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पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/२२१

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( १६१) शासन-काल में हुई थी। सन् ४६४ ई० के बाद उनके वंश का कोई चिह्न नहीं पाया जाता' । यहाँ यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि त्रैकूटक लोग, जैसा कि हम अभी आगे चलकर बतला- वेंगे, वाकाटक संवत का व्यवहार करते थे। जान पड़ता है कि यह करद राजवंश हरिपेण के शासन-काल में ही अथवा उसके कुछ बाद सदा के लिये मिटा दिया गया था। ६६६. कोंकण पर, जिसके अंतर्गत त्रिकूट था, वाकाटकों का कितना प्रबल प्रभुत्व था, इसका पता एक शिलालेख से चलता है जो रायल एशियाटिक सोसाइटी के जनरल, खंड ४, पृ० २८२ में प्रकाशित हुआ है, और जिसमें एक गढ़ का उल्लेख है। इस गढ़ का नाम वाकाटकों के राजनीतिक निवास-स्थान किलकिला के अनुकरण पर किलगिला बतलाया गया है जो उस शिलालेख के खोदे जाने के समय (सन् १८५८ ई०) कोंकण की राजधानी था। बरार और खांदेश के वाकाटक प्रांत के पश्चिमी सिरे पर त्रिकूट अवस्थित था। हरिपेण ने कुंतल और अवन्ती सहित लाट देश को अपने अधीन किया था और ये दोनों प्रदेश अपरांत के दोनों सिरों पर थे। कलिंग, कोस और आंध्र के हाथ में श्रा जाने से वाकाटक साम्राज्य त्रिकूट और पश्चिमी समुद्र से लेकर पूर्वी समुद्र तक हो गया था। ये सब प्रदेश पहले भी वाकाटक साम्राज्य के अंतर्गत रह चके थे। लाटदेश वाकाटक राज्य के १. व्याघ्रसेन के परदीवाले दानपत्र २४१ वें वर्ष ( सन् ४८९- ४९० ई.) के हैं और कन्हेरीवाले दानपत्र २४५ वें वर्ष के हैं । (एपि- ग्राफिया इंडिका, ११, पृ० २१६) Cave Temples of. W. I. पृ० ५८।