(२०६) के लिये लिच्छवियों को यथेष्ट अवसर मिल गया होगा। हम यह भी मान सकते हैं कि उस शताब्दी के अंत में जब कनिष्क का वाइसराय या उपराज वनस्पर आगे बढ़ने लगा था, तब पाटलिपुत्र पर से लिच्छवियों का अधिकार उठ गया होगा। ६११०. जब लिच्छवी लोग लगभग एक सौ वर्षों तक पाट- लिपुत्र को अपने अधिकार में रख चुके थे, तब भार-शिवों के द्वारा गंगा की तराई के स्वतंत्र कर दिए जाने कोट का क्षत्रिय राजवंश पर लिच्छवियों ने अवश्य ही अपने मन में समझा होगा कि हम मगध पर फिर से अपना राज्य स्थापित करने के अधिकारी हैं। परंतु जब भार- शिवों ने फिर से देश का राजनीतिक संगठन किया था, तब हम देखते हैं कि मगध पर आर्य-धर्म को न माननेवाले लिच्छ- वियों का अधिकार नहीं था, बल्कि एक सनातनी क्षत्रिय- वंश का अधिकार था। कौमुदी-महोत्सव में इस वंश को "मगध-कुल" कहा गया है और समुद्रगुप्त ने इसे "कोट-कुल" कहा है। जान पड़ता है कि इस वंश के संस्थापक का नाम कोट था। इस कोट का जो वंशज समुद्रगुप्त का समकालीन था और इलाहाबादवाले शिलालेख के आरंभिक अंश में से जिसका नाम मिट गया है, वह कोट-कुलज कहलाता है। मगध के इन राजाओं के नामों के अंत में "वर्मन्" होता था। अवश्य ही इस वंश की स्थापना सन् २००-२५० ई० के लगभग हुई होगी। १. देखो ऊपर पहला भाग (६३३)। २. देखो Bhandarkar Annals १६३०, खंड १२, पृ० ५० में और उसके श्रागे मेरा लिखा हुश्रा Historical Data in १४
पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/२३९
दिखावट