( ११६) दक्षिण कोशल, आंध्र, पश्चिमी मालवा और उत्तरी हैदराबाद (६७३ पाद-टिप्पणी) संमिलित था। और भार-शिवों से उत्तरा- धिकार में उन्होंने जो कुछ पाया था, वह इससे अलग था। इस प्रकार उनके प्रत्यक्ष शासन में बहुत बड़ा राज्य था जो समुद्रगुप्त के शासन-काल में कम हो गया था, पर उसके बादवाले शासन- काल में वह सब उन्हें फिर से वापस मिल गया था। बल्कि बहुत कुछ संभावना तो इसी बात की जान पड़ती है कि वह सब अंश उन्हें स्वयं समुद्रगुप्त के शासन-काल में ही वापस मिल गया था, क्योंकि कदंब का जो नया राज्य स्थापित हुआ था, उसके साथ पृथिवीपेण प्रथम ने युद्ध किया था और वहाँ के राजा को अपना अधीनस्थ बना लिया था (१९८२, २०३)। ६ ५३. जब तक पुराणों की सहायता न ली जाय और भार-शिव साम्राज्य के अधीनस्थ भारत का इतिहास न देखा जाय, तब तक उनके इतिहास के अधिकांश का कुछ पता ही नहीं चलता इन्हीं दोनों की सहायता से अब हम यहाँ वाकाटक इतिहास की बातें बतलाते हैं। वास्तव में यह भारत का प्रायः अर्द्ध शताब्दी का इतिहास है जिसे हमें वाकाटक काल कहना पड़ता है। एक तो काल के विचार से इसका महत्त्व बहुत अधिक है और दूसरे इसलिए इसका महत्त्व है कि इससे पारवर्ती साम्राज्य-काल अर्थात् गुप्त साम्राज्य के उदय और प्रगति से संबंध रखनेवाली बहुत सी बातों का पता चलता है। सीमा तथा विस्तार की दृष्टि से भी और संस्कृति की दृष्टि से भी गुप्तों ने केवल उसी साम्राज्य पर अधिकार किया था जो प्रवरसेन प्रथम स्थापित कर चुका था। यदि पहले से वाकाटक साम्राज्य न होता तो फिर गुप्त साम्राज्य भी न होता।
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