संचालित होते हैं। हमें यहाँ यह बात भूल न जानी चाहिए कि उस समय भारत के हिंदू समाज में भी इसी प्रकार का एक मुख्य तत्त्व काम कर रहा था। वह तत्त्व आध्यात्मिक विचार और विश्वास का है। जो इतिहास लेखक इस तत्त्व पर ध्यान नहीं देता और केवल घटनाओं की सूची तैयार करने का प्रयत्न करता है, वह मानों चिड़ियों को छोड़कर उनके पर ही गिनता है। इस बात में बहुत कुछ संदेह है कि राष्ट्रीय विचारों और भावनाओं का पूरा पूरा ध्यान रखे बिना वह वास्तविक घटनाओं को भी ठीक तरह से समझ सकता है या नहीं। ६३८. अब प्रश्न यह है कि वह कौन सा राष्ट्रीय धर्म और विश्वास था जिसे लेकर भार-शिव लोग अपना उद्देश्य सिद्ध करने निकले थे। हमें तो उस समय सब जगह शिव ही शिव दिखाई देते हैं। हमें भार-शिवों के सभी कार्यों के संचालक शिव ही दिखाई देते हैं और वाकाटकों के समय के भारत में भी सर्वत्र उन्हीं का राज्य दिखाई देता है। जिन काव्य ग्रंथों में साधारणतः प्रेम-चर्चा होती है और होनी चाहिए, उन दिनों उन काव्यग्रंथों में भी भग- वान शिव की ही चर्चा होती थी। हिंदू राज्य-निर्माताओं की राष्ट्रीय सेवा भी उसी सर्वप्रधान शक्ति को समर्पित होती थी जिसके हाथ में मनुष्यों का सारा भाग्य रहता है। उस समय राष्ट्र की जैसी प्रवृत्तियां और जैसे भाव थे, उन्हीं के अनुरूप ईश्वर का एक विशिष्ट रूप उन लोगों ने चुन लिया था और उसी रूप को उन्होंने अपनी सारी सेवा समर्पित कर दी थी। उस समय उन्होंने जो राजनीतिक सेवा की थी, वह सब संहारकर्ता भगवान् शिब को अर्पित की थी। भार-शिवों ने उस समय शिव का आवाहन किया था और शिव ने गंगा-तट के मैदानों में वहाँ के निवासियों के द्वारा अपना तांडव नृत्य दिखलाना प्रारंभ कर दिया था। उस
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