल उनके बाल गूँथ।

नाइन ने दाँतों तले जीभ दबाई। दोनों प्रभा को ढूँढती हुई बाग में पहुँची। प्रभा ने उन्हें देखते ही आँसू पोछ डाले। नाइन मोतियों से माँग भरने लगी और प्रभा सिर नीचा किये आँखों से मोती बरसाने लगी।

रमणी ने सजल-नेत्र होकर कहा -- बहिन, दिल इतना छोटा मत करो। मुँहमाँगी मुराद पाकर इतनी उदास क्यों होती हो ?

प्रभा ने सहेली की ओर देखकर कहा -- बहिन, न जाने क्यों दिल बैठा जाता है। सहेली ने छेड़कर कहा -- पिया-मिलन की बेकली है !

प्रभा उदासीन भाव से बोली -- कोई मेरे मन में बैठा कद रहा है कि अब उनसे मुलाकात न होगी। [ ३८ ]सहेली उसके केश सँवारकर बोली-जैसे उषःकाल से पहले कुछ अँधेरा हो जाता है उसी प्रकार मिलाप के पहले प्रेमियों का मन अधीर हो जाता है।

प्रभा बोली-नहीं बहिन,यह बात नहीं। मुझे शकुन अच्छे नहीं दिखाई देते। आज दिन-भर मेरी आँख फड़कती रही। रात को मैंने बुरे स्वप्न देखे हैं। मुझे शंका होती है कि आज अवश्य कोई न कोई विघ्न पड़नेवाला है। तुम राणा भोजराज को जानती हो न?

सन्ध्या हो गई। आकाश पर तारों के दीपक जले। झालावाड़ में बूढ़े जवान सभी लोग बारात की अगुवानी के लिए तैयार हुए। मरदों ने पार्टी सँवारी,शस्त्र साजे। युवतियाँ शृंगार कर गाती-बजाती रनिवास की ओर चलीं। हजारों स्त्रियाँ छत पर बैठी बारात की राह देख रही थीं।

अचानक शोर मचा कि बारात आ गई। लोग सँभल बैठे,नगाड़ों पर चोटें पड़ने लगीं। सलामियाँ दगने लगी। जवानों ने घोड़ों को एड़ लगाई। एक क्षण में सवारों की एक सेना रान-भवन के सामने आकर खड़ी हो गई। लोगों को देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि यह मन्दार की बारात नहीं थी,बल्कि राणा भोजराज की सेना थी।

झालावाड़वाले अभी विस्मित खड़े ही थे,कुछ निश्चय न कर सके थे कि क्या करना चाहिए। इतने में चित्तौड़वालों ने राज-भवन को घेर लिया। तब झालावाड़ी भी सचेत हुए। सँभलकर तलवारें खींच ली और आक्रमणकारियों पर टूट पड़े। राजा महल में घुस गया। रनिवास में भगदड़ मच गई।

प्रभा सोलहों श्रृंगार किये सहेलियों के साथ बैठी थी। यह हलचल देखकर घबराई। इतने में रावसाहब हाँफते हुए आये और बोले-बेटी प्रभा,गणा भोजराज ने हमारे महल को घेर लिया है। तुम चटपट ऊपर चली जात्रो और द्वार को बन्द कर लो। अगर हम क्षत्रिय है,तो एक चिौड़ी भी यहाँ से नीता न नायगा। रावसाहब बात भी पूरी न करने पाये थे कि राणा कई वीरों के साथ आ पहुँचे और बोले-चित्तौड़वाले तो सिर कटाने के लिए प्राये ही हैं। पर यदि वे राजपूत है तो राजकुमारी लेकर ही गयँगे। वृद्ध रावसाहब की आँखों से ज्वाला निकलने लगी। वे तलवार खींचकर
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राणा पर झपटे। उन्होंने वार बचा लिया और प्रभा से कहा -- राजकुमारी,हमारे साथ चलोगी?

प्रभा सिर झुकाये राणा के सामने आकर बोली -- हाँ चलूँगी।

रावसाहब को कई आदमियों ने पकड़ लिया था। वे तड़पकर बोले -- प्रभा, तू राजपूत की कन्या है ?

प्रभा की आँखें सजल हो गई। बोली -- राणा भी तो राजपूतों के कुल-तिलक हैं। रावसाहब ने आकर कहा -- निर्लज्जा !

कटार के नीचे पड़ा हुआ बलिदान का पशु जैसी दीन दृष्टि से देखता है, उसी भाँति प्रभा ने रावसाहब की ओर देखकर कहा -- जिस झालावाड़ की गोद में पली हूँ, क्या उसे रक्त से रँगवा दूँ ?

रावसाहब ने क्रोध से काँपकर कहा -- क्षत्रियों का रक्त इतना प्यारा नहीं होता। मर्यादा पर प्राण देना उनका धर्म है।

तब प्रभा की आँखें लाल हो गई। चेहरा तमतमाने लगा।

बोली -- राजपूत-कन्या अपने सतीत्व की रक्षा आप कर सकती है। इसके लिए रुधिर प्रवाह की आवश्यकता नहीं।

पल-भर में राणा ने प्रभा को गोद में उठा लिया। बिजली की भाँति झपटकर बाहर निकले। उन्होंने उसे घोड़े पर बिठा लिया, आप सवार हो गये और घोड़े को उड़ा दिया। अन्य चित्तौड़ियों ने भी घोड़ों की बागे मोड़ दीं। उनके सौ जवान भूमि पर पड़े तड़प रहे थे,पर किसी ने तलवार न उठाई थी।

