( १६०) प्रदेश भी थे और अधीनस्थ तथा करद राजाओं के राज्य भी। उसने बहुत अधिक वीरता और कार्य-कुशलता दिखलाई और वाकाटक साम्राज्य की फिर से स्थापना की। स्कंदगुप्त की मृत्यु के बाद से ही वाकाटक लोग पूर्ण रूप से स्वतंत्र हो गए। जान पड़ता है कि उस समय उन लोगों ने फिर से अपना साम्राज्य स्थापित करने की अच्छी योग्यता का परिचय दिया था और जिस समय भारतीय साम्राज्य में विद्रोह मचा हुआ था और अनेक राजनीतिक परिवर्तन हो रहे थे, उस समय वे लोग दृढ़तापूर्वक जमे रहे और बरावर अपना बल बढ़ाते गए । नरेंद्रसेन, पृथिवीपेण द्वितीय और हरिपेण ये तीनों ही राजा बहुत ही योग्य और सफल शासक थे। हरिपेण के शासन का अंत सन् ५२० ई. के लगभग हुआ था। इसके बाद का वाकाटकों का इतिहास नष्ट हो गया है। ६६५. सन् ५०० ई० के लगभग हरिपेण को अपने वंश के कुछ पुराने करद और अधीनस्थ राज्यों को फिर से अपने वश में करना पड़ा था जिनमें त्रैकूट भी सम्मि- दूसरे वाकाटक साम्राज्य लित थे। यह बात अजंतावाले शिलालेख का विस्तार से और त्रैकूटकों के शिलालेखों से प्रकट होती है। सन् ४५५ ई० में अर्थात् जब कि पुष्यमित्रों का स्कंदगुप्र के साथ युद्ध हुआ था-कूटक दह्र- सेन ने एक बार अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी, परंतु- सेन ने उसे फिर से अपने अधीन कर लिया था, ( देखो ६६२)। पर हमें पता चलता है कि उसके पुत्र व्याघ्रसेन ने सन् ४६० ई० के लगभग फिर से अपने सिक्के चलाने प्रारंभ कर दिए थे; और इसी के उपरांत वंश का लोप हो गया; और यह बात हरिषेण के
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