( १७३ ) विभक्त था, उसी की समता का ध्यान रखते हुए हम यह अभि- प्राय भी निकाल सकते हैं कि प्रवरसेन प्रथम ने भी अपना दिग्वि- जय चार भागों में विभक्त किया था और उनमें से एक दक्षिण की ओर हुआ होगा। यद्यपि सम्राट् प्रवरसेन के समय का लिखा हुआ उसके दिग्विजय का कोई वर्णन हम लोगों को अभी तक नहीं मिला है और तामिल साहित्य में आर्यों और वाडुको अर्थात् उत्तर से आनेवाले आक्रमणकारियों का जो वर्णन दिया है, वह बहुत ही अनिश्चित है, तो भी यह बात निश्चित ही जान पड़ती है कि प्रारंभिक वाकाटक लोग बालाघाट के उस पार आंध्र प्रदेश में जा पहुंचे थे और उस पर अधिकार करके तामिल देश की रिया- सतों के पड़ोसी बन गए थे; और उन पर दिग्विजय करना इस- लिये सहज हो गया था कि तामिलगण की सबसे बड़ी रियासत चोल की राजधानी कांची पर अधिकार कर लिया गया था। सारे झगड़े का निपटारा तो सातवाहनों के उत्तराधिकारी इक्ष्वाकुओं के साथ हो ही गया था, जिन्होंने केवल नष्ट सम्मान और भारत की रक्षा करनेवाले सम्राटों का निंदित नाम ही हस्तांतरित किया था, और तब प्रवरसेन प्रथम उचित रूप से यह घोषणा कर सकता था कि मैं सारे भारत का सम्राट हूँ। ८४. भार-शिवों ने तो गंगा और यमुना को ( इनके आस- पास के प्रदेश को) स्वतंत्र कर दिया था, परंतु कुशनों को भारत से बाहर निकालने का काम प्रबल प्रवरसेन वाकाटकों की कृतियाँ प्रथम के ही हिस्से पड़ा था जो एक बहुत बड़े योद्धा का पुत्र भी था और स्वयं भी एक बहुत बड़ा योद्धा था। उसके समय में कुशन राजा काबुल का राजा हो गया था, परंतु चोनी लेखकों के अनुसार
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