रात को दस बजे मन्दारवाले भी पहुँचे। मगर यह शोक-समाचार पाते ही लौट गये। मन्दार कुमार निराशा से अचेत हो गया। जैसे रात को नदी का किनारा सुनसान हो जाता है,उसी तरह सारी रात झालावाड़ में सन्नाटा छाया रहा।

चित्तौड़ के रंग-महल में प्रभा उदास बैठी सामने के सुन्दर पौधों की पत्तियाँ गिन रही थी। सन्ध्या का समय था। रंगबिरंग के पक्षी वृक्षों पर बैठे कलरव कर रहे थे। इतने में राणा ने कमरे में प्रवेश किया। प्रभा उठकर खड़ी हो गई। [ ४० ]राणा बोले-प्रभा, मैं तुम्हारा अपराधी हूँ। मैं बलपूर्वक तुम्हें माता-पिता की गोद से छीन लाया। पर यदि मैं तुमसे कहूँ कि यह सब तुम्हारे प्रेम से विवश होकर मैंने किया, तो तुम मन में हँसोगी और कहोगी कि यह निराले, अनूठे ढंग की प्रीति है। पर वास्तव में यही बात है। जबसे मैंने रणछोड़जी के मन्दिर में तुमको देखा, तबसे एक क्षण भी ऐसा नहीं बीता कि मैं तुम्हारी सुधि में विकल न रहा होऊँ। तुम्हें अपनाने का अन्य कोई उपाय होता, तो मैं कदापि इस पाशविक ढङ्ग से काम न लेता। मैंने रावसाहब की सेवा में बारंबार सन्देशे मेजे, पर उन्होंने हमेशा मेरी उपेक्षा की। अन्त में जब तुम्हारे विवाह की अवधि आ गई और मैंने देखा कि एक ही दिन में तुम दूसरे की प्रेम पात्री हो जाओगी प, और तुम्हारा ध्यान करना भी मेरी आत्मा को दूषित करेगा, तो लाचार होकर मुझे यह अनीति करनी पड़ी। मैं मानता हूँ कि यह सर्वथा मेरी स्वार्थान्धता है। मैंने अपने प्रेम के सामने तुम्हारे मनोगत भावों को कुछ न समझा, पर प्रेम स्वयं एक बढ़ी हुई स्वार्थपरता है, जब मनुष्य को अपने प्रिय. तम के सिवाय और कुछ नहीं सूझता। मुझे पूरा विश्वास था कि मैं अपने विनीत भाव और प्रेम से तुमको अपना लूँगा। प्रभा, प्यास से मरता हुआ मनुष्य यदि किसी गढ़े में मुँह डाल दे, तो वह दण्ड का भागी नहीं है। मैं प्रेम का प्यासा हूँ। मीरा मेरी सहधर्मिणी है। उसका हृदय प्रेम का अगाध सागर है। उसका एक चुल्लू भी मुझे उन्मत्त करने के लिए काफ़ी था। पर जिस हृदय में ईश्वर का वास हो वहाँ मेरे लिए स्थान कहाँ ? तुम शायद कहोगी कि यदि तुम्हारे सिर पर प्रेम का भूत सवार था तो क्या सारे राजपूताने में स्त्रियाँ न थीं। निस्संदेह राजपूताने में सुन्दरता का अभाव नहीं है और न चित्तौड़ा- धिपति की ओर से विवाह की बातचीत किसी के अनादर का कारण हो सकती है। पर इसका जवाब तुम प्राप ही हो। इसका दोष तुम्हारे ही ऊपर है। राजस्थान में एक ही चित्तौड़ है, एक ही राणा और एक ही प्रभा। सम्भव है मेरे भाग्य में प्रेमानन्द भोगना न लिखा हो। यह मैं अपने कर्म लेख को मिटाने का थोड़ा-सा प्रयत्न कर रहा हूँ। परन्तु भाग्य के आधीन बैठे रहना पुरुषों का काम नहीं है। मुझे इसमें सफलता होगी या नहीं, इसका फैसला तुम्हारे हाथ है।

प्रभा की अखें जमीन की तरफ़ थीं और मन फुदकनेवाली चिड़िया की [ ४१ ]
भाँति इधर-उधर उड़ता फिरता था। वह झालावाड़ को मारकाट से बचाने के लिए राणा के साथ आई थी,मगर राणा के प्रति उसके हृदय में क्रोध की तरंगें उठ रही थीं। उसने सोचा था कि वे यहाँ आयेंगे तो उन्हें राजपूत कुल-कलंक, अन्यायी, दुराचारी, दुगत्मा, कायर कहकर उनका गर्व चूर-चूर कर देंगी। उसको विश्वास था कि यह अपमान उनसे न सहा जायगा और वे मुझे बलात् अपने काबू में लाना चाहेंगे। इस अन्तिम समय के लिए उसने अपने हृदय को खूब मजबूत और अपनी कटार को खूब तेज कर रखा था। उसने निश्चय कर लिया था कि इसका एक वार उनपर होगा, दूसरा अपने कलेजे पर और इस प्रकार यह पाप-काण्ड समाप्त हो जायगा। लेकिन राणा की नम्रता, उनकी करुणात्मक विवेचना और उनके विनीत भाव ने प्रभा को शान्त कर दिया। आग पानी से बुझ जाती है। राणा कुछ देर वहाँ बैठे रहे, फिर उठकर चले गये।

