( ३२७) राजा शिवस्कंद वर्मन् ने भी इसी प्रकार के यज्ञ (अग्निष्टोम, वाजपेय, अश्वमेध' ) किए थे और वाकाटक सम्राट प्रवरसेन प्रथम ने भी और भी अधिक ठाट-बाट से ये सब यज्ञ किए थे। इस प्रकार यहाँ आकर उत्तर भारत और दक्षिण भारत के इतिहास परस्पर संबद्ध हो जाते हैं। ६ १७१. इन लोगों का वंश उत्तर से आये हुए अच्छे क्षत्रियों का था । प्राचीन इक्ष्वाकुओं की भाँति ये लोग भी अपनी मौसेरी, और ममेरी आदि बहनों के साथ विवाह करते थे। जान पड़ता है कि जिस समय सातवाहन लोग उत्तर में संयुक्त प्रांत तथा बिहार तक पहुंच गए थे और जिस समय वे साम्राज्य के अधिकारी थे संभवतः उसी समय ये लोग उत्तर भारत से चलकर दक्षिण की ओर गए थे। श्रीपर्वत के इक्ष्वाकुओं में चाटमूल प्रथम ऐसा पहला राजा था, जिसने अपने पूर्ण स्वाधीन शासक होने की घोषणा की थी, और यह घोषणा उसने संभवतः अपने शासन के अंतिम दिनों में की थी। परंतु यह एक ध्यान रखने की बात है कि शिलालेखों में उसका नाम बिना किसी उपाधि के आया है। केवल भटिदेवा के शिलालेख में उसका नाम उपाधि सहित है, जिसमें उसकी सामंत वाली महाराज की उपाधि दी गई १. एपि० इ० खंड १, पृ० ५. शिवस्कंद वर्मन् के पिता के नाम के साथ जो विशेषण लगाए गए हैं, वे इक्ष्वाकु शैली के हैं जिससे सूचित होता है कि इक्ष्वाकुओं के ठीक बाद ही उसे राजकीय अधिकार थे । यथा- ( इक्ष्वाकु ) हिरण-कोटि-गो-सतसहस-हल-सत-सहसदायिस । (पल्लव) अनेक-हिरोग-कोढ़ी-गो-हल-सतसहस-प्पदायिनो । प्राप्त हुए
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