(२७०) लेख में यह बतलाया गया है कि दैवपुत्र वर्ग ने और दूसरे राजाओं ने किस रूप में अधीनता स्वीकृत की थी, और जिस क्रम से अधीनता स्वीकृत करने वालों के नाम गिनाए गए हैं, उससे सिद्ध होता है कि शाहानुशाही ने स्वयं ही समुद्रगुप्त की सेवा में उपस्थित होकर अधीनता स्वीकृत की थी। इस वर्ग में सबसे पहला नाम दैवपुत्र शाही शाहानुशाही का ही है। इनमें से दैवपुत्र और शाही ये दोनों ही शब्द शाहानुशाही के विशेषण हैं और इन विशेषणों की आवश्यकता कदाचित् यह दिखलाने के लिये हुई होगी कि यह शाहानुशाही कुशन सम्राट है और वह सासानी सम्राट नहीं है जो उस समय गुप्त साम्राज्य का बिलकुल पड़ोसी था। अधीनता स्वीकृत करने का पहला प्रकार तो स्वयं सेवा में उपस्थित होना था जिसे "आत्म-निवेदन" कहते थे, और दूसरे प्रकार में दो बातें होती थीं। या तो अविवाहिता स्त्रियाँ सेवा में भेंट स्वरूप भेजी जाती थीं जिसे "उपायन" कहते थे और या अपनी कन्याओं का विवाह उस राजा या सम्राट के साथ कर दिया जाता था जिसकी अधीनता स्वीकृत की जाती थी और इसे "कन्या-दान" कहते थे । अधीनता स्वीकृत करने का तीसरा प्रकार "याचना' कहलाता था और इसमें दो बातें होती थीं। इस याचना में यह कहा जाता था कि हमें अपने राज्य में गरुड़ध्वजवाले सिक्के प्रचलित करने की आज्ञा दी जाय; अथवा हमें अपने देश में शासन करने का अधिकार दिया जाय । इसे "गरु- त्मदंक-स्व-विषय-भुक्ति-शासन-याचना" कहते थे। इसी के दो विभाग थे। एक में तो गरुडध्वजवाले सिक्कों (गरुत्मदंक-भुक्ति) का व्यवहार करने की प्रार्थना (शासन-याचना ) की जाती थी। और दूसरा रूप यह था कि अपने राज्य के शासन (स्वविषय- भुक्ति) के अधिकार की याचना की जाती थी। पश्चिमी पंजाब
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