पंचतन्त्र

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पंचतन्त्र
[आचार्य विष्णुशर्मा के लोक-प्रसिद्ध संस्कृत ग्रन्थ का हिन्दी रूपान्तर]

 


 

सत्यकाम विद्यालङ्कार

 


 

राजपाल एण्ड सन्ज़, कश्मीरी गेट, दिल्ली-६

[ प्रकाशक ]
 

१९५२



मूल्य
तीन रुपये आठ आना



 



युगान्तर प्रेस, मोरी गेट, दिल्ली

[ विषयसूची ]
 
विषय-सूची
विषय पृष्ठ
भूमिका ...
आमुख ...
प्रथम तन्त्र ... ११–९६
द्वितीय तन्त्र ... ९७–१३०
तृतीय तन्त्र ... १३१–१८६
चतुर्थ तन्त्र ... १८७–२२८
पंचम तन्त्र ... २२९–२८२
[ भूमिका ]

भूमिका

प्रत्येक देश के साहित्य में उस देश की लोक-कथाओं का स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। भारत का साहित्य जितना पुराना है, उतनी ही पुरानी इसकी लोक-कथायें हैं। इन कथाओं में भी श्री विष्णुशर्मा द्वारा प्रणीत लोक-कथाओं का स्थान सबसे ऊँचा है। इन कथाओं का पाँच भागों में संकलन किया गया है। इन पाँचों भागों के संग्रह का नाम ही 'पञ्चतन्त्र' है।

पञ्चतन्त्र की कथायें निरुद्देश्य कथायें नहीं हैं। उनमें भारतीय नीतिशास्त्र का निचोड़ है। प्रत्येक कथा नीति के किसी भाग का अवश्य प्रतिपादन करती है। प्रत्येक कथा का निश्चित् उद्देश्य है।

ये कथायें संसार भर में प्रसिद्ध हो चुकी हैं। विश्व की बीस भाषाओं में इनके अनुवाद हो चुके हैं। सबसे पहले इनका अनुवाद छठी शताब्दी में हुआ था। तब से अब तक यूरोप की हर भाषा में इनका अनुवाद हुआ है। अभी-अभी संसार की सबसे अधिक लोकप्रिय प्रकाशन संस्था "Pocket-Book Inc.," ने भी पंचतन्त्र के अंग्रेज़ी अनुवाद का सस्ता संस्करण प्रकाशित किया है। इस अनुवाद की लाखों प्रतियाँ बिक चुकी हैं।

पञ्चतन्त्र में भारत के सब नीति-शास्त्रों—मनु, शुक्र और चाणक्य के नीतिवाक्यों का सार कथारूप में दिया गया है। मन्द से मन्द बुद्धि वाला भी इन कथाओं से गहन से गहन नीति की शिक्षा ले सकता है।

आज से लगभग १६० वर्ष पूर्व इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध विद्वान् सर विलियम जोन्स ने पञ्चतन्त्र के विषय में लिखा था—

"Their (The Hindoos') Niti-Shastra, or System of Ethics, is yet preserved, and the fables of Vishnusharma, are the most beautiful, if not the most ancient collection of apologues in the world."

अर्थात् हिन्दुओं का नीति-शास्त्र अभी तक सुरक्षित है और विष्णु [  ]शर्मा की कहानियाँ संसार की सबसे पुरानी नहीं तो सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ अवश्य हैं।

प्रोफ़ेसर मूरले ने पञ्चतन्त्र व हितोपदेश की भूमिका लिखते हुए लिखा था—

"It comes to us from a far place and time, as a manual of worldly wisdom, inspired throughout by the religion of its place and time................every fable of Panchtantra can still be applied to human character; every maxim quoted from the wisemen of two or three thousand years ago, when parted from the local accidents of form, might find its time for being quoted now in church or at home."

"सारांश यह कि पंचतन्त्र के नीति-वाक्यों में सांसारिक ज्ञान का जो कोष है, वह समय और स्थान की दूरी होने पर भी सदैव उपयोगी है। पंचतन्त्र की प्रत्येक कहानी आज भी मानव-चरित्र का सच्चा चित्रण करती है और उसमें लिखे गये दो-तीन हज़ार वर्ष के पूर्व के नीतिवाक्य आज भी मानवमात्र का पथ-प्रदर्शन कर सकते हैं; आज भी उनका प्रवचन घरों व गिरजाघरों में हो सकता है।"

अन्य विदेशी विद्वानों ने भी पंचतन्त्र की कथाओं और उसके नीतिवाक्यों की मुक्तकंठ से प्रशंसा की है। फिर भी हमारे देश के लाखों शिक्षित व्यक्ति ऐसे हैं जिन्होंने 'पंचतंत्र' का नाम नहीं सुना है।

अपने साहित्य के प्रति यह उदासीनता अब अक्षम्य है। स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद अपने साहित्य को उचित आदर देना हमारा कर्त्तव्य हो गया है। पंचतन्त्र को भारतीय साहित्य-मन्दिर की प्रथम सीढ़ी कहा जा सकता है।

यह पुस्तक उसी पंचतन्त्र का सरल हिन्दी रूपान्तर है। इस पुस्तक में नीति-भाग को साररूप से कहकर कथा-भाग को मुख्यता दी गई है। कुछ कहानियों में विक्षेप होने के कारण उन्हें छोड़ भी दिया गया है।

—सत्यकाम विद्यालङ्कार

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पञ्चतन्त्र

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आमुख

दक्षिण देश के एक प्रान्त में महिलारोप्य नाम का नगर था। वहाँ एक महादानी, प्रतापी राजा अमरशक्ति रहता था। उसके अनन्त धन था; रत्नों की अपार राशि थी; किन्तु उसके पुत्र बिल्कुल जड़बुद्धि थे। तीनों पुत्रों—बहुशक्ति, उग्रशक्ति, अनन्तशक्ति—के होते हुए भी वह सुखी न था। तीनों अविनीत, उच्छृङ्खल और मूर्ख थे।

राजा ने अपने मन्त्रियों को बुलाकर पुत्रों को शिक्षा के संबंध में अपनी चिन्ता प्रकट की। राजा के राज्य में उस समय ५०० वृत्ति-भोगी शिक्षक थे। उनमें से एक भी ऐसा नहीं था जो राजपुत्रों को उचित शिक्षा दे सकता। अन्त में राजा की चिन्ता को [ १० ]दूर करने के लिए सुमति नाम के मन्त्री ने सकलशास्त्र-पारंगत आचार्य विष्णुशर्मा को बुलाकर राजपुत्रों का शिक्षक नियुक्त करने की सलाह दी।

राजा ने विष्णुशर्मा को बुलाकर कहा कि यदि आप इन पुत्रों को शीघ्र ही राजनीतिज्ञ बनादेंगे तो मैं आपको १०० गाँव इनाम में दूँगा। विष्णुशर्मा ने हँसकर उत्तर दिया—"महाराज! मैं अपनी विद्या को बेचता नहीं हूँ। इनाम की मुझे इच्छा नहीं है। आपने आदर से बुलाकर आदेश दिया है इसलिये ६ महीने में ही मैं आपके पुत्रों को राजनीतिज्ञ बनादूँगा। यदि मैं इसमें सफल न हुआ तो अपना नाम बदल डालूंगा।"

आचार्य का आश्वासन पाकर राजा ने अपने पुत्रों का शिक्षणभार उनपर डाल दिया और निश्चिन्त हो गया। विष्णुशर्मा ने उनकी शिक्षा के लिये अनेक कथायें बनाईं। उन कथाओं द्वारा ही उन्हें राजनीति और व्यवहार-नीति की शिक्षा दी। उन कथाओं के संग्रह का नाम ही 'पञ्चतन्त्र' है। पाँच प्रकरणों में उनका विभाग होने से उसे 'पञ्चतन्त्र' नाम दिया गया।

राजपुत्र इन कथाओं को सुनकर ६ महीने में ही पूरे राजनीतिज्ञ बन गये। उन पाँच प्रकरणों के नाम हैं: १—मित्रभेद, २—मित्रसम्प्राप्ति, ३—काकोलूकीयम्, ४—लब्धप्रणाशम् और ५—अपरीक्षितकारकम्। प्रस्तुत पुस्तक में पाँचों प्रकरण दिये गये हैं।

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।