(२८१) वे किस वर्ण में समझे जाते थे। प्रायः सभी आरंभिक आचार्य एक स्वर से शकों को शूद्र ही कहते हैं और नन्हें द्विज आर्यों के साथ खान-पान करने का अधिकार नहीं था। ये शासक शक लोग अपनी राजनीतिक और सामाजिक नीति के कारण राज- नीतिक विरोधी और शत्रु समझे जाते थे और इसीलिये इन्हें भागवत में शुद्रों में भी निम्नतम कोटि का कहा गया है। और इस प्रकार वे अंत्यजों के समान माने गए हैं। और इसका कारण भी स्वयं भागवत में ही दिया हुआ है। वे लोग सनातन वैदिक रीति- नीति की उपेक्षा तो करते थे ही, पर साथ ही वे सामाजिक अत्याचार भी करते थे। उनकी प्रजा कुशनों की रीति-नीति का पालन करने के लिये प्रोत्साहित अथवा विवश की जाती थी। वे लोग यह चाहते थे कि हमारी प्रजा हमारे ही आचार-शास्त्र का अनुकरण करे और हमारे ही धार्मिक सिद्धांत माने । इस संबंध में कहा गया है-"तन्नाथस्ते जनपदास तच्छीला चारवादिनः।" राजनीतिक क्षेत्र में वे निरंतर आग्रहपूर्वक वही काम करते थे जो काम न करने के लिये शक क्षत्रप रुद्रदामन से शपथपूर्वक प्रतिज्ञा कराई गई थी। जब रुद्रदामन् राजा निर्वाचित हुआ था, तब उसने शपथपूर्वक इस बात की प्रतिज्ञा की थी कि हिंदू-धर्म-शास्त्रों में बतलाए हुए करो के अतिरिक्त मैं और कोई कर नहीं लगा- १. इस संबंध में महाभारत में जो कुछ उल्लेख है, उसका विवेचन मैंने अपने "बड़ौदा-लेक्चर" ( १६३१ ) में किया है। महाभारत, शान्तिपर्व ६५, मनुस्मृति १०,४४ । पाणिनि पर पतंजलि का महाभाष्य २ । ४ १०॥
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