पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/१९७

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( १६७ ) इस संरक्षण की आवश्यकता केवल हिंदू सम्राट प्रवरसेन प्रथम के भय से ही थी। ६८०. जब समुद्रगुप्त क्षेत्र में आया और उसने रुद्रसेन को परास्त किया, तब उसने वाकाटकों का सारा साम्राज्य, जिसमें उत्तरवाला माद्रकों का राज्य भी संमिलित वाकाटक और पूर्वी पंजाब था, एक ही हल्ले में अपने अधिकार में कर लिया। माद्रकों ने भी तब बिना युद्ध किए चुपचाप उसकी अधीनता स्वीकृत कर ली थी और इससे यह बात सूचित होती है कि वे लोग भी वाकाटकों के साम्राज्य के अंतर्गत और अंग ही थे। जालंधर में यादवों के जो नए राजवंश का उदय हुआ था, उसका कारण यही था कि पूर्वी पंजाब में भी वाकाटक साम्राज्य था। इसी बात से यह पता भी चल जाता है कि परवर्ती भार-शिव काल और वाकाटक काल में माद्रक देश और पूर्वी भारत के साथ क्यों घनिष्ठ संबंध था और आदान-प्रदान आदि क्यों होता था। जो गुप्त लोग सन् २५०-२७५ ई० के लगभग बिहार में पहुंचे थे वे, जैसा कि हम आगे चलकर (६ ११२ ) बतलावेंगे, मद्र देश से ही आए थे। मद्र देश के साथ जो यह संबंध था, उसी के कारण इतनी दूर पाटलिपुत्र में भी चंद्रगुप्त प्रथम के समय कुशन शैली के सिक्के ढलते थे जिससे मुद्राशास्त्र के एक ज्ञाता (मि० एलन) इतने चक्कर में पड़ गए हैं कि वे यह मानने के लिये तैयार ही नहीं हैं कि चंद्रगुप्त प्रथम के सिक्के स्वयं उनके बनवाए हुए ही हैं; बल्कि वे इस परिणाम पर पहुँचे हैं कि ये सिक्के उसके बाद उसके लड़के ने पंजाब पर विजय प्राप्त करने के उपरांत बनवाए थे। १. एलन-कृत Catalogue of the Coins of the Gupta Dynasties, पृ. ६४ और उसके आगे। 1