पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/३३

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( ६ ) इसके अतिरिक्त कुछ और भी चिह्न हैं जिनका विवेचन उनके उपयुक्त स्थानों पर किया जायगा। ये चिह्न स्मृति-स्तंभों, स्थान- नामों और सिक्कों आदि के रूप में हैं और उनसे यह सिद्ध होता है कि भार शिवा का मूल स्थान कौशाम्बी और काशी के मध्य में था। ६६. प्रवरसेन प्रथम से पहले अथवा उसके समय तक भार-शिवों ने दस अश्वमेध यज्ञ किए थे और स्वयं प्रवरसेन प्रथम ने भी अश्वमेध यज्ञ किए थे; इसलिये भार-शिवों का प्रारंभ भार-शिवों का अस्तित्व कम से कम एक शताब्द पहले से चला आता होगा। अतः यहाँ हम मोटे हिसाब से यह कह सकते हैं कि उनका आरंभ लगभग १५० ई० में हुआ था। ७. भार-शिवों ने मुख्य कार्य यह किया था कि उन्होंने एक नई परंपरा की नींव डाली थी या कम से कम एक पुरानी परंपरा का पुनरुद्धार किया था और वह भार-शिवों का कार्य परंपरा हिंदू स्वतंत्रता तथा प्रधान राज्या- धिकार की थी। हमारे राष्ट्रीय धर्मशास्त्र 'मानवधर्मशास्त्र' में कहा है कि आर्यावर्त आर्यों का ईश्वर-प्रदत्त देश है और म्लेच्छों को उसकी सीमाओं के उस पार तथा बाहर रहना चाहिए । इस देश के पवित्र विधान के अनुसार यह आर्यों का राजनीतिक तथा सार्वराष्ट्रीय जन्मसिद्ध अधिकार' था। इस अधिकार की रक्षा और स्थापना आवश्यक थी । भार-शिवों ने जो "वाकाटकानाम्" अंकित है और जिसके नीचे उनका राजकीय "चक्र- चिह्न' है । इस ग्रंथ के अंत में परिशिष्ट देखिए । १ इस विचार के पोषक उद्धरण $३८ में देखिए ।