प्रभा को चित्तौड़ में रहते दो महीने गुज़र चुके हैं। राणा उसके पास फिर न आये। इस बीच में उनके विचारों में बहुत कुछ अन्तर हो गया है। झाला-वाड़ पर आक्रमण होने के पहले मीराबाई को इसकी बिल्कुल ख़बर न थी। राणा ने इस प्रस्ताव को गुप्त रखा था। किन्तु अब मीराबाई प्रायः उन्हें इस दुराग्रह पर लज्जित किया करती है और धीरे-धीरे राणा को भी विश्वास होने लगा है कि प्रभा इस तरह काबू में नहीं आ सकती। उन्होंने उसके सुख-विलास की सामग्री एकत्र करने में कोई कसर नहीं रख छोड़ी थी। लेकिन प्रभा उनकी तरफ़ आँख उठाकर भी नहीं देखती। राणा प्रभा की लौंड़ियों से नित्य का समाचार पूछा करते हैं और उन्हें रोज़ वही निराशापूर्ण वृत्तान्त सुनाई देता है। मुरझाई हुई कली किसी भाँति नहीं खिलती। अतएव उनको कभी-कभी अपने इस दुस्साहस पर पश्चात्ताप होता है। वे पछताते हैं कि मैंने व्यर्थ ही यह अन्याय किया। लेकिन फिर प्रभा का अनुपम सौन्दर्य नेत्रों के सामने आ माता है और वह अपने मन को इस विचार से समझा लेते है कि एक सगर्वा सुन्दरी का प्रेम इतना जल्दी परिवर्तित नहीं हो सकता। निस्सन्देह मेरा मृदु व्यवहार कभी न कभी अपना प्रभाव दिखलायेगा। [ ४२ ]प्रभा सारे दिन अकेली बैठी-बैठी उकताती और झलाती थी। उसके विनोद के निमित्त कई गानेवाली स्त्रियाँ नियुक्त थीं। किन्तु राग रंग से उसे अरुचि हो गई। वह प्रतिक्षण चिन्ताओं में डूबी रहती थी।

राणा के नम्र भाषण का प्रभाव अब मिट चुका था और उनकी अमानुषिक वृत्ति अब फिर अपने यथार्थ रूप में दिखाई देने लगी थी। वाक्यचतुरता शान्तिकारक नहीं होती। वह केवल निरुत्तर कर देती है! प्रभा को अब अपने अवाक् हो जाने पर आश्चर्य होता है। उसे राणा की बातों के उत्तर भी सूझने लगे हैं। वह कभी-कभी उनसे लड़कर अपनी किस्मत का फ़ैसला करने के लिए विकल हो जाती है।

मगर अब वाद-विवाद किस काम का? वह सोचती है कि मैं रावसाहब की कन्या हूँ,पर संसार की दृष्टि में राणा की रानी हो चुकी। अब यदि मैं इस कैद से छुट भी जाऊँ तो मेरे लिए कहाँ ठिकाना है? मैं कैसे मुँह दिखाऊँगी? इससे केवल मेरे वंश का ही नहीं, वरन् समस्त राजपूत जाति का नाम डूब जायगा। मन्दार-कुमार मेरे सच्चे प्रेमी हैं। मगर क्या वे मुझे अङ्गीकार करेंगे? और यदि वे निन्दा की परवाह न करके मुझे ग्रहण भी कर लें तो उनका मस्तक सदा के लिए नीचा हो जायगा, और कभी न कभी उनका मन मेरी तरफ़ से फिर जायगा। वे मुझे अपने कुल का कलंक समझने लगेंगे। या यहाँ से किसी तरह भाग जाऊँ? लेकिन भागकर बाऊँ कहाँ? बाप के घर? वहाँ अब मेरी पैठ नहीं। मन्दार-कुमार के पास? इसमें उनका अपमान है और मेरा भी। तो क्या भिखा-रिणी बन जाऊँ। इसमें भी जगहँसाई होगी और न जाने प्रबल भावी किस मार्ग पर ले जाय। एक अबला स्त्री के लिए सुन्दरता प्राणघातक यन्त्र से कम नहीं। ईश्वर, वह दिन न आये कि मैं क्षत्रिय-जाति का कलंक बनँ। क्षत्रिय जाति ने मर्यादा के लिए पानी की तरह रक्त बहाया है। उनकी हजारों देवियाँ पर-पुरुष का मुंह देखने के भय से सूखी लकड़ी के समान जल मरी हैं। ईश्वर, वह घड़ी न आये कि मेरे कारण किसी राजपूत का सिर लज्जा से नीचा हो। नहीं, मैं इसी कैद में मर जाऊँगी। राणा के अन्याय सहूँगी, जलूँगी, मरूँगी पर इसी घर में। विवाह जिससे होना था, हो चुका। हृदय में उसकी उपासना करूंगी, पर कण्ठ के बाहर उसका नाम न निकालूंगी। [ ४३ ]

एक दिन अँझलाकर उसने राणा को बुला भेना। वे आये। उनका चेहरा उतरा था। वे कुछ चिन्तित-से थे। प्रभा कुछ कहना चाहती थी,पर उनकी सूरत देखकर उसे उनपर दया आ गई। उन्होंने उसे बात करने का अवसर न देकर स्वयं कहना शुरू किया।

"प्रभा, तुमने आज मुझे बुलाया है। यह मेरा सौभाग्य है। तुमने मेरी सुधि तो ली। मगर यह मत समझो कि मैं मृदु-वाणी सुनने की आशा लेकर आया हूँ। नहीं, मैं जानता हूँ जिसके लिए तुमने मुझे बुलाया है। यह लो, तुम्हारा अपराधी तुम्हारे सामने खड़ा है। उसे जो दण्ड चाहो दो, मुझे अब तक आने का साहस न हुआ। इसका कारण यही दण्ड भय या। तुम क्षत्राणी हो और क्षत्राणियाँ क्षमा करना नहीं जानतीं। झालावाड़ में जब तुम मेरे साथ आने पर स्वयं उद्यत हो गई, तो मैंने उसी क्षण तुम्हारे जौहर परख लिये। मुझे मालूम हो गया कि तुम्हारा हृदय बल और विश्वास से भरा हुआ है। उसे काबू में लाना सहज नहीं। तुम नहीं जानतीं कि यह एक मास मैंने किस तरह काटा है। तड़प-तड़प कर मर रहा हूँ। पर जिस तरह शिकारी बफरी हुई सिहनी के सम्मुख जाने से डरता है, वही दशा मेरी थी। मैं कई बार आया,यहाँ तुमको उदास तिउरियाँ चिढ़ाये बैठे देखा। मुझे अन्दर पैर रखने का साहस न हुआ। मगर आज मैं बिना बुलाया मेहमान नहीं हूँ। तुमने मुझे बुलाया है और तुम्हें अपने मेहमान का स्वागत करना चाहिए। हृदय से न सही - जहाँ अग्नि प्रज्ज्वलित हो वहाँ ठण्डक कहाँ ?-बातों ही से सही, अपने भावों को दबाकर ही सही, मेहमान का स्वागत करो। संसार में शत्रु का आदर मित्रों से भी अधिक किया जाता है।"

"प्रभा, एक क्षण के लिए क्रोध को शान्त करो और मेरे अपराधों पर विचार करो। तुम मेरे ऊपर यही दोषारोपण कर सकती हो कि मैं तुम्हें माता-पिता की गोद से छीन लाया। तुम जानती हो, कृष्ण भगवान् रुक्मिणी को हर लाये थे। राजपूतों में यह कोई नई बात नहीं है। तुम कहोगी,इससे झालावाड़वालों का अपमान हुआ; पर ऐसा कहना कदापि ठीक नहीं। झालावाड़वालों ने वही किया जो मर्दो का धर्म था। उनका पुरुषार्थ देखकर हम चकित हो गये। यदि वे कृतकार्य नहीं हुए तो यह उनका दोष नहीं है। वीरों की सदैव जीत नहीं [ ४४ ]

होती। हम इसलिए सफल हुए कि हमारी संख्या अधिक थी और इस काम के लिए तैयार होकर गये थे। वे निश्शंक थे, इस कारण उनकी हार हुई। यदि हम वहाँ से शीघ्र ही प्राण बचाकर भाग न आते तो हमारी गति वही होती जो रावसाहब ने कही थी। एक भी चित्तौड़ी न बचता। लेकिन ईश्वर के लिए यह मत सोचो कि मैं अपने अपराध के दूषण को मिटाना चाहता हूँ। नहीं, मुझसे अपराध हुआ और मैं हृदय से उसपर लज्जित हूँ। पर अब तो जो कुछ होना था,हो चुका। अब इस बिगड़े हुए खेल को मैं तुम्हारे ऊपर छोड़ता हूँ। यदि मुझे तुम्हारे हृदय में कोई स्थान मिले तो मैं उसे स्वर्ग समझंगा। डूबते हुए को तिनके का सहारा भी बहुत है। क्या यह संभव है?"

प्रभा बोली-नहीं।

राणा-झालावाड़ जाना चाहती हो ?

प्रभा-नहीं।

राणा-मन्दार के राजकुमार के पास भेज दूं ?

प्रभा-कदापि नहीं।

राणा-लेकिन मुझसे यह तुम्हारा कुढ़ना देखा नहीं जाता।

प्रभा-आप इस कष्ट से शीघ्र ही मुक्त हो जायँगे।

राणा ने भयभीत दृष्टि से देखकर कहा "जैसी तुम्हारी इच्छा" और वे वहाँ से उठकर चले गये।

दस बजे रात का समय था। रणछोड़जी के मन्दिर में कीर्तन समाप्त हो चुका था और वैष्णव साधु बैठे हुए प्रसाद पा रहे थे। मीरा स्वयं अपने हाथों से थाल ला-लाकर उनके आगे रखती थी। साधुओं और अभ्यागतों के आदर-सत्कार में उसे देवी की आत्मिक आनन्द प्राप्त होता था। साधुगण जिस प्रेम से भोजन करते थे, उससे यह शंका होती थी कि स्वादपूर्ण वस्तुओं में कहीं भक्ति- भजन से भी अधिक सुख तो नहीं है। यह सिद्ध हो चुका है कि ईश्वर की दी हुई वस्तुओं का सदुपयोग ही ईश्वरोपासना की मुख्य रीति है। इसलिए ये महात्मा लोग उपासना के ऐसे अच्छे अवसरों को क्यों खोते ? वे कभी पेट पर हाथ फेरते और कभी आसन बदलते थे। मुंह से 'नहीं' कहना तो वे घोर पाप [ ४५ ]
के समान समझते थे। यह भी मानी हुई बात है कि जैसी वस्तुओं का हम सेवन करते हैं, वैसी ही आत्मा भी बनती है। इसलिए ये महात्मागण घी और खोये से उदर को खूब भर रहे थे।

पर इन्हीं में एक महात्मा ऐसे भी थे जो आँखें बन्द किये ध्यान में मम थे। थाल की ओर ताकते भी न थे। इनका नाम प्रेमानन्द था। ये आज ही आये थे। इनके चेहरे पर कान्ति झलकती थी। अन्य साधु खाकर उठ गये, परन्तु उन्होंने थाल छुआ भी नहीं।

मीग ने हाथ जोड़कर कहा-महराज,आपने प्रसाद को छुआ भी नहीं। दासी से कोई अपराध तो नहीं हुआ ?

साधु-नहीं, इच्छा नहीं थी।

मीरा-पर मेरी विनय श्रापको माननी पड़ेगी।

साधु-मैं तुम्हारी आज्ञा का पालन करूँगा, तो तुमको भी मेरी एक बात माननी होगी।

मीरा-कहिए, क्या आशा है!

साधु-माननी पड़ेगी।

मीरा-मानूंगी।

साधु-बचन देती हो ?

मीरा-बचन देती हूँ, आप प्रसाद पायें।।

मीराबाई ने समझा था कि साधु कोई मन्दिर बनवाये या यज्ञ पूर्ण करा देने की याचना करेगा। ऐसी बातें नित्य प्रति हुआ ही करती थीं और मीरा का सर्वस्व साधु-सेवा के लिए अर्पित था। परन्तु उसके लिए साधु ने ऐसी कोई याचना न की। वह मीरा के कानों के पास मुँह ले जाकर बोला-आज दो घंटे के बाद राज-भवन का चोरदरवाजा खोल देना।

मीरा विस्मित होकर बोली-आप कौन हैं?

साधु-मन्दार का राजकुमार।

मीरा ने राजकुमार को सिर से पाँव तक देखा। नेत्रों में आदर की जगह घृणा थी। कहा-राजपूत यों छल नहीं करते। [ ४६ ]राजकुमार-यह नियम उस अवस्था के लिए है जब दोनों पक्ष समान शक्ति रखते हों।

मीरा-ऐसा नहीं हो सकता।

राजकुमार-आपने वचन दिया है, उसे पालन करना होगा।

मीरा-महाराज की आज्ञा के सामने मेरे वचन का कोई महत्व नहीं।

राजकुमार-मैं यह कुछ नहीं जानता। यदि आपको अपने वचन की कुछ भी मर्यादा है तो उसे पूरा कीजिए।

मीरा - (सोचकर) महल में जाकर क्या करोगे?

राजकुमार - नई रानी से दो-दो बातें।

मीरा चिन्ता में विलीन हो गई। एक तरफ़ राणा की कड़ी श्राशा थी और दूसरी तरफ अपना वचन और उसका पालन करने का परिणाम। कितनी ही पौराणिक घटनाएँ उसके सामने आ रही थीं। दशरथ ने वचन पालने के लिए अपने प्रिय पुत्र को वनवास दे दिया। मैं वचन दे चुकी हूँ। उसे पूरा करना मेरा परम धर्म है। लेकिन पति की आज्ञा को कैसे तोड़ें। यदि उनकी आज्ञा के विरुद्ध करती हूँ तो लोक और परलोक दोनों बिगड़ते हैं। क्यों न उनसे स्पष्ट कह दूं। क्या वे मेरी यह प्रार्थना स्वीकार न करेंगे ? मैंने आज तक उनसे कुछ नहीं माँगा। आज उनसे यह दान माँगूंगी। क्या वे मेरे वचन की मर्यादा की रक्षा न करेंगे ? उनका हदय कितना विशाल है। निस्सन्देह वे मुझपर वचन तोड़ने का दोष न लगने देंगे।

इस तरह मन में निश्चय करके वह बोली-कब खोल दूँ ?

राजकुमार ने उछलकर कहा-आधी रात को।

मीरा - मैं स्वयं तुम्हारे साथ चलँगी।

राजकुमार-क्यों ?

मीरा-तुममे मेरे साथ छल किया है। मुझे तुम्हारा विश्वास नहीं है।

राजकुमार ने लज्जित होकर कहा-अच्छा, तो आप द्वार पर खड़ी रहिएगा।

मीरा - यदि फिर कोई दगा किया तो जान से हाथ धोना पड़ेगा।

राजकुमार - मैं सब कुछ सहने के लिए तय्यार हूँ। [ ४७ ]

मीरा यहाँ से राणा की सेवा में पहुँची। वे उसका बहुत आदर करते थे। वे खड़े हो गये। इस समय मीरा का श्राना एक असाधारण बात थी। उन्होंने पूछा-बाई जी, क्या प्राज्ञा है?

मीरा-आपसे भिक्षा माँगने आई हूँ। निराश न कीजिएगा। मैंने आज तक आपसे कोई विनती नहीं की, पर आज एक ब्रह्म-फाँस में फंस गई हूँ। इसमें से मुझे आप ही निकाल सकते हैं ? मन्दार के राजकुमार को तो आप जानते हैं ?

राणा- हाँ, अच्छी तरह।

मीरा - आज उसने मुझे बड़ा धोखा दिया। एक वैष्णव महात्मा का रूप धारण कर रणछोड़जी के मन्दिर में पाया और उसने छल करके मुझे वचन देने पर बाध्य किया। मेरा साहस नहीं होता कि उसकी कपट-विनय आपसे कहूँ।

राणा-प्रभा से मिला देने को तो नहीं कहा ?

मीरा-जी हाँ, उसका अभिप्राय वही है। लेकिन सवाल यह है कि मैं आधी रात को राजमहल का गुप्त द्वार खोल दूँ। मैंने उसे बहुत समझाया; बहुत धमकाया; पर वह किसी भाँति न माना। निदान विवश होकर जब मैंने वादा कर दिया तब उसने प्रसाद पाया, अब मेरे वचन की लाज आपके हाथ है। आप चाहे उसे पूरा करके मेरा मान रखें चाहे उसे तोड़कर मेरा मान तोड़ दें। आप मेरे ऊपर जो कृपादृष्टि रखते हैं, उसी के भरोसे मैंने वचन दिया। अब मुझे इस फन्दे से उबारना आप ही का काम है।

राणा कुछ देर सोचकर बोले-तुमने वचन दिया है, उसका पालन करना मेरा कर्तव्य है। तुम देवी हो, तुम्हारे वचन नहीं टल सकते। द्वार खोल दो। लेकिन यह उचित नहीं है कि वह अकेले प्रभा से मुलाकात करे। तुम स्वयं उसके साथ जाना। मेरी ख़ातिर से इतना कष्ट उठाना। मुझे भय है कि वह उसकी जान लेने का इरादा करके न आया हो। ईष्या में मनुष्य अन्धा हो जाता है। बाईजी, मैं अपने हृदय की बात तुमसे कहता हूँ। मुझे प्रभा को हर लाने का अत्यन्त शोक है। मैंने समझा था कि यहाँ रहते-रहते वह हिल-मिल जायगी; किन्तु यह अनुमान ग़लत निकला। मुझे भय है कि यदि उसे कुछ दिन यहाँ और रहना पड़ा तो वह जीती न बचेगी। मुझपर एक अबला की हत्या
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का अपराध लग जायगा। मैंने उससे झालावाड़ जाने के लिए कहा,पर वह गज़ी न हुई। आज तुम उन दोनों की बातें सुनो। अगर वह मन्दार-कुमार के साथ जाने पर राजी हो,तो मैं प्रसन्नतापूर्वक अनुमति दे दूँगा। मुझसे कुढ़ना नहीं देखा नाता। ईश्वर इस सुन्दरी का हृदय मेरी ओर फेर देता तो मेरा जीवन सफल हो जाता। किन्तु जब यह सुख भाग्य में लिखा ही नहीं है,तो क्या बस है। मैंने तुमसे ये बातें कही,इसके लिए मुझे क्षमा करना। तुम्हारे पवित्र हृदय में ऐसे विषयों के लिए स्थान कहाँ?

मीरा ने आकाश की ओर संकोच से देखकर कहा-तो मुझे आशा है? मैं चोर-द्वार खोल दूँ?

राणा -- तुम इस घर की स्वामिनी हो,मुझसे पूछने की ज़रूरत नहीं।

मीरा राणा को प्रणाम कर चली गई।

आधी रात बीत चुकी थी। प्रभा चुपचाप बैठी दीपक की ओर देख रही थी और सोचती थी, इसके घुलने से प्रकाश होता है ; यह बत्ती अगर न जती है तो दूसरों को लाभ पहुँचाती है। मेरे जलने से किसी को क्या लाभ ? मैं म्यों घुलू ? मेरे जीने की क्या ज़रूरत है ?

उसने फिर खिड़की से सिर निकाल कर आकाश की तरफ़ देखा। काले पट पर उज्ज्वल तारे जगमगा रहे थे। प्रभा ने सोचा मेरे अन्धकारमय भाग्य में पेदीप्तिमान तारे कहाँ है? मेरे लिए जीवन के सुख कहाँ है ? क्या रोने के लए पीऊँ ? ऐसे जीने से क्या लाभ ? और जीने में उपहास भी तो है। मेरे नन का हाल कौन जानता है ? संसार मेरी निन्दा करता होगा झालावाड़ की स्त्रियाँ मेरी मृत्यु के शुभ समाचार सुनने की प्रतीक्षा कर रही होंगी। मेरी प्रेय माता लज्जा से आँखें न उठा सकती होगी। लेकिन जिस समय मेरे नरने की ख़बर मिलेगी गर्व से उनका मस्तक ऊँचा हो जायगा। यह बेहयाई का जीना है। ऐसी जीने से मरना कहीं उत्तम है।

प्रभा ने तकिये के नीचे से एक चमकती हुई कटार निकाली। उसके हाथ काँप रहे थे। उसने कटार की तरफ़ आँखें जमाई। हृदय को उसके अभिवादन के लिए मज़बूत किया। हाथ उठाया किन्तु न उठा ; आत्मा दृढ़ न थी। [ ४९ ]
आँखें झपक गई। सिर में चक्कर आ गया। कटार हाथ से छूटकर ज़मीन पर गिर पड़ी।

प्रभा क्रुद्ध होकर सोचने लगी-क्या मैं वास्तव में निर्लज्ज हूँ? मैं राब-पूतानी होकर मरने से डरती हूँ ? मान-मर्यादा खोकर बेहया लोग ही लिया करते हैं। वह कौन-सी श्राकांक्षा है जिसने मेरी आत्मा को इतना निर्बल बना रखा है ? क्या राणा की मीठी-मीठी बातें? राणा मेरे शत्रु हैं। उन्होंने मुझे पशु समझ रखा है जिसे फंसाने के पश्चात् हम पिंजरे में बन्द करके हिलाते हैं। उन्होंने मेरे मन को अपनी वाक्यमधुरता का क्रीडा स्थल समझ लिया है। वे इस तरह घुमा-घुमाकर बातें करते हैं और मेरी तरफ़ से युक्तियाँ निकालकर उनका ऐसा उत्तर देते हैं कि ज़बान ही बन्द हो जाती है। हाय ! निर्दयी ने मेरा जीवन नष्ट कर दिया और मुझे यो खेलाता है ! क्या इसीलिए जीऊँ कि उसके करट भावों का खिलौना बनूँ ?

फिर वह कौन-सी अभिलाषा है ? क्या राजकुमार का प्रेम ? उनकी तो अब कल्पना ही मेरे लिए घोर पाप है। मैं अब उस देवता के योग्य नहीं हूँ, प्रिय-तुम ! बहुत दिन हुए मैंने तुमको हृदय से निकाल दिया। तुम भी मुझे दिल से निकाल डालो। मृत्यु के सिवाय अब कहीं मेरा ठिकाना नहीं है। शंकर ! मेरे निर्बल आत्मा को शक्ति प्रदान करो। मुझे कर्तव्य-पालन का बल दो।

प्रभा से फिर कटार निकाली ! इच्छा दृढ़ थी। हाथ उठा और निकट था कि कटार उसके शोकातुर हृदय में चुभ जाय कि इतने में किसी के पाँव की आहट सुनाई दी। उसने चौंककर सहमी हुई दृष्टि से देखा। मन्दार-कुमार धीरे-धीरे पैर दबाता हुश्रा कमरे में दाखिल हुआ।

प्रभा उसे देखते ही चौंक पड़ी। उसने कटार को छिपा लिया। राजकुमार को देखकर उसे आनन्द की जगह रोमाञ्चकारी भय उत्पन्न हुआ। यदि किसी को ज़रा भी सन्देह हो गया तो इनका प्राण बचना कठिन है। इनको तुरन्त यहाँ से निकल जाना चाहिए। यदि इन्हें बातें करने का अवसर दूं तो विलम्ब होगा और फिर ये अवश्य ही फँस जायँगे। राणा इन्हें कदापि न छोड़ेंगे। ये
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विचार, वायु और बिजली की व्यप्रता के साथ,उसके मस्तिष्क में दौड़े। वह तीव्र स्वर से बोली - भीतर मत प्रायो।

राजकुमार ने पूछा - मुझे पहचाना नहीं ?

प्रभा - खूब पहिचान लिया, किन्तु यह बातें करने का समय नहीं है। राणा तुम्हारी घात में हैं। अभी यहाँ से चले जाओ।

राजकुमार ने एक पग और आगे बढ़ाया और निर्भीकता से कहा - प्रभा, तुम मुझसे निष्ठुरता करती हो।

प्रभा ने धमकाकर कहा-तुम यहीं टाहरोगे तो मैं शोर मचा दूंगी।

राजकुमार ने उद्दण्डता से उत्तर दिया-इसका मुझे भय नहीं। मैं अपनी जान हथेली पर रखकर आया हूँ। आज दोनों में से एक का अन्त हो मायगा। या तो राणा रहेंगे या मैं रहूँगा। तुम मेरे साथ चलोगी?

प्रभा ने दृढ़ता से कहा - नहीं।

राजकुमार व्यंगभाव से बोला - क्यों, क्या चित्तौड़ का जल वायु पसन्द आ गया ?

प्रभा ने राजकुमार की ओर तिरस्कृत नेत्रों से देखकर कहा--संसार में अपनी सब आशाएँ पूरी नहीं होती। जिस तरह यहाँ मैं अपना जीवन काट रही हूँ,वह मैं ही जानती हूँ। किन्तु लोक निन्दा भी तो कोई चीज़ है। संसार की दृष्टि में चित्तौड़ की रानी हो चुकी। अब राणा जिस भाँति रखें उसी भाँति रहूँगी। मैं अन्त समय तक उनसे घृणा करूँगी, जलूँगी, कुढंगी। जब जलन न सही जायगी, विष खा लूगी या छाती में कटार मारकर मर जाऊँगी। लेकिन इसी भवन में। इस घर के बाहर कदापि पैर न रखेंगी।

राजकुमार के मन में सन्देह हुआ कि प्रभा पर राणा का वशीकरण मन्त्र चल गया। यह मुझसे छल कर रही है। प्रेम की जगह ईर्ष्या पैदा हुई। वह उस भाव से बोला - और यदि मैं यहाँ से उठा ले जाऊँ ? प्रभा के तीवर बदल गये। बोली - मैं तो वही करूँगी जो ऐसी अवस्था में क्षत्राणियाँ किया करती हैं। अपने गले में छूरी मार लूँगी, या तुम्हारे गले में।

राजकुमार एक पग और आगे बढ़ाकर यह कटु - वाक्य बोला - राणा के साथ तो तुम खुशी से चली आई। उस समय यह छुरी कहाँ गई थी। [ ५१ ]

प्रभा को यह शब्द शर-सा लगा। वह तिलमिलाकर बोली-उस समय इसी छुरी के एक वार से खून की नदी बहने लगती। मैं नहीं चाहती थी कि मेरे कारण मेरे भाई - बन्धुओं की जान जाय। इसके सिवाय मैं कुँवारी थी। मुझे अपनीमर्यादा के भंग होने का कोई भय न था। मैंने पातिव्रत नहीं लिया। कम-से कम संसार मुझे ऐसा समझता था। मैं अपनी दृष्टि में अब भी वही हूँ। किन्तु संसार की दृष्टि में कुछ और हो गई हूँ। लोक लाज ने मुझे राणा की आज्ञाकारिणी बना दिया है। पातिव्रत की बेड़ी ज़बरदस्ती मेरे पैरों में डाल दी गई है। अब इसकी रक्षा करना मेरा धर्म है। इसके विपरीत और कुछ करना क्षत्राणियों के नाम को कलंकित करना है। तुम मेरे घाव पर व्यर्थ नमक क्यों छिड़कते हो ? यह कौन - सी भल-मनसी है ? मेरे भाग्य में जो कुछ बदा है वह भोग रही हूँ। मुझे भोगने दो और तुमसे विनती करती हूँ कि शीघ्र ही यहाँ से चले जाओ।

राजकुमार एक पग और बढ़ाकर दुष्ट भाव से बोला-प्रभा, यहाँ ग्राकर तुम त्रिया चरित्र में निपुण हो गई। तुम मेरे साथ विश्वासघात करके अब धर्म की बाद ले रही हो। तुमने मेरे प्रणय को पैरों तले कुचल दिया और अब मर्यादा का बहाना ढूँढ़ रही हो। मै इन नेत्रों से राणा को तुम्हारे सौन्दर्य-पुष्प का भ्रमर बनते नहीं देख सकता। मेरी कामनाएँ मिट्टी में मिलती हैं तो तुम्हें लेकर बायँगी ! मेरा जीवन नष्ट होता है तो उसके पहिले तुम्हारे जीवन का भी अन्त होगा। तुम्हारी बेवफ़ाई का यही दण्ड है। बोलो, क्या निश्चय करती हो ? इस समय मेरे साथ चलती हो या नहीं। किले के बाहर मेरे आदमी खड़े हैं।

प्रभा ने निर्भयता से कहा - नहीं।

राजकुमार-सोच लो, नहीं तो पछताोगी।

प्रभा-ख़ूब सोच लिया है।

राजकुमार ने तलवार खींच ली और वह प्रभा की तरफ़ लपको। प्रभा भय से आँखें बन्द किये एक कदम पीछे हट गई। मालूम होता था उसे मूर्छा पाजायगी।

अकस्मात् राणा तलवार लिये वेग के साथ कमरे में दाखिल हुए। राजकुमार संभलकर खड़ा हो गया।

राणा ने सिंह के समान गरजकर कहा - दूर हट। क्षत्रिय स्त्रियों पर हाथ नहीं उठाते। [ ५२ ]

राजकुमार ने तनकर उत्तर दिया-लज्जाहीन स्त्रियों की यही सज़ा है।

राणा ने कहा-तुम्हाग वैरी तो मैं था। मेरे सामने आते क्यों लजाते थे?bज़रा मैं भी तुम्हारी तलवार की काट देखता।

राजकुमार ने ऐठकर राणा पर तलवार चलाई। शस्त्र-विद्या में राणा अति कुशल थे। वार ख़ाली देकर राजकुमार पर झपटे। इतने में प्रजा जो मूर्छित अवस्था में दीवार से चिमटी खड़ी थी, बिजली की तरह कौंधकर राजकुमार के सामने खड़ी हो गई। राणा वार कर चुके थे। तलवार का पूरा हाथ उसके कंधे पर पड़ा। रक्त की फुहार छूटने लगी। राणा ने एक ठण्डी साँस ली और उन्होंने तलवार हाथ से फेंककर गिरती हुई प्रभा को सँभाल लिया।

क्षणमात्र में प्रभा का मुखमण्डल वर्ण-हीन हो गया।आँखें बुझ गई। दीपक ठण्डा हो गया। मन्दार-कुमार ने भी तलवार फेंक दी और वह आँखों में आँसू भर प्रभा के सामने घुटने टेककर बैठ गया। दोनों प्रेमियों की आँखें सजलयी। पतिंगे बुझे हुए दीपक पर जान दे रहे थे।

प्रेम के रहस्य निगले हैं। अभी एक क्षण हुए राजकुमार प्रभा पर तलवार लेकर झपटा था। प्रभा किसी प्रकार उसके साथ चलने पर उद्यत न होती यो। लज्जा का भय, धर्म की बेड़ी, कर्तव्य की दीवार,रास्ता रोके खड़ी थी। परन्तु उसे तलवार के सामने देखकर उसने उसपर अपना प्राण अर्पण कर दिया। प्रीति की प्रथा निबाह दी। लेकिन अपने वचन के अनुसार उसी घर में।

हाँ,प्रेम के रहस्य निराले हैं। अभी एक क्षण पहले राजकुमार प्रभा पर तलवार लेकर झपटा था। उसके खून का प्यासा था। ईर्ष्या की अग्नि उसके हृदय में दहक रही थी। वह रधिर की धारा से शान्त हो गई। कुछ देर तक वह अचेत बैठा रोता रहा। फिर उठा और उसने तलवार उठाकर ज़ोर से अपनी छाती में चुभा ली। फिर रक्त की फुहार निकली। दोनों धाराएँ मिल गईं और उनमें कोई भेद न रहा।

प्रभा उसके साथ चलने पर राज़ी न थी। किन्तु वह प्रेम के बन्धन को तोड़ न सकी। दोनों उस घर ही से नहीं, संसार से एक साथ सिधारे।