( १५० ) शैलीवाले सिक्कों के लिये चार वर्ष का समय रखें तो हम सन् ३४४ ई० तक पहुँच जाते हैं जो समुद्रगुप्त के लिये विकट और संकट का समय था । चंद्रगुप्त प्रथम की उच्चाकांक्षाओं को फलवती होने से रोकने में, जान पड़ता है कि, प्रवरसेन का भी हाथ था और कोट वंश के जिस राजकुमार ने भागकर वाकाटक साम्राज्य की पंपानगरीमें आश्रय लिया था, उसे तथा कोटवंश को फिर से राज्यारूढ़ कराने में भी संभवतः उसने बहुत कुछ सहायता की थी। इसीलिये जब वाकाटक सम्राट् प्रवरसेन की मृत्यु हो गई, तब समुद्रगुप्त को मानों फिर से मगध पर अधिकार करने और पूर्ण रूप से स्वतंत्र होने का सबसे अच्छा और उपयुक्त अवसर मिला। और तथोक्त महाराजाधिराज चंद्रगुप्त प्रथम बराबर मगध पर फिर से अधिकार करने और स्वतंत्र होने की कामना रखता था, पर उसकी वह कामना पूरी नहीं हो सकी थी। पर समुद्रगुप्त ने उसकी उस कामना को पूरा करने का अवसर पाकर उससे लाभ उठाया। यहाँ हम इस बात की ओर भी पाठकों का ध्यान आकृष्ट कर देना चाहते हैं कि समुद्रगुप्त के व्याघ्र-शैली- वाले जो सिक्के हैं, उनसे यह सूचित नहीं होता कि लिच्छवियों के साथ भी उसका किसी प्रकार का संबंध था। उन सिक्कों पर न तो लिच्छवियों की सिंहवाहिनी देवी की ही आकृति है और न लिच्छवियों का नाम ही है। पर साथ ही समुद्रगुप्त अपने शिलालेखों में यह बात बराबर दोहराता है कि मैं लिच्छवियों का दौहित्र हूँ । राष्ट्रीय संघटन की दृष्टि से इसका महत्त्व इस बात में है कि समुद्रगुप्त भी उसी प्रकार स्वतंत्र होना चाहता था, जिस प्रकार लिच्छवी लोग किसी समय स्वतंत्र थे और वह लिच्छवियों के विशाल राज्य का भी उत्तराधिकारी बनना चाहता था अथवा उस पर अधिकार करना चाहता था। उसके पुत्र चंद्रगुप्त